Saturday, May 30, 2015

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की आधारशिला पर खड़ा होता भारत


डॉ. सौरभ मालवीय                             
         "राष्ट्र सर्वोपरि" यह कहते नहीं बल्कि उसे जीते है प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी। पिछले कुछ दशकों में भारतीय जनमानस का मनोबल जिस प्रकार से टूटा था और अब मानों उसमें उड़ान का एक नया पंख लग गया है और अपने देश ही नहीं दुनिया भर में भारत का सीना चौड़ा करके शक्ति संपन्न राष्ट्रों एवं पड़ोसी देशों से कन्धे से कन्धा मिलाकर कदमताल करने लगा है भारत।
  किसी भी देश,समाज और राष्ट्र के विकास की प्रक्रिया के आधारभूत तत्व मानवता, राष्ट्र,समुदाय,परिवार और व्यक्ति ही केंद्र में होता है। जिससे वहां के लोग आपसी भाईचारे से अपनी विकास की नैया को आगे बढ़ाते हैं। अपने एक साल के कार्यकाल में मोदी इसी मूल तत्व के साथ आगे बढ़ रहे हैं।  एक वर्ष पहले जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने पूर्ण बहुमत से केंद्र में सरकार बनाई तब इनके सामने तमाम चुनौतियां खड़ी थीं और जन अपेक्षाएं मोदी के सामने सर -माथे पे।  ऐसे में प्रधानमंत्री और उनके मंत्रिपरिषद के सहयोगियों के लिए चुनौतियों का सामना करते हुए विकास के पहिये को आगे बढ़ाना आसान राह नही थी।  परन्तु मात्र 365 दिन में ही मोदी के कार्ययोजना का आधार बताता है कि उनके पास दूर दृष्टि और स्पष्ट दृष्टि है। तभी तो पिछले एक साल से समाचार- पत्रों में भ्रष्टाचार,महंगाई ,सरकार की ढुलमुल निर्णय,मंत्रियों का मनमर्जी ,भाई -भतीजावाद ,परिवारवाद अब नहीं दिखता।
  किसी भी सरकार और देश के लिए उसकी छवि महत्त्वपूर्ण होती है मोदी इस बात को बखूबी समझते हैं। इसलिए दुनिया भर के तमाम देशो में जाकर भारत को याचक नहीं बल्कि शक्तिशाली और समर्थ देश के नाते स्थापित कर रहे हैं।  नरेंद्र मोदी जिस पार्टी के प्रतिनिधि के रूप में आज प्रधानमंत्री बने हैं, उस भारतीय जनता पार्टी का मूल विचार एकात्म मानव दर्शन एवं सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है और दीनदयाल उपाध्याय भी इसी विचार को सत्ता द्वारा समाज के प्रत्येक तबके तक पहुचाने की बात करते थे।  समाज के सामने उपस्थित चुनौतियों के समाधान के लिए सरकार अलग-अलग समाधान खोजने की जगह एक योजनाबद्ध तरीके से काम करे।  लोगों के जीवन की गुणवत्ता,आधारभूत संरचना और सेवाओं में सुधार सामूहिक रूप से हो। प्रधानमंत्री इसी योजना के साथ गरीबों ,वंचितों और पीछे छूट गए लोगों के लिए प्रतिबद्व है और वे अंत्योदय के सिद्धांत पर कार्य करते दिख रहे हैं।
        भारत में आजादी के बाद शब्दों की विलासिता का जबर्दस्त दौर कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों ने चलाया। इन्होंने देश में तत्कालीन सत्ताधारियों को छल-कपट से अपने घेरे में ले लिया। परिणामस्वरूप राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत जीवनशैली का मार्ग निरन्तर अवरूद्ध होता गया। अब अवरूद्ध मार्ग खुलने लगा है। संस्कृति से उपजा संस्कार बोलने लगा है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का आधार हमारी युगों पुरानी संस्कृति है, जो सदियों से चली आ रही है। यह सांस्कृतिक एकता है, जो किसी भी बन्धन से अधिक मजबूत और टिकाऊ है, जो किसी देश में लोगों को एकजुट करने में सक्षम है और जिसमें इस देश को एक राष्ट्र के सूत्र में बांध रखा है। भारत की संस्कृति भारत की धरती की उपज है। उसकी चेतना की देन है। साधना की पूंजी है। उसकी एकता, एकात्मता, विशालता, समन्वय धरती से निकला है। भारत में आसेतु-हिमालय एक संस्कृति है । उससे भारतीय राष्ट्र जीवन प्रेरित हुआ है। अनादिकाल से यहां का समाज अनेक सम्प्रदायों को उत्पन्न करके भी एक ही मूल से जीवन रस ग्रहण करता आया है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के एजेंडे को नरेंद्र मोदी इसी रूप में पूरा कर रहे है।
              पिछले पांच दशकों में भारत के राजनीतिक नेत्तृत्व के पास दुनिया में अपना सामर्थ्य बताने के लिए कुछ भी नही था। सच तो ये है की इन राजनीतिक दुष्चक्रों के कारण हम अपनी अहिंसा को अपनी कायरता की ढ़ाल बनाकर जी रहे थे। आज पहली बार विश्व की महाशक्तियों ने समझा है कि भारत की अहिंसा इसके सामर्थ्य से निकलती है। जो भारत को 60 वर्षो में पहली बार मिली है। सवा सौ  करोड़ भारतीयों के स्वाभिमान का भारत अब खड़ा हो चुका है और यह आत्मविश्वास ही सबसे बड़ी पूंजी है।  तभी तो इस पूंजी का शंखनाद न्यूयार्क के मैडिसन स्क्वायर गार्डन से लेकर सिडनी ,विजिंग और काठमांडू तक अपने समर्थ भारत की कहानी से गूंज रहा है। 365 दिन के काम का आधार मजबूत इरादों को पूरा करता दिख रहा है। नरेंद्र मोदी को अपने इरादे मजबूत कर के भारत के लिए और परिश्रम करने की जरुरत है।  

Friday, May 8, 2015

सर्वे भवंतु सुखिनः को साकार करेगा एकात्म मानवदर्शन


डॉ. सौरभ मालवीय
परमपावन भारत भूमि अजन्मा है यह देव निर्मित है और देवताओं के द्वारा इस धरा पर  विभिन्न अवसरों पर अलग अलग प्रकार की शक्तियां अवतरित होती रहती हैं।  जो देव निर्मित भू -भाग को अपनी ऊर्जा से  समाज का मार्गदर्शन करते हैं।  ऐसे महापुरूषों की अनंत श्रृंखला भारत में विराजमान है।
 श्रीकृष्ण की भूमि मथुरा के गाँव नगला चन्द्रभान के निवासी पंडित हरिराम उपाध्याय एक ख्यातिनाम ज्योतिषी थे।  उनके कुल में आचार और विचार संपन्न लोगों की एक आदरणीय परम्परा थी।  पंडित हरिराम उपाध्याय की समाज में इतनी प्रतिष्ठा थी की उनकी मृत्यु पर पूरे तहसील में समाज के लोगों ने अपना व्यापर और कार्य बंद करके श्रद्धांजलि अर्पित की थी। काल के कराल का उच्छेद करके विपरीत परिस्थितियों में ही तो परमात्मा जनमते हैं। इसी परम्परा में आश्विन महीने के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को जब पूरा जगत भगवान शिव की स्तुति में लीन था तो 25 सितम्बर 1916 श्री दीनदयाल जी का जन्म हुआ। पंडित हरिराम के घर में संयुक्त परम्परा थी।  अतएव बालपन से ही दीनदयाल जी के चित्त में सामूहिक जीवन शैली का विकास हुआ।  काल चक्र घूमता रहा और दीनदयाल जी की माँ फिर, पिता जी दिवंगत हो गए।  उनका पालन -पोषण ननिहाल में हुआ जो राजस्थान में था ।  पूत के पांव पालने में ही दिखने लगते हैं, दीनदयाल की प्रखर मेधा के धनी थे। हाईस्कूल और बारहवीं में राजस्थान प्रदेश में सर्वोच्च अंक प्राप्त किये। इसी बीच उनके नाना,नानी ,मामी और छोटा भाई भी संसार छोड़ कर चले गए। ऐसी भयंकर परिस्थितियों में दीनदयाल जी दृढ़ संकल्प के साथ निरंतर आगे बढ़ते रहे। कानपुर के सनातन धर्म कालेज में गणित विषय लेकर बी.ए प्रथम श्रेणी में सफल हुए। ई.सी.एस.की परीक्षा में चयनित होने के बाद भी नौकरी नहीं की। आगे की पढ़ाई के लिए प्रयाग चले आये। नियति ने कुछ और ही तय किया था यही पर उनका संपर्क माननीय भाऊराव देवरस से हुआ और वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक बन गए और फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।  दीनदयाल जी को बालपन से ही रामायण और महाभारत  के लगभग सभी प्रसंग कंठस्थ थे उपनिषदों के अथाह ज्ञान सागर में वे रमे रहते थे। उनके चित्त के विकास का मूल श्लोक ही "गृद्धः कस्यस्विद्धनम् " था। उन्होंने कानपुर में पढ़ते समय ही सबसे कम अंक पाने वाले विद्यार्थियों का एक संगठन बनाया था, जिसका नाम "जीरो एसोशिएसन" रखा था और अपने पढ़ाई से समय निकाल कर वे उन विद्यार्थियों की सहायता करते थे। उनमें से अनेक विद्यार्थी सफल हो कर बड़े उंचाई पर पहुंचे।
    उनके मन में जो मानवता के प्रति विचार थे उसे गति 1920 में प्रकाशित पण्डित बद्रीशाह कुलधारिया की पुस्तक ‘दैशिक शास्त्र’ से मिली। दैशिक शास्त्र की भावभूमि तो दीनदयाल जी के मन में पहले से ही थी और एक नया विचार उनके मन में उदित हुआ कि सम्पूर्ण विश्व के विचारों का अध्ययन कर के मानवता के लिए एक शास्वत जीवन प्रणाली दी जाए, यूँ तो ये शास्वत जीवन प्रणाली भारत में चिरकाल से ही विद्यमान है, परन्तु इसकी व्याख्या आधुनिकता के परिप्रेक्ष्य में करने लिए उन्होंने करीब करीब सवा सौ विदेशी विचारकों का गहन अध्ययन किया। सामान्यतः पाश्चात्य दर्शन के नाम पर हम लोग केवल यूरोप ,ब्रिटेन,अमेरिका को ही पूरा मान लेते हैं और इसके बाहर  के विचारकों  पर हमारी दृष्टि ही नही जाती दीनदयाल जी ने इस भ्रामक मिथक को तोड़ा वे ब्राजील के लुइपेरिया ,मेक्सिको के जुस्टोपिया और कविनोवारेड़ा पेरू के मरियनोकानेर्जो और आलेयांड्रोडस्तुवा ,चिली के लास्टरिया ,क्यूबा के अनरेकिक तोसेवारोना आदि अनेक विचारकों को सांगोपांग अध्ययन किया। रेन्डेकार्ड,स्पिनोजा,जानलाँक ,चीन जेम्स रुसो अनेक मुख्यधारा के विद्वान थे।सुकरात ,प्लेटो ,अरस्तु ,अगस्टीन,ओरिजेन,अरेजिना ,ओखैम ,काम्पार्ज ,वरनेट ,जेल;जेलर आर्लिक आदि को दीनदयाल जी ने खंगाल डाला इन सभी का निहितार्थ यह पाये कि यह सभी विचारधाराएं अधिकतम ढाई हजार साल पुरानी है और खण्ड सः सोचती है।  कोई भी  खण्ड सः सोच का परिणाम शास्वत और मंगलकारी नहीं हो सकता है।  इस प्रकार के खण्ड सः सोच पर पिछले दो सौ वर्षों में बहुत बार विश्व को एकत्र करने का प्रयास किया गया और अनेक नामो से किया गया। जिसमें इंटनेशनल कम्युनलिजम,इंटरनेशनल सेक्टरिजम और इंटरनेशनल ह्युम्नलिजम प्रमुख रहे।  पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के समक्ष ये सभी प्रयास और इसके परिणाम थे। वह इस बात का भी अध्ययन किये थे कि इन प्रयासों में वैचारिक त्रुटि क्या रह गई है और इन प्रयासों के वैचारिक निहितार्थ क्या है ? अंत में वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सोच की संकीर्णता और अधूरापन ही इसका मुख्य कारण है और इस विचार के परिणाम की विफलता के पीछे चित्त का तालमेल नहीं होना भी है।  इस निदान हेतु वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि जब तक समग्र मानव जाति की चेतना से एकीभूति नहीं हुआ जाये तब तक इस तरह के सभी प्रयास नक्कारखाने में तूती की आवाज ही सिद्ध होंगे।  यही से प्रारम्भ हो गया उनका मानव मन को जोड़ने का अद्भुत प्रयोग उन्होंने सहज ही अनुभव कर लिया की भारतीय मनीषा में इस तरह के प्रयोग की अपर सम्भावनाएं है।
   एकात्म मानव दर्शन प्राचीन अवधारणा है। यह सांस्कृतिक चेतना है। इस विचार दर्शन में राष्ट्र की संकल्पना स्पष्ट है कि राष्ट्र वही होगा, जहां संस्कृति होगी। जहां संस्कृति विहीन स्थिति होगी, वहां राष्ट्र की कल्पना भी बेमानी है। भारत में आजादी के बाद शब्दों की विलासिता का जबरदस्त दौर कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों ने चलाया। इन्होंने देश में तत्कालीन सत्ताधारियों को छल-कपट से अपने घेरे में ले लिया। परिणामस्वरूप राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत जीवनशैली का मार्ग निरन्तर अवरूद्ध होता गया। अब अवरूद्ध मार्ग खुलने लगा है। संस्कृति से उपजा संस्कार बोलने लगा है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का आधार हमारी युगों पुरानी संस्कृति है, जो सदियों से चली आ रही है। यह सांस्कृतिक एकता है, जो किसी भी बन्धन से अधिक मजबूत और टिकाऊ है, जो किसी देश में लोगों को एकजुट करने में सक्षम है और जिसमें इस देश को एक राष्ट्र के सूत्र में बांध रखा है। भारत की संस्कृति भारत की धरती की उपज है। उसकी चेतना की देन है। साधना की पूंजी है। उसकी एकता, एकात्मता, विशालता, समन्वय धरती से निकला है। भारत में आसेतु-हिमालय एक संस्कृति है । उससे भारतीय राष्ट्र जीवन प्रेरित हुआ है। अनादिकाल से यहां का समाज अनेक सम्प्रदायों को उत्पन्न करके भी एक ही मूल से जीवन रस ग्रहण करता आया है यही एकात्म मानव दर्शन की दृष्टि है।
    राष्ट्र को आक्रांत करने वाली समस्याओं की अलग -अलग समाधान खोजने की जगह एक ऐसे दर्शन की बात एकात्म मानव दर्शन में है जहां एकात्म दृष्टि से कार्य करने की संकल्पना है।  शरीर ,मन और बुद्धि प्रत्येक इंसान की आत्मा पर बल देकर राजनीति के आध्यात्मीकरण की दृष्टि एकात्म मानव दर्शन में दिखती है। पंडित दीनदयाल जी का मुख्य विचार उनकी भारतीयता ,धर्म ,राज्य और अंत्योदय की अवधारणा से स्पष्ट है। भारतीय से उनका आशय था वह भारतीय संस्कृति जो पश्चिमी विचारों के विपरीत एकात्म संपूर्णता में जीवन को देखती है। उनके अनुसार भारतीयता राजनीति के माध्यम से नहीं बल्कि संस्कृति से स्वयं को प्रकट कर सकती है।  किसी भी समस्या को खंड -खंड रूप में न देखें,क्योंकि खंड -खंड पाखंड है और वहीं एकात्म दर्शन संपूर्णता से परिपूर्ण है। दीनदयाल जी का चिंतन था कि वसुधैव कुटुम्बकम के इस मूल सिद्धांत को हम अपनाते तो पूरा विश्व एक ही सूत्र में जुड़ा हुआ मिलता। एक दूसरे के पूरक के रूप में काम करते और सर्वे भवन्तु सुखिनः की अवधारणा को परिपूर्ण करते। 

Thursday, May 7, 2015

प्रवक्ता सम्मान 2014


प्रवक्ता डॊट कॊम द्वारा डॉ. सौरभ मालवीय को सम्मानित किया गया

मानवतावादी रचनाकार विष्णु प्रभाकर


डॉ. सौरभ मालवीय
कालजयी जीवनी आवारा मसीहा के रचियता सुप्रसिद्ध साहित्यकार विष्णु प्रभाकर कहते थे कि एक साहित्यकार को केवल यह नहीं सोचना चाहिए कि उसे क्या लिखना है, बल्कि इस पर भी गंभीरता से विचार करना चाहिए कि क्या नहीं लिखना है.  वह अपने लिखने के बारे में कहते थे कि प्रत्येक मनुष्य दूसरे के प्रति उत्तरदायी है, यही सबसे बड़ा बंधन है और यह प्रेम का बंधन है. उन्होंने लेखन को नए आयाम प्रदान किए.  उनके लेखन में विविधता है, जीवन का मर्म है, मानवीय संवेदनाएं हैं. अपनी साहित्यिक शक्तियों के बारे में उनका कहना था, मेरे साहित्य की प्रेरक शक्ति मनुष्य है. अपनी समस्त महानता और हीनता के साथ, अनेक कारणों से मेरा जीवन मनुष्य के विविध रूपों से एकाकार होता रहा है और उसका प्रभाव मेरे चिंतन पर पड़ता है. कालांतर में वही भावना मेरे साहित्य की शक्ति बनी. त्रासदी में से ही मेरे साहित्य का जन्म हुआ. वह मानतावादी थे. वह राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के दर्शन और सिद्धांतों से प्रभावित थे. वह कहते थे, सहअस्तित्व में मेरा पूर्ण विश्वास है. यही सहअस्तित्व मानवता का आधार है. इसीलिए गांधी जी की अहिंसा में मेरी पूरी आस्था है. मैं मूलत: मानवतावादी हूं अर्थात उत्कृष्ट मानवता की खोज ही मेरा लक्ष्य है. वर्गहीन अहिंसक समाज किसी दिन स्थापित हो सकेगा या नहीं, लेकिन मैं मानता हूं कि उसकी स्थापना के बिना मानवता का कल्याण नहीं है. उनकी रचनाओं में लोक जीवन की सुगंध है. उदाहरण देखिए, यह कैसी ख़ुशबू है? क्या यह ईख के खेतों से तो नहीं आ रही?  हां, यह वही से आ रही. यह भीनी-भीनी गंध और वह, उधर मकई के खेतों से आने वाली मीठी-मीठी महक.
विष्णु प्रभाकर का जन्म 21 जून, 1912 को उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर ज़िले के गांव मीरापुर में हुआ. उनका असली नाम विष्णु दयाल था. उनका पारिवारिक वातावरण धार्मिक था, जिसका उनके मन पर गहरा प्रभाव पड़ा. उनके पिता दुर्गा प्रसाद धार्मिक विचारों वाले व्यक्ति थे. उनकी माता महादेवी शिक्षित महिला थीं, जो कुपर्थाओं का विरोध करती थीं. उन्होंने पर्दाप्रथा का भी घोर विरोध किया था. विष्णु प्रभाकर की पत्नी सुशीला भी धार्मिक विचारधारा वाली महिला थीं. विष्णु प्रभाकर का बाल्यकाल हरियाणा में गुज़र. उन्होंने वर्ष 1929 में हिसार के चंदूलाल एंग्लो-वैदिक हाई स्कूल से दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की. तत्पश्चात् परिवार की आर्थक तंगी के कारण उन्होंने पढ़ाई के साथ-साथ नौकरी भी कर ली. वह चतुर्थ वर्गीय कर्मचारी के तौर पर काम करते थे. उस समय उन्हें प्रतिमाह 18 रुपये मिलते थे. उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से भूषण, प्राज्ञ, विशारद, प्रभाकर आदि की हिंदी-संस्कृत परीक्षाएं उत्तीर्ण कीं. उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से ही स्नातक भी किया. उनकी पहली कहानी 1931 में हिंदी मिलाप में प्रकाशित हुई. इस कहानी को बहुत सराहा गया. परिणामस्वरूप उन्होंने लेखन को ही अपने जीवन का अभिन्न अंग बना लिया. पहले वह प्रेमबंधु और विष्णु नाम से लेखन करते थे, परंतु बाद में उन्होंने अपने नाम के साथ प्रभाकर शब्द जोड़ लिया और विष्णु प्रभाकर नाम से लिखने लगे. हिसार में रहते हुए उन्होंने नाटक मंडली में भी काम किया. देश के स्वतंत्र होने के बाद वह दिल्ली में बस गए और आजीवन दिल्ली में ही रहे. उन्होंने 1955 से 1957 तक दिल्ली आकाशवाणी में नाट्य निर्देशक के तौर पर कार्य किया. इसके बाद उन्होंने लेखन को ही अपनी जीविका बना लिया.
विष्णु प्रभाकर ने कहानी, उपन्यास, नाटक, जीवनी, निबंध, एकांकी, यात्रा-वृत्तांत और कविता आदि प्रमुख विधाओं में लगभग सौ कृतियां लिखीं, परंतु आवारा मसीहा उनकी पहचान का पर्याय बन गई. उनके कहानी संग्रहों में आदि और अंत, एक आसमान के नीचे, अधूरी कहानी, संघर्ष के बाद, धरती अब भी धूम रही है, मेरा वतन, खिलौने,  कौन जीता कौन हारा, तपोवन की कहानियां, पाप का घड़ा, मोती किसके सम्मिलत हैं.  बाल कथा संग्रहों में क्षमादान, गजनंदन लाल के कारनामे, घमंड का फल, दो मित्र, सुनो कहानी, हीरे की पहचान सम्मिलत हैं. उनके उपन्यासों में ढलती रात, स्वप्नमयी, अर्द्धनारीश्वर, धरती अब भी घूम रही है, पाप का घड़ा, होरी, कोई तो, निशिकांत, तट के बंधन तथा स्वराज्य की कहानी सम्मिलत हैं. उनके नाटकों में सत्ता के आर-पार, हत्या के बाद, नवप्रभात, डॉक्टर, प्रकाश और परछाइयां, ‘बारह एकांकी, अब और नहीं, टूट्ते परिवेश, गांधार की भिक्षुणी और अशोक सम्मिलत हैं. उन्होंने जीवनियां भी लिखी हैं, जिनमें आवारा मसीहा और अमर शहीद भगत सिंह सम्मिलत हैं. उन्होंने यात्रा वृतांत भी लिखे हैं. इनमें ज्योतिपुंज हिमालय, जमुना गंगा के नैहर में, हंसते निर्झर दहकती भट्ठी सम्मिलत हैं. उन्होंने संस्मरण हमसफ़र मिलते रहे भी लिखा है.  उन्होंने कविताएं भी लिखी हैं. उन्होंने अपनी आत्मकथा भी लिखी, जो कई भागों में प्रकाशित हुई.
विष्णु प्रभाकर की पहचान कहानीकार के रूप में रही है, परंतु उन्होंने कविताएं भी लिखी हैं. उनका एक कविता संग्रह चलता चला जाऊंगा नाम से प्रकाशित हुआ है. उनकी कविताओं में जीवन दर्शन ही नहीं, मानव संवेदनाओं का मर्म है.
कितनी सुंदर थी
वह नन्हीं-सी चिड़िया
कितनी मादकता थी
कंठ में उसके
जो लांघ कर सीमाएं सारी
कर देती थी आप्लावित
विस्तार को विराट के
कहते हैं
वह मौन हो गई है-
पर उसका संगीत तो
और भी कर रहा है गुंजरित-
तन-मन को
दिगदिगंत को
इसीलिए कहा है
महाजनों ने कि
मौन ही मुखर है,
कि वामन ही विराट है
उनकी उत्कृष्ट रचनाओं के लिए उन्हें अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया. उनकी आवारा मसीहा सर्वाधिक चर्चित जीवनी है, जिसके लिए उन्हें पाब्लो नेरूदा सम्मान, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार सदृश अनेक देशी-विदेशी पुरस्कार मिले. उन्हें उपन्यास अर्द्धनारीश्वर के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया. प्रसिद्ध नाटक सत्ता के आर-पार के लिए उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा मूर्तिदेवी पुरस्कार मिला तथा हिंदी अकादमी दिल्ली द्वारा शलाका सम्मान प्रदान किया गया. उन्हें उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का गांधी पुरस्कार तथा राजभाषा विभाग बिहार के डॉ. राजेंन्द्र प्रसाद शिखर सम्मान से भी सम्मानित किया गया. उन्हें पद्मभूषण पुरस्कार भी प्रदान किया गया, किंतु  राष्ट्रपति भवन में उचित व्यवहार न होने के विरोध स्वरूप उन्होंने पद्म भूषण की उपाधि लौटाने की घोषणा की.
यशस्वी साहित्यकार विष्णु प्रभाकर 11 अप्रैल, 2009 को इस संसार चले गए. संसार से जाते-जाते भी वह अपना शरीर दान कर गए. उन्होंने अपनी वसीयत में अपने संपूर्ण अंगदान करने की इच्छा व्यक्त की थी. इसीलिए उनका अंतिम संस्कार नहीं किया जा सका, बल्कि उनके पार्थिव शरीर को अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान को सौंप दिया गया. विष्णु प्रभाकर ऐसे मानवतावादी व्यक्तित्व के धनी थे.


अल्पसंख्यकवाद से मुक्ति पर विचार हो

  - डॉ. सौरभ मालवीय      भारत एक विशाल देश है। यहां विभिन्न समुदाय के लोग निवास करते हैं। उनकी भिन्न-भिन्न संस्कृतियां हैं , परन्तु सबकी...