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Saturday, September 13, 2025

मातृभाषा पर गर्व करें

 

डॉ. सौरभ मालवीय 
मातृभाषा का अर्थ है मातृ की भाषा अर्थात वह भाषा जो बालक अपनी माता से सीखता है। बाल्यकाल से ही मातृभाषा में बोलने और सुनने के कारण व्यक्ति अपनी भाषा में निपुण हो जाता है। मातृभाषा किसी भी व्यक्ति की पहचान होती है। मातृभाषा का जीवन में अत्यंत महत्व होता है। कोई भी व्यक्ति अपनी मातृभाषा में अपने विचारों को सरलता से व्यक्त करने में सक्षम होता है, क्योंकि व्यक्ति सदैव अपनी मातृभाषा में ही विचार करता है। इसलिए उसे अपनी मातृभाषा में कोई भी विषय समझने में भी सुगमता होती है, जबकि किसी अन्य भाषा में उसे कठिनाई का सामना करना पड़ता है। मातृभाषा व्यक्ति के सर्वांगीण विकास की आधारशिला है।
 
मातृभाषा व्यक्ति को उसकी संस्कृति से जोड़ने में सक्षम होती है। मातृभाषा द्वारा व्यक्ति को अपनी मूल संस्कृति एवं संस्कारों का ज्ञान होता है। मातृभाषा द्वारा व्यक्ति अपने समाज से भी जुड़ा रहता है। उदाहरण के लिए यदि किसी की मातृभाषा भोजपुरी है, तो वह व्यक्ति उन लोगों से मिलकर अपनत्व का अनुभव करेगा, जो भोजपुरी बोलते हैं। लोग अपने दैनिक जीवन में अपनी मातृभाषा ही बोलते हैं। मातृभाषा के लिए कहा गया है कि
कोस-कोस पर पानी बदले, तीन कोस पर वाणी अर्थात पीने वाला पानी का स्वाद एक कोस की दूरी पर बदल जाता है। साथ ही मातृभाषा तीन कोस की दूरी पर बदलती है। लोग बचपन में स्थानीय भाषा में कहानियां-कथाएं सुनते हैं, जो उन्हें जीवन में सदैव याद रहती हैं। स्थानीय बोलचाल व्यक्ति को स्थान विशेष से जोड़कर रखती है। मातृभाषा का चिंतन हमें हमारे मूल्यों से जोड़ता है। मातृभाषा व्यक्ति के मानसिक विकास के लिए बहुत आवश्यक है। मातृभाषा में ही विचारों का प्रवाह हो सकता है, जो किसी अन्य भाषा में संभव नहीं है।  
 
भारत ही नहीं, अपितु विश्वभर के विद्वान भी मातृभाषा में शिक्षा प्रदान किए जाने को महत्व देते हैं। शिक्षा शास्त्रियों और मनोवैज्ञानिकों का मत है कि मातृभाषा में सोचने से, विचार करने से, चिंतन मनन करने से बालकों में बुद्धि तीक्ष्ण होकर कार्य करती है। संवाद की सुगम भाषा मातृभाषा है। मातृभाषा व्यक्ति के आत्मिक लगाव, विश्वास मूल्य और संबंध मूल्य को मजबूत करती है। सर सीवी रमन के अनुसार- “हमें विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा में देनी चाहिए, अन्यथा विज्ञान एक छद्म कुलीनता और अहंकार भरी गतिविधि बनकर रह जाएगा। और ऐसे में विज्ञान के क्षेत्र में आम लोग कार्य नहीं कर पाएंगे।“ भारतेंदु हरिश्चंद्र के अनुसार- “निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल, बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटन न हिय के सूल।“
अर्थात मातृभाषा की उन्नति के बिना किसी भी समाज की उन्नति संभव नहीं है तथा अपनी भाषा के ज्ञान के बिना मन की पीड़ा को दूर करना भी कठिन है। सुप्रसिद्ध साहित्यकार पंडित गिरधर शर्मा के अनुसार- “विचारों का परिपक्व होना भी तभी संभव होता है, जब शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो।“ राष्ट्रपिता महात्मा गांधी मातृभाषा के महत्त्व से भली-भांति परिचित थे। वे कहते थे कि  "मनुष्य के मानसिक विकास के लिए मातृभाषा उतनी ही जरूरी है, जितना की बच्चे के शारीरिक विकास के लिए माता का दूध। बालक पहला पाठ अपनी माता से ही पढ़ता हैं, इसलिए उसके मानसिक विकास के लिए उसके ऊपर मातृभाषा के अतिरिक्त कोई दूसरी भाषा लादना मैं मातृभूमि के विरुद्ध पाप समझता हूं।"  नेल्सन मंडेला के अनुसार- “यदि आप किसी से ऐसी भाषा में बात करते हैं जो उसे समझ में आती है तो वह उसके मस्तिष्क तक पहुंचती है, परन्तु यदि आप उससे उसकी मातृभाषा में बात करते हैं तो बात उसके हृदय तक पहुंचती है।“ ब्रिघम यंग के अनुसार “हमें अपने बच्चों को पहले उनकी मातृभाषा में समुचित शिक्षा देनी चाहिए, उसके पश्चात ही उन्हें उच्च शिक्षा की किसी भी शाखा में जाना चाहिए।“
 
विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट से भी यह सिद्ध होता है कि अपनी मातृभाषा में चिकित्सा एवं विज्ञान आदि विषयों में पढ़ाई करवाने वाले देशों में चिकित्सा एवं स्वास्थ्य व्यवस्था बहुत अच्छी स्थिति में है। देश के पड़ोसी देश चीन, रूस, जर्मनी, फ्रांस एवं जापान आदि देश अपनी मातृभाषा में शिक्षा प्रदान कर रहे हैं। ये सभी देश लगभग प्रत्येक क्षेत्र में अग्रणी हैं एवं उन्नति के शिखर को छू रहे हैं। इन सभी देशों ने अपनी मातृभाषा में शिक्षा प्रदान करके ही सफलता प्राप्त की है। यदि स्वतंत्रता के पश्चात हमारे देश में भी क्षेत्रीय भाषाओं में चिकित्सा, विज्ञान एवं तकनीकी शिक्षा प्रदान की जाती तो आज भारत भी उन्नति के शिखर पर होता। परन्तु अब भी समय है।
 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी देश की क्षेत्रीय भाषाओं को प्रोत्साहित कर रहे हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में स्थानीय भाषाओं को अत्यंत महत्त्व दिया जा रहा है। देश में हिंदी में चिकित्सा की पढ़ाई प्रारंभ होना भी इसी दिशा में उठाया हुआ एक कदम है। आशा है कि इससे देश में बड़ा सकारात्मक परिवर्तन आएगा। लाखों छात्र अपनी भाषा में अध्ययन कर सकेंगे तथा उनके लिए कई नए अवसरों के द्वार भी खुलेंगे।  
 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं कि मां और मातृभाषा मिलकर जीवन को मजबूती प्रदान करते हैं तथा कोई भी इंसान अपनी मां एवं मातृभाषा को न छोड़ सकता है और न ही इनके बिना उन्नति कर सकता है। मैं तो मातृभाषा के लिए यही कहूंगा कि जैसे हमारे जीवन को हमारी मां गढ़ती है, वैसे ही मातृभाषा भी हमारे जीवन को गढ़ती है। मां और मातृभाषा दोनों मिलकर जीवन के आधार को मजबूत बनाते हैं, चिरंजीव बनाते हैं। जैसे हम अपनी मां को नहीं छोड़ सकते, वैसे ही अपनी मातृभाषा को भी नहीं छोड़ सकते। मुझे बरसों पहले अमेरिका में एक बार एक तेलुगू परिवार में जाना हुआ और मुझे एक बहुत खुशी का दृश्य वहां देखने को मिला। उन्होंने मुझे बताया कि हम लोगों ने परिवार में नियम बनाया है कि कितना ही काम क्यों न हो, लेकिन अगर हम शहर के बाहर नहीं हैं तो परिवार के सभी सदस्य भोजन की मेज पर बैठकर तेलुगू भाषा बोलेंगे। जो बच्चे वहां पैदा हुए थे, उनके लिए भी ये नियम था। अपनी मातृभाषा के प्रति ये प्रेम देखकर इस परिवार से मैं बहुत प्रभावित हुआ था। प्रधानमंत्री ने कहा कि आजादी के 75 साल बाद भी कुछ लोग ऐसे द्वन्द्व में हैं जिसके कारण उन्हें अपनी भाषा, अपने पहनावे, अपने खान-पान को लेकर संकोच होता है, जबकि विश्व में कहीं और ऐसा नहीं है। मातृभाषा को गर्व के साथ बोला जाना चाहिए और हमारा देश तो भाषाओं के मामले में इतना समृद्ध है कि उसकी तुलना ही नहीं हो सकती। हमारी भाषाओं की सबसे बड़ी खूबसूरती ये है कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक, कच्छ से कोहिमा तक सैंकड़ों भाषाएं, हजारों बोलियां एक दूसरे से अलग लेकिन एक दूसरे में रची-बसी हैं। हमारी भाषा अनेक, लेकिन भाव एक है।
भाषा, केवल अभिव्यक्ति का ही माध्यम नहीं, बल्कि भाषा समाज की संस्कृति और विरासत को भी सहेजने का काम करती है। हमारे यहां भाषा की अपनी खूबियां हैं, मातृभाषा का अपना विज्ञान है। इस विज्ञान को समझते हुए ही राष्ट्रीय शिक्षा नीति में स्थानीय भाषा में पढ़ाई पर जोर दिया गया है।
 
आज देखने को मिल रहा है कि बच्चे अपनी मातृभाषा में गिनती नहीं करते, अपितु अंग्रेजी में गणना करते हैं। अंग्रेजी का ज्ञान भी प्राप्त करना चाहिए, क्योंकि यह भी समय की मांग है। किन्तु अपनी मातृभाषा को तुच्छ समझना उचित नहीं है। माता-पिता भी बच्चों को अपनी मातृभाषा की बजाय अंग्रेजी में बात करते हुए देखकर प्रसन्न होते हैं। वे अपने बच्चों को इसके लिए प्रोत्साहित करते हैं। ऐसा करने से बच्चे भी अंग्रेजी को उच्च मानने लगते हैं। उन्हें अपनी मातृभाषा तुच्छ लगने लगती है। इस प्रकार वे अपनी संस्कृति से भी दूर होने लगते हैं। उन्हें अंग्रेजी के साथ-साथ पश्चिमी सभ्यता अच्छी लगने लगती है। वे स्वयं को श्रेष्ठ समझने लगते हैं तथा उन्हें अपनी लोकभाषा अर्थात मातृभाषा में बात करने वाले लोग तुच्छ लगने लगते हैं।
 
हमारे विशाल भारत देश में अनेक भाषाएं हैं। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार देश में 121 भाषाएं हैं तथा 1369 मातृभाषा हैं। वर्ष 2001 की जनगणना की तुलना में वर्ष 2011 में हिंदी को अपनी मातृभाषा की बताने वाले लोगों की संख्या में वृद्धि हुई है। वर्ष 2001 में 43.03 प्रतिशत लोगों ने हिंदी को अपनी मातृभाषा बताया था, जबकि वर्ष 2011 में 43.6 प्रतिशत लोगों ने हिंदी को अपनी मातृभाषा बताया। देश की सूचीबद्ध भाषाओं में संस्कृत सबसे कम बोली जाने वाली भाषा बनी हुई है। मात्र 24821 लोगों ने संस्कृत को अपनी मातृभाषा बताया। गैर सूचीबद्ध भाषाओं में अंग्रेजी को लगभग 2.6 लाख लोगों ने अपनी मातृभाषा बताया। इसमें लगभग 1.60 लाख लोग महाराष्ट्र के हैं।
 
मातृभाषा के महत्त्व के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए प्रतिवर्ष 21 फरवरी को अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन ने सर्वप्रथम 17 नवंबर 1999 को प्रतिवर्ष 21 फरवरी को मातृभाषा दिवस मनाने की घोषणा की थी। उसके पश्चात वर्ष 2000 से विश्वभर में प्रतिवर्ष 21 फरवरी को अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन के अनुसार मातृभाषा को बढ़ावा देने से न केवल सांस्कृतिक विविधता और बहुभाषी शिक्षा को बढ़ावा मिलता है, अपितु जातीय परंपराओं और भाषा विज्ञान पर भी अधिक ध्यान पैदा होता है। इसके अतिरिक्त मान्यता समझ, संवाद और सहिष्णुता के आधार पर एकता को बढ़ावा देती है।
(लेखक- मीडिया शिक्षक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)

Monday, July 28, 2025

विद्या भारती के स्कूलों में हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत के साथ एक क्षेत्रीय भाषा की होगी पढ़ाई


जागरण संवाददाता, प्रयागराज। विद्या भारती मूल्य आधारित और समावेशी शिक्षा से राष्ट्र निर्माण में लगा है। संस्कृति युक्त शिक्षा प्रदान करने के लक्ष्य से संगठन देशभर के 684 जिलों में 12118 विद्यालयों का संचालन कर रहा है। 8,000 से अधिक अनौपचारिक शिक्षा केंद्र भी हैं। यहां वंचित वर्ग को निश्शुल्क शिक्षा दी जा रही है। वर्तमान में 35.33 लाख से अधिक छात्र-छात्राएं विद्या भारती के स्कूलों में हैं। नई शिक्षा नीति के अनुसार पाठ्यक्रम को अपनाया जा रहा है। इन स्कूलों में हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी के साथ एक क्षेत्रीय भाषा पढ़ाने की तैयारी है। वर्तमान सत्र से इस दिशा में प्रयास शुरू हो रहा है। यह जानकारी संगठन के क्षेत्रीय मंत्री डा. सौरभ मालवीय ने दी।

ज्वाला देवी सरस्वती विद्या मंदिर इंटर कालेज में आयोजित पत्रकार वार्ता में उन्होंने बताया कि ज्वाला देवी व रानी रेवती देवी सरस्वती विद्या मंदिर इंटर कालेज में इसी सत्र से गुजरानी भाषा पढ़ाई जाएगी। अन्य जिलों में उपलब्ध शिक्षकों व अभिभावकों की अपेक्षा के अनुरूप क्षेत्रीय भाषा का चयन किया जाएगा।

विद्या भारती के 10 लाख 30 हजार से अधिक पूर्व छात्र पोर्टल पर पंजीकृत हैं, जिससे यह विश्व का सबसे बड़ा पूर्व छात्र संगठन बन गया है। संबद्ध विद्यालयों में एआई सक्षम लर्निंग प्लेटफार्म, डिजिटल क्लासरूम की उपलब्धता है। 507 से अधिक विद्यालयों में अटल टिंकरिंग लैब की व्यवस्था है। संस्था का नैतिक मानदंड भारतीय दर्शन पर केंद्रित है।

प्रदेश निरीक्षक शेषधर द्विवेदी ने बताया कि विजन 2047 व पंच परिवर्तन पर संस्था कार्य कर रही है। सामाजिक समरसता जाति, वर्ग और क्षेत्रीय भेदभाव से ऊपर उठकर सभी के लिए शिक्षा सुलभ कराना हम सब का लक्ष्य है। प्रधानाचार्य विक्रब बहादुर सिंह परिहार ने कहा, कुटुंब प्रबोधन परिवार शिक्षा केंद्र की इकाई है। उनके प्रबोधन से भारतीय परिवार को मूल्यों, भावनात्मक स्थिरता और नागरिक शिक्षा का केंद्र बनाना आवश्यक है। पर्यावरण संरक्षण, नागरिक कर्तव्य बोध, स्व भारतीय भाषाओं, संस्कृति और लोक ज्ञान के माध्यम से आत्म चेतना का विकास विद्यालयों की विशेषता है।

भारतीय ज्ञान परंपरा को आधुनिक शिक्षा से जोड़ना आवश्यककाशी प्रांत की प्रचार विभाग की एक दिवसीय कार्यशाला भी हुई। इसमें संगठन के क्षेत्रीय मंत्री डा. सौरभ मालवीय ने कहा, शिक्षा ज्ञानार्जन या रोजगार से आगे बढ़कर नैतिक मूल्य, जीवनोपयोगी गुण के साथ भारतीय संस्कृति के आदर्श को लेकर चलने वाली होनी चाहिए। प्राचीन भारतीय ज्ञान परंपरा को आधुनिक शिक्षा के साथ जोड़ना होगा। हम सब इसी दिशा में कार्य कर रहे हैं। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे शेषघर द्विवेदी ने कहा, प्रचार विभाग महत्वपूर्ण इकाई है। आप सब समाज से जीवंत संवाद करें। विशिष्ट अतिथि योगेंद्र ने सोशल मीडिया व अन्य वेबसाइट से जुड़ने पर बल दिया। डा. किरनलता डंगवाल ने भी प्रचार विभाग के कार्यों को रेखांकित किया। इस दौरान डा.राम मनोहर, संदीप गुप्त सहित विभिन्न जिलों से आए प्रचार विभाग के सदस्य मौजूद रहे।

Thursday, July 10, 2025

अपनी जड़ों की ओर लौटने का प्रयास


डॉ. सौरभ मालवीय 
हमारी प्राचीन भारतीय सभ्यता विश्व की सर्वाधिक गौरवशाली एवं समृद्ध सभ्यताओं में एक है। विश्व के अनेक देशों में जब बर्बरता का युग था, उस समय भी हमारी भारतीय सभ्यता अपने शीर्ष पर थी। इसका सबसे प्रमुख कारण है शिक्षा। हमारे पूर्वजों ने शिक्षा के क्षेत्र में अत्यंत उन्नति की। शिक्षा के माध्यम से ही जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विकास हुआ। इस पवित्र भारत भूमि पर वेद-पुराणों की रचना हुई तथा यह सब शिक्षा के कारण ही संभव हो सका। मनुष्य के लिए जितने आवश्यक वायु, जल एवं भोजन है, उतनी ही आवश्यक शिक्षा भी है। शिक्षा के बिना मनुष्य पशु समान है।
विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनम्।
विद्या भोगकरी यशः सुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः।
विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतम्।
विद्या राजसु पुज्यते न हि धनं विद्याविहीनः पशुः।।
अर्थात विद्या मनुष्य का विशेष रूप है, विद्या गुप्त धन है। वह भोग की दाता, यश की दाता एवं उपकारी है। विद्या गुरुओं की गुरु है। विद्या विदेश में बंधु है। विद्या देवता है। राजाओं के मध्य विद्या की पूजा होती है, धन की नहीं। विद्या विहीन मनुष्य पशु है।
निसंदेह किसी भी सभ्य समाज के लिए शिक्षा अति आवश्यक है। शिक्षा केवल जीविकोपार्जन के लिए नहीं होती कि विद्यालय, महाविद्यालय अथवा विश्वविद्यालय से शैक्षिक प्रमाण-पत्र प्राप्त कर राजकीय या अराजकीय नौकरी प्राप्त कर ली जाए। शिक्षा का उद्देश्य तो मानव के संपूर्ण जीवन का विकास करना होता है। हमारी प्राचीन भारतीय सभ्यता में शिक्षा को अत्यधिक महत्त्व प्रदान किया गया है। मनुष्य के भौतिक एवं आध्यात्मिक उत्थान के लिए शिक्षा अति आवश्यक है। शिक्षित व्यक्ति के लिए कोई भी कार्य असंभव नहीं होता।
विद्या वितर्का विज्ञानं स्मति: तत्परता किया।
यस्यैते षड्गुणास्तस्य नासाध्यमतिवर्तते।।
अर्थात विद्या, तर्क, विज्ञान, स्मृति, तत्परता एवं दक्षता, जिसके पास ये छह गुण हैं, उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं है। विद्या अथवा शिक्षा प्रकाश का वह स्त्रोत है, जो मानव जीवन को प्रकाशित करता है। प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति श्रेष्ठ शिक्षा पद्धति थी। किन्तु कालांतर में शिक्षा पद्धति में परिवर्तन आया तथा शिक्षा का उद्देश्य केवल नौकरी प्राप्त करने तक ही रह गया। बहुत समय से वर्तमान शिक्षा पद्धति में परिवर्तन की बात उठ रही थी तथा ऐसी शिक्षा पद्धति की आवश्यकता अनुभव की जा रही थी, जिससे बच्चों का सर्वांगीण विकास हो सके। साथ ही बच्चों के कंधों से बस्ते का भार कुछ कम किया जा सके।
  
उत्तम शिक्षा के लिए पाठ्यक्रम में चारित्रिक विकास एवं मानवीय गुणों को विकसित करने के विषयों को भी सम्मिलित किया जाना चाहिए। विज्ञान एवं तकनीकी विषयों से केवल मनुष्य की भौतिक उन्नति होती है, किन्तु औद्योगिक उन्नति के साथ-साथ मानवीय मूल्य भी विकसित होने चाहिए, जिससे नागरिक सामाजिक, नैतिकता तथा आध्यात्मिक मूल्यों को प्राप्त कर सकें। वर्तमान युग में मनुष्य ज्यों-ज्यों भौतिक उन्नति कर रहा है, त्यों-त्यों वह जीवन के मूल्यों को पीछे छोड़ता जा रहा है। आपसी पारिवारिक संबंध टूटते जा रहे हैं। किसी को किसी की तनिक भी चिंता नहीं है। परिवार के वृद्धजनों को वृद्धाश्रम में डाल दिया जाता है तथा बच्चे बोर्डिंग स्कूल में भेज दिए जाते हैं। ग्रामों की पैतृक संपत्ति को बेचकर महानगरों में छोटे-छोटे आवासों में भौतिक सुख-सुविधा में जीने को ही मनुष्य ने जीवन की सफलता मान लिया है। यदि हमें अपनी जड़ों की ओर लौटना है, तो सबसे पहले वर्मान शिक्षा पद्धति में सुधार करना होगा। इसी उद्देश्य के दृष्टिगत उत्तर प्रदेश सरकार राज्य के सभी विद्यालयों में प्रथम कक्षा से लेकर आठवीं कक्षा तक अनुभूति पाठ्यक्रम लागू करने जा रही है।
  
राष्ट्रीय शिक्षा नीति में इस बात पर चिंता प्रकट की जा रही है कि मानव का जीवन- मूल्यों से विश्वास उठता जा रहा है। वह चरित्र की अपेक्षा धन को महत्त्व दे रहा है। इससे उसका नैतिक पतन हो रहा है। मनुष्य के चारित्रिक पतन के कारण समाज में अपराध दिन-प्रतिदिन बढ़ते जा रहे हैं। इसलिए पाठ्यक्रम में ऐसे परिवर्तन की आवश्यकता है, जिससे मनुष्य का नैतिक विकास हो तथा वह एक सुसभ्य समाज का निर्माण करने में सहायक सिद्ध हो सके। नि:संदेह शिक्षा इसका सबसे सशक्त माध्यम है। नई शिक्षा पद्धति का उद्देश्य ऐसे सदाचारी मनुष्यों का विकास करना है, जिनमें दया, करुणा, सहानुभूति एवं साहस हो। जो नैतिक मूल्यों से संपन्न हों, जिनके लिए मानवीय मूल्य सर्वोपरि हों।  
 
शिक्षा का प्रथम उद्देश्य विद्यार्थी के चरित्र का निर्माण करना होता है। भारतीय संस्कृति में चरित्र निर्माण पर सर्वाधिक बल दिया गया है। मनुस्मृति के अनुसार सभी वेदों का ज्ञाता विद्वान भी सच्चरित्रता के अभाव में श्रेष्ठ नहीं है, किन्तु केवल गायित्री मंत्र का ज्ञाता पंडित यदि चरित्रवान है, तो श्रेष्ठ है। शिक्षा का उद्देश्य केवल ज्ञान प्राप्त करना नहीं होना चाहिए। शिक्षा का उद्देश्य विद्यार्थी का सर्वांगीण विकास करना है, ताकि वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विकास कर सके। शिक्षा का उद्देश्य विद्यार्थी को उसके अधिकारों के साथ-साथ उसके कर्त्तव्यों के बारे में भी बताना है, ताकि वह अपने अधिकारों को प्राप्त कर सके तथा परिवार एवं समाज के प्रति अपने कर्त्तव्यों का भी निर्वाहन कर सके। शिक्षा का उद्देश्य विद्यार्थी के जीवन स्तर को उन्नत व समृद्ध बनाना भी है। शिक्षा के माध्यम से वह अपने जीवन को सुगम, उन्नत एवं समृद्ध बना सके। विद्यार्थियों को अक्षर ज्ञान के साथ-साथ व्यवसायिक कार्यों का भी प्रशिक्षण दिया जाता था, ताकि वे अपने-अपने कार्यों में भी निपुणता प्राप्त कर सकें। एक नैतिकता से परिपूर्ण चरित्रवान व्यक्ति ही अपने कुल तथा देश का नाम ऊंचा करता है।
 
उत्तर प्रदेश में ऐसी ही शिक्षा पद्धति को लागू किया जा रहा है। कम शब्दों में बात की जाए, तो मूल रूप से शिक्षा के दो ही उद्देश्य हैं, प्रथम यह कि व्यक्ति शिक्षा ग्रहण कर समृद्धि प्राप्त करे एवं प्रसन्नतापूर्वक जीवनयापन करे तथा द्वितीय यह कि वह दूसरों को प्रसन्नता एवं सहायता प्रदान करने योग्य हो। छोटी कक्षाओं से लेकर महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय तक की शिक्षा का कुल उद्देश्य यही है। अब प्रश्न यह उठता है कि जब वर्तमान शिक्षा का उद्देश्य समृद्धि ही है तो फिर अनुभूति पाठ्यक्रम की आवश्यकता क्यों है? 

वास्तव में हम सुख-सुविधाओं को जीवन का उद्देश्य मान बैठे हैं। आज उच्च शिक्षा प्राप्त करके तथा उसके माध्यम से उच्च पद प्राप्त करना। तत्पश्चात अकूत धन-संपदा एकत्रित करना ही जीवन का उद्देश्य बनकर रह गया है। इस भागदौड़ में मानवीय मूल्यों का निरंतर ह्रास हो रहा है। इन्हीं मानवीय मूल्यों के दृष्टिगत उत्तर प्रदेश में अनुभूति पाठ्यक्रम लागू किया जा रहा है।  राज्य में शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य हो रहे हैं। बात चाहे प्राथमिक शिक्षा की हो, माध्यमिक शिक्षा की हो, व्यावसायिक शिक्षा की हो या उच्च शिक्षा की, सभी क्षेत्रों में सराहनीय कार्य किए जा रहे हैं। आशा है कि राज्य के शिक्षकों एवं शिक्षाविदों के माध्यम से अनुभूति पाठ्यक्रम विद्यार्थियों में नई ऊर्जा का संचार करेगा तथा यह विद्यार्थियों के लिए बहुत उपयोगो सिद्ध होगा। 

Friday, September 13, 2024

हिन्दी बने राष्ट्र भाषा


डॉ. सौरभ मालवीय 
“हिन्दी संस्कृत की बेटियों में सबसे अच्छी और शिरोमणि है।“    
ये शब्द बहुभाषाविद और आधुनिक भारत में भाषाओं का सर्वेक्षण करने वाले पहले भाषा वैज्ञानिक जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन के हैं। नि:संदेह हिन्दी देश के एक बड़े भू-भाग की भाषा है। महात्मा गांधी ने हिन्दी को जनमानस की भाषा कहा था। वह कहते थे कि राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है।
 
भारत में अनेकों भाषायें एवं बोलियां हैं। इसलिए यहां यह कहावत बहुत प्रसिद्ध है- कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर वाणी। भाषा एक संवाद का माध्यम है। भारतीय संविधान में भारत की कोई राष्ट्र भाषा नहीं है। यद्यपि केंद्र सरकार ने 22 भाषाओं को आधिकारिक भाषा के रूप में स्थान दिया है। इसमें केंद्र सरकार या राज्य सरकार अपने स्थान के अनुसार किसी भी भाषा का आधिकारिक भाषा के चयन कर सकती है। केंद्र सरकार ने अपने कार्यों के लिए हिन्दी तथा रोमन भाषा को आधिकारिक भाषा के रूप में स्थान दिया है। इसके अतिरिक्त राज्यों ने स्थानीय भाषा के अनुसार भी आधिकारिक भाषाओं का चयन किया है। इन 22 आधिकारिक भाषाओं में असमी, उर्दू, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, ओडिया, पंजाबी, संस्कृत, संतली, सिंधी, तमिल, तेलुगू, बोड़ो, डोगरी, बंगाली एवं गुजराती सम्मिलित है। भारत की राष्ट्र भाषा को लेकर प्रारंभ से ही विवाद होता रहा है। इस संबंध में महात्मा गांधी कहते थे- “अगर हमें एक राष्ट्र होने का अपना दावा सिद्ध करना है, तो हमारी अनेक बातें एक-सी होनी चाहिए। भिन्न-भिन्न धर्म और सम्प्रदायों को एक सूत्र में बांधने वाली हमारी एक सामान्य संस्कृति है। हमारी त्रुटियां और बाधाएं भी एक-सी हैं। मैं यह बताने की कोशिश कर रहा हूं कि हमारी पोशाक के लिए एक ही तरह का कपड़ा न केवल वांछनीय है, बल्कि आवश्यक भी है। हमें एक सामान्य भाषा की भी जरूरत है- देशी भाषाओं की जगह पर नहीं, परन्तु उनके सिवा। इस बात में साधारण सहमति है कि यह माध्यम हिन्दुस्तानी ही होना चाहिए, जो हिन्दी और उर्दू के मेल से बने और जिसमें न तो संस्कृत की और न फारसी या अरबी की ही भरमार हो। हमारी रास्ते की सबसे बड़ी रुकावट हमारी देशी भाषाओं की कई लिपियां हैं। अगर एक सामान्य लिपि अपनाना संभव हो, तो एक सामान्य भाषा का हमारा जो स्वप्न है- अभी तो वह स्वप्न ही है- उसे पूरा करने के मार्ग की एक बड़ी बाधा दूर हो जाएगी।“
 
यह दुखद है कि देश की एक बड़ी जनसंख्या द्वारा बोले जाने वाली हिन्दी अब तक राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई है।
कुछ लोग कहते हैं कि गैर हिन्दी विशेषकर दक्षिण भारत के लोगों के विरोध के कारण हिन्दी को उसका वास्तविक स्थान नहीं मिल पाया है, परन्तु यह कथन उचित नहीं लगता, क्योंकि महात्मा गांधी गुजरात से थे तथा उनकी मातृभाषा गुजराती थी, फिर भी  वह हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाए जाने के प्रबल समर्थक थे। महाराष्ट्र के वर्धा में आयोजित राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए महात्मा गांधी ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि देश कि बहुसंख्यक आबादी न केवल हिन्दी लिखती-पढ़ती, अपितु भाषाई समझ रखती है, इसलिए हिन्दी ही देश की राष्ट्र भाषा होनी चाहिए। उनका मानना था कि स्वतंत्रता के पश्चात यदि हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाया जाता है, तो देश की बहुसंख्यक जनता को आपत्ति नहीं होगी। इसी प्रकार दक्षिण भारत के राजनेता राजगोपालाचार्य भी हिन्दी को राष्ट्र भाषा के रूप में देखना चाहते थे। उनके अनुसार हिन्दी में ही देश की राष्ट्र भाषा होने के सभी गुण हैं। सीमान्त गांधी के नाम से प्रसिद्ध खां अब्दुल गफ़्फ़ार खां भी हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाने के समर्थक थे।
 
वास्तव में हिन्दी भारत की राष्ट्र भाषा नहीं बन पाई, तो इसके लिए अंग्रेजी मानसिकता वाले भारतीय नेता ही उत्तरदायी थे। देश में सदैव अंग्रेजी भाषा एवं हिन्दी भाषा को लेकर कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा भ्रम की स्थिति उत्पन्न की गई। इसके कारण हिन्दी का प्रचार-प्रसार नहीं हो पाया। दिन-प्रतिदिन हिन्दी पिछड़ती गई, जबकि अंग्रेजी अपना वर्चस्व स्थापित करती गई। आज स्थिति यह है कि भारत के शिक्षित समाज में हिन्दी बोलने वाले लोगों को हेय दृष्टि से देखा जाता है। अभिभावक चाहते हैं कि उनके बच्चे अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में पढ़ें। इसके लिए वे मोटी से मोटी फीस देने को तत्पर हैं। अंग्रेजी स्टेटस सिंबल बन गई है। बहुत से लोग मानते हैं कि अंग्रेजी उन्नति की भाषा है। अंग्रेजी के बिना कोई उन्नति नहीं कर सकता, परन्तु ऐसा नहीं है। विश्व के अनेक देशों में लिपि के नाम पर केवल चित्रात्मक विधियां हैं, तब भी वे देश उन्नति के मामले में शीर्ष पर हैं। रूस, चीन, जर्मनी, फ्रांस, आस्ट्रेलिया, जापान, नीदरलैंड आदि देशों के उदाहरण सबके सामने हैं।
सत्य तो यह है कि हिन्दी भारत की आत्मा, श्रद्धा, आस्था, निष्ठा, संस्कृति एवं सभ्यता से जुड़ी हुई भाषा है। भारत का दुर्भाग्य यह रहा है कि सहृदयता के नाम पर कुछ भारतीय प्रतिनिधि ही इसकी स्मिता की जड़ों को खोखला करने का कार्य करते आए हैं। हिन्दी को राष्ट्र भाषा के रूप मे राष्ट्रीय स्वीकृति नहीं मिलने के पीछे भी इसी प्रकार की सोच वाले नेताओं की प्रमुख भूमिका रही है। दुर्भाग्यवश इसी मानसिकता के लोगों का बाहुल्य आज भी कार्यपालिका से लेकर न्यायपालिका तक निर्णायक स्थिति में है।
 
बोली की दृष्टि से हिन्दी विश्व में द्वितीय स्थान पर है, जबकि प्रथम बड़ी बोली मंदारीन है जिसका प्रभाव दक्षिण चीन के ही क्षेत्र में सीमित है। चूंकि उनका जनघनत्व और जनबल बहुत है। इस नाते वह विश्व की सबसे अधिक लोगों द्वारा बोली जाती है, पर वह आचंलिक ही है। हिन्दी का विस्तार भारत के अतिरिक्त लगभग 40 प्रतिशत भू-भाग पर फैला हुआ है। एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में लगभग 77 प्रतिशत लोग हिन्दी बोलते और समझते हैं। विश्व में लगभग 50 करोड़ लोग हिन्दी बोलते हैं। हिन्दी विश्व के 150 से अधिक विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती है।
देश का लगभग 60 प्रतिशत बाजार हिन्दी बोलने वाले लोगों का है। भारत विश्व में सबसे बड़ा उपभोक्ता बाजार होने के नाते भी विश्व वाणिज्य की सभी संस्थाएं हिन्दी के प्रयोग को अपरिहार्य मान रही हैं। आज प्रत्येक कंपनी के विज्ञापन का आधार केवल हिन्दी है। इतना ही नहीं विदेशी कंपनियों के मोबाइल फोन भी हिन्दी में टाइपिंग की सुविधा उपलब्ध करवा रहे हैं। सोशल मीडिया पर भी हिन्दी का वर्चस्व दिखाई देता है।
 
किन्तु किसी भाषा की सबलता केवल बोलने वाले पर निर्भर नहीं होती, अपितु उस भाषा में जनोपयोगी एवं विकास के कार्य कितने होते हैं, इस पर निर्भर होती है। उसमें विज्ञान, तकनीकि और श्रेष्ठतम आदर्शवादी साहित्य की रचना कितनी होती है? साथ ही तीसरा एवं सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि उस भाषा के बोलने वाले लोगों का आत्मबल कितना महान है? परन्तु यह भारत का दुर्भाग्य ही है कि हिन्दी अपने ही देश में तुच्छ समझी जा रही है।  हमें केवल इतना ही करना है कि हम अपना आत्मविश्वास जगाएं और अपने भारत पर अभिमान करें। हम विश्व में श्रेष्ठतम भाषा विज्ञान एवं परंपराओं वाले देश के नागरिक हैं। केवल हीन भावना के कारण हम स्वयं को तुच्छ समझ रहे हैं, अपितु आज के इस वैज्ञानिक युग में भी संस्कृत का भाषा विज्ञान कंप्यूटर के लिए सर्वोत्तम पाया गया है।
 
यद्यपि सरकारी स्तर पर हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए कार्य किए जा रहे हैं। उल्लेखनीय है कि प्रत्येक वर्ष 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है, क्योंकि इसी दिन अर्थात 14 सितम्बर 1949 को संविधान सभा ने हिन्दी को केन्द्र सरकार की आधिकारिक भाषा बनाने का निर्णय लिया था। हिन्दी को देश के अधिकतर क्षेत्रों में हिन्दी बोली एवं पढ़ी जाती है, इसलिए हिन्दी को राजभाषा बनाने का निर्णय लिया गया था। यह भारतीय संविधान के भाग-17 के अध्याय की अनुच्छेद-343(1) में वर्णित है कि संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी। संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप अन्तरराष्ट्रीय होगा।
हिन्दी को प्रत्येक क्षेत्र में प्रसारित करने के लिए वर्ष 1953 से देशभर में 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस मनाया जाता है। हिन्दी दिवस के अवसर पर अनेक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। इस दौरान हिन्दी निबन्ध लेखन, वाद-विवाद, हिन्दी टंकण प्रतियोगिता आदि का आयोजन किया जाता है। इसके साथ ही 14 सितम्बर से हिन्दी सप्ताह मनाया जाता है। इस पूरे सप्ताह विभिन्न प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है।
 
हिन्दी दिवस पर हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए उत्कृष्ट कार्य करने हेतु राजभाषा गौरव पुरस्कार और राजभाषा कीर्ति पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं। राष्ट्रभाषा गौरव पुरस्कार तकनीकी या विज्ञान के विषय पर लिखने वाले किसी भी भारतीय नागरिक को प्रदान किया जाता है। इसमें दस हजार रुपये से लेकर दो लाख रुपये के 13 पुरस्कार होते हैं। इसमें प्रथम पुरस्कार प्राप्त करने वाले को दो लाख रुपये, द्वितीय पुरस्कार प्राप्त करने वाले को डेढ़ लाख रुपये तथा तृतीय पुरस्कार प्राप्त करने वाले को 75 हजार रुपये प्रदान किए जाते हैं। साथ ही दस लोगों को प्रोत्साहन पुरस्कार के रूप में दस-दस हजार रुपये प्रदान किए जाते हैं। पुरस्कार प्राप्त करने वाले लोगों को धनराशि के साथ प्रशस्ति पत्र एवं स्मृति चिह्न भी प्रदान किया जाता है। इसका उद्देश्य तकनीकी एवं विज्ञान के क्षेत्र में हिन्दी भाषा को आगे बढ़ाना है। राष्ट्रभाषा कीर्ति पुरस्कार किसी विभाग, समिति, मंडल आदि को उनके द्वारा हिन्दी में किए गए श्रेष्ठ कार्यों के लिए दिया जाता है। इस पुरस्कार के अंतर्गत कुल 39 पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं। इसका उद्देश्य सरकारी कार्यालयों में हिन्दी भाषा के उपयोग को बढ़ावा देना है।
 
इसमें कोई दो मत नहीं है कि स्वतंत्रता के लगभग साढ़े सात दशक बाद भी देश की अपनी राष्ट्र भाषा नहीं है। जब देश का एक राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रीय प्रतीक है। यहां तक कि राष्ट्रीय पशु-पक्षी भी एक है, तो ऐसे में महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि देश की अपनी राष्ट्र भाषा क्यों नहीं होनी चाहिए? भारतीय भाषाओं को अंग्रेजी की पिछलग्गू भाषा के रूप में क्यों बने रहना चाहिए? इस पर विचार किया जाना चाहिए। देशहित में हिन्दी को न्यायपालिका से लेकर कार्यपालिका की भाषा बनाया जाना चाहिए।

Saturday, July 29, 2017

वंदे मातरम का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद होगा


डॉ. सौरभ मालवीय
राष्ट्र गीत वंदे मातरम एक बार भी चर्चा में है. इस बार मद्रास उच्च न्यायालय की वजह से इसके गायन का मुद्दा गरमाया है. मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायधीश एमवी मुरलीधरन ने आदेश दिया है कि राष्ट्रगीत वंदे-मातरम को हर सरकारी/ग़ैर-सरकारी कार्यालयों/संस्थानों/उद्योगों में हर महीने कम से कम एक बार गाना होगा. यह गीत मूल रूप से बांग्ला और संस्कृत भाषा में है, इसलिए इसे तमिल और अंग्रेज़ी में अनुवाद करने के भी आदेश दिए गए हैं. उल्लेखनीय है कि एक ओर मुस्लिम समुदाय से ही वंदे मातरम के विरोध में स्वर उठ रहे हैं, वहीं दूसरी ओर एक मुस्लिम लड़की ने ही वंदे मातरम का पंजाबी में अनुवाद कर सराहनीय कार्य किया है.वंदे मातरम का पंजाबी अनुवाद करने वाली फ़िरदौस ख़ान शाइरा, लेखिका और पत्रकार हैं. अरबिंदो घोष ने इस गीत का अंग्रेज़ी में और आरिफ़ मोहम्मद ख़ान ने उर्दू में अनुवाद किया. उर्दू में ’वंदे मातरम’ का अर्थ है ’मां तुझे सलाम’. ऐसे में किसी को भी अपनी मां को सलाम करने में आपत्ति नहीं होनी चाहिए. आशा है कि आगे भी देश-विदेश की अन्य भाषाओं में इसका अनुवाद होगा.
उल्लेखनीय यह भी है कि जिस मामले में मद्रास उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया गया है, उसमें वंदे मातरम को गाने या न गाने से संबंधित किसी तरह की अपील नहीं की गई थी. यह गीत शिक्षा संस्थाओं में अनिवार्य रूप से गाया जाए या नहीं, इस बारे में सर्वोच्च न्यायालय में आगामी 25 अगस्त को सुनवाई होनी है.
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी अर्थात जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है. फिर अपनी मातृभूमि से प्रेम क्यों नहीं ? अपनी मातृभूमि की अस्मिता से संबद्ध प्रतीक चिन्हों से घृणा क्यों? प्रश्न अनेक हैं, परंतु उत्तर कोई नहीं. प्रश्न है राष्ट्रगीत वंदे मातरम का. क्यों कुछ लोग इसका इतना विरोध करते हैं कि वे यह भी भूल जाते हैं कि वे जिस भूमि पर रहते हैं, जिस राष्ट्र में निवास करते हैं, यह उसी राष्ट्र का गीत है, उस राष्ट्र की महिमा का गीत है?
वंदे मातरम को लेकर प्रारंभ से ही विवाद होते रहे हैं, परंतु इसकी लोकप्रियता में दिन-प्रतिदिन वृद्धि होती चली गई.  2003 में बीबीसी वर्ल्ड सर्विस द्वारा आयोजित एक अंतर्राष्ट्रीय सर्वेक्षण के अनुसार वंदे मातरम विश्व का दूसरा सर्वाधिक लोकप्रिय गीत है. इस सर्वेक्षण विश्व के लगभग सात हज़ार गीतों को चुना गया था. बीबीसी के अनुसार 155 देशों और द्वीप के लोगों ने इसमें मतदान किया था.  उल्लेखनीय है कि विगत दिनों कर्नाटक विधानसभा के इतिहास में पहली बार शीतकालीन सत्र की कार्यवाही राष्ट्रगीत वंदे मातरम के साथ शुरू हुई. अधिकारियों के अनुसार कई विधानसभा सदस्यों के सुझावों के बाद यह निर्णय लिया गया था. विधानसभा अध्यक्ष कागोदू थिमप्पा ने कहा था कि लोकसभा और राज्यसभा में वंदे मातरम गाया जाता है और सदस्य बसवराज रायारेड्डी ने इस मुद्दे पर एक प्रस्ताव दिया था, जिसे आम-सहमति से स्वीकार कर लिया गया.
वंदे मातरम भारत का राष्ट्रीय गीत है. वंदे मातरम बहुत लंबी रचना है, जिसमें मां दुर्गा की शक्ति की महिमा का वर्णन किया गया है. भारत में पहले अंतरे के साथ इसे सरकारी गीत के रूप में मान्यता मिली है. इसे राष्ट्रीय गीत का दर्जा कर इसकी धुन और गीत की अवधि तक संविधान सभा द्वारा तय की गई है, जो 52 सेकेंड है. उल्लेखनीय है कि 1870 के दौरान ब्रिटिश शासन ने 'गॉड सेव द क्वीन' गीत गाया जाना अनिवार्य कर दिया था. बंकिमचंद्र चटर्जी को इससे बहुत दुख पहुंचा. उस समय वह एक सरकारी अधिकारी थे. उन्होंने इसके विकल्प के तौर पर 7 नवंबर, 1876 को बंगाल के कांतल पाडा नामक गांव में वंदे मातरम की रचना की. गीत के प्रथम दो पद संस्कृत में तथा शेष पद बांग्ला में हैं. राष्ट्रकवि रबींद्रनाथ ठाकुर ने इस गीत को स्वरबद्ध किया और पहली बार 1896 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में यह गीत गाया गया. 1880 के दशक के मध्य में गीत को नया आयाम मिलना शुरू हो गया. वास्तव में बंकिमचंद्र ने 1881 में अपने उपन्यास 'आनंदमठ' में इस गीत को सम्मिलित कर लिया. उसके बाद कहानी की मांग को देखते हुए उन्होंने इस गीत को और लंबा किया, अर्थात बाद में जोड़े गए भाग में ही दशप्रहरणधारिणी, कमला और वाणी के उद्धरण दिए गए हैं. बाद में इस गीत को लेकर विवाद पैदा हो गया.
वंदे मातरम स्वतंत्रता संग्राम में लोगों के लिए प्ररेणा का स्रोत था. इसके बावजूद इसे राष्ट्रगान के रूप में नहीं चुना गया. वंदे मातरम के स्थान पर वर्ष 1911 में इंग्लैंड से भारत आए जॊर्ज पंचम के सम्मान में रबींद्रनाथ ठाकुर द्वारा लिखे और गाये गए गीत जन गण मन को वरीयता दी गई. इसका सबसे बड़ा कारण यही था कि कुछ मुसलमानों को वंदे मातरम गाने पर आपत्ति थी. उनका कहना था कि वंदे मातरम में मूर्ति पूजा का उल्लेख है, इसलिए इसे गाना उनके धर्म के विरुद्ध है. इसके अतिरिक्त यह गीत जिस आनंद मठ से लिया गया है, वह मुसलमानों के विरुद्ध लिखा गया है. इसमें मुसलमानों को विदेशी और देशद्रोही बताया गया है.  1923 में कांग्रेस अधिवेशन में वंदे मातरम के विरोध में स्वर उठे. कुछ मुसलमानों की आपत्तियों को ध्यान में रखते हुए कांग्रेस ने इस पर विचार-विमर्श किया. पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में समिति गठित की गई है, जिसमें मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, सुभाष चंद्र बोस और आचार्य नरेन्द्र देव भी शामिल थे. समिति का मानना था कि इस गीत के प्रथम दो पदों में मातृभूमि की प्रशंसा की गई है, जबकि बाद के पदों में हिन्दू देवी-देवताओं का उल्लेख किया गया है. समिति ने 28 अक्टूबर, 1937 को कलकत्ता अधिवेशन में पेश अपनी रिपोर्ट में कहा कि इस गीत के प्रारंभिक दो पदों को ही राष्ट्र-गीत के रूप में प्रयुक्त किया जाएगा. इस समिति का मार्गदर्शन रबींद्रनाथ ठाकुर ने किया था. मोहम्मद अल्लामा इक़बाल के क़ौमी तराने ’सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ के साथ बंकिमचंद्र चटर्जी द्वारा रचित प्रारंभिक दो पदों का गीत वंदे मातरम राष्ट्रगीत स्वीकृत हुआ. 14 अगस्त, 1947 की रात्रि में संविधान सभा की पहली बैठक का प्रारंभ वंदे मातरम के साथ हुआ. फिर 15 अगस्त, 1947 को प्रातः 6:30 बजे आकाशवाणी से पंडित ओंकारनाथ ठाकुर का राग-देश में निबद्ध वंदे मातरम के गायन का सजीव प्रसारण हुआ था. डॊ. राजेंद्र प्रसाद ने संविधान सभा में 24 जनवरी, 1950 को  वंदे मातरम को राष्ट्रगीत के रूप में अपनाने संबंधी वक्तव्य पढ़ा, जिसे स्वीकार कर लिया गया.  वंदे मातरम को राष्ट्रगान के समकक्ष मान्यता मिल जाने पर अनेक महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय अवसरों पर यह  गीत गाया जाता है. आज भी आकाशवाणी के सभी केंद्रों का प्रसारण वंदे मातरम से ही होता है. वर्ष 1882 में प्रकाशित इस गीत को सर्वप्रथम 7 सितंबर, 1905 के कांग्रेस अधिवेशन में राष्ट्रगीत का दर्जा दिया गया था. इसलिए वर्ष 2005 में इसके सौ वर्ष पूरे होने पर साल भर समारोह का आयोजन किया गया. 7 सितंबर, 2006 को इस समारोह के समापन के अवसर पर मानव संसाधन मंत्रालय ने इस गीत को स्कूलों में गाये जाने पर विशेष बल दिया था.  इसके बाद देशभर में वंदे मातरम का विरोध प्रारंभ हो गया. परिणामस्वरूप तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह को संसद में यह वक्तव्य देना पड़ा कि वंदे मातरम गाना अनिवार्य नहीं है. यह व्यक्ति की स्वेच्छा पर निर्भर करता है कि वह वंदे मातरम गाये अथवा न गाये. इस तरह कुछ दिन के लिए यह मामला थमा अवश्य, परंतु वंदे मातरम के गायन को लेकर उठा विवाद अब तक समाप्त नहीं हुआ है. जब भी वंदे मातरम के गायन की बात आती है, तभी इसके विरोध में स्वर सुनाई देने लगते हैं. इस गीत के पहले दो पदों में कोई भी मुस्लिम विरोधी बात नहीं है और न ही किसी देवी या दुर्गा की आराधना है. इसके बाद भी कुछ मुसलमानों का कहना है कि इस गीत में दुर्गा की वंदना की गई है, जबकि इस्लाम में किसी व्यक्ति या वस्तु की पूजा करने की मनाही है. इसके अतिरिक्त यह गीत ऐसे उपन्यास से लिया गया है, जो मुस्लिम विरोधी है. गीत के पहले दो पदों में मातृभूमि की सुंदरता का वर्णन किया गया है. इसके बाद के दो पदों में मां दुर्गा की अराधना है, लेकिन इसे कोई महत्व नहीं दिया गया है. ऐसा भी नहीं है कि भारत के सभी मुसलमानों को वंदे मातरम के गायन पर आपत्ति है या सब हिन्दू इसे गाने पर विशेष बल देते हैं. कुछ वर्ष पूर्व विख्यात संगीतकार एआर रहमान ने वंदे मातरम को लेकर एक संगीत एलबम तैयार किया था, जो बहुत लोकप्रिय हुआ. उल्लेखनीय बात यह भी है कि ईसाई समुदाय के लोग भी मूर्ति-पूजा नहीं करते, इसके बावजूद उन्होंने कभी वंदे मातरम के गायन का विरोध नहीं किया.  

Tuesday, September 8, 2015

भारतीयता की प्रतिनिधि भाषा हिन्दी


डाॅ. सौरभ मालवीय
भारतीय समाज में अंग्रेजी भाषा और हिन्दी भाषा को लेकर कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा भम्र की स्थिति उत्पन्न की जा रही है। सच तो यह है कि हिन्दी भारत की आत्मा, श्रद्धा, आस्था, निष्ठा, संस्कृति और सभ्यता से जुड़ी हुई है।हिन्दी के अब तक राष्ट्रभाषा नहीं बन पाने के कारणों के बारे में समान्यतः आम भारतीय की सहज समझ यही होगी कि दक्षिण भारतीय नेताओं के विरोध के चलते ही हिन्दी देश की प्रतिनिधि भाषा होने के बावजूद राष्ट्रभाषा के रूप में अपना वाजिब हक नहीं प्राप्त कर सकी,जबकि हकीकत ठीक इसके विपरीत है । मोहनदास करमचंद गांधी यानि महात्मा गांधी सरीखा ठेठ पश्चिमी भारतीय और राजगोपालाचारी जैसा दक्षिण भारतीय नेता का अभिमत था की हिन्दी में ही देश की राष्ट्रभाषा होने के सभी गुण मौजूद है । वर्धा के राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन की अध्यक्षा करते हुये राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने साफ शब्दों मे कहा था कि देश कि बहुसंख्यक आबादी न सिर्फ लिखती-पढ़ती है बल्कि भाषाई समझ रखती है, इसलिए हिन्दी को ही देश की राष्ट्रभाषा होनी चाहिए । उनका मानना था कि आजादी के बाद अगर हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाया जाता है तो देश की बहुसंख्यक जनता को आपत्ति नहीं होगी साथ ही सी. राजगोपालाचारी और खाँ अब्दुल गफार खाँ भी हिन्दी को राष्ट्र भाषा के रूप मे अधिष्ठापित होना देखना चाहते थे । अखंड भारत और हर उस मुद्दे की तरह राष्ट्रभाषा के रूप मे हिन्दी को लेकर यदि राष्ट्रीय स्वीकार्यता नहीं बन पाई तो उसके पीछे अंग्रेजी से ज्याद अंग्रेजीवादी सोच वाले भारतीय नेता अधिक जिम्मेदार थे । दरअसल इन नेताओं का विभाजन जाति,क्षेत्र,भाषा के आधार पर न कर के उनके सोच के धरातल (मैकाले पद्धति )पर एक समूह मे रखा जाना चाहिए ।
मौजूदा समय मे विस्तार,प्रसार और प्रभावी बाजारू उपस्थिति को देखते हुये ऐसा कोई कारण नज़र नहीं आता जिसके आधार पर कहा जा सके कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा नहीं होना चाहिए – सिवाय राजनीतिक कुचक्र के । भारत का दुर्भाग्य यह रहा है कि सहृदयता के नाम पर कुछ प्रतिनिधि भारतीय ही उसकी स्मिता की जड़ो मे मट्टे डालने का कम करते आए है । हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप मे राष्ट्रीय स्वीकृति नहीं मिलने के पीछे भी इसी तरह के सोच वाले नेताओं की प्रमुख भूमिका रही है । दुर्भाग्यवस उसी मानसिकता के लोगों का बाहुल्य आज भी कार्यपालिका से लेकर न्यायपालिका तक निर्णायक स्थिति में है । बोली की दृष्टि से संसार की सबसे दूसरी बड़ी बोली हिन्दी हैं। पहली बड़ी बोली मंदारीन है जिसका प्रभाव दक्षिण चीन के ही इलाके में सीमित है चूंकि उनका जनघनत्व और जनबल बहुत है। इस नाते वह संसार की सबसे अधिक लोगों द्वारा बोली जाती है पर आचंलिक ही है। जबकि हिन्दी का विस्तार भारत के अलावा लगभग 40 प्रतिशत भू-भाग पर फैला हुआ है लेकिन किसी भाषा की सबलता केवल बोलने वाले पर निर्भर नहीं होती वरन उस भाषा में जनोपयोगी और विकास के काम कितने होते है इस पर निर्भर होता है। उसमें विज्ञान तकनीकि और श्रेष्ठतम् आदर्शवादी साहित्य की रचना कितनी होती है। साथ ही तीसरा और सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि उस भाषा के बोलने वाले लोगों का आत्मबल कितना महान है। लेकिन दुर्भाग्य है इस भारत का कि प्रो. एम.एम. जोशी के शोध ग्रन्थ के बाद भौतिक विज्ञान में एक भी दरजेदार शोधग्रंथ हिन्दी में नहीं प्रकाशित हुआ। जबकि हास्यास्पद बाद तो यह है कि अब संस्कृत के शोधग्रंथ भी देश के सैकड़ों विश्वविद्यालय में अंग्रेजी में प्रस्तुत हो रहे है।
भारत में पढ़े लिखे समाज में हिन्दी बोलना दोयम दर्जे की बात हो गयी है और तो और सरकार का राजभाषा विभाग भी हिन्दी को अनुवाद की भाषा मानता है।संसार के अनेक देश जिनके पास लीप के नाम पर केवल चित्रातक विधिया है वो भी विश्व में बडे शान से खडे है जैसे जापानी, चीनी, कोरियन, मंगोलिन इत्यादि, तीसरी दुनिया में छोटे-छोटे देश भी अपनी मूल भाषा से विकासशील देशो में प्रथम पक्ति में खड़े है इन देशों में वस्निया, आस्ट्रीया, वूलगारिया, डेनमार्क, पूर्तगाल, जर्मनी, ग्रीक, इटली, नार्वे, स्पेन, वेलजियम, क्रोएशिया, फिनलैण्ड फ्रांस, हंग्री, निदरलैण्ड, पोलौण्ड और स्वीडन इत्यादि प्रमुख है।
भारत में अंग्रेजी द्वारा हिन्दी को विस्थापित करना यह केवल दिवास्वपन है क्योंकि भारतीय फिल्मों और कला ने हिन्दी को ग्लोबल बना दिया है और भारत दुनिया में सबसे बड़ा उपभोक्ता बाजार होने के नाते भी विश्व वाणिज्य की सभी संस्थाएं हिन्दी के प्रयोग को अपरिहार्य मान रही है। हमें केवल इतना ही करना है कि हम अपना आत्मविश्वास जगाये और अपने भारत पर अभिमान रखे। हम संसार में श्रेष्ठतम् भाषा विज्ञान बोली और परम्पराओं वाले है। केवल हीन भाव के कारण हम अपने को दोयम दर्जे का समझ रहे है वरना आज के इस वैज्ञानिक युग में भी संस्कृत का भाषा विज्ञान कम्प्यूटर के लिए सर्वोत्तम पाया गया है।
कुछ वर्ष पहले देश के एक उच्च न्यायालय ने चर्चित फैसला सुनाया था जिसके अनुसार हिन्दी को देश की राष्ट्रभाषा नहीं सिर्फ राजभाषा बताया गया था । आजादी के लगभग सात दसक बाद भी राष्ट्रभाषा का नही होना दुखद है। जब देश का एक राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रीय प्रतीक है यहा तक कि राष्ट्रीय पशु-पक्षी भी एक है। ऐसे में महत्वपूर्ण सवाल यह है कि देश की अपनी राष्ट्र भाषा क्यों नहीं होनी चाहिए ? भारतीय भाषाओं को अंग्रेजी की पिछलग्गू भाषा के रूप में क्यों बने रहना चाहिए ? 10 सितंबर से 13 सितंबर तक भोपाल मे आयोजित हो रहे विश्व हिन्दी सम्मेलन के दौरान विद्वानों को अन्य जवलंत मुद्दों के साथ इन पर भी विचार करना चाहिए साथ ही इस दौरान हिन्दी को ज्ञान-विज्ञान के साथ ही सभी विषयों की व्यवहारिक भाषा के रूप में विकसित करने के उपायों के साथ ही उसे अनुवाद के स्थान पर मौलिक भाषा के रूप मे अधिष्ठापित करने के उपाय पर भी विचार होना चाहिए । हिन्दी को लेकर कार्यपालिका और प्रभावी ताकतों की सोच को कैसे बदला जाए कि वे उसे मौलिक भाषा के रूप में स्थान दिलाने के लिए प्रभावी और सर्व सम्मति नीति बनाए ।