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Friday, August 15, 2025

स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं



स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं!
पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग,
लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ

Thursday, April 17, 2025

भारतीय संस्कृति की विवेचना एवं उपादेयता : सांस्कृतिक राष्ट्रवाद

 


डॉ. सौरभ मालवीय
सहायक प्राध्यापक
माखन लाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल
 
सारांश
मनुष्य के सोचने के ढंग मूल्यों व्यवहारों तथा उनके साहित्य, धर्म, कला में जो अन्तर दिखाई पड़ता है वह संस्कृति के कारण है। भारतीयों के लिए आज भी आत्मिक मूल्य सर्वोपरि है, व्यक्तित्व के विकास में जिन कारकों का योगदान होता है, उनमें संस्कृति प्रधान है। मनोवैज्ञानिक रूप बेनीडिक्ट ‘पैटन्र्स ऑफ कल्चर में लिखते है कि ‘संस्कृति का प्रभाव बचपन से ही पड़ने लगता है जिन परिस्थितियों में वह जन्म के क्षण पैदा होता है, इसका प्रभाव उसके व्यवहार एवं स्वभाव में होता है। जिस समय वह बोलता है, अपनी संस्कृति का छोटा-सा प्राणी है। जिस समय से वह बढ़ता है एवं कार्यों में हिस्सा लेता है सांस्कृतिक परिवेश उसके स्वभाव को गढ़ते है। आदतों, मान्यताओं, विश्वासों, स्वभावों में संस्कृति की अमिट छाप दिखाई पड़ती है।
भूमिका
भारतीय संस्कृति पर वे पुनः कहते हैं कि दर्शन, भाषा, साहित्य, ज्ञान-विज्ञान, इतिहास, कला आदि संस्कृति के सभी अंगों पर वेदादिशशास्त्रमूलक सिद्धांतों की ही छाप है। बाहरी प्रभाव उससे पृथक दिख पडत़ा है। संसार के प्रायः सभी देशों में भारतीय संस्कृति के प्रभाव स्पष्ट दिखायी देते हैं। दर्शन शास्त्र तो व्यापकरूपेण फैला हुआ है। इतना तो सिद्ध है कि इन सबका सम्बन्ध हिन्दू संस्कृति से है। इस प्रकार सभी दृष्टियों से यही मानना पड़ता है कि हिन्दू संस्कृति ही भारतीय संस्कृति है।
विवेचन एवं व्याख्या
संस्कृति शब्द संस्कार से बना है। संस्कृत व्याकरण के मूर्धन्य पुरुष भगवान् पाणिनि के अनुसार सम् उपसर्गपूर्वक कृ धातु से भूषण अर्थ में सुट् आगमपूर्वक क्तिन प्रत्यय होने से संस्कृति शब्द बनता है।
सम्परिभ्यांकरोतौभूषणे
            (6.1.137 पाणिनीय सूत्रे)
इस प्रकार लौकिक, पारलौकिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, आर्थिक, राजनैतिक अभ्युदयके उपयुक्त देहेन्द्रिय, मन, बुद्धि तथा अहंकरादि की भूषणयुक्त सम्यक चेष्टाएं संस्कृति कहलाती हैं।
धर्मसम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज
(संस्कार, संस्कृति और धर्म पृष्ठ 69)
न्याय दर्शन के अनुसार वेग, भावना और स्थितिस्थापक यह त्रिविध संस्कार हैं। इसमें भी अनुभव जन्य स्मृतिका हेतु भावना है।
ऋषियों ने स्वाश्रय की प्रागुद्भूत अवस्था के समान अवस्थान्तरोत्पादक अतीन्द्रिय धर्म को ही संस्कार माना है।
स्वाश्रयस्य प्रागुद् भूतावस्थासमानावस्थान्तरोत्पादककोउतीन्द्रिययो धर्मः संस्कारः।
योग के अनुसार न केवल मानस संकल्प, विचारादि से ही अपितु देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार आदि की सभी हलचलों, चेष्टाओं, व्यापारों से संस्कार उत्पन्न होते हैं। विख्यात विचारक प्रो. जाली महाशय कहते हैं:
Sanskars are supposed to purity the person of human being in his life and for the life after death.
(Hindu law and custom)
 
सम् की आवृत्ति करके ‘सम्यक संस्कार’ को ही संस्कृति कहा जाता है। अर्थात् संस्कारों की उपयुक्त कृतियों को ही संस्कृति कहते हैं। परंतु जैसे वेदोक्त कर्म और कर्मजन्य अदृष्ट दोनों को ही धर्म कहते हैं। वैसे ही संस्कार और संस्कारोपयुक्त कृतियां दोनों ही संस्कृति शब्द से व्यवहृत हो सकती हैं। इस प्रकार सांसारिक निम्न स्तर की सीमाओं में आबद्ध आत्मा के उत्थानानुकूल सम्यक् भूषणभूत कृतियां ही संस्कृति हैं।
गहरे अर्थों में सभ्यता और संस्कृति एक ही बात मानी जाती है। संस्कृति का परिणाम सभ्यता है। जिस प्रकार सम्यक् कृति संस्कृति है उसी प्रकार सभा में साधुता का स्वभाव सभ्यता है। आचार-विचार, रहन-सहन, बोलचाल, चाल-चलन आदि की साधुता का निर्णय शास्त्रों से ही होता है। वेदादि शास्त्रों द्वारा निर्णीत सम्यक् एवं साधु चेष्टा ही सभ्यता है और वही संस्कृति भी है।
हम सबके भीतर जो दिव्य निवासी है उनके सायुज्य का नाम या सायुज्य का सत्प्रयास भी संस्कार है।
सर्वभूताधिवासः
संस्कार का अन्य नाम है सचेतन के आध्यात्मिक विकास का विधान। इसी के द्वारा जीवन का सत्-चित् आत्मा के दिव्य जीवन में रूपांतरित होता है।
यत् सानोः सानुभारुहद् भूर्यस्पष्ट कत्र्वम्। तदिन्द्रो अर्थ चेतति यूथेन वृष्णिरेंजति
(ऋग्वेद 1.10.2)
आचार्य चाणक्य के अनुसार संस्कारित व्यक्ति परस्त्री को मातृवत् परद्रव्य को मिट्टी की भांति एवं सभी प्राणियों में आत्मदर्शी होता है।
मातृवत्परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत्।
आत्मवत्सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः।।
                                                                                                                        (चाणक्य नीति 12.14)
स्मृतिकार भगवान् मनु ने भारतीय संस्कृति की महत्ता को रेखांकित करते हुए लिखा है कि-
एतद्देशप्रसूतस्य सकाशदग्रजन्मनः।
स्व स्व चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।
                                                                                                            (मनुस्मृति 2.20)
अर्थात् इस पवित्र भूमि में पैदा हुए (अग्रजन्मा) महापुरुषों से ही धरती के सभी लोगों को अपने-अपने सद्वृतो की शिक्षा लेनी चाहिए।
अथर्ववेद मधुर वचन को भी सुसंस्कार कहते हैं।
                                                                                    -मधुमती वाचमुदेयम् (अथर्ववेद 16.2.2)
सुसंस्कारों से शील की व्युत्पत्ति होती है और शील ही सबका भूषण है।
                                                                                    -शील सर्वस्य भूषणम् (गरुण पुराण 1.113.13)
धैर्य, क्षमा, दान, सहिष्णुता, अस्तेय, अतिथि सेवा ये सब आत्मनियंत्रित संस्कार हैं, इसे ही शील कहा जाता है। मनुस्मृति में वृद्ध सेवा और प्रणाम अत्यंत महत्वपूर्ण संस्कार के रूप में वर्णित हैं।
अभिवादनशीलस्य नित्य वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्यायशोबलम्।।
                                                                                                                        (मनुस्मृति 2.121)
पूर्वाम्नाय पुरीपीठाधिपति  जगद्गुरु श्री निश्चलानंद जी सरस्वती लिखते हैं कि-
सदोष और विषम शरीर तथा संसार से मन को उपरतकर उसे निर्दोष एवं समब्रह्म में समाहितकर सर्गजय (पुनर्भवपर विजय) आध्यात्मिक और आधिदैविक दृष्टि से संस्कारों का प्रयोजन है। बाह्याभ्यन्तर पदार्थोंक अभ्युदय और निःश्रेयस के युक्त बनाना संस्कारों के द्वारा सम्भव है। पार्थिव, वारुण, तैजस् और वायव्य बाह्य वस्तुएं दृश्य, भौतिक, सावयव तथा परिच्छिन्न होने से संस्कार्य हैं। स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण शरीर दृश्य और परिच्छिन्न होने से संस्कार योग्य है। जो कुछ सदोष और विषम है, वह संस्कार्य है। ब्रह्मात्मत्व विभु, निर्दोष और सम होने से असंस्कार्य है।                                  
                                                                                                                        (संस्कारतत्व विमर्श)
मूलाम्नाय कांचीकामकोटि के प्रमुख जगद्गुरु स्वामी श्री जयेन्द्र सरस्वती जी महाराज के अनुसार-
तदर्थमेव सनातन धर्म उत्पादिता चित्तशुद्धिहेतुकाः क्रियाः संस्कारनाम्ना व्यवहियन्ते।
अर्थात् सनातन धर्म में चित्त शुद्धि के निमित्त जो क्रियाएं की जाती हैं उसे संस्कार कहते हैं।
आचार्य श्री कृपाशंकर जी रामायणी भगवद्भक्ति के संस्कार  में लिखते हैं कि-
यन्नवे भाजने लग्नः संस्कारो नान्यथा भवेत्।
अर्थात् प्रत्येक माता, पिता, आचार्य आदि का पावन कर्तव्य है कि बालकों के मन को सुसंस्कृत करें।
आचार्य शंख के अनुसार सुसंस्कृत व्यक्ति ब्रह्मलोक में ब्रह्म पद को प्राप्त करता है फिर वह कभी पतित नहीं होता है।
संस्कारैः संस्कृतः पूर्वैरुरुत्तरैरनुसंस्कृतः।
नित्यमष्टगुणैर्युक्तो ब्राह्मणों ब्रह्मलौकिकः।।
 भोजवृत्ति के अनुसार-
‘‘द्विविधाश्चित्तस्य वासनारूपाः संस्काराः’’
संस्कार वासना रूपात्मक हुआ करते हैं।
योग सुधाकर में संस्कार पूर्वजन्म परम्परा में संचित चित्त के धर्म हैं-
‘‘संस्काराश्चित्तधर्माः पूर्व जन्म परम्परा संचिताः सन्ति।’’
योगिराज ब्रह्मानंद गिरि के अनुसार ज्योत्सना में वासना को भावना नामक संस्कार कहा जाता है।
‘‘वासना भावनाख्यः संस्कारः’’
 योग सूत्र में बताया गया है कि ऋतम्भरा के संस्कारों से ही समाधि प्रज्ञा होती है।
 
श्री नागोजिभट्ट
ज्ञानरागादिवासनारूप संस्कारः
कहते हैं। संस्कार अधिवासन हैं-
संस्कारोगन्धमाल्याधैर्यः स्यात्तदधिवासनम्।।
                                                                                                                        (अमरकोश 2.134)
संस्कार से ही मनुष्य द्विज बनता है।
नासंस्कारा द्विजः
                                                                                                                        (बौधायनगृह्य सूत्र)
 महर्षि जैमिनी ने गुणों के अभिवर्द्धन को संस्कार कहा है-
‘‘द्रव्य गुण संस्कारेषु बादरिः’’
      (3.1.3)
श्रीशबर ऋषि ने संस्कृति को परिभाषित करते हुए लिखा है कि-
संस्कारो नाम स श्रवति यक्ष्मिन्जाते पदार्था भवति योग्यः कस्याचिदर्थस्य।
                                                (मीमांसा दर्शन)
अर्थात् संस्कार वह होता है जिसके उत्पन्न होने पर पदार्थ किसी प्रयोजन के लिये योग्य होता है।
महर्षि श्रीभट्टपाद के अनुसार-
योग्यता चादधानाः क्रियाः संस्कारा इत्युच्यन्ते
      (तन्त्रवार्तिक)
संस्कार वे क्रियाएं हैं जो योग्यता प्रदान करती हैं। छान्दोग्य उपनिषद् में आया है कि परमात्मा मन से सम्पन्न और सुसंस्कृत करते हैं।
 
‘‘मनसा संस्कारोति ब्रह्मा’’
(छान्दोग्योपनिषद् 4.16.3)
संस्कार के अभाव से जन्म निरर्थक माना जाता है।
‘‘संस्कार रहिता ये तु तेषां जन्म निरर्थकम्’’
      (आश्वलायन गृह्य सूत्र)
महर्षि पाणिनि ने उसे उत्कर्ष करने वाला बताया है।
‘‘उत्कर्ष साधनं संस्कारः’’
बौद्ध दर्शन में निर्माण, आभूषण, समवाय, प्रकृति, कर्म और स्कन्ध के अर्थ में संस्कारों का प्रयोग किया है। वे इसे अवचक्र की द्वादश शृंख्लाओं में गिनते हैं। वे निम्नोक्त हैं-
अविद्या, संस्कार, विज्ञान, नामरूप, षडायतन, स्पर्श, वेदना, तृष्णा, उपादान, भव, जाति और जरा मरण।
अद्वैत वेदान्त में आत्मा के ऊपर मिथ्या अध्यास के रूप में संस्कार का प्रयोग हुआ है।
कविकुलगुरु कालिदास इस संस्कार को शिक्षण के रूप में प्रयुक्त करते हैं।
निसर्गसंस्कार विनीत इत्यसौ
नृपेण चक्रे युवराज शब्दभाक्
(रघुवंश 3.35)
वहीं कालिदास इसे आभूषण के अर्थों में भी प्रयुक्त करते हैं-
‘‘स्वभाव सुन्दरं वस्तु न संस्कारमपेक्षते’’
      (अभिज्ञान शाकुन्तलम् 7-23)
संस्कार पुण्य के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है
फलानुमेयाः प्रारम्भाः संस्काराः प्राक्तना इव
      (रघुवंश 1-20)
तर्क संग्रह में इसे प्रभाव स्मृति माना जाता है
संस्कारजन्यं ज्ञानं स्मृतिः
      (तर्क संग्रह)
इसी प्रकार के बहुअर्थीय सन्दर्भों वाले इस पवित्र शब्द को ऋषियों ने एक दिव्य अनिर्वचनीय पुण्य उत्पन्न करने वाला धार्मिक कृत्य कहा है।
आत्मशरीरान्यतरनिष्ठो विहित क्रियाजन्योडतिशय विशेष: संस्कारः।
      (वीरमित्रोदय संस्कार प्रकाश)
आचार्य मेधातिथि के अनुसार सुसंस्कृत व्यक्ति ही आत्मोपासना का अधिकारी हो सकता है।
‘‘एतैस्तु संस्कृत आत्मोपासनास्वधिक्रियते’’
      (मनुस्मृतिका मेधातिथि भाष्य)
वैद्यराज आचार्य चरक कहते हैं कि
संस्कारो हि गुणान्तराधानमुच्यते
      (चरक संहिता विमान 1-27)
अर्थात दुर्गुणों, दोषों का परिहार तथा गुणों का परिवर्तन करके भिन्न एवं नये गुणों का आधान करना ही संस्कार कहलाता है।
योगसूत्र में संस्कार के द्वारा पूर्वजन्मों की स्मृतियां प्राप्त करने को कहा गया है। भगवान पतंजलि कहते हैं-
संस्कार साक्षात् करणात् पूर्वजातिज्ञानम्
      (योगसूत्र 3.18)
आचार्य रामानुज संस्कार को योग्यता का मूल मानते हैं।
संस्कारो हि नाम कार्यान्तर योग्यता करणम्।
      (श्री भाष्य 1.1.1)
पूज्यपाद धर्मसम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज ने संस्कार और संस्कृति पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि-
‘‘संस्कृति का लक्ष्य आत्मा का उत्थान है। जिसके द्वारा इसका मार्ग बताया जाय वही संस्कृति का आधार हो सकता है। यद्यपि सामान्यरूपेण भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के धर्मग्रन्थों के आधार पर विभिन्न संस्कृतियां निर्णीत होती हैं। तथापि अनादि अपौरुषैय ग्रन्थ वेद ही हैं। अतः वेद एवं वेदानुसारी आर्ष धर्मग्रन्थों के अनुकूल लौकिक-पारलौकिक अभ्युदय एवं निःश्रेयसों पयोगी व्यापार ही मुख्य संस्कृति है और वही हिन्दू संस्कृति, वैदिक संस्कृति या भारतीय संस्कृति है।’’
     (संस्कार संस्कृति और धर्म)
श्रेष्ठतम वेदान्ती स्वामी श्री विवेकानन्द जी संस्कृति के बारे में बताते हैं कि-
संस्कारों से ही चरित्र बनता है। वास्तव में चरित्र ही जीवन की आधारशिला है उसका मेरुदंड है। राष्ट्र की सम्पन्नता चरित्रवानों की ही देन है। जहां के निवासी चारित्र्य से विभूषित होते हैं वह राष्ट्र प्रगत होगा ही। राष्ट्रोत्थान और व्यष्टि चरित्र ये दोनों अन्योन्याश्रित हैं। मन निर्मल, सत्वगुणयुक्त और विवेकशील हो इसके लिये निरंतर अभ्यास करने की आवश्यकता है। प्रत्येक कार्य से मानो चित्त रूपी सरोवर के ऊपर एक तरंग खेल जाती है। यह कम्पन कुछ समय बाद नष्ट हो जाता है फिर क्या शेष रहता है- केवल संस्कार समूह। मन में ऐसे बहुत से संस्कार पडऩे पर वे इकट्ठे होकर आदत के रूप में परिणित हो जाते हैं। ऐसा कहा जाता है कि आदत ही द्वितीय स्वभाव है। केवल द्वितीय स्वभाव ही नहीं वरन् प्रथम स्वभाव भी है। हमारे मन में जो विचारधारायें बह जाती हैं उनमें से केवल प्रत्येक अपना एक चिह्न-संस्कार छोड ज़ाती है। केवल सत्कार्य करते रहो, सर्वदा पवित्र चिन्तन करो, इस प्रकार चरित्र निर्माण ही बुरे संस्कारों को रोकने का एकमात्र उपाय है।
      (कल्याण संस्कार अंक)
पूज्य योगी श्री देवराहा बाबा के शब्दों में- “फूलों में जो स्थान सुगन्ध का है, फलों में जो स्थान मिठास का है, भोजन में जो स्थान स्वाद का है, ठीक वही स्थान जीवन में सम्यक संस्कार का है। संस्कारों की प्रतिष्ठा से ही यह देश महान बना है। किसी भी देश का आचार-विचार ही उसकी संस्कृति कहलाती है। आचार-व्यवहार, संस्कार और संस्कृति में गहरा तादाम्य है। संस्कार प्रतिष्ठा भगवत्प्रतिष्ठा के समतुल्य है।”
     (योगिराज देवराहा बाबा के उपदेश)
सन्तश्री विनोबाभावे जी कहते हैं- हिन्दुस्थान कभी अशिक्षित और असंस्कृत नहीं रहा है। हर एक को अपने-अपने घरों में शुद्ध संस्कार प्राप्त हुए हैं। जो बडे़-बडे़ पराक्रमशाली लोग हुए उनके कुल के संस्कार भी अच्छे थे। कुछ गुदडी़ के लाल भी निकलते हैं, क्योंकि उनकी आत्मा स्वभावतः महान् और बडी़ विलक्षण होती है। इस प्रकार कुछ अपवादों को छोड द़ें तो सभी महापुरुषों में उनके कुल के संस्कार दिखायी पडत़े हैं। संस्कारों से जो शिक्षण प्राप्त होता है वह और किसी पद्धति से नहीं।
      (संस्कार सौरभ)
संस्कारों की महत्ता को प्रकाशित करते हुए महर्षि दयानन्द सरस्वती कहते हैं कि संस्कारों से ही पवित्रता आती है। अतएव अनेक विध प्रयासों द्वारा संस्कार करते रहना चाहिए।
संस्कारैस्संस्कृतं यद्यन्येध्यमत्र तदुच्यते।
असंस्कृतं तु यल्लो के तदमेध्यं प्रकीत्र्यते।।
     (संस्कार की भूमिका)
गौतम ऋषि ने कहा है कि-
संस्क्रियते अनेन श्रौतेन कर्मणा वा पुरुषा इति संस्कार
     (गौतम सूत्र)
अर्थात् श्रुतियों (त्रच्क्, यजु, साम और अथर्व) एवं स्मृतियों (मनु, वृहस्पति, भरद्वाज, याज्ञवल्क्य, यास्क आदि) द्वारा विहित कर्म ही संस्कार कहलाता है।
 
श्री दादा धर्माधिकारी संस्कृति के संदर्भ में लिखते हैं कि- संस्कृति एक अखिल- जागतिक भाव और सार्वभौम तत्त्व है। उसके लक्षण अखिल जागतिक हैं। उसके मूल तत्त्व भी विश्व के समस्त देशों मंे विद्यमान हैं। संस्कृति की मूलभूत परिभाषा में एकता झलकती है। इसलिए वह संस्कृति है और मनुष्यों को सभ्य बना सकती है। अतः संस्कृति उस शिक्षा व दीक्षा को भी कह सकते हैं जो सामान्य मानव का जीवन सुधारे। इससे स्पष्ट है कि एक देश की संस्कृति में उस देश की पुरातन आदतें, प्रथाएं व रहन-सहन भी सन्निहित होते हैं और वे उस देश के मनुष्यों के चरित्र निर्माण में सहायक होते हैं। वैसे सभी संस्कृतियों का लक्ष्य मानव-आत्मा को उन्नत करना ही होता है; क्योंकि सभी मानव मूलतः एवं प्रकृति से सदृश हैं। इस कारण सभी देशों की जातियों की संस्कृतियां कई अंशों में समान भी पाई जाती हैं। लेकिन फिर भी देश, काल और पात्र की परिस्थितियों एवं संस्कृतियों के प्रेरकों-निर्माताओं के आदर्श विभिन्न होते हैं। इस विभिन्नता के कारण ही देशों की संस्कृतियों में भी भिन्नता आ जाती है। भारतीय संस्कृति के प्रमुख प्रणेता ऋषि-महर्षि व दार्शनिक रहे हैं। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति अन्य देशों की संस्कृतियों से कुछ भिन्नता लिए हुए है। इस संदर्भ में हम भारतीय योगी अरविंद की परिभाषा उल्लेखित कर देना आवश्यक समझते हैं। वे संस्कृति को परिभाषित करते हुए लिखते हैं ‘‘इस संसार में सच्चा सुख आत्मा, मन और शरीर के समुचित समन्वय और उसे बनाये रखने में ही निहित होता है। किसी संस्कृति का मूल्यांकन इसी बात से करना चाहिए कि वह इस समन्वय को प्राप्त करने की दशा में कहा तक सफल रही है।’’
 
भारतीय संस्कृति धर्म प्रधान एवं आध्यात्मिक होने के कारण दार्शनिक आवरण से अधिक आवृत्त हो गई है। इसीलिए भारतीय संस्कृति से तात्पर्य सत्यं, शिवं, सुन्दरम के लिए मस्तिष्क और हृदय में आकर्षण उत्पन्न करना तथा अभिव्यंजना द्वारा उसकी प्रशंसा करने से लिया जाता है। इसी श्रेणी में हम श्री वासुदेव शरण अग्रवाल द्वारा परिभाषित संस्कृति की परिभाषा का उल्लेख कर देना भी उचित समझते हैं। वे अपनी पुस्तक ‘कला और संस्कृति’ में लिखते हैं- ‘‘वास्तव में संस्कृति वह है जो सूक्ष्म एवं स्थूल मन एवं कर्म, अध्यात्म जीवन एवं प्रत्यक्ष जीवन में कल्याण करती है।’’ अतः यदि हम संस्कृति को जीवन के महत्वपूर्ण एवं सार्थक रूपों की आत्म-चेतना कहें तो अनुचित नहीं होगा।
प्रो. गोविन्द चन्द्र पाण्डेय के अनुसारः ‘‘संस्कृति से तात्पर्य है सामाजिक मानस अथवा चेतना से जिसका इस प्रसंग में स्वप्रकाश विजयी के अर्थ में नहीं किन्तु विचारों, प्रयोजनों और भावनाओं की संगठित समष्टि के अर्थ में ग्रहण करना चाहिए।’’
डॉ. रामधारी सिंह दिनकर के अनुसारः ‘‘संस्कृति वह चीज मानी जाती है जो सारे जीवन में व्याप्त हुए हैं तथा जिसकी रचना और विकास में अनेक सदियों के अनुभवों का साथ है।’’ डॉ. सत्यकेतु विद्यालंकार ने संस्कृति शब्द को स्पष्ट करते हुए लिखा है, ‘‘मनुष्य अपनी बुद्धि का प्रयोग कर विचार और कर्म के क्षेत्र में जो सृजन करता है उसे संस्कृति कहते हैं।’’
 डॉ. देवराज के अनुसारः ‘‘संस्कृति उस बोध या चेतना को कहते हैं जिसका सार्वभौम उपभोग या स्वीकार हो सकता है और जिसका विषय वस्तुसत्ता के वे पहलू हैं जो निर्वैयक्तिक रूप में अर्थमान हैं।’’
 
शिवदत्त ज्ञानी के अनुसारः ‘‘किसी समाज, जाति अथवा राष्ट्र के समस्त व्यक्तियों के उदात्त संस्कारों के पुंज का नाम उस समाज, जाति और राष्ट्र की संस्कृति है। किसी भी राष्ट्र के शारीरिक, मानसिक व आत्मिक शक्तियों का विकास संस्कृति का मुख्य उद्देश्य है।’’
इस प्रकार संस्कार का अर्थ है संवारना, सजाना, उन्नत बनाना और इसकी प्रक्रिया का नाम संस्कृति है।
संस्कृति का समरूप या पर्यायवाची culture शब्द नहीं हो सकता। अंग्रेजी का शब्द culture लैटिन के cult से बना है। oxford शब्दकोश के अनुसार cult का अर्थ पूजा पद्धति से है। Cult is a system of religion worship या to a person or thing.
लैटिन के culture का अर्थ काट-छांट करना होता है, जो विशेषतः वनस्पतियों के अर्थ में प्रयोग होता है। फूल पत्तों की कटाई-छंटाई करना मूल अर्थ था। इसी कारण Horticulture, Agriculture, Cultivate culture आदि शब्द अस्तित्वमान है। यह culture शब्द केवल और केवल वानस्पतिक अर्थों में प्रयुक्त होता था जो कृषि कार्य से सम्बद्ध थे। इसी कारण वे कृषि जन्य अन्य शब्द भी निर्मित हुए। बाद में कल्टस culture से the cult film, cult figure, personalty cult the cult of aestheticism आदि शाब्दिक अवधारणाएं बनीं। परन्तु कोई भी शब्द भारतीय शब्द संस्कृति के पासंग में भी नहीं समा रहा है। कितना मूलभूत अन्तर है भावों का। जिस प्रकार अंग्रेजी लैटिन के वे सभी शब्द culture के व्युत्पन्न हैं उसी प्रकार भाषा विज्ञानियों के अनुसार संस्कृति, संस्कृत, संस्कार आदि शब्द भी एक ही मूल के हैं। मूल समस्या तब प्रारम्भ हुई जब हम अंग्रेजी के माध्यम से संस्कृत, संस्कृति का अध्ययन करने लगे। शब्दों के हेर-फेर से भावों और तज्जन्य परिणामों पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा।
अंग्रेजी में ‘संस्कृति’ शब्द का समानार्थक शब्द ‘कल्चर’ है। ‘कल्चर’ शब्द की व्याख्या करते हुए अमेरिकन विद्वान व्हाइट-हेड ने लिखा है: ‘कल्चर’ मानसिक प्रक्रिया है और सौन्दर्य तथा मानवीय अनुभूतियों का हृदयंगम करने की क्षमता है।’’
बेकन के अनुसार: ‘कल्चर’ में मानवता के आंतरिक एवं स्वतंत्र जीवन की अभिव्यक्ति होती है।’ भारतीय संस्कृति का विदेशों में विकास उसकी अपनी महिमा और उदारता के कारण हुआ है तथापि कई बार ऐसा शस्त्र और शौर्य से भी किया गया है। ‘‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’’। हम संसार को सभ्य बनायेंगे, ऐसा इस देश का लक्ष्य रहा है। उसके लिये भारतीय संस्कृति द्वारा प्रवाहित ज्ञान धारायें जब काम नहीं कर सकी तो अस्त्र भी उठाये गये है और उसके लिये सारे विश्व ने साथ भी दिया है। महाभारत का युद्ध हुआ था उसमें काबुल, कन्धार, जावा, सुमात्रा, मलय, सिंहल, आर्यदेश (आयरलेण्ड) पाताल (अमेरिका) आदि देशों के सम्मिलित होने का वर्णन है यह विश्व युद्ध था।
 
भारतीय संस्कृति माता है और विश्व के तमाम देश अनेक संस्कृतियां और जातियां उसके पुत्र-पुत्री पोता-पोती की तरह है। घर सबका यही था, भाषा सबकी यहीं की संस्कृति थी ओर संस्कृति थी और संस्कृति भी यही की थी जो कालान्तर में बदलते-बदलते और बढ़ते-बढ़ते अनेक रूप और प्रकारों में उसी तरह हो गई जैसे आस्ट्रेलियाई मूंगों की दूर-दूर तक फैली हुई चट्टान।
इस तथ्य का मनोवैज्ञानिक ‘बेनीडिक्ट’ अपनी पुस्तक में इस प्रकार वर्णन करते है संस्कृति जिससे व्यक्ति अपना जीवन बनाता है, कच्चा पदार्थ प्रस्तुत करती है तथा उसका स्तर निम्न है तो व्यक्ति को कष्ट देती है तथा उसका व्यक्तित्व निकृष्ट स्तर का बनता है और यदि श्रेष्ठ हुई तो व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास का अवसर मिलता है।
निष्कर्ष
सुसंस्कारिता ही मानव जीवन का बहुमूल्य गरिमा है, इसे अपनाने वाले ही संस्कृति को समाज को धन्य बनाते और स्वयं उसके अनुयायी होने का गौरव प्राप्त करते हैं। अभिसिंचित करता रहा है। इस सत्य के प्रमाण आज भी इतिहासकार देते है। उल्लेख मिलता ही है कि दक्षिण-पूर्वी ऐशिया ने भारत से ही अपनी संस्कृति ली। ईसा से पांचवी शताब्दी पूर्व भारत के व्यापारी सुमात्रा, मलाया और पास के अन्य द्वीपों में जाकर बस गये, वहां के निवासियों से वैवाहिक सम्बन्ध भी स्थापित कर लिये। चैथी शताब्दी के पूर्व में अपनी विशिष्टता के कारण संस्कृति उन देशों की राजभाषा बन चुकी थी। राज्यों की सामूहिक शक्ति जावा के वोरोबदर स्तूप और कम्बोडिया के शैव मन्दिर में सन्निहित थी। राजतन्त्र इन धर्म संस्थानों के अधीन रहकर कार्य करता था। चीन, जापान, तिब्बत, कोरिया की संस्कृतियों पर भारत की अमिट छाप आज देखी जा सकती है। बौद्ध स्तूपों, मन्दिरों के ध्वंशावशेष अनेक स्थानों पर बिखरे पडे़ है।
 
संदर्भ सूची
पाण्डेय, डॉ. रामसजन. (1995). संतों की सांस्कृतिक संसृति. दिल्ली : उपकार प्रकाशन. पृष्ठ. 14
दिनकर, रामधारी सिंह.(1956). संस्कृति के चार अध्याय. दिल्ली : राजपाल एंड संस, पृष्ठ. 5
शुक्ल, दुर्गाशंकर.(1956).भारत की राष्ट्रीय संस्कृति (अनु.). नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया, पृष्ठ.3
तिवारी, डॉ. शशि एवं अन्य.(1986). भारतीय धर्म और संस्कृति. दिल्ली : दिल्ली विश्वविद्यालय, पृष्ठ.1
शास्त्री, डॉ. अनंत कृष्ण.(1942). ऐतरेयब्राह्मण. यूनिवर्सिटी ऑफ भावनकोर, पृष्ट. 1-6

Wednesday, April 16, 2025

भारत की पहचान है सांस्कृतिक राष्ट्रवाद


डॉ. सौरभ मालवीय
''सांस्कृतिक राष्ट्रवाद'' प्राचीन अवधारणा है। राष्ट्र वही होगा, जहां संस्कृति होगी। जहां संस्कृति विहीन स्थिति होगी, वहां राष्ट्र की कल्पना भी बेमानी है। भारत में आजादी के बाद शब्दों की विलासिता का जबर्दस्त दौर कुछ तथाकथित बुध्दिजीवियों ने चलाया। इन्होंने देश में तत्कालीन सत्ताधारियों को छल-कपट से अपने घेरे में ले लिया। परिणामस्वरूप राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत जीवनशैली का मार्ग निरन्तर अवरूध्द होता गया। अब अवरूध्द मार्ग खुलने लगा है। संस्कृति से उपजा संस्कार बोलने लगा है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का आधार हमारी युगों पुरानी संस्कृति है, जो सदियों से चली आ रही है। यह सांस्कृतिक एकता है, जो किसी भी बन्धन से अधिक मजबूत और टिकाऊ है, जो किसी देश में लोगों को एकजुट करने में सक्षम है और जिसमें इस देश को एक राष्ट्र के सूत्र में बांध रखा है। भारत की संस्कृति भारत की धरती की उपज है। उसकी चेतना की देन है। साधना की पूंजी है। उसकी एकता, एकात्मता, विशालता, समन्वय धरती से निकला है। भारत में आसेतु-हिमालय एक संस्कृति है। उससे भारतीय राष्ट्र जीवन प्रेरित हुआ है। अनादिकाल से यहां का समाज अनेक सम्प्रदायों को उत्पन्न करके भी एक ही मूल से जीवन रस ग्रहण करता आया है। भारतीय संस्कृति की नींव गंगा, गायत्री, गौ, गीता पर खड़ी है। ज्ञान-कर्म-शील-सातत्य इसकी सुदृढ़ दीवारें हों। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की छत का जिसे संरक्षण मिला है तथा इसमें विराजती है, उस विराट की प्रतिमा जो सत्य, सुन्दर, शिव है। कर्म यहां का जीवन है, पूजा है। यहाँ अधिकार की आराधना नहीं, कर्म की ही उपासना होती है। हमने इसे पूजा है, कभी राम के रूप में, कभी कृष्ण के रूप में। भारतीय संस्कृति, संश्लेषण की संस्कृति है, विश्लेषण का विज्ञान नहीं। समन्वय इसका स्वभाव है। टूटना इसका चरित्र नहीं। आस्था इसकी डगर है और विश्वास इसका पड़ाव। न कोई भटकाव है और न कोई विभ्रम।
प्रचलित राष्ट्रवाद की परिभाषा भूगोल पर आधारित है, देश व राष्ट्र समुद्रों, पर्वतों, नदियों, रेगिस्तानों की सीमाओं से बंधे हो। यूरोपीय विद्वानों के मतानुसार राष्ट्रीयता की भावना सर्वप्रथम 1789 में हुई फ्रेंच जाति के बाद उभरकर सामने आई। पेंग्विन डिक्श्नरी ऑफ सोशियॉलाजी में राष्ट्रीयता की भावना अट्ठारहवीं शताब्दी में सर्वप्रथम यूरोपीय देशों में न्याय राज्य निर्माण होकर वहीं के मानव समूहों को राष्ट्र का स्वरूप प्राप्त हो गया। यूरोप के मानचित्रों पर जर्मन राष्ट्र का प्रादुर्भाव 1871 में हुआ। फिर इटली का एकीकरण हुआ और धीरे-धीरे राष्ट्रीयता की अवधारणा यूरोप के अन्य देशों में भी फैल गयी। यूरोपीय देशों के साम्राज्यवादी एवं बौध्दिक विस्तार के फलस्वरूप राजनीतिक राष्ट्रीयता के विचार का प्रसार अन्य देशों में भी फैल गया। चूंकि वे शासक थे, इसलिए उनकी बात को यूरोपीय विद्वानों के साथ-साथ गैर यूरोपीय विद्वानों ने भी स्वीकार्य कर लिया। प्रभुसत्ता ने जिस-जिस भूमि पर अधिकार (कब्जा) किया, वो उनका राष्ट्र बनता गया। तिब्बत की राष्ट्रीयता को समाप्त करके चीन ने अपनी प्रभुसत्ता बनाई। इज़राइल और फिलिस्तीन ने कब्जे के आधार पर देश या राष्ट्र को परिभाषित किया। राजनीतिक विचारधारा आधारित राष्ट्र साम्यवाद, पूंजीवाद इत्यादि, जाति आधारित यूरोप को अंग्रेजों हब्शियों (नीग्रो) पूजा पध्दति आधारित सभी राष्ट्र जिसमें इस्लाम का राजसत्ता का संरक्षण प्राप्त है। इसी प्रकार राष्ट्रपति बुश का ईसाइयों और मुस्लिमों में भी पूजा पध्दति का मतभेद होने के कारण ये राष्ट्र क्रियात्मक नहीं हो पाते। हिन्दू धर्म में भी अनेक विश्वास और पूजा पध्दतियां हैं, जिसके कारण जैनियों का राष्ट्र या सिक्खों का राष्ट्र जैसी कल्पनाएं अव्यवहारिक/संस्कृति आधारित राष्ट्र व पूरे या यूरोप की समान संस्कृति यूरोपियन संघ बना हुआ है। अमेरिका में विभिन्न जातियों के एक साथ रहने का कारण भी सांस्कृतिक हो सकता है, क्योंकि पिछले चार सौ वर्षों की एक विशेष संस्कृति वहां पर उत्पन्न हुई है, हिन्दु जीवन दर्शन पर आधारित संस्कृति जहां-जहां है, उनको भारतीय या हिन्दू राष्ट्र की कल्पना में सम्मिलित किया जा सकता है, इसमें भौगोलिक सीमाओं का महत्व कम हो जाता, नागरिकता और राष्ट्रीयता में अन्तर कम हो जाता है। भारत एक प्राचीन राष्ट्र है और इसकी राष्ट्रीयता का आधार है संस्कृति - उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्, वर्ष तद् भारतं नाम भारती यत्र संतति: पश्चिमी विचारधारा से प्रभावित तथाकथित एक ऐसा वर्ग है जो इसे राष्ट्र नहीं मानता। ''काफिले आते रहे, कारवां बनता रहा'' या । Nation is making. राष्ट्र, राज्य एवं देश को एक ही मानने या इनके अंतर को न समझने के कारण ये तथाकथित प्रगतिशील लोग भ्रमजाल फैलाते रहते हैं। प्रादेशिक राष्ट्रवाद की संकल्पना यूरोप में राज्यों के अभ्युदय के साथ प्रमुखता से उभरी। एक निश्चित भूखंड, उसमें रहने वाला जन, एक शासन एवं उसकी संप्रभुता को राष्ट्र कहा गया। कालांतर में राजनीतिक स्वरूप के कारण राष्ट्र एवं राज्य को समान अर्थों में प्रयोग में लाया जाने लगा। संयुक्त राष्ट्र संघ राष्ट्र शब्द को प्रयोग में लाया। राज्य एवं देश बनते-बिगड़ते रहे एवं संयुक्त राष्ट्र संघ उन्हें मान्यता देता रहा फलत: राष्ट्र एवं राज्य का अंतर समझने में भूल होती रही। मगर पश्चिमी परिभाषा की कसौटी पर भारत एक राष्ट्र नहीं, क्योंकि एक शासन नहीं। अंग्रेजों एक शासन के अंदर इसे लाए। अत: उसे राष्ट्र बनाने का श्रेय दिया गया। इज़रायल भी एक राष्ट्र नहीं, क्योंकि वहां जन (इज़रायली) था ही नहीं। द्वितीय विश्व युध्द के बाद अनेक राष्ट्रों को षडयंत्रपूर्वक तोड़ा गया। जर्मन-पूर्वी एवं पश्चिमी जर्मनी, वियतनाम उत्तरी एवं दक्षिणी वियतनाम, कोरिया-उत्तरी एवं दक्षिणी कोरिया, लेबनान उत्तरी एवं दक्षिणी लेबनान आदि। भारत का विभाजन भी 1947 में द्विराष्ट्रीयता के आधार पर हुआ। हिन्दु एवं मुस्लिम दो राष्ट्रीयता हैं अत:, दो राष्ट्र होने चाहिए। जर्मनी, वियतनाम, कोरिया, लेबनान आदि टूटे अवश्य पर उन्होंने अपनी राष्ट्रीयता को नहीं छोड़ा पर दुर्भाग्यवश भारत का जो विभाजन हुआ वह एक अलग स्वरूप में हुआ। पूर्वी हिन्दुस्तान, पश्चिमी हिन्दुस्तान एवं मध्य हिन्दुस्तान - अगर इस रूप में रहता तो हिन्दुस्तानी राष्ट्रीयता जिंदा रहती। पंथ राष्ट्रीयता है तो फिर इस्लाम एवं ईसाई मत वालों का एक ही राष्ट्र होना चाहिए था - यह ­प्रश्न नहीं उठाया गया। पंथ को राष्ट्रीयता मानने के कारण ही नागालैंड एवं मिजोरम में अलगाववाद ने हिंसक रूप धारण किया। इसी धारणा के कारण पंजाब में भी अलगाववाद उभारने का असफल प्रयास हुआ। सिक्खों ने सवाल किया कि हिन्दू, मुस्लिम सिख, ईसाई-आपस में हैं भाई-भाई। अगर दो भाइयों का बंटवारा 1947 में हो गया तो हमें भी अलग करो। इसी तरह पाकिस्तान भाषा (बंगला-उर्दू) को राष्ट्रीयता मानकर दो भागों में टूट गया। अगर भाषा राष्ट्रीयता है तो फिर सभी अंग्रेजी बोलने वालों का एक राष्ट्र क्यों नहीं ? इंग्लैण्ड एवं आयरलैण्ड आपस में क्यों लड़ते हैं ? भारत में भी एक ऐसा वर्ग है जो भाषा को राष्ट्रीयता मानकर इस देश को बहुराष्ट्रीयता (Multi Nationality, Mix Culture) बहु सांस्कृतिक राज्य कहता है। गुजराती संस्कृति, पंजाबी संस्कृति, उड़िया संस्कृति, तेलुगु संस्कृति, कन्नड़ संस्कृति, मराठी संस्कृति, तमिल संस्कृति आदि शब्दों का प्रयोग करता है और लोग भी अपनी ''संस्कृति की पहचान'' के नाम पर अलगाववाद के नारे लगाने लगते हैं। यह संस्कृति नहीं बोली (भाषा) है। 1989 में विश्व पटल पर कुछ घटनायें घटीं जिसके कारण राष्ट्रीयता पर एक बहस उभर कर सामने आयी। सोवियत संघ विभाजित होकर 15 भागों में टूट गया। राष्ट्रीयता को नकार कर राज्य को सर्वोपरि मानने वाले वामपंथी राष्ट्रीय एकता की बात करने लगे। - ''भारत में अनेक राष्ट्रीयता हैं'' इसकी वकालत करने वाले सोवियत संघ का उदाहरण देकर यह दावा करते थे कि राष्ट्रीयता से ऊपर राज्य है। साम्यवाद के विस्तार में वे राष्ट्रीयता को बाधक मानते थे। पंथ, भाषा से ऊपर उठकर यहां का जन एक है। अतीत के सुख-दुख की उसे समान अनुभूति है - इसी अनुभूति के कारण वह इस भूमि को मातृभूमि-मोक्ष भूमि मानता है। उसकी नागरिकता भले कुछ भी हो जाये पर इस राष्ट्र से बाहर जाकर भी इस मिट्टी से वह जुड़ा हुआ है। केरल के शंकराचार्य ने चार-पीठ की स्थापना की ज्योतिपीठ (उत्तरांचल), श्रृगेरीपीठ (कर्नाटक), गोवर्धन पीठ (उड़ीसा), शारदापीठ (गुजरात)। उन्होंने एक भी पीठ केरल में स्थापित नहीं की - मलयालम संस्कृति या मलयालम को राष्ट्रीयता मानने वालों को इसका उत्तर देना होगा। चार धाम, चार स्थानों (प्रयाग, हरिद्वार, नासिक, उज्जैन) पर लगने वाले कुम्भ, द्वादश ज्योर्तिलिंग - 52 शक्तिपीठ हमारी राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रीय एकात्मता के प्रतीक हैं। गंगा को मोक्ष दायिनी सभी मानते हैं। आत्मवत सर्व भूतेषु एक सद् विप्रा बहुधा वदन्ति, पुनर्जन्म में विश्वास - हमारी संस्कृति के ये मूल तत्व हैं। हमारी विविधता हमारी संस्कृति की महानता को प्रकट करता है। इस विविधता को राष्ट्रीयता का नाम देकर अलगाववाद की वकालत करने वालों को पराजित करना होगा।
''न मे वाछास्ति यशोस विद्वत्व न च वा सुखे
प्रभुत्वे नैव वा स्वेग्र मोखेप्यानंददयके
परन्तु भारते जन्म मानवस्य च वा पशो:
विहंगस्य च वा जन्तों: वृक्षपाषाणयोरपि''
अर्थात् मुझे यश, विद्वता, किसी अन्य सुख या राजनीतिक प्रभुता की इच्छा नहीं है और न मैं स्वर्ग या मोक्ष की ही कामना करता हूं। परंतु मैं चाहता हूं कि भारत में ही मेरा पुनर्जन्म हो भले ही वह मानव, पशु, जन्तु, वृक्ष या पाषाण के रूप में क्यों न हो।

स्वतंत्रता संग्राम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका


डॉ. सौरभ मालवीय
संघ संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार जन्मजात देशभक्त और प्रथम श्रेणी के क्रांतिकारी थे. वे युगांतर और अनुशीलन समिति जैसे प्रमुख विप्लवी संगठनों में डॉ. पाण्डुरंग खानखोजे, श्री अरविन्द, वारीन्द्र घोष, त्रैलौक्यनाथ चक्रवर्ती आदि के सहयोगी रहे. रासबिहारी बोस और शचीन्द्र सान्याल द्वारा प्रथम विश्वयुद्ध के समय 1915 में संपूर्ण भारत की सैनिक छावनियों में क्रांति की योजना में वे मध्यभारत के प्रमुख थे. उस समय स्वतंत्रता आंदोलन का मंच कांग्रेस थी. उसमें भी उन्होंने प्रमुख भूमिका निभाई. 1921 और 1930 के सत्याग्रहों में भाग लेकर कारावास का दंड पाया.
1925 की विजयादशमी पर संघ स्थापना करते समय डॉ. हेडगेवार जी का उद्देश्य राष्ट्रीय स्वाधीनता ही था. संघ के स्वयंसेवकों को जो प्रतिज्ञा दिलाई जाती थी, उसमें राष्ट्र की स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए तन-मन-धन पूर्वक आजन्म और प्रामाणिकता से प्रयत्नरत रहने का संकल्प होता था. संघ स्थापना के तुरंत बाद से ही स्वयंसेवक स्वतंत्रता संग्राम में अपनी भूमिका निभाने लगे थे.
क्रांतिकारी स्वयंसेवक
संघ का वातावरण देशभक्तिपूर्ण था. 1926-27 में जब संघ नागपुर और आसपास तक ही पहुंचा था उसी काल में प्रसिद्ध क्रांतिकारी राजगुरू नागपुर की भोंसले वेदशाला में पढ़ते समय स्वयंसेवक बने. इसी समय भगतसिंह ने भी नागपुर में डॉक्टर जी से भेंट की थी. दिसंबर 1928 में ये क्रांतिकारी पुलिस उपकप्तान सांडर्स का वध करके लाला लाजपत राय की हत्या का बदला लेकर लाहौर से सुरक्षित आ गए थे. डॉ. हेडगेवार ने राजगुरू को उमरेड में भैया जी दाणी (जो बाद में संघ के अ.भा. सरकार्यवाह रहे) के फार्म हाउस पर छिपने की व्यवस्था की थी.
1928 में साइमन कमीशन के भारत आने पर पूरे देश में उसका बहिष्कार हुआ. नागपुर में हडताल और प्रदर्शन करने में संघ के स्वयंसेवक अग्रिम पंक्ति में थे.
महापुरुषों का समर्थन
1928 में विजयादशमी उत्सव पर भारत की असेंबली के प्रथम अध्यक्ष और सरदार पटेल के बड़े भाई श्री विट्ठल भाई पटेल उपस्थित थे. अगले वर्ष 1929 में महामना मदनमोहन मालवीय जी ने उत्सव में उपस्थित हो संघ को अपना आशीर्वाद दिया. स्वतंत्रता संग्राम की अनेक प्रमुख विभूतियां संघ के साथ स्नेह संबंध रखती थीं.
शाखाओं पर स्वतंत्रता दिवस
31 दिसंबर, 1929 को लाहौर में कांग्रेस ने प्रथम बार पूर्ण स्वाधीनता को लक्ष्य घोषित किया और 16 जनवरी, 1930 को देश भर में स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाने का निश्चय किया गया.
डॉ. हेडगेवार ने दस वर्ष पूर्व 1920 के नागपुर में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में पूर्ण स्वतंत्रता संबंधी प्रस्ताव रखा था, पर तब वह पारित नहीं हो सका था. 1930 में कांग्रेस द्वारा यह लक्ष्य स्वीकार करने पर आनंदित हुए हेडगेवार जी ने संघ की सभी शाखाओं को परिपत्र भेजकर रविवार 26 जनवरी, 1930 को सायं 6 बजे राष्ट्रध्वज वंदन करने और स्वतंत्रता की कल्पना और आवश्यकता विषय पर व्याख्यान की सूचना करवाई. इस आदेश के अनुसार संघ की सब शाखाओं पर स्वतंत्रता दिवस मनाया गया.
सत्याग्रह
6 अप्रैल, 1930 को दांडी में समुद्रतट पर गांधी जी ने नमक कानून तोडा और लगभग 8 वर्ष बाद कांग्रेस ने दूसरा जनान्दोलन प्रारम्भ किया. संघ का कार्य अभी मध्यभारत प्रान्त में ही प्रभावी हो पाया था. यहां नमक कानून के स्थान पर जंगल कानून तोडकर सत्याग्रह करने का निश्चय हुआ. डॉ. हेडगेवार संघ के सरसंघचालक का दायित्व डॉ. परांजपे को सौंप स्वयं अनेक स्वयंसेवकों के साथ सत्याग्रह करने गए.
जुलाई 1930 में सत्याग्रह हेतु यवतमाल जाते समय पुसद नामक स्थान पर आयोजित जनसभा में डॉ. हेडगेवार के संबोधन में स्वतंत्रता संग्राम में संघ का दृष्टिकोण स्पष्ट होता है. उन्होंने कहा- ‘स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों के बूट की पालिश करने से लेकर, उनके बूट को पैर से निकाल कर उससे उनके ही सिर को लहुलुहान करने तक के सब मार्ग मेरे स्वतंत्रता प्राप्ति के साधन हो सकते हैं. मैं तो इतना ही जानता हूं कि देश को स्वतंत्र कराना है.‘’
डॉ. हेडगेवार के साथ गए सत्याग्रही जत्थे में आप्पा जी जोशी (बाद में सरकार्यवाह) दादाराव परमार्थ (बाद में मद्रास में प्रथम प्रांत प्रचारक) आदि 12 स्वयंसेवक थे. उनको 9 मास का सश्रम कारावास दिया गया. उसके बाद अ.भा. शारीरिक शिक्षण प्रमुख (सर सेनापति) श्री मार्तंड राव जोग, नागपुर के जिलासंघचालक श्री अप्पाजी हळदे आदि अनेक कार्यकर्ताओं और शाखाओं के स्वयंसेवकों के जत्थों ने भी सत्याग्रहियों की सुरक्षा के लिए 100 स्वयंसेवकों की टोली बनाई जिसके सदस्य सत्याग्रह के समय उपस्थित रहते थे.
8 अगस्त को गढवाल दिवस पर धारा 144 तोडकर जुलूस निकालने पर पुलिस की मार से अनेक स्वयंसेवक घायल हुए.
विजयादशमी 1931 को डाक्टर जी जेल में थे, उनकी उनुपस्थिति में गांव-गांव में संघ की शाखाओं पर एक संदेश पढा गया, जिसमें कहा गया था- ‘’देश की परतंत्रता नष्ट होकर जब तक सारा समाज बलशाली और आत्मनिर्भर नहीं होता तब तक रे मना ! तुझे निजी सुख की अभिलाषा का अधिकार नहीं.‘’
जनवरी 1932 में विप्लवी दल द्वारा सरकारी खजाना लूटने के लिए हुए बालाघाट कांड में वीर बाघा जतीन (क्रांतिकारी जतीन्द्र नाथ) अपने साथियों सहित शहीद हुए और श्री बाला जी हुद्दार आदि कई क्रांतिकारी बंदी बनाए गए. श्री हुद्दार उस समय संघ के अ.भा. सरकार्यवाह थे.
संघ पर प्रतिबंध
संघ के विषय में गुप्तचर विभाग की रपट के आधार पर मध्य भारत सरकार (जिसके क्षेत्र में नागपुर भी था) ने 15 दिसंबर 1932 को सरकारी कर्मचारियों को संघ में भाग लेने पर प्रतिबंध लगा दिया.
डॉ. हेडगेवार जी के देहांत के बाद 5 अगस्त 1940 को सरकार ने भारत सुरक्षा कानून की धारा 56 व 58 के अंतर्गत संघ की सैनिक वेशभूषा और प्रशिक्षण पर पूरे देश में प्रतिबंध लगा दिया.
1942 का भारत छोडो आंदोलन
संघ के स्वयंसेवकों ने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए भारत छोडो आंदोलन में भी सक्रिय भूमिका निभाई. विदर्भ के अष्टी चिमूर क्षेत्र में समानान्तर सरकार स्थापित कर दी. अमानुषिक अत्याचारों का सामना किया. उस क्षेत्र में एक दर्जन से अधिक स्वयंसेवकों ने अपना जीवन बलिदान किया. नागपुर के निकट रामटेक के तत्कालीन नगर कार्यवाह श्री रमाकान्त केशव देशपांडे उपाख्य बाळासाहब देशपांडे को आन्दोलन में भाग लेने पर मृत्युदंड सुनाया गया. आम माफी के समय मुक्त होकर उन्होंने वनवासी कल्याण आश्रम की स्थापना की.
देश के कोने-कोने में स्वयंसेवक जूझ रहे थे. मेरठ जिले में मवाना तहसील पर झंडा फहराते स्वयंसेवकों पर पुलिस ने गोली चलाई, अनेक घायल हुए.
आंदोलनकारियों की सहायता और शरण देने का कार्य भी बहुत महत्व का था. केवल अंग्रेज सरकार के गुप्तचर ही नहीं, कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता भी अपनी पार्टी के आदेशानुसार देशभक्तों को पकड़वा रहे थे. ऐसे में जयप्रकाश नारायण और अरुणा आसफ अली दिल्ली के संघचालक लाला हंसराज गुप्त के यहां आश्रय पाते थे. प्रसिद्ध समाजवादी श्री अच्युत पटवर्धन और साने गुरूजजी ने पूना के संघचालक श्री भाऊसाहब देशमुख के घर पर केंद्र बनाया था. ‘पतरी सरकार’ गठित करनेवाले प्रसिद्ध क्रांतिकर्मी नाना पाटील को औंध (जिला सतारा) में संघचालक पंडित सातवलेकर जी ने आश्रय दिया.
स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु संघ की योजना
ब्रिटिश सरकार के गुप्तचर विभाग ने 1943 के अंत में संघ के विषय में जो रपट प्रस्तुत की वह राष्ट्रीय अभिलेखागार की फाइलों में सुरक्षित है, जिसमें सिद्ध किया है कि संघ योजनापूर्वक स्वतंत्रता प्राप्ति की ओर बढ़ रहा है.

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद


डॉ. सौरभ मालवीय 
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद प्राचीन अवधारणा है। राष्ट्र वही होगा, जहां संस्कृति होगी। जहां संस्कृति विहीन स्थिति होगी, वहां राष्ट्र की कल्पना भी बेमानी है। भारत में आजादी के बाद शब्दों की विलासिता का जबर्दस्त दौर कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों ने चलाया। इन्होंने देश में तत्कालीन सत्ताधारियों को छल-कपट से अपने घेरे में ले लिया। परिणामस्वरूप राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत जीवनशैली का मार्ग निरन्तर अवरूद्ध होता गया। अब अवरूद्ध मार्ग खुलने लगा है। संस्कृति से उपजा संस्कार बोलने लगा है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का आधार हमारी युगों पुरानी संस्कृति है, जो सदियों से चली आ रही है। यह सांस्कृतिक एकता है, जो किसी भी बन्धन से अधिक मजबूत और टिकाऊ है, जो किसी देश में लोगों को एकजुट करने में सक्षम है और जिसमें इस देश को एक राष्ट्र के सूत्र में बांध रखा है। भारत की संस्कृति भारत की धरती की उपज है। उसकी चेतना की देन है। साधना की पूंजी है। उसकी एकता, एकात्मता, विशालता, समन्वय धरती से निकला है। भारत में आसेतु-हिमालय एक संस्कृति है । उससे भारतीय राष्ट्र जीवन प्रेरित हुआ है। अनादिकाल से यहां का समाज अनेक सम्प्रदायों को उत्पन्न करके भी एक ही मूल से जीवन रस ग्रहण करता आया है।

भारतीय संस्कृति की नींव गंगा, गायत्री, गौ, गीता पर खड़ी है। ज्ञान-कर्म-शील-सातत्य इसकी सुदृढ़ दीवारें हों। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की छत का जिसे संरक्षण मिला है तथा इसमें विराजती है, उस विराट की प्रतिमा जो सत्य, सुन्दर, शिव है। कर्म यहां का जीवन है, पूजा है। यहाँ अधिकार की आराधना नहीं, कर्म की ही उपासना होती है। हमने इसे पूजा है, कभी राम के रूप में, कभी —ष्ण के रूप में। भारतीय संस्कृति संश्लेषण की संस्कृति है, विश्लेषण का विज्ञान नहीं। समन्वय इसका स्वभाव है। टूटना इसका चरित्र नहीं। आस्था इसकी डगर है और विश्वास इसका पड़ाव। न कोई भटकाव है और न कोई विभ्रम।


भारतीय संस्कृति की नींव गंगा, गायत्री, गौ, गीता पर खड़ी है। ज्ञान-कर्म-शील-सातत्य इसकी सुदृढ़ दीवारें हों। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की छत का जिसे संरक्षण मिला है तथा इसमें विराजती है, उस विराट की प्रतिमा जो सत्य, सुन्दर, शिव है। कर्म यहां का जीवन है, पूजा है। यहाँ अधिकार की आराधना नहीं, कर्म की ही उपासना होती है। हमने इसे पूजा है, कभी राम के रूप में, कभी —ष्ण के रूप में। भारतीय संस्कृति संश्लेषण की संस्कृति है, विश्लेषण का विज्ञान नहीं। समन्वय इसका स्वभाव है। टूटना इसका चरित्र नहीं। आस्था इसकी डगर है और विश्वास इसका पड़ाव। न कोई भटकाव है और न कोई विभ्रम।

प्रचलित राष्ट्रवाद की परिभाषा भूगोल पर आधारित है, देश व राष्ट्र समुद्रों, पर्वतों, नदियों, रेगिस्तानों की सीमाओं से बंधे हो। यूरोपीय विद्वानों के मतानुसार राष्ट्रीयता की भावना सर्वप्रथम 1789 में हुई फ्रेंच जाति के बाद उभरकर सामने आई। पेंनिग्व डिक्शनरी ऑफ सोशियॉलाजी में राष्ट्रीयता की भावना अट्ठारहवीं शताब्दी में सर्वप्रथम यूरोपीय देशों में न्याय राज्य निर्माण होकर वहीं के मानव समूहों को राष्ट्र का स्वरूप प्राप्त हो गया। यूरोप के मानचित्रों पर जर्मन राष्ट्र का प्रादुर्भाव 1871 में हुआ। फिर इटली का एकीकरण हुआ और धीरे-धीरे राष्ट्रीयता की अवधारणा यूरोप के अन्य देशों में भी फैल गयी। यूरोपीय देशों के साम्राज्यवादी एवं बौद्धिक विस्तार के फलस्वरूप राजनीतिक राष्ट्रीयता के विचार का प्रसार अन्य देशों में भी फैल गया। चूंकि वे शासक थे, इसलिए उनकी बात को यूरोपीय विद्वानों के साथ-साथ गैर यूरोपीय विद्वानों ने भी स्वीकार्य कर लिया। प्रभुसत्ता ने जिस-जिस भूमि पर अधिकार (कब्जा) किया, वो उनका राष्ट्र बनता गया। तिब्बत की राष्ट्रीयता को समाप्त करके चीन ने अपनी प्रभुसत्ता बनाई। इज़राइल और फिलिस्तीन ने कब्जे के आधार पर देश या राष्ट्र को परिभाषित किया। राजनीतिक विचारधारा आधारित राष्ट्र साम्यवाद, पूंजीवाद इत्यादि, जाति आधारित यूरोप को अंग्रेजों हिब्शयों (नीग्रो) पूजा पद्धति आधारित सभी राष्ट्र जिसमें इस्लाम का राजसत्ता का संरक्षण प्राप्त है। इसी प्रकार राष्ट्रपति बुश का ईसाइयों और मुस्लिमों में भी पूजा पद्धति का मतभेद होने के कारण ये राष्ट्र क्रियात्मक नहीं हो पाते। हिन्दू धर्म में भी अनेक विश्वास और पूजा पद्धतियां हैं, जिसके कारण जैनियों का राष्ट्र या सिक्खों का राष्ट्र जैसी कल्पनाएं अव्यवहारिक/संस्कृति आधारित राष्ट्र व पूरे या यूरोप की समान संस्कृति यूरोपियन संघ बना हुआ है।

अमेरिका में विभिन्न जातियों के एक साथ रहने का कारण भी संस्कृति हो सकता है, क्योंकि पिछले चार सौ वषो की एक विशेष संस्कृति वहां पर उत्पन्न हुई है, हिन्दु जीवन दर्शन पर आधारित संस्कृति जहां-जहां है, उनको भारतीय या हिन्दू राष्ट्र की कल्पना में सिम्मलित किया जा सकता है, इसमें भौगोलिक सीमाओं का महत्व कम हो जाता, नागरिकता और राष्ट्रीयता में अन्तर कम हो जाता है।भारत एक प्राचीन राष्ट्र है और इसकी राष्ट्रीयता का आधार है संस्कृति

उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्, वर्ष तद् भारतं नाम भारती यत्र संतति

पश्चिमी विचारधारा से प्रभावित तथाकथित एक ऐसा वर्ग है जो इसे राष्ट्र नहीं मानता। "काफिले आते रहे, कारवां बनता रहा" या । छंजपवद पे उंापदहण् राष्ट्र, राज्य एवं देश को एक ही मानने या इनके अंतर को न समझने के कारण ये तथाकथित प्रगतिशील लोग भ्रमजाल फैलाते रहते हैं। प्रादेशिक राष्ट्रवाद की संकल्पना यूरोप में राज्यों के अभ्युदय के साथ प्रमुखता से उभरी। एक निश्चित भूखंड, उसमें रहने वाला जन, एक शासन एवं उसकी संप्रभुता को राष्ट्र कहा गया। कालांतर में राजनीतिक स्वरूप के कारण राष्ट्र एवं राज्य को समान अथो में प्रयोग में लाया जाने लगा। संयुक्त राष्ट्र संघ राष्ट्र शब्द को प्रयोग में लाया। राज्य एवं देश बनते-बिगड़ते रहे एवं संयुक्त राष्ट्र संघ उन्हें मान्यता देता रहा फलत: राष्ट्र एवं राज्य का अंतर समझने में भूल होती रही। मगर पश्चिमी परिभाषा की कसौटी पर भारत एक राष्ट्र नहीं, क्योंकि एक शासन नहीं। अंग्रेजों एक शासन के अंदर इसे लाए। अत: उसे राष्ट्र बनाने का श्रेय दिया गया। इज़रायल भी एक राष्ट्र नहीं, क्योंकि वहां जन (इज़रायली) था ही नहीं। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अनेक राष्ट्रों को षड्यंत्रपूर्वक तोड़ा गया। जर्मन-पूर्वी एवं पश्चिमी जर्मनी, वियतनाम उत्तरी एवं दक्षिणी वियतनाम, कोरिया-उत्तरी एवं दक्षिणी कोरिया, लेबनान उत्तरी एवं दक्षिणी लेबनान आदि। भारत का विभाजन भी 1947 में द्विराष्ट्रीयता के आधार पर हुआ।

हिन्दु एवं मुस्लिम दो राष्ट्रीयता हैं अत:, दो राष्ट्र होने चाहिए। जर्मनी, वियतनाम, कोरिया, लेबनान आदि टूटे अवश्य पर उन्होंने अपनी राष्ट्रीयता को नहीं छोड़ा पर दुर्भाग्यवश भारत का जो विभाजन हुआ वह एक अलग स्वरूप में हुआ। पूर्वी हिन्दुस्तान, पश्चिमी हिन्दुस्तान एवं मध्य हिन्दुस्तान - अगर इस रूप में रहता तो हिन्दुस्तानी राष्ट्रीयता जिंदा रहती। पंथ राष्ट्रीयता है तो फिर इस्लाम एवं ईसाई मत वालों का एक ही राष्ट्र होना चाहिए था - यह प्रश्न नहीं उठाया गया। पंथ को राष्ट्रीयता मानने के कारण ही नागालैंड एवं मिजोरम में अलगाववाद ने हिंसक रूप धारण किया। इसी धारणा के कारण पंजाब में भी अलगाववाद उभारने का असफल प्रयास हुआ। सिक्खों ने सवाल किया कि हिन्दू, मुस्लिम सिख, ईसाई-आपस में हैं भाई-भाई। अगर दो भाइयों का बंटवारा 1947 में हो गया तो हमें भी अलग करो। इसी तरह पाकिस्तान भाषा (बंगला-उर्दू) को राष्ट्रीयता मानकर दो भागों में टूट गया। अगर भाषा राष्ट्रीयता है तो फिर सभी अंग्रेजी बोलने वालों का एक राष्ट्र क्यों नहीं ? इंग्लैण्ड एवं आयरलैण्ड आपस में क्यों लड़ते हैं ? भारत में भी एक ऐसा वर्ग है जो भाषा को राष्ट्रीयता मानकर इस देश को बहुराष्ट्रीयता (डनसजप छंजपवदंसपजलए डपग ब्नसजनतमद्ध बहु संस्कृति राज्य कहता है। गुजराती संस्कृति पंजाबी संस्कृति , उड़िया संस्कृति , तेलुगु संस्कृति कéड़ संस्कृति मराठी संस्कृति , तमिल संस्कृति आदि शब्दों का प्रयोग करता है और लोग भी अपनी संस्कृति की पहचानß के नाम पर अलगाववाद के नारे लगाने लगते हैं। यह संस्कृति नहीं बोली (भाषा) है। 1989 में विश्व पटल पर कुछ घटनायें घटीं जिसके कारण राष्ट्रीयता पर एक बहस उभर कर सामने आयी। सोवियत संघ विभाजित होकर 15 भागों में टूट गया। राष्ट्रीयता को नकार कर राज्य को सर्वोपरि मानने वाले वामपंथी राष्ट्रीय एकता की बात करने लगे।

"भारत में अनेक राष्ट्रीयता हैं" इसकी वकालत करने वाले सोवियत संघ का उदाहरण देकर यह दावा करते थे कि राष्ट्रीयता से ऊपर राज्य है। साम्यवाद के विस्तार में वे राष्ट्रीयता को बाधक मानते थे। पंथ, भाषा से ऊपर उठकर यहां का जन एक है। अतीत के सुख-दुख की उसे समान अनुभूति है - इसी अनुभूति के कारण वह इस भूमि को मातृभूमि-मोक्ष भूमि मानता है। उसकी नागरिकता भले कुछ भी हो जाये पर इस राष्ट्र से बाहर जाकर भी इस मिट्टी से वह जुड़ा हुआ है। केरल के शंकराचार्य ने चार-पीठ की स्थापना की ज्योतिपीठ (उत्तरांचल), श्रृगेरीपीठ (कर्नाटक), गोवर्धन पीठ (उड़ीसा), शारदापीठ (गुजरात)। उन्होंने एक भी पीठ केरल में स्थापित नहीं की - मलयालम संस्कृति या मलयालम को राष्ट्रीयता मानने वालों को इसका उत्तर देना होगा। चार धाम, चार स्थानों (प्रयाग, हरिद्वार, नासिक, उज्जैन) पर लगने वाले कुम्भ, द्वादश ज्योÆतलिंग - 52 शक्तिपीठ हमारी राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रीय एकात्मता के प्रतीक हैं। गंगा को मोक्ष दायिनी सभी मानते हैं। आत्मवत सर्व भूतेषु एक सद् विप्रा बहुधा वदन्ति, पुनर्जन्म में विश्वास - हमारी संस्कृति के ये मूल तत्व हैं। हमारी विविधता हमारी संस्कृति की महानता को प्रकट करता है। इस विविधता को राष्ट्रीयता का नाम देकर अलगाववाद की वकालत करने वालों को पराजित करना होगा।

न मे वाछास्ति यशोस विद्वत्व न च वा सुखे
प्रभुत्वे नैव वा स्वे मोखेप्यानंददयके
परन्तु भारते जन्म मानवस्य च वा पशो:
विहंगस्य च वा जन्तों: वृक्षपाषाणयोरपि

आर्थात मुझे यश, विद्वता, किसी अन्य सुख या राजनीतिक प्रभुता की इच्छा नहीं है और न मैं स्वर्ग या मोक्ष की ही कामना करता हूं। परंतु मैं चाहता हूं कि भारत में ही मेरा पुनर्जन्म हो भले ही वह मानव, पशु, जन्तु, वृक्ष या पाषाण के रूप में क्यों न हो।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और राष्ट्र


डॉ. सौरभ मालवीय
राष्ट्र, किसी भूभाग पर रहने वालो का भू भाग, भूसंस्कृति, उसभूमि का प्राकृतिक वैभव, उस भूमि पर रहने वालो के बीच श्रद्धा और प्रेम, उनकी समान परस्परा, समान सुख­दुख, किन्ही अर्थों में भाषिक एकरूपता, दैशिक स्तरपर समान शत्रु मित्र आदि अनेक भावों का समेकित रूप होता है। यह भाव बाहर से सम्प्रेषित नहीं किया जाता अपितु जन्मजात होता है।
भारत में यह बोध अनादिकाल से है। अभी वैज्ञानिक युग में भी यह तय नहीं हो पा रहा है कि वेदो की रचना कब हुई और वेदो में राष्ट्रवाद अपने उत्कर्ष पर है। इसी संकल्पना के कारण वैदिक ऋषियों ने घोषणा की है कि
समानो मन्त्रः समितिः समानी
समानं मनः सहचित्तमेषाम्।
समानं मन्त्रमभिमन्त्रये वः
समानेन वो हविषा जुहोमि।।
अर्थात् हम लोगों के मन्त्र (कार्यसूत्र का सिद्धन्त ) एक जैसे हो। उस मन्त्र के अनुरूप हमलोगो की समिति (संगठन), हमारे चित्त, हमारी मानसिक दशा और कार्यप्रणाली भी समान हो। हमलोग समेकित रूप से लक्ष्य प्राप्ति हेतु परमात्मा से एक समान प्रार्थना करें।
इसी क्रम में हमारे ऋषियों ने आगे कहा कि­
समानी वः अकूतीः समाना हृदयानि वः।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति।।
हमारे लक्ष्य, हमारे हृदय के भाव और हमारे चिन्तन भी समान हो और हमलोग आपस में संगठित रहे।
संगच्छध्वं संवध्वं सं वो मनांसि जनताम्।
देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते।।
अर्थात हमलोग साथ साथ चले, एक साथ बोले, हमारे मनोभाव समान रहें। हमलोग समानरूप से अपने लक्ष्य सिद्धि हेतु देवाताओं की साधना करें।
ऋषियों ने यह उद्घोष श्रुतियों में शताधिक बार किया है। हर बार वे हमे संगठित और सुव्यवस्थित रहकर अपने लक्ष्य के लिये समर्पित होने का आदेश दे रहे है। ऐसा राष्ट्रगीत धरती के किसी समाज में कभी नहीं पैदा हुआ है। पूरा का पूरा वैदिक वाङ्मय ही भारत का राष्ट्रगान है।
ओउम् सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ओउम् शान्तिः शान्ति: शान्ति।।
हम दोनों की परमात्मा साथ साथ रक्षा करें, हमदोनो साथ साथ लक्ष्य भोग करें, साथ साथ पराक्रम करें, हम दोनों के द्वारा पढी गयी विद्या तेजस्वी हो और हम कभी आपस में द्वेष न करें। हमारे त्रितापों (दैविक, दैहिक, भौतिक) का शमन हो।
यहाँ ऋषि हम दोनो का अर्थ केवल दो से ही नहीं कह रहे है अपितु गुरू शिष्य से है। यह एक परम्परा की वार्ता है। जो सगम्र गुरूओं व्दारा समग्र शिष्यों को अनादिकाल से अविच्छिन्न रूप से दी गयी शिक्षा है जिससे भारत की राष्ट्रियता सिञ्चित, पल्लवित, पुष्पित और फलित होती रही है।
भारत का यह अक्षुण्ण राष्ट्र भारत के चप्पे चप्पे में सदैव दृष्टिगोचर होता रहता है। देश मे दुर्भाग्य से देश में पराधीनता का काल आ गया। 1235 वर्षो तक के प्रदीर्घ पराधीन काल में, हिमालय, गंगा, काशी, प्रयाग, कुंभमेला, अनेकतीर्थ, अनन्तऋषि, महात्मा, महापुरूष, समुद्र, सरिता पेड, पौधे आदि भारत के राष्ट्रिय गीत तो अहर्निश गाते ही रहते है, पर उनकी मानवीय अभिव्यक्ति सुप्त पड़ गयी थी। इस कोढ में खाज जैसी स्थिती मैकाले की शिक्षा पद्धति ने पूरी कर दी। हमें बताया गया कि वेद गडरियो के गीत हैं, भारत कभी एक राष्ट्र नहीं रहा। यहाँ मे मूल निवासी तो कोल भील द्रविड आदि रहे है, आर्य मध्यएशिया से आकर उनपर आक्रमण करके देशपर कब्जा कर लिया, भारत गर्म देश है, सपेरों और नटों का बाहुल्य रहा है, यह एक देश ही नहीं रहा है बल्कि उपमहाद्विप है, मुस्लिम आक्रान्ताओं ने भारत को कपडा, भोजन, और अन्य तहजीब सिखाया, अब ईसाई आक्रान्ता भारतीयों के पाप का बोझ उतारने के लिये भगवान के आदेश पर भारत आये हैं। यह भारत का सौभाग्य है कि प्रभु ईसा मसीह भारत पर प्रसन्न हो गये है अब भारत इन ईसाइयों की कृपासे सुशिक्षित और सभ्य हो जायेगा, शैतानी परम्पराओं और झूठे देवताओं से मुक्त होकर असली देवताओं की कृपा पा जायेगा। इस प्रकार के सुझावो को जब सत्ता सहयोग मिल जाता है तो करैला नीम चढ जाता है। और इस स्थिति ने हमें इतना आत्मविस्मृत कर दिया कि हम मूढता की सीमा तक विक्षिप्त हो गये। वैदिक ऋषियों की गरिमावान पंरम्परा को अपना कहने में लज्जानुभव होने लगा। यत्किञ्चित इसका प्रभाव अभी भी अवशेष है। हम जान ही लिय थे कि हम जादू टोने वालों के वंशज हैं। अपनी किसी भी बात की साक्षी के लिये विदेशी प्रमाण खोजने लगे। यदि गौराड्ग शासको ने मान्यता दी तो हमार सीना फूल गया वरना एक अघोषित आत्मग्लानि से हम छूट भी नहीं पाते थे। और तो और हम धर्म की परिभाषा भी ह्विटने, स्पेंसर, थोरो, नीत्से, फिक्टे आदि की डायरियों से खोजना चालू कर दिये। वेदो के भाष्य के सन्दर्भ में मेक्समूलकर, ए.बी. कीथ अदि भगवान वेदव्यास पर भी भारी पडने लगे। आत्मदीनता की इस पराकाष्ठा में महानायक स्वामी विवेकानंन्द ने अमृत तत्व भरा और बडे शान से घोषित किया कि हमे हिंन्दू होने पर गर्व है। इसी घोषणा के बाद हमारी तन्द्रा टूटने लगी। बडे सौभाग्य की बात है कि इस वर्ष उसी महानायक की डेढ सौवी वर्ष गांठ है।
संघ के प्रथमपुरूष जन्मजात क्रान्तदर्शी थे। भारत पराधीनदासता से छूटे यह प्रथम प्रयास था पर उस स्वतन्त्रता के बाद का भारत कैसा हो इसका ब्लू प्रिण्ट समग्र भारत में केवल और केवल डा. केशव बलिराम हेडगेवार नें ही तैयार किया था। वे स्वामी विवेकानंन्द के राष्ट्रियत्व जागरण से अपने अभियान की ऊर्जा ले रहे थे। या यूँ कहे कि स्वामी जी के संकल्पना के 100 तरुण डा. हेडगेवार जी ने तैयार किया और भारत की आत्मा को बचा लिया वरना भारतीय संस्कृति भी बेबीलोन, मिस्र, एजटेक, इन्का, यूफ्रेटस और यूनान आदि की सभ्यताओं जैसे बडे-बडे पुस्तकालयों में भी नही मिलती। प्रो. अर्नाल्ड टायनवी जैसा विद्वान भी भारतीय संस्कृति नहीं खोज पाता।
डा. हेडगेवार जी ने अनुभव किया कि भारतीय मानस की आत्म विस्मृति केवल राष्ट्रवाद के मन्त्र से ही टूटेगी। इसके लिये स्वामी जी का सौद्धान्तिक राजपथ तो उन्होने चुन ही लिया था पर साक्षात् दर्शन हेतु योगी अरविन्द घोष का राष्ट्रिय आह्वान उन्हे सशरीर गुरुतुल्य लगा। श्री अरविन्द घोष के संगठन “अनुशीलन समिति” से जुडकर वे सिद्धान्त और क्रिया दोनो का अभूतपूर्व प्रयोग किये। सन 1915 से 1925 तक के कालखण्ड में वे केवल और केवल राष्ट्रवाद का ही चिन्तन, मनन और प्रयोग करते रहे। योगी अरविन्द अलीपुर जेल से बाहर आने पर कहे थे कि- “ भारत जब भी जागा है तो केवल अपने लिये नहीं अपितु सनातन धर्म के लिये जागा है। जब भी यह कहा जाता है कि भारत महान है तो इसका अर्थ है कि सनातन धर्म महान है। सनातन धर्म का प्रसार ही भारत का प्रसार है। भारत धर्म है और धर्म ही भारत है।
राष्ट्रियता केवल राजनीति नहीं है अपितु यह एक विश्र्वास है, एक आस्था है, एक धर्म है। मैं इतना ही नहीं कह रहा हूँ अपितु यह भी कि सनातन धर्म ही हमारी राष्ट्रियता है। इस हिंदू राष्ट्रकी उत्पत्ति ही सनातान धर्म के साथ हुई है। सनातन धर्म के साथ ही यह राष्ट्र आंदोलित होता है और उसी के साथ बढता है। सनातन धर्म कभी नष्ट होगा तो उसके साथ ही हिन्दू राष्ट्र भी नष्ट हो जायेगा। सनातन धर्म अर्थात् हिन्दू राष्ट्र……….।”
संघ संस्थापक डा. हेडगेवार इन विचारो से इतना प्रभावित हुए कि उन्होने स्वामी विवेकानन्द के समान सगर्व घोषित किया कि
“हो ओउम्। हे भारत हिन्दू राष्ट्र आहे ”
और उपर्युक्त मन्त्र राष्ट्रिय स्वंयसेवक संघ का पथ प्रदर्शक मन्त्र बन गया। इसके उच्चारण मात्र से एक ही साथ स्वामी विवेकानन्द और योगी अरविन्द दोनो ऋषियों की आत्माएं तृप्त होती है, अनादि काल से चला आरहा सत्य सनातन धर्म परिपुष्ट होता है, अनादिकाल से चला आर हा सत्य, विज्ञान, धर्म, संस्कार सब मजबूत होते है, भारतीय जनमें आत्मविश्वास पैदा होता है, भारत माता गर्वोन्नत होती है और प्रसन्न भाव से अपने पुत्रों को लाख­लाख आशीषें देती है। यह भारत माता की स्तुति का बीज मन्त्र है। इससे सम्पुटित कर काई भी पूजन अर्चन लोक परलोक दोनो में अभ्युदय ओर निःश्रेयस का कारण होता है।
यह कोई योगायोग की बात नही है। नियति के चक्र में सब कुछ नियत है। सड्घ के द्वितीय सरसंघचालक श्री माधव सदाशिव गोलवलकर उपाख्य श्री गुरूजी स्वामी विवेकानन्द के गुरुभाई स्वामी श्री अखण्डनन्दजी के दीक्षित शिष्य थे। निश्चित ही स्वामी विवेकान्द अपने सिद्धान्तों को साकाररूप देखने हेतु श्री गुरूजी को शिष्य बनन के लिये प्रेरित किये हांेगे।
संघ की राष्ट्रभक्ति का ज्वलन्त उदाहरण पग पग पर दष्टिगोचर होत है।
शाखा की नित्य प्रार्थना की प्रत्येक पंक्ति इसकी दुन्दुभी बजा रही है। नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे से लेकर परं वैभवंनेतु मेतत्स्वराष्ट्रं समर्था भवत्वा शिषा ते मृशम् तक और अन्ततः भारत माता की जय में भी केवल राष्ट्रवाद ही तो भासित हो रहा है। कोई पंक्ति ऐसी नही है जिंसमे राष्ट्रवाद का साक्षात्कार न हो। इससे बडा राष्ट्रगीत क्या हो सकता है।
एकात्मता स्त्रोत्र, एकात्मता मन्त्र, प्रातःस्मरण, संघ की शाखओं के गीत, बौद्धिक, और शाखा की पूरी संचरना विशुद्ध राष्ट्रवादी प्रयोग है जिससे स्वामी विवेकानन्द की आकांक्षाओ के राष्ट्रिय पुरूषों की अखण्ड मालिका पैदा होती रहे। संघ ने समग्र सांस्कृतिक भारत की वन्दना के गीत गाये है जो किसी भी दृष्टिकोण से भगवान परशुराम, जगद्गुरू शड्कराचार्य और आचार्य चाणक्य के राष्ट्रिय अभियान को ही पुष्ट करते हैं। संघ के कारण सबने जाना कि भारत का परिमाप “हिमालयं समारभ्य यावदिन्दु सरोवरम्” तक है। छुआछूत, भाषा, क्षेत्र, जाति और ऊँच नीच के भाव तो संघ को समाप्त करने की जरूरत ही नहीं पडी। भारत गान की पवित्र गंगा मे स्नान करते ही उपर्युक्त समास्त विकार अनायास भाग गये। बए एक ही मन्त्र गूंज उठा कि
रत्नाकराद्यौत पदां हिमालयं किरीटिनीम्
ब्रम्हराजर्षि रत्नाद्रयां वन्दे भारत मातरम्।।
यही तो राष्ट्रर्षि वंकिम बाबू का राष्ट्रवाद है। श्री गुरूजी ने तो इससे भी आगे बढ़कर शुक्ल यजुर्वेद मे मन्त्र मे एक नव प्राण भर दिया कि
“राष्ट्राय स्वाहा। राष्ट्रायमिदं न मम।।
यही भारत का सनातन राष्ट्रवाद है जो हिन्दुत्व की जड़ है।
भाषागत समानता राष्ट्रवाद के लिये आति महत्वपूर्ण तत्व नही है। इसी से संघ देश की सारी आंचलिक भाषाओं के पिष्टपोषण की बात कहते हुए संस्कृत को केन्द्र में रखता है क्योकि संस्कृत समस्त भाषाओं की जननी है।
अमेरिका मे अंग्रजी भाषी लोग ब्रिटिश सत्ता से अलग होकर (1774 अड) में फ्रेच और स्पेनिशों के साथ मिलकर स्वतन्त्र अमेरिकन राष्ट्र गठित कर लिये।
भाषा ही राष्ट्र हेतु मुख्य तत्व होता तो स्वीटजरलॅण्ड चार देशों मे टूट गया होता। वहां चार भाषाएं जर्मन, फ्रेंच, इटेलियन और रोमन चलती है पर एक ही राष्ट्र है। बेल्जियम के फ्रेंची अपने को बेल्जियमी कहते है फ्रेंच नहीं। भाषाई दृष्टि से स्पेनिश और पोर्तगीज एकदम निकट हैं पर दो राष्ट्र है।
समानपूजा पद्धति भी राष्ट्र का आधार होती तो विश्व मे 63 मुस्लिम देश एक राष्ट्र बन जाते। संसार मे शाताधिक इसाई देश एक राष्ट्र बन जाते। पर और तो और अरब के यहूदी और मुस्लिम ही एक राष्ट्र न बन सके। ईरान­ईराक, लीबिया, मिश्र, सूडान, यमन आदि तेा इसके जीवन्त उदाहरण है।
रक्तगट भी राष्ट्रका आवश्यक तत्व न होने से स्कैन्डिनेविया और आइबेरिया भी अनेक राष्ट्रों मे विभक्त हैं।
राष्ट्र हेतु सर्वाधिक आवश्यक तत्व राष्ट्रजन के हृदय की एकता है। संघ अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा केवल इसी बात पर खर्च कर रहा है कि
“भारतवासी एक हृदय हैं”
संघ का भारत राष्ट्र वृहत्तर है। इसमे वे सब देश समाहित है जो किन्ही राजनीतिक करणों से अलग हो गये। परन्तु उनकी राष्ट्रिय पहचान तो भारत ही है।
पाकिस्तान के “जिये सिन्ध” के नेता श्री जी.एम.सईद कहते है कि -पाकिस्तान के निर्माण का अर्थ है भारत के भूगोल और इतिहास को नकारना। पाकिस्तान को अब एक संघ राज्य बनकर विशाल भारत में सम्मिलित हो जाना चाहिए। मुहाजिरों को कृष्ण तथा कबीर का अनुयायी होना चाहिए। पंजाबी मुसलामान तो नानक, वारिस शाह तथा बुल्ले शाह के वारिस हैं। मै स्वयम 50 वर्षोसे पाकिस्तानी हुँ, 500 वर्षो से मुसलमान हूं लेकिन 5000 वर्षो से सिन्धी हूँ। मुहम्मद बिन कासिम तो लुटेरा था। सिन्ध स्वातंत्र्य के बाद वहां का बन्दरगाह राजा दाहर सेन के नाम पर हो गया।
इण्डियन एक्सप्रेस 02.02.1992
यह राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ की ही सोच थी कि पण्डित श्री दीनदयाल उपाध्याय ने भारत­पाक और बंगला देश मे महासंघ बनाने की बात कही थी । बाद में प्रख्यात समाजवादी डा. राममनोहर लोहिया भी उपाध्याय जी के साथ जुड गये।
संघ के वरिष्ठतम प्रचारक श्री दत्तोपन्त ठेगडी ने तो गहन शोध मे उपरान्त यह सिद्ध कर दिया है कि राष्ट्र की और नेशन की अवधारणा अलग अलग बाते है। “राष्ट्र नेशन एक नहीं है। योगी अरविन्दने भी संयुक्त राष्ट्र संघ मे नामकरण का विरोध किया था। उन्होंने कहा था कि जबकत राष्ट्र की परिभाषा तय न हो तबतक यह नाम रखना ठिक नही होगा। सच में राष्ट्र के समग्र अर्थो में सांगोपांगरूपेण कोई देश इस धरा पर है तोवह केवल भारत है। भारत में ही राष्ट्र की परिभाषा वैज्ञानिक, सांस्कृतिक तथा दार्शनिक रूपेण तृप्त होती है। अन्य किसी देश में नही। राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ मौन तपस्वी के रूप में अहर्निश भारतवासियो में राष्ट्र तत्व भरने का कार्य कर रहा है। संघ के ही कारण राष्ट्र शब्द की गरिमा और महिमा जानने का योग बना है वरना इतना महत्वपूर्ण शब्द केवल वैदिक वाडम्य का कैदी बनकर रह जया होता।
“संघे शक्ति सर्वदा”
“भारत मातरम् विजयते तराम्”


Wednesday, July 13, 2022

आज़ादी का अमृत महोत्सव





भारत की आज़ादी के 75वें वर्ष में पूरा देश 'आज़ादी का अमृत महोत्सव ' मना रहा है। इसी क्रम में विद्या भारती, एकल अभियान, इतिहास संकलन समिति अवध, पूर्व सैनिक सेवा परिषद एवं विश्व संवाद केन्द्र अवध के संयुक्त अभियान में  2 दिसम्बर 2021  से प्रत्येक सप्ताह गुरुवार को अपराह्न 3:00 बजे से राष्ट्रहित में सर्वस्व समर्पित करने वाले महापुरुषों  का स्मृति कार्यक्रम 15 अगस्त 2022 तक निरंतर संचालित किया जा रहा है। आज के आयोजन में मुझे प्रतिभाग करने का अवसर प्राप्त हुआ।
कार्यक्रम विद्या भारती पूर्वी उत्तर प्रदेश के मुख्यालय सरस्वती कुंज, निराला नगर, लखनऊ में सम्पन्न हुआ।

Sunday, May 21, 2017

आखिर राष्ट्रवाद से भय क्यों




पत्रकारिता के राष्ट्रवादी स्वरूप के इतने महत्वपूर्ण योगदान के बाद भी, दुर्भाग्यवश स्वाधीनता प्राप्ति के बाद पत्रकारिता जगत में राष्ट्रवाद की उपेक्षा होने लगी | आज स्थिति यह है कि पत्रकारिता के आधुनिक स्वरूप में राष्ट्रवाद को संकुचित विचार माना जाता है | इसलिए राष्ट्रवादी विचारों और मुद्दों पर की जाने वाली पत्रकारिता को मुख्यधरा की पत्रकारिता में शामिल नही किया जाता ,परन्तु यदि हम राष्ट्रवाद की परिभाषा और व्यख्या पर नजर डालें तो यह स्थापित सत्य दीखता है कि पत्रकारिता का राष्ट्रवाद से सीधा सम्बन्ध है सामाजिक मान्यता है कि मीडिया संस्कृति का वाहक भी है, दर्पण भी है और निर्माता भी अतएव पत्रकारिता का मौलिक कार्य समाज की विकास के प्रक्रियाओं को मजबूत करना है जिसके लिए उसे निर्भीक ,सत्यवादी और सुचितापूर्ण अनुशासन की भूमिका मे अपने को रखना है |

देश के सांस्कृतिक और ऐतिहासिक अस्मिता को जगाने के व्यापक एवं उच्चादर्श से जुड़ा है भारतीय पत्रकारिता।इसे समझने के लिए भारतीय मन का बोध होना जरुरी है, रहते भारत में है और सोचते पश्चिम की दृष्टि से ना ना अब वक्त के हिसाब से अपनी सोच बदलिए (लाल चश्मा) और भारत माता की जय घोष कीजिये। वन्दे मातरम

भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली में वर्तमान परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रीय पत्रकारिता पर मीडिया स्कैन द्वारा आयोजित सेमिनार में।

Saturday, May 20, 2017

आखिर राष्ट्रवाद से भय क्यों





 पत्रकारिता के राष्ट्रवादी स्वरूप के इतने महत्वपूर्ण योगदान के बाद भी, दुर्भाग्यवश स्वाधीनता प्राप्ति के बाद पत्रकारिता जगत में राष्ट्रवाद की उपेक्षा होने लगी | आज स्थिति यह है कि पत्रकारिता के आधुनिक स्वरूप में राष्ट्रवाद को संकुचित विचार माना जाता है। इसलिए राष्ट्रवादी विचारों और मुद्दों पर की जाने वाली पत्रकारिता को मुख्यधरा की पत्रकारिता में शामिल नही किया जाता, परन्तु यदि हम राष्ट्रवाद की परिभाषा और व्यख्या पर नजर डालें तो यह स्थापित सत्य दीखता है कि पत्रकारिता का राष्ट्रवाद से सीधा सम्बन्ध है सामाजिक मान्यता है कि मीडिया संस्कृति का वाहक भी है, दर्पण भी है और निर्माता भी अतएव पत्रकारिता का मौलिक कार्य समाज की विकास के प्रक्रियाओं को मजबूत करना है जिसके लिए उसे निर्भीक ,सत्यवादी और सुचितापूर्ण अनुशासन की भूमिका मे अपने को रखना है।
भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली में वर्तमान परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रीय पत्रकारिता पर मीडिया स्कैन द्वारा आयोजित सेमिनार में।

Thursday, May 18, 2017

राष्ट्रीय परिसंवाद राष्ट्रवाद और मीडिया

डॉ सौरभ मालवीय
भारत में पलने-बढ़ने वाले विदेशी मानसिकता के ये लोग यज्ञ से डरते हैं. यह कटु सत्य है कि बामपंथी विचारकों का भारत की बुद्धिवाद पर और कॉंग्रेंस का देश की सत्ता पर दीघ्रकाल तक आधिपत्य या गाहे बगाहे कब्जा रहा है । इनके लिये राष्ट्र जमीन का एक टुकड़ा और उपभोग के केन्द्र के सिवाय कुछ नहीं है । यह वह वर्ग है जो रहता भारत में है खाता और जीता भी भारत में ही है देश के संसाधनों और अधिकांश प्रतिष्ठानों पर भी लम्बे समय तक यही वर्ग काबिज रहा है बावजूद इसके इनके लिये देश सत्ता उपभोग का केन्द्र या हेतु मात्र है। ये नहीं चाहते कि भारत दुनियां के सामने सिरमौर राष्ट्र के रूप में स्थापित हो ये यह भी नहीं चाहते कि भारत एक बार फिर से विश्व गुरू के रूप में अपना पुराना स्थान हासिल करें। इनके लिये दुनिया के सामने दीन-हीन हिन्दुस्तान शोषित अपमानित और निम्नतर भारत की तस्वीर प्रस्तुत करना गर्व का विषय रहा है। इन्हें सिर्फ यहां की बुराई के सिवाय कुछ भी नहीं दिखाई देता। इस खास वर्ग को गौरवहीन भारत और अपमानति हिन्दू अच्छा लगता है। राष्ट्र हिन्दुत्व व राष्ट्रवादी प्रतिष्ठानों का शक्तिशाली या प्रतिष्ठित दिखना इन्हें अच्छा नहीं लगता। परम वैभव की ओर जाता राष्ट्र इस वर्ग को पसंद नही आता है । गाय-गंगा और हिन्दू पूजा प्रतीकों के अपमान में ही इस वर्ग को सहिष्णुता और उदारवादी भारत की प्रगति दिखाई देती है। 
इन कथित बुद्धिजीवियों द्वारा मायाजाल फैलाकर यह स्थापित किये जाने की कोशिश की जा रही है आजादी के बाद पहली बार देश अघोषित व अकल्पित संकट की ओर अग्रसर है। इन्हें जम्मू कश्मीर में सेना-प्रतिकामी हिंसा भयावह हिंसा नजर आती है जबकि अलगाववादियों की हिंसा और देशद्रोही गतिविधियों में इन्हें सहानुभूति नजर आती है । जब अलगावादियों के मंसूबें से सेना थोड़ी सख्ती से निपटने का प्रयास करती है तो इन्हें अल्पसंख्यकवाद की कोरी चिंता सताने लगती है। देश पर हो रहे सांस्कृतिक हमलें में इन्हें विकास की गंध आती है। इन बुद्धिजीवियों को वैयक्तिक अधिकार की चिंता अधिक होती है, सापेक्षित तौर पर इन्हें सांस्कृतिक अवनति की कोई परवाह नहीं है । यह कभी नहीं चाहते कि भारत की आर्थिक सांस्कृति व शैक्षणिक प्रगति, भारतीय परिवेश व मनोवृत्ति के अनुकूल हो। जब कही से इसके लिये प्रयास होता है तो इन्हें देश असहिष्णु नजर आने लगता है और ये पुरस्कार वापसी सरीखी घिनौनी हरकत करने लगते है। वहीं जब राष्ट्रविरोधी शक्तियां हावी होती हैं या सिर उठाने का प्रयास करती हैं। देश में महिलाओं व राष्ट्र पर सांस्कृतिक हमलें होते हैं तो इन लोगों का पता नहीं चलता। देश में जब कोई खास आंतकवादी मारा जाता है तो उसके मातम पर इनके द्वारा मातम मनाया जाता है। जबकि हाल फिलहाल में पाकिस्तानी सेना द्वारा एक पूर्व भारतीय सैनिक को ईरान की सीमा से गिरफ्तार कर उसे जबरन भारतीय खुफियां ऐजेन्सी का एजेन्ट साबित कर प्राकृतिक न्याय की कसौटियों की धज्जियां उड़ाकर वहां की सैन्य अदालत द्वारा फांसी की सजा सुनाई गई तब न इनकी सहिष्णुता प्रभावित होती है और न ही इनके द्वारा पुरस्कार वापसी की महानता ही दिखाई जाती है।
दरअसल मामला यह है कि भारत में पलने-बढ़ने वाले ये विदेशी मानसिकता के लोग हैं जिनका राष्ट्रवाद अराजकतावाद और विदेशी घुसपेठियों के दमन पर ही जागृत होता है। वहीं जब राष्ट्र के हित में आवाज उठाने की बात आती है तो इनका पता नहीं लगता। सच्चाई तो यह है कि ये भले ही हिन्दुस्तान में रहते और जीते हैं, लेकिन इनके मन में राष्ट्र-प्रतिष्ठा के प्रति निष्ठा का घनघोर आभाव है। दुनियां के सामने यह देश ही अल्पसंख्यक विरोधी छवि स्थापित करना चाहते हैं। वहीं उत्तर भारतीयों विशेषकर उत्तरप्रदेश और बिहार के निवासियों के साथ अपने ही देश में कुछ खास राज्यों में दोहरा व्यवहार किया जाता है तो इनका राष्ट्रवाद क्षेत्रवाद का चादर लपेटकर कई कोनें में दुबक जाता है। इनके लिये अल्पसंख्यक का अर्थ मुस्लमान और ईसाई हैं। वहीं जैन, बौद्ध और देश के कुछ खास हिस्सों में जहां हिन्दू अल्पसंख्यक है उन पर होने वाला अत्याचार यह दिखाई नहीं है। इनके खिलाफ देश-विदेश कहीं भी अत्याचार हो इनके कान पर जूं तक नहीं रेंगता। इन्हें ईसाईयत व ईस्लामपोसित राष्ट्रों में होने वाला या किया जाना वाला अत्याचार बिलकुल भी दिखाई नहीं देता। यह इन पर चर्चा करना भी बेईमानी और समय की बर्बादी मानते है। इन्हें तो बस कथित हिन्दू अत्याचार व आतंकवाद ही दिखाई देता है।
देश और राष्ट्र के संबंध में सबकी अपनी अपनी धारणा और विचारधारा हो सकती है। राष्ट्रवादियों के लिये राष्ट्र जमीन का एक टुकड़ा नहीं है जहां कुछ लाख व करोड़ नागरिक निवास करते है और न ही राष्ट्रवादियों के लिये राष्ट्र व देश की परिभाषा आधुनिक और संवैधानिक राष्ट्र-राज्य तक ही सीमित है - जिसके अनुसार एक राष्ट्र या देश वह भौगोलिक ईकाई है जहां निश्चित संख्या या एक या कुछ खास विचारधारा के लोग निवास करते हैं और उनका अपना संविधान तथा सम्प्रभु सरकार होती है। राष्ट्रवादियों के लिये राष्ट्र का अभिप्राय उसके भौतिक या संवैधानिक उपस्थिति मात्र से नहीं है, वरन राष्ट्र इनके लिये जीवन्त ईकाई है जिसे वे माता और स्वयं को पुत्र मानते हैं। इनकी धारणा है कि राष्ट्र भले ही निर्जीव इकाई हो लेकिन उसकी एक जीवन्त अनुभूति होती है जो राष्ट्र और उसके नागरिकों के बीच गहरा तथा अनन्योन्याश्रित संबंध स्थापित करता है। राष्ट्रवादियों के लिये राष्ट्र जननी के सामान है जिसके बारें में कहा गया है कि जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं। इनके लिये राष्ट्र सांस्कृतिक चिंतन और जुड़ाव है जो अत्यांतिक और अपरिवर्तिनीय है। इनके लिये राष्ट्र और नागरिक का संबंध जन्म जन्मान्तर तक का है । तभी तो आजादी के संघर्ष के दौरान हमारे राष्ट्र नायक स्वाधनीता संघर्ष के दौरान शहादत के बाद फिर से ही जन्म लेने की बात कहकर शहीद हो गये और आजादी मिलने तक बारम्बार जन्म लेने की कामना के साथ शहीद हुए ।
राष्ट्रवादी पत्रकारिता को इसके निमित्त उचित माहौल बनाकर अपनी प्रासंगिता साबित करना होगा। सुखद पक्ष है कि राष्ट्रवादी पत्रकारिता और इसके पुरोधा पूरे प्रण- प्राण से इस कार्य में अपनी महान आहुतियां दे रहे हैं।

मिलते है
20 मई 2017 को राष्ट्रीय परिसंवाद राष्ट्रवाद और मीडिया
भारतीय जनसंचार संस्थान. नई दिल्ली


Wednesday, April 26, 2017

राष्ट्र सर्वोपरि

डॉ. सौरभ मालवीय
भारत यह एक ऐसा अद्भुत शब्द है जिसका उच्चारण ही मन को झंकृत कर देता है। जिस शब्द की कल्पना से ही संगीत निकलने लगे वह भारत है। ‘भारत’ में ‘भा’ का अर्थ होता है उजाला, सत्य, प्रकाश, आभा, ज्ञान, मोक्ष, परिपूर्ण, पोषण, जीवन आनन्द आदि आदि...। कहां तक कहें यहां तो सहस्र नाम की परम्परा ही है। विष्णु सहस्र नाम, शिव सहस्र नाम श्रीराम सहस्र नाम, गोपाल सहस्र नाम...। तो भारत के अनन्त नाम हैं अनन्त अर्थ हैं और यह संस्कृत का शब्द है संस्कृत इतनी तरल भाषा ;सपुनपपिकि संदहनंहद्ध है कि इसके अर्थ की अनन्तता सहज ही हो जाती है। भारत में ‘रत’ का अर्थ है लीन तल्लीन, लवलीन विलीन आदि। भारत का अर्थ हुआ ज्ञान में तल्लीन, भरणपोषण करने वाला, परम प्रकाशक अतएव इस धरा पर जहां भी ज्ञान की सत्य की साधना हो वह भारत भूमि है। प्रख्यात दार्शनिक ओशो की रचना ‘भारत एक सनातन यात्रा’ की प्रस्तावना में विख्यात साहित्यकर्तृ श्रीमती अमृता प्रीतम कहती हैं- ‘‘भारत एक भाव दशा है और इस जगत में जहां भी ज्ञान के अनन्त ऊंचाइयों को छूने का परम्परागत प्रयास चलता है वह भारत है।’’ इन विशिष्टताओं के बिना भारत अधूरा है। भारतीय संस्कृति के महानायक श्रीराम इस पावन भारत को माता कहते हैं वे इसे स्वर्ग से भी महनीय बताते हैं।
‘‘अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपिगरीयसी।।’’
(श्री बालमीकि रामायण, लंका काण्ड)

हे लक्ष्मण यद्यपि यह लंका सुवर्ण की है फिर भी मुझे रूचिकर नहीं लग रही है क्योंकि माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी महान् है।
ऋग्वेद के ऋषि तन्मय भाव से भारत की वन्दना में अपनी ऋचाओं को चढ़ाकर अपने को निष्क्रय कर रहे हैं कि-
यस्य इमे हिमवन्तो महित्वा यस्य समुद्रंरसया सह आहुः।
यस्येंमे प्रदिशो यस्य तस्मै देवा हविषा विधेम।।  (ऋग्वेद)

महिमावान हिमालय जिसका गुण गा रहा है। नदियों समेत समुद्र जिसके यशोगान में निरत है, बाहु सदृश दिशाएं जिसकी वन्दना कर रही हैं उस परम राष्ट्र देव को हम हविष्य दें।
श्रीमद् भागवत् में भगवान् वेदव्यास जी कहते है कि-
अहो अमीषां किमकारिशोभनं
प्रसन्न एषां स्विदुत स्वयं हरिः।
यैर्जन्म लब्धं नृषु भारताजिरे
मुकुन्द सेवौपयिकं स्पृहा हि नः।।
(श्रीमद् भागवत् 3.19.21)
देवतागण आपस में बात करते हुए कह रहे हैं कि-
अहो वे लोग ऐसा कौन सा पुण्य किये हैं कि उनका जन्म भगवत्सेवार्थ पवित्र भारतवर्ष के आंगन में हुआ है। इन लोगों पर श्री हरि स्वयं प्रसन्न हैं। इस सौभाग्य पर तो हम भी तरसते हैं।
पुराण तो भारत की वन्दना से आपूरित हैं-
गायन्ति देवाः किल गीतकानि
धन्यास्तुते भारत भूमि भागे।
स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते
भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात्।।
(श्री विष्णु पुराण 2.3.24)

देवतागण भी अहर्निश यही गाते रहते हैं कि वे लोग धन्य हैं जो भारतवर्ष में जन्मे है क्योंकि यह भूमि मोक्ष भूमि है।
भारत शब्द का जो अर्थ होता है वही अर्थ ‘काशी’ शब्द का भी होता है।
काश्यां काशते काशी
काशी सर्वप्रकाशिका।
और काशी में मरना मोक्षकारी माना जाता है।
काश्यां मरणान्मुक्तिः
(काशी में मरना मोक्षकर है)

परमपूज्य गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि-
मुक्ति जन्म महि जानि ज्ञान खानि अघ हानिकर।
जहं बस सम्भु भवानि सो कासी सेइय कस न।।
(श्रीरामचरित मानस उत्तर काण्ड)

‘‘यह पवित्र भूमि मोक्ष भू है ज्ञान की खान है, पापनाशी है, यहां भगवान शिव और मां पार्वती सदा विराजते रहते हैं। इस काशी का सेवन क्यों नहीं किया जाय।’’
राष्ट्रकवि श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी ने इसी भारत के भावभूमि की वन्दना में लिखा है कि-
मानचित्र में जो मिलता है नहीं देश भारत है।
भूपर नहीं मनों में ही बस कहीं शेष भारत है।।
भारत एक स्वप्नभू को ऊपर ले जाने वाला।
भारत एक विचार स्वर्ग को भू पर लाने वाला।।
भारत एक भाव जिसको पाकर मनुष्य जगता है,
भारत एक जलज जिस पर जल का न दाग लगता है।।
भारत है संज्ञा विराग के उज्जवल आत्म उदय की,
भारत है आभा मनुष्य की सबसे बड़ी विजय की।
भारत है भावना दाह जगजीवन का हरने की,
भारत है कल्पना मनुज को राग मुक्त करने की।।
जहां कहीं एकता अखण्डित जहां प्रेम का स्वर है,
देश-देश में खड़ा वहां भारत जीवित भास्वर है।
भारत वहां जहां जीवन साधना नहीं है भ्रम में,
धाराओं का समाधान है मिला हुआ संगम में।।
जहां त्याग माधुर्यपूर्ण हो जहां भोग निष्काम।
समरस हो कामना वहीं भारत को करो प्रणाम।।
वृथा मत लो भारत का नाम।।

भारत के भाव भूमि का वन्दन करते हुए भारत के पूर्व प्रधानमन्त्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी कहते हैं-
यह राष्ट्र केवल एक भूमि का टुकड़ा नहीं है, यह जीता जागता राष्ट्र पुरुष है। हिमालय इसका मस्तक है, गौरीशंकर शिखा है। कश्मीर इसका किरीट है। पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे हैं। दिल्ली इसका हृदय है, नर्मदा करधनी है। पूर्वी और पश्चिमी घाट दो विशाल जंघाएं हैं। इसका सागर चरण धुलाता है, मलयानिल विजन डुलाता है। सावन के काले-काले मेघ इसकी कुन्तल केश राशि हैं। चांद और सूरज इसकी आरती उतारते हैं। यह देवताओं की भूमि है। यह संन्यासियों की भूमि है। यह ऋषि की भूमि है, यह कृषि की भूमि है। यह सम्राटों की भूमि है, यह सेनानियों की भूमि है। यह सन्तों की भूमि है, यह तीर्थकरों की भूमि है। यह अर्पण की भूमि है, यह तर्पण की भूमि है, यह वन्दन की भूमि है, यह अभिनन्दन की भूमि है। इसका कंकर-कंकर शंकर है, इसका बिन्दु-बिन्दु गंगाजल है। इसका कण-कण हमें प्यारा है इसका जन-जन हमारा दुलारा है। हम जियेंगे तो इसके लिये और यदि मृत्यु ने बुलाया तो मरेंगे भी इसके लिये। अगर मृत्यु के बाद हमारी हड्डियां गंगाजी में फंेक दी गयी और कोई कान लगाकर सुने तो एक ही आवाज सुनायी देगी वन्दे मातरम्। वन्दे मातरम्।।
(श्री अटल बिहारी वाजपेयी)

युग पुरुष स्वामी विवेकानन्द इस पवित्र भारत माता के प्रति कुछ ऐसा विचार रखते थे-
यदि इस पृथ्वीतल पर कोई एक ऐसा देश है, जो मंगलमयी पुण्यभूमि कहलाने का अधिकारी है, ऐसा देश जहां संसार के समस्त जीवों को अपना कर्मफल भोगने के लिये आना ही है, ऐसा देश जहां ईश्वरोन्मुख प्रत्येक आत्मा को अन्तिम लक्ष्य प्राप्त करने के लिये पहुंचना अनिवार्य है, ऐसा देश जहां मानवता ने ऋजुजा उदारता, शुचिता एवं शान्ति का चरम शिखर स्पर्श किया हो तथा इन सबसे आगे बढक़र भी जो देश अन्तदृष्टि एवं आध्यात्मिकता का घर हो तो वह देश भारत है।
-स्वामी विवेकानन्द, बौद्धिक पुस्तिका 1979 का आमुख
इसी भारत के गुणानुवाद में कवि समाधिस्थ सा होकर गा उठता है कि-
ऊंचा ललाट जिसका हिमगिरि चमक रहा है,
स्वर्णिम किरीट जिस पर आदित्य रख रहा है।
साक्षात् शिव की प्रतिमा जो सब प्रकार उज्जवल,
बहता है जिसके सिर पर गंगा का नीर निर्मल।
वह पुण्य भूमि मेरी यह जन्मभूमि मेरी
यह मातृ भूमि मेरी यह पितृ मेरी।।
अमर साहित्यकार श्री जयशंकर प्रसाद जी कहते हैं कि
अरुण यह मधुमय देश हमारा।
जहां पहुंच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।।
सरस तामरस गर्भ विभा पर नाच रही तरु शिखा मनोहर।
छिटका जीवन हरियाली पर मंगल कुंकुाम सारा।। (‘चंद्रगुप्त’ नाटक)
भारत की संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति होने के बावजूद आज भी जीवंत है और मानवता के विकास में सहायक-इससे संभवतः कोई इनकार न कर सकेगा। प्राचीनतम संस्कृति होने के कारण इसका इतिहास मानवता के हर पग से जुडा़ हुआ है। विश्व के इतिहास का कोई भी प्रमुख पृष्ठ ऐसा नहीं है जो भारतीय संस्कृति से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित न रहा हो। मेसोपोटामिया, मिस्र, रोम, यूनान तथा और, ‘इन्का’ और ‘एजटेक’ सरीखी लुप्त संस्कृतियां भी भारतीय संस्कृति से प्रभावित रही हैं तथा इनके प्रणाम भी हैं। यह एक पृथक बात है कि विश्व के सभी इतिहासकारों से उसे मान्यता न मिली हो; पर जो भी इतिहासकार भारतीय संस्कृति के प्रभाव को खोजने मैक्सिको या दक्षिणी अमेरीका के सुदूर क्षेत्रों में गए हैं, वे वहां की लुप्त संस्कृतियों पर भारतीयता की छाप को जान सकने में समर्थ रहे हैं।

भारत, जो ऋग्वेद काल से एक राष्ट्र है, जिसके अभिनंदन में वैदिक ऋचाएं रची गईं और जिसकी समृद्धि के लिए भारतीय ऋषियों ने बार-बार प्रार्थनाएं कीं, उन सबको जाने-अनजाने हमारे संविधान निर्माताओं ने भुला दिया-यह एक ऐसी वास्तविकता है जिसका स्मरण आज भी दुःखदायी है।
‘इदं राष्ट्रं पिपृहि सौभगाय’
-अथर्व.,7-35-1
‘इस राष्ट्र की श्रीवृद्धि हो।
‘बृहद् राष्ट्रं संवेश्यं दधातु’
-अथर्व-3-8-1
हमें एक महान् राष्ट्र प्राप्त हो।

जीवन की विश्वात्म धारणा को प्रतिदिन करनेवाला भारत, जिसका कभी विश्वास रहा ‘वसुधैव कुटंुबकम्’; पर वह दुष्प्रचार का शिकार होकर स्वयं ही अपने मूल्य छोड़ बैठा और सांस्कृतिक रूप से बिखर गया। यह सांस्कृतिक बिखराव आज भी राजनीति में स्तर पर दिखाई दे रहा है। लेकिन फिर भी न तो इस राष्ट्र के कर्णधारों को इसकी चिंता है और न भूल का एहसास है जो कि जाने-अनजाने संविधान निर्माताओं से हो गई। भारत एक सांस्कृतिक इकाई है- भले ही यह बात इस राष्ट्र के अनेक महान् नेतााओं ने बार-बार विभिन्न संदर्भाें में तथा विभिन्न स्तरों पर कही हो; पर उनकी इस अवधारणा की छाया तक भारतीय संविधान में नहीं है। यह सब इसलिए हुआ, क्यांेकि संविधान सतत् उपलब्ध थी, उसका कहीं भी प्रयोग न करके सारी सामग्री योरोप और अमेरिका में खोजी गई। पश्चिम का राजनैतिक व सांस्कृतिक चिंतन तथा दर्शन भारत से मौलिक रूप से भिन्न है, यह सब जानते हुए भी संविधान निर्माण में अनुच्छेदों के लेखन के समय विदेशी मूल्यों, आदर्शांे, परिपाटियों एवं व्यवस्थाओं का ही प्रयोग किया गया।

‘‘प्रत्येक समाज की अपनी एक मूल प्रकृति होती है और भारत की मूल प्रकृति सहिष्णुता प्रधान व समन्वयात्मक है, इसीलिए उसका उद्देश्य है- ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’। सभी सुखी हों, सभी का कल्याण हो-इसी भाव को लेकर भारत में जीवन-मूल्यों को विकसित किया गया। ये जीवन-मूल्य जितने उदार व उच्च होंगे, उनसे जुडी़ संस्कृति भी उतनी ही उदार व उच्च होगी। अतः हमें अपने श्रेय प्रधान जीवन-मूल्यों को उन भोगवादी मूल्यों तथा रूढ़िवादिता के प्रहार से बचाना होगा, जो इधर समाज में बढे़ हैं।’’

जे. रैम्जे मैक्डोनाल्ड नामक एक अंग्रेज ने, जो कभी ब्रिटेन के प्रधानमंत्री थे, लिखा था, ‘‘जो भी हो, हिन्दू अपनी परम्परा और धर्म के अनुसार भारत को न केवल एक प्रभुसŸाा के अधीन एक राजनीतिक इकाई मानता है, बल्कि अपनी आध्यात्मिक संस्कृति को साकार मन्दिर और उससे भी बढक़र देवी मां का रूप मानता है। भारत और हिन्दुत्व एक दूसरे से ऐसे जुडे़ है, जैसे शरीर से आत्मा। राष्ट्रीयता की व्याख्या करना, उसकी परख करना और उसेे सिद्ध करना एक कठिन काम है, किन्तु जहां तक भारत और आर्यपुत्र का सम्बन्ध है, निश्चय ही उसने उसे अपनी आत्मा में प्रतिष्ठित किया है ‘‘
जार्ज ओटो ट्रेविलयनः द लाइफ एण्ड लेटर्स आफ लार्ड मैकाले, पृ.421

भारत उपासना-पंथों की भूमि, मानव-जाति का पालन, भाषा की जन्मभूमि, इतिहास की माता, पुराणों की दादी एवं परंपरा की परदादी है। मनुष्य के इतिहास में जो भी मूल्यवान एवं सर्जनशील सामग्री है, उसका भंडार अकेले भारत में है। यह ऐसी भूमि है जिसके दर्शन के लिए सब लालायित ही रहते है और एक बार इसकी झलक मिल जाय तो दुनिया के अन्य सारे दृश्यों के बदले में भी वे उसे छोड़ने के लिए तैयार नहीं होंगे।

मार्क ट्वेन मानव ने आदिकाल से जो सपने देखने शुरू किये, उनके साकार होने का इस धरती पर कोई स्थान है तो वह है भारत।
रोमां रोला (फ्रांस के विद्वान)

हिन्दुत्व धार्मिक एकरूपता पर जोर नहीं देता, वरन् आध्यात्मिक दृष्टिकोण अपनाता है। यह जीवन-पद्धति है, न कि कोई विचारधारा।

स्वामी विवेकानन्द का ‘‘राष्ट्रदेव की पूजा’’ का आह्वान
‘‘आगामी पचास वर्ष के लिए यह जननी जन्म भूमि भारतमाता ही हमारी आराध्य देवी बन जाए। तब तक के लिए हमारे मस्तिष्क से व्यर्थ के देवी-देवताओं के हट जाने में कुछ भी हानि नहीं है। सर्वत्र उसके हाथ हैं, सर्वत्र उसके पैर हैं, और सर्वत्र उसके कान हैं। समझ लो कि दूसरे देवी-देवता सो रहे हैं जिन व्यर्थ के देवी-देवताओं को हम देख नहीं पाते, उनके पीछे तो हम इस प्रत्यक्ष देवता की पूजा कर लेंगे तभी हम दूसरे देव-देवियों की पूजा करने ‘‘योग्य होंगे, अन्यथा नहीं’’
(भारत का भविष्य पृ.19)।

हिन्दुओं को प्रेरणा देते हुए स्वामी जी कहते हैं, ‘‘उŸिाष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत’’ (कठोप.1.3.4) यानी उठो, जागो और लक्ष्य प्राप्ति से पहले रूको नहीं। यानी पूर्ण हिन्दूराज स्थापित करो। हिन्दू के अस्तित्व की सुरक्षा का यही एकमेव मार्ग रह गया है।

योगी श्री अरविन्द ने 1918 में युवकों का कहाः
‘‘मैं केवल इतना ही कह सकता हूं कि ऐसी सभी बातों को मेरा पूर्ण समर्थन मिलेगा जो एक शक्तिशाली समाज के ढाचे में व्यक्ति के जीवन को मुक्त करने और सशक्त बनाने में सहायक हों तथा उस स्वाधीनता और ऊर्जा को फिर से वापस दिलायें जो भारत के पास उसकी महानता और विस्तार के वीरत्वपूर्ण काल में थी। हमारे अनेक वर्तमान सामाजिक ढांचे जब गढे़ गये थे, हमारी अनेक रीति-नीति व परम्पराएं जब उत्पन्न हुए थे, वह समय सिकुड़न और अवनति का था। आत्मरक्षा और टिके रहने के लिए संकीर्ण सीमाओं में उनकी उपादेयता थी, पर वर्तमान घड़ी में, जब हमसे एक बार फिर एक स्वतंत्र और साहसपूर्ण आत्म रुपांतरण और विस्तार में प्रविष्ट होने की अपेक्षा की जा रही है, वे हमारी प्रगति में रुकावट बन रही है। मैं एक आक्रामक और विस्तारशील हिन्दुत्व में विश्वास करता हूं, संकीर्णता के साथ रक्षात्मक और आत्मसंकोचशील हिन्दुत्व में नहीं।’’
‘‘सर्व साधारण लोगों को सम्मिलित व राष्ट्र के नवजागरण में करना, भविष्य की महानता पर आधारित करना, भारतीय राजनीति को भारतीय धार्मिक भाव-प्रवणता और आध्यात्मिक में भिगोना-ये भारत में एक महान और शक्तिशाली राजनैतिक जागृति की अपरिहार्य शर्तें है।’’
(1918, भारत का पुनर्जन्म पृ.140.)

‘‘हम प्रकृति के जंगल में से चीरकर अपनी राह निकालने वाले अग्रदूत हैं। कायर चोर कामचोर बनने तथा भार उठाने से मना करने और सब कुछ हमारे लिए शीघ्र और सरल बनाये जाने हेतु शोर मचाने से काम नहीं चलेगा। सबसे ऊपर मैं तुमसे सहनशीलता, दृढ़ता, वीरता-सच्ची आध्यात्मिक वीरता की मांग करता हूं। मुझे शक्तिशाली मनुष्य चाहिए। भावुक बच्चे मुझे नहीं चाहिए। (1919 वहीं. पृ. 154)। ‘‘एक अकेले वीर का संकल्प हजारों कायरों के हृदय में साहस फूंक सकता है।’’
(1920 वहीं. पृ. 157)।

हमने अपने सामने जो काम रखा है वह यांत्रिक नहीं है, किन्तु नैतिक और आध्यात्मिक है। हमारे लक्ष्य किसी एक प्रकार की सरकार को बदल डालना नहीं है, प्रत्युत एक राष्ट्र का निर्माण करना है। उस काम का राजनीति भी एक भाग है, परन्तु एक भाग मात्र है। हम अपनी सारी शक्ति राजनीति पर ही नहीं लगाएंगे, ना ही केवल सामाजिक प्रश्नों पर या ब्रह्मविद्या का दर्शन या साहित्य या विज्ञान के विषयों पर, परन्तु इन सबको हम उस एक ही वस्तु के अर्न्तगत समझते हैं जिसे हम सबसे आवश्यक मानते है। वह वस्तु है धर्म, राष्ट्रीय धर्म, जो हमारा विश्वास है, सार्वभौम भी है।’’

श्री अरविन्द का राष्ट्र को आह्वान
महाभारत की एक आख्या के अनुसार-
अभगच्छत राजेन्द्र देविकां लोक विश्रुताम्।
प्रसूर्तियत्र विप्राणां श्रूयते भरतर्षभ।।

अर्थात् ‘‘सप्तचरुतीर्थ के पास वितस्ता नदी की शाखा देविका नदी के तट पर मनुष्य जाति की उत्पत्ति हुई। प्रमाण यही बताते हैं कि यदि सृष्टि की उत्पत्ति भारत के उत्तराखण्ड अर्थात् ब्रह्मावर्त क्षेत्र में ही हुई।

संसार भर में गोरे, पीले, लाल और श्याम (काले) ये चार रंगों के लोग विभिन्न क्षेत्रों में पाए जाते हैं। एक भारत ही ऐसा देश है, जहां इन चार रंगों का भरपूर मिश्रण एक साथ देखने को मिलता है। वस्तुतः श्वेत-काकेशस, पीले-मंगोलियन, काले-नीग्रो तथा लाल रेड इंडियन इन चार प्रकार के रंगविभाजनों के बाद पांचवी मूल एवं मुख्य नस्ल है, जो भारतीय कहलाती है। इस जाति में उपर्युक्त चारों का सम्मिश्रण है। ऐसा कहीं सिद्ध नहीं हेाता कि भारतीय मानव जाति उपर्युक्त चारों जातियों की वर्ण संकरता से उत्पन्न हुई। उलटे नेतृत्व विज्ञानी यह कहते हैं कि भारतीय सम्मिश्रिण वर्ण ही यहां से विस्तरित होकर दीर्घकाल में जलवायु आदि के भेद से चार मुख्य रूप लेता चला गया।

न केवल रंग यहां चारों के सम्मिश्रित पाए जाते हैं, वरन् भारतीयों का शारीरिक गठन भी एक विलक्षणता लिए है। ऊंची दबी, गोल-लम्बी मस्तकाकृति उठी या चपटी नाक, लम्बी-ठिगनी, पतली-मोटी शरीराकृति, एक्जो व एण्डोमॉर्फिक (एकहरी या दुहरी गठन वाली) आकृतियां भारत में पाई जाती हैं। यहां से अन्यत्र बस जाने पर इनके जो गुण सूत्र उस जलवायु में प्रभावी रहे, वे काकेशस, मंगोलियन, नीग्रॉइड व रेडइंडियंस के रूप में विकसित होते चले गए। अतः मूल आर्य जाति की उत्पत्ति स्थली भारत ही है, बाहर कहीं नहीं, यह स्पष्ट तथ्य एक हाथ लगता है। पाश्चात्य विद्वानों ने एक प्रचार किया कि आर्य भारत से कहीं बाहर विदेश से आकर यहां बसे थे। संभवतः इसके साथ दूसरी निम्न जातियों को जनजाति-आदिवासी वर्ग का बताकर, वे उन्हें उच्च वर्ग के विरूद्ध उभारना चाहते थे। द्रविड़ तथा कोल, ये जो दो जातियां भारत में बाहर से आईं बतायी जाती हैं, वस्तुतः आर्य जाति से ही उत्पन्न हुई थीं, इनकी एक शाखा जो बाहर गयी थी पुनः भारत वापस आकर यहां बस गयी।

भारतीय जातियों पर शोध करने वाले नेतृत्व विज्ञानी श्रनैसफील्ड लिखते हैं कि ‘‘भारत में बाहर से आए आर्य विजेता और मूल आदिम मानव (बरबोरिजिन) जैसे कोई विभाजन नहीं है। ये विभाग सर्वथा आधुनिक है। यहां तो समस्त भारतीयेां में एक विलक्षण स्तर की एकता है। ब्राह्मणों से लेकर सड़क साफ करने वाले भंगियों तक की आकृति और रक्त समान हैं।’’
मनुसंहिता (10/43-44) का एक उदाहरण है
शनकैस्तु क्रियालोपदिनाः क्षत्रिय जातयः।
वृषलत्वं गता लोके ब्राह्मणा दर्शनेन च।।

पौण्ड्राकाशचौण्ड्रद्रविडाः काम्बोजाः शकाः।
पादराः पहल्वाश्चीनाः काम्बोजाः दरदाः खशाः।।

अर्थात् ‘‘ब्राह्मणत्व की उपलब्धि को प्राप्त न हानेे के कारण उस क्रिया का लोप होने से पौण्ड्र, चौण्ड्र, द्रविड़ काम्बोज, भवन, शक पादर, पहल्व, चीनी किरात, दरद व खश ये क्षत्रिय जातियां धीरे-धीरे शूद्रत्व को प्राप्त हो गयीं।’’ स्मरण रहे यहां ब्राह्मणत्व से तात्पर्य है श्रेष्ठ चिन्तन, ज्ञान का उपार्जन व श्रेष्ठ कर्म तथा शूद्रत्व से अर्थ है निकृष्ट चिंतन व निकृष्ट कर्म। क्षत्रिय वे जो पुरूषार्थी थे व बाहुबल से क्षेत्रों की विजय करके राज्य स्थापना हेतु बाहर जाते रहे।

मूल आर्य जाति ने उत्तराखण्ड से नीचे की भूमि में वनों को काटकर, जलाकर उन्हें


भारत में भारतीयता विषय पर सब पहलुओं से विचार किया गया है। इस शरीर के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है, अतएव-
यावज्जीवं सुखं जीवेद् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।।

भारत की आत्मा को समझना है तो उसे राजनीति अथवा अर्थ-नीति के चश्मे से न देखकर सांस्कृतिक दृष्टिकोण से ही देखना होगा भारतीयता की अभिव्यक्ति राजनीति के द्वारा न होकर उसकी संस्कृति के द्वारा ही होगी तभी हम पुनः भारत को विश्व में प्रतिष्ठापित कर पायेंगे। इसी भावना और विचार में भारत की एकता तथा अखण्डता बनी रह सकती है। तभी भारत परम वैभव को प्राप्त कर सकता है।
विश्व के अनेक विद्याविदों, दार्शनिकांे, वैज्ञानिकों और प्रतिभावानों ने भारत के समर्थ को सिद्ध किया है। किसी ने इसे ज्ञान की भूमि कहा है तो किसी ने मोक्ष की, किसी ने इसे सभ्यताओं का मूल कहा है तो किसी ने इसे भाषाओं की जननी, किसी ने यहां आत्मिक पीपासा बुझाई है तो कोई यहां के वैभव से चमत्कृत हुआ है, कोई इसे मानवता का पालना मानता है तो किसी ने इसे संस्कृतियों का संगीत कहा है। तप, ज्ञान, योग, ध्यान, सत्संग, यज्ञ, भजन, कीर्तन, कुम्भ तीर्थ, देवालय और विश्व मंगल के शुभ मानवीय कर्म एवं भावों से निर्मित भारतीय समाज अपने में समेटे खड़ा है इसी से पूरा  भू-मण्डल भारत की ओर आकर्षित होता रहा है और होता रहेगा। भारतीय संस्कृति की यही विकिरण ऊर्जा ही हमारी चिरंतन परम्परा की थाती है।
विश्व सभ्यता और विचार-चिन्तन का इतिहास काफी पुराना है। लेकिन इस समूची पृथ्वी पर पहली बार भारत में ही मनुष्य की संवेदनाओं चिंतन प्रारंभ किया भारतीय चिंतन का आधार हमारी युगों पुरानी संस्कृति है। भारत एक देश है और सभी भारतीय जन एक है, परन्तु हमारा यह विश्वास है कि भारत के एकत्व का आधार उसकी युगों पुरानी अपनी संस्कृति में निहित है- इस बात को न्यायालयों ने उनके निर्णयों में स्वीकार किया है। सांस्कृतिक चिंतन  एक आध्यात्मिक अवधारणा है और यही है भारतीय का वैशिष्ट्य। राष्ट्र का आधार हमारी संस्कृति और विरासत है। हमारे लिए ऐसे राष्ट्रवाद का कोई अर्थ नहीं जो हमे वेदांे, पुराणों, रामायण, महाभारत, गौतमबुद्ध, भगवान महावीर स्वामी, शंकराचार्य, गुरूनानक, महाराणा प्रताप, शिवाजी महाराज, स्वामी दयानन्द, लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, पण्डित दीनदयाल उपाध्याय और असंख्य अन्य राष्ट्रीय अधिनायकों से अलग करता हो। यह राष्ट्रवाद ही हमारा धर्म है।

संप्रति
सहायक प्राध्यापक
माखनलाल चतुर्वेदी
राष्ट्री य पत्रकारिता एवं संचार विश्वेविद्यालयए नोएडा
मोबाइल 8750820740