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Monday, September 1, 2025

सर्वे भवंतु सुखिनः को साकार करेगा एकात्म मानवदर्शन


डॉ. सौरभ मालवीय
परमपावन भारत भूमि अजन्मा है यह देव निर्मित है और देवताओं के द्वारा इस धरा पर  विभिन्न अवसरों पर अलग अलग प्रकार की शक्तियां अवतरित होती रहती हैं।  जो देव निर्मित भू -भाग को अपनी ऊर्जा से  समाज का मार्गदर्शन करते हैं।  ऐसे महापुरूषों की अनंत श्रृंखला भारत में विराजमान है।
 
 श्रीकृष्ण की भूमि मथुरा के गाँव नगला चन्द्रभान के निवासी पंडित हरिराम उपाध्याय एक ख्यातिनाम ज्योतिषी थे।  उनके कुल में आचार और विचार संपन्न लोगों की एक आदरणीय परम्परा थी।  पंडित हरिराम उपाध्याय की समाज में इतनी प्रतिष्ठा थी की उनकी मृत्यु पर पूरे तहसील में समाज के लोगों ने अपना व्यापर और कार्य बंद करके श्रद्धांजलि अर्पित की थी। काल के कराल का उच्छेद करके विपरीत परिस्थितियों में ही तो परमात्मा जनमते हैं। इसी परम्परा में आश्विन महीने के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को जब पूरा जगत भगवान शिव की स्तुति में लीन था तो 25 सितम्बर 1916 श्री दीनदयाल जी का जन्म हुआ। पंडित हरिराम के घर में संयुक्त परम्परा थी।  अतएव बालपन से ही दीनदयाल जी के चित्त में सामूहिक जीवन शैली का विकास हुआ।  काल चक्र घूमता रहा और दीनदयाल जी की माँ फिर, पिता जी दिवंगत हो गए।  उनका पालन -पोषण ननिहाल में हुआ जो राजस्थान में था ।  पूत के पांव पालने में ही दिखने लगते हैं, दीनदयाल की प्रखर मेधा के धनी थे। हाईस्कूल और बारहवीं में राजस्थान प्रदेश में सर्वोच्च अंक प्राप्त किये। इसी बीच उनके नाना,नानी ,मामी और छोटा भाई भी संसार छोड़ कर चले गए। ऐसी भयंकर परिस्थितियों में दीनदयाल जी दृढ़ संकल्प के साथ निरंतर आगे बढ़ते रहे। कानपुर के सनातन धर्म कालेज में गणित विषय लेकर बी.ए प्रथम श्रेणी में सफल हुए। ई.सी.एस.की परीक्षा में चयनित होने के बाद भी नौकरी नहीं की। आगे की पढ़ाई के लिए प्रयाग चले आये। नियति ने कुछ और ही तय किया था यही पर उनका संपर्क माननीय भाऊराव देवरस से हुआ और वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक बन गए और फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।  दीनदयाल जी को बालपन से ही रामायण और महाभारत  के लगभग सभी प्रसंग कंठस्थ थे उपनिषदों के अथाह ज्ञान सागर में वे रमे रहते थे। उनके चित्त के विकास का मूल श्लोक ही "गृद्धः कस्यस्विद्धनम् " था। उन्होंने कानपुर में पढ़ते समय ही सबसे कम अंक पाने वाले विद्यार्थियों का एक संगठन बनाया था, जिसका नाम "जीरो एसोशिएसन" रखा था और अपने पढ़ाई से समय निकाल कर वे उन विद्यार्थियों की सहायता करते थे। उनमें से अनेक विद्यार्थी सफल हो कर बड़े उंचाई पर पहुंचे।

उनके मन में जो मानवता के प्रति विचार थे उसे गति 1920 में प्रकाशित पण्डित बद्रीशाह कुलधारिया की पुस्तक ‘दैशिक शास्त्र’ से मिली। दैशिक शास्त्र की भावभूमि तो दीनदयाल जी के मन में पहले से ही थी और एक नया विचार उनके मन में उदित हुआ कि सम्पूर्ण विश्व के विचारों का अध्ययन कर के मानवता के लिए एक शास्वत जीवन प्रणाली दी जाए, यूँ तो ये शास्वत जीवन प्रणाली भारत में चिरकाल से ही विद्यमान है, परन्तु इसकी व्याख्या आधुनिकता के परिप्रेक्ष्य में करने लिए उन्होंने करीब करीब सवा सौ विदेशी विचारकों का गहन अध्ययन किया। सामान्यतः पाश्चात्य दर्शन के नाम पर हम लोग केवल यूरोप ,ब्रिटेन,अमेरिका को ही पूरा मान लेते हैं और इसके बाहर  के विचारकों  पर हमारी दृष्टि ही नही जाती दीनदयाल जी ने इस भ्रामक मिथक को तोड़ा वे ब्राजील के लुइपेरिया ,मेक्सिको के जुस्टोपिया और कविनोवारेड़ा पेरू के मरियनोकानेर्जो और आलेयांड्रोडस्तुवा ,चिली के लास्टरिया ,क्यूबा के अनरेकिक तोसेवारोना आदि अनेक विचारकों को सांगोपांग अध्ययन किया।  रेन्डेकार्ड,स्पिनोजा,जानलाँक ,चीन जेम्स रुसो अनेक मुख्यधारा के विद्वान थे। सुकरात , प्लेटो , अरस्तु , अगस्टीन, ओरिजेन, अरेजिना, ओखैम, काम्पार्ज, वरनेट , जेल, जेलर आर्लिक आदि को दीनदयाल जी ने खंगाल डाला इन सभी का निहितार्थ यह पाये कि यह सभी विचारधाराएं अधिकतम ढाई हजार साल पुरानी है और खण्ड सः सोचती है।  कोई भी  खण्ड सः सोच का परिणाम शास्वत और मंगलकारी नहीं हो सकता है।  इस प्रकार के खण्ड सः सोच पर पिछले दो सौ वर्षों में बहुत बार विश्व को एकत्र करने का प्रयास किया गया और अनेक नामो से किया गया। जिसमें इंटनेशनल कम्युनलिजम,इंटरनेशनल सेक्टरिजम और इंटरनेशनल ह्युम्नलिजम प्रमुख रहे।  पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के समक्ष ये सभी प्रयास और इसके परिणाम थे। वह इस बात का भी अध्ययन किये थे कि इन प्रयासों में वैचारिक त्रुटि क्या रह गई है और इन प्रयासों के वैचारिक निहितार्थ क्या है ? अंत में वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सोच की संकीर्णता और अधूरापन ही इसका मुख्य कारण है और इस विचार के परिणाम की विफलता के पीछे चित्त का तालमेल नहीं होना भी है।  इस निदान हेतु वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि जब तक समग्र मानव जाति की चेतना से एकीभूति नहीं हुआ जाये तब तक इस तरह के सभी प्रयास नक्कारखाने में तूती की आवाज ही सिद्ध होंगे।  यही से प्रारम्भ हो गया उनका मानव मन को जोड़ने का अद्भुत प्रयोग उन्होंने सहज ही अनुभव कर लिया की भारतीय मनीषा में इस तरह के प्रयोग की अपर सम्भावनाएं है।

एकात्म मानव दर्शन प्राचीन अवधारणा है। यह सांस्कृतिक चेतना है। इस विचार दर्शन में राष्ट्र की संकल्पना स्पष्ट है कि राष्ट्र वही होगा, जहां संस्कृति होगी। जहां संस्कृति विहीन स्थिति होगी, वहां राष्ट्र की कल्पना भी बेमानी है। भारत में आजादी के बाद शब्दों की विलासिता का जबरदस्त दौर कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों ने चलाया। इन्होंने देश में तत्कालीन सत्ताधारियों को छल-कपट से अपने घेरे में ले लिया। परिणामस्वरूप राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत जीवनशैली का मार्ग निरन्तर अवरूद्ध होता गया। अब अवरूद्ध मार्ग खुलने लगा है। संस्कृति से उपजा संस्कार बोलने लगा है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का आधार हमारी युगों पुरानी संस्कृति है, जो सदियों से चली आ रही है। यह सांस्कृतिक एकता है, जो किसी भी बन्धन से अधिक मजबूत और टिकाऊ है, जो किसी देश में लोगों को एकजुट करने में सक्षम है और जिसमें इस देश को एक राष्ट्र के सूत्र में बांध रखा है। भारत की संस्कृति भारत की धरती की उपज है। उसकी चेतना की देन है। साधना की पूंजी है। उसकी एकता, एकात्मता, विशालता, समन्वय धरती से निकला है। भारत में आसेतु-हिमालय एक संस्कृति है । उससे भारतीय राष्ट्र जीवन प्रेरित हुआ है। अनादिकाल से यहां का समाज अनेक सम्प्रदायों को उत्पन्न करके भी एक ही मूल से जीवन रस ग्रहण करता आया है यही एकात्म मानव दर्शन की दृष्टि है।
 
राष्ट्र को आक्रांत करने वाली समस्याओं की अलग -अलग समाधान खोजने की जगह एक ऐसे दर्शन की बात एकात्म मानव दर्शन में है जहां एकात्म दृष्टि से कार्य करने की संकल्पना है।  शरीर ,मन और बुद्धि प्रत्येक इंसान की आत्मा पर बल देकर राजनीति के आध्यात्मीकरण की दृष्टि एकात्म मानव दर्शन में दिखती है। पंडित दीनदयाल जी का मुख्य विचार उनकी भारतीयता ,धर्म ,राज्य और अंत्योदय की अवधारणा से स्पष्ट है। भारतीय से उनका आशय था वह भारतीय संस्कृति जो पश्चिमी विचारों के विपरीत एकात्म संपूर्णता में जीवन को देखती है। उनके अनुसार भारतीयता राजनीति के माध्यम से नहीं बल्कि संस्कृति से स्वयं को प्रकट कर सकती है।  किसी भी समस्या को खंड -खंड रूप में न देखें,क्योंकि खंड -खंड पाखंड है और वहीं एकात्म दर्शन संपूर्णता से परिपूर्ण है। दीनदयाल जी का चिंतन था कि वसुधैव कुटुम्बकम के इस मूल सिद्धांत को हम अपनाते तो पूरा विश्व एक ही सूत्र में जुड़ा हुआ मिलता। एक दूसरे के पूरक के रूप में काम करते और सर्वे भवन्तु सुखिनः की अवधारणा को परिपूर्ण करते। 

Tuesday, September 24, 2024

अंत्योदय से समृद्ध होगा भारत

 

डॉ. सौरभ मालवीय 
देश की समृद्धि के लिए अंत्योदय अत्यंत आवश्यक है। अंत्योदय का अर्थ है- समाज के अंतिम व्यक्ति का उदय। दूसरे शब्दों में- समाज के सबसे निचले स्तर के लोगों का विकास करना ही अंत्योदय है। अंत्योदय के बिना देश उन्नति नहीं कर सकता, क्योंकि जब तक देश के अति निर्धन वर्ग का उत्थान नहीं होता, तब तक वह मुख्यधारा में सम्मिलित नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति में देश भी समृद्ध नहीं हो पाएगा। इसलिए अंत्योदय आवश्यक है।
 
जनसंघ के संस्थापक दीनदयाल उपाध्याय ने अंत्योदय का नारा दिया था। अंत्योदय उनका सपना था। वे कहते थे कि आर्थिक योजनाओं तथा आर्थिक प्रगति का माप समाज के ऊपर की सीढ़ी पर पहुंचे हुए व्यक्ति नहीं, बल्कि सबसे नीचे के स्तर पर विद्यमान व्यक्ति से होगा। अंत्योदय के माध्यम से केवल भारत ही नहीं, अपितु समग्र विश्व का विकास हो सकता है। इसके सुनियोजित योजना एवं उत्तरदायित्व आवश्यक है। विश्व के बहुत से विकसित राष्ट्र हालांकि किसी भी योजना के बिना ही वर्तमान आर्थिक विकास की दर प्राप्त करने में सफल रहे हैं, जिससे कुछ लोगों को यह अनुभव हो रहा है कि योजनाएं न केवल अनावश्यक हैं, अपितु निहायत अवांछनीय भी हैं। इसके बावजूद आम सहमति इस बात पर भी है कि यदि अविकसित राष्ट्र थोड़े समय में वही हासिल करना चाहते हैं, जो विकसित देशों ने लगभग एक शताब्दी में प्राप्त किया है तो विकास को अपनी प्राकृतिक गति पर नहीं छोड़ा जा सकता। विकास की प्रक्रिया शुरू करने के लिए भी एक प्रयास करना पड़ेगा और यह प्रयास नियोजित ढंग से होना चाहिए।   
 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 25 सितंबर, 2014 को पंडित दीनदयाल उपाध्याय की 98वीं जयंती के अवसर पर अंत्योदय दिवस की घोषणा की थी, तभी से यह दिवस मनाया जा रहा है। इसका उद्देश्य समाज के अंतिम व्यक्ति तक विकास का प्रकाश पहुंचाना है, ताकि वे भी प्रगति करके समाज की मुख्यधारा में सम्मिलित हो सकें। आर्थिक उन्नति के साथ-साथ यह दिवस समाज में व्याप्त असमानताओं के उन्मूलन के लिए कार्य करने की प्रोत्साहित करता है। इसके अतिरिक्त यह दिवस विभिन्न सरकारी योजनाओं एवं कार्यक्रमों का प्रचार-प्रसार को बढ़ावा देता है, जिससे निर्धनों एवं वंचित वर्गों के लोगों को उनके कल्याण के लिए संचालित की जा रही योजनाओं की जानकारी प्राप्त हो सके तथा वे इसका लाभ उठा सकें। सरकार इन वर्गों के कल्याण के लिए अनेक योजनाएं संचालित कर रही है। दीनदयाल अंत्योदय योजना के कई घटक हैं, जिन्हें अलग-अलग समय पर प्रारंभ किया गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 25 सितंबर, 2014 को दीनदयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल्य योजना भी प्रारंभ की। इसका उद्देश्य निर्धन ग्रामीण युवाओं को नौकरियों में नियमित रूप से न्यूनतम पारिश्रमिक के समान या उससे अधिक मासिक पारिश्रमिक प्रदान करना है। यह योजना ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा ग्रामीण आजीविका को बढ़ावा देने के लिए की क्रियान्वित की जा रही है। इससे पूर्व 24 सितंबर, 2013 को राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन प्रारंभ किया गया था। इसके अंतर्गत शहरी निर्धनों को आर्थिक रूप से मजबूत बनाने एवं उन्हें स्वरोजगार के लिए प्रोत्साहित करने पर ध्यान दिया जाता है। इससे पूर्व 25 सितंबर, 2004 को दीनदयाल अंत्योदय उपचार योजना प्रारंभ की गई थी। इस योजना के अंतर्गत निर्धन रोगियों को एंबुलेंस की सुविधा प्रदान की जाती है।
    
उल्लेखनीय है कि सरकार अंत्योदय अन्न योजना संचालित कर रही है। यह योजना 25 दिसंबर 2000 को तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा प्रारंभ की गई थी। इसे केंद्रीय खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति मंत्रालय द्वारा लागू किया गया था। इसका उद्देश्य सार्वजनिक वितरण परमाली द्वारा देश के सबसे निर्धन लोगों को रियायती दरों पर भोजन उपलब्ध करवाना है। इस योजना के अंतर्गत निर्धन परिवारों को 35 किलो राशन प्रदान किया जाता है। इसमें 20 किलो गेहूं और 15 किलो चावल सम्मिलित होता है। इसके अंतर्गत गेहूं तीन रुपये प्रति किलोग्राम और चावल दो रुपये प्रति किलोग्राम की दर से दिया जाता है। इसे सबसे पहले राजस्थान में लागू किया गया था। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि कच्ची नौकरियों में निर्धन परिवारों के युवाओं को प्राथमिकता दी जाएगी। इसमें वे परिवार सम्मिलित हैं, जिनकी वार्षिक आय एक लाख 80 हजार रुपये से कम है। कोरोना काल से यह राशन नि:शुल्क कर दिया गया है।
 
भारतीय जनता पार्टी की केंद्र एवं राज्य सरकारें अंत्योदय के सिद्धांत को लेकर शासन कर रही हैं। भाजपा के अनुसार एकात्म मानववाद और अंत्योदय का दर्शन पार्टी के मार्गदर्शक सिद्धांतों में से एक है। इस सिद्धांत को हम सबका साथ सबका विकास के साथ मिला हुआ देख सकते हैं जो गरीब, ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के लिए सरकार द्वारा तय की गई नीतियों में भी नजर आता है।
 
दीनदयाल जी और उनकी आर्थिक नीतियों ने हमेशा गरीबों की भलाई पर जोर देने की बात की है। उनके आर्थिक विचार में पंक्ति के अंतिम पड़ाव पर खड़ा व्यक्ति शामिल रहा है। उन्होंने कहा था कि‘आर्थिक नीति निर्धारण और प्रगति की सफलता का पैमाना यह नहीं है कि समाज के सबसे शीर्ष पर मौजूद व्यक्ति को उससे कितना फायदा मिल रहा है बल्कि यह है कि समाज पर जो लोग सबसे नीचे हैं उन्हें उन नीतियों का कितना फायदा मिला है। अंत्योदय का मतलब समाज के सबसे निचले स्तर पर मौजूद व्यक्ति का कल्याण है। उन्होंने यह भी कहा था कि यह हमारी सोच और हमारे सिद्धांत हैं कि ये गरीब और अशिक्षित लोग हमारे ईश्वर हैं, यही हमारा सामाजिक और मानवीय धर्म है।
 
उनके इसी अंत्योदय के विचार से प्रेरित होकर केन्द्र में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में मौजूद एनडीए सरकार और तमाम प्रदेशों में शासन करने वाली भाजपा सरकारें अंत्योदय के रास्ते पर बढ़ने की ओर अग्रसर हैं तथा गरीब, ग्रामीण एवं किसानों के लिए और समाज के सबसे शोषित वर्ग से आने वाले युवाओं और महिलाओं के कल्याण की ओर प्रतिबद्ध हैं। गरीब को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करते हुए औसत जीवन स्तर में बढ़ोतरी हुई है। मुद्रा, जनधन, उज्जवला, स्वच्छता मिशन, शौचालयों का निर्माण, दीनदयाल ग्राम ज्योति योजना, आवास योजना, सस्ती दवाएं और इलाज, इन सभी योजनाओं पर कार्य को आगे बढ़ा दिया गया है।
 
तकनीक के प्रयोग से कृषि में सुधार किया जा रहा है एवं किसानों की आय दुगनी करने के इरादे से सिंचाई तकनीकों के लिए विशेष व्यवस्थाएं की जा रही हैं। केंद्रीय बजट की सहायता से गांवों में भी कई निवेश किए जा रहे हैं। दीनदयाल जी के विचारों से प्रेरित बीजेपी सरकार देश के संसाधनों का उपयोग केवल देश की उन्नति के लिए करने के लिए प्रतिबद्ध है जिसके लिए यह सरकार भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने, काले धन को रोकने और जनता की कमाई की लूट रोकने के लिए कड़े कदम उठा रही है। एक भारत-श्रेष्ठ भारत का रास्ता गरीबी दूर करके ही मिलेगा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कुशल नेतृत्व में अंत्योदय व सेवा के संकल्प को पूर्ण कर विकसित भारत के निर्माण के लिए भाजपा प्रतिबद्ध है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कहना है कि मां भारती की सेवा में जीवनपर्यंत समर्पित रहे अंत्योदय के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का व्यक्तित्व और कृतित्व देशवासियों के लिए हमेशा प्रेरणास्रोत बना रहेगा।
 
वास्तव में दीनदयाल अंत्योदय योजना ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए स्वरोजगार के अवसरों में वृद्धि करती है। इसके अंतर्गत कृषि और गैर-कृषि दोनों प्रकार की आजीविकाओं में सहायता मिलती है। इससे महिलाओं को आर्थिक सशक्तिकरण के लिए सहायता मिलती है। महिला स्वयं सहायता समूहों को उनकी आजीविका बढ़ाने में सहायता मिलती है। इसके अंतर्गत महिलाओं को बैंकिंग संवाददाता सखियों के रूप में प्रशिक्षण दिया जाता है।
(लेखक – लखनऊ विश्वविधालय में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)

Saturday, February 10, 2018

भावी भारत, युवा और पंडित दीनदयाल उपध्याय


डॉ. सौरभ मालवीय
1947 में जब देश स्वतंत्र हुआ तो देश के सामने उसके स्वरूप की महत्वपूर्ण चुनौती थी कि अंग्रेजों के जाने बाद देश का स्वरूप क्या होगा। कॉंग्रेसी नेता सहित उस समय के अधिकांश समकालीन विद्वानों का यही मानना था कि अंग्र्रेजों के जाने के बाद देश अपना स्वरूप स्वतः तय कर लेगा, अर्थात तत्कालीन नेताओं जेहन में देश के स्वरूप से अधिक चिंता अंग्र्रेजों के जाने को लेकर था, राष्ट्र के स्वरूप को लेकर गॉंधी जी के बाद अगर किसी ने सर्वाधिक चिंता या विचार प्रकट किये, उनमें श्यामाप्रसाद मखर्जी के अलावा पं. दीनदयाल उपध्याय का नाम उन चुनिन्दे चिंतकों में शामिल था, जो आजादी मिलने के साथ ही देश का स्वरूप भारतीय परिवेश, परिस्थिति और सांस्कृतिक, आर्थिक मान्यता के अनुरूप करना चाहते थे। वे इस कार्य में पश्चिम के दर्शन और विचार को प्रमुख मानने के वजाए सहयोगी भूमिका तक ही सीमित करना चाहते थे, जबकि तत्कालीन प्रमुख नेता और प्रथम प्रधानमंत्री पं.नेहरू पश्चिमी खाके में ही राष्ट्र का ताना-बाना बुनना चहते थे।
अगर हम गॉंधीजी और दीनदयाल जी के विचारों के निर्मेष भाव से विवेचना करें तो दोनों नेता राष्ट्र के अंतिम व्यक्ति के अभ्युदय और उत्थान में ही उसका वास्तविक विकास मानते थे। हालांकि दोनों के दृष्टिकोंण में या इसके लिए अपनाये जाने वाले साधनों और दर्शन तत्त्वों में मूलभूत विभेद भी था। दीनदयाल जी इस राष्ट्र नव-जागरण में युवाओं की भूमिका को भी महत्त्वपूर्ण मानते थे। उनका मानना था कि किसी राष्ट्र का स्वरूप उसके युवा ही तय करते हैं। किसी राष्ट्र को जानना हो तो सर्वप्रथम राष्ट्र के युवा को जानना चाहिए। पथभ्रष्ट और विचलित युवाओं का साम्राज्य खड़ा करके कभी कोई राष्ट्र अपना चिरकालिक सांस्कृतिक स्वरूप ग्रहण नहीं कर सकता। दीनदयाल जी की दृष्टि में युवा राष्ट्र की थाती है, एवं युवा-युवा के बीच भेद नहीं करता वह समग्र युवाओं को राष्ट्र की थाती मानता है। राष्ट्र जीवंत और प्राणवान सांस्कृतिक अवधारणा है। पण्डित जी राष्ट्र को जल, जंगल, जमीन का सिर्फ समन्वय नहीं मानते थे।
राष्ट्र और युवा के सम्बन्ध में दीनदयाल जी की मान्यता थी कि राष्ट्र का वास्तविक विकास सिर्फ उसके द्वारा ओद्योगिक जाना, और बड़े पैमाने पर किया गया पूॅंजी निवेश मात्र नहीं है। उनका स्पष्ट मानना था कि किसी राष्ट्र का सम्पूर्ण और समग्र विकास तब तक नहीं जब तक कि राष्ट्र का युवा सुशिक्षित और सुसंस्कृत नहीं होगा। सुसंस्कृत से पण्डित जी का आशय सिर्फ धार्मिक अनुष्ठान तक नहीं था, बल्कि वह ऐसी युवा शक्ति निर्माण की बात करते थे जो राष्ट्र की मिट्टी और सांस्कृतिक विरासत से जुड़ाव महसूस करता हो, उनके अनुसार यह तब तक सम्भव नहीं था, जब तक युवा, देश की संस्कृति और उसकी बहुलतावादी सोच मंे राष्ट्र की समग्रता का दर्शन न करता हो। अगर इसे हम भारत जैसे बहुलवादी राष्ट्र के संदर्भ में देखें तो ज्ञात होगा कि उसकी सांस्कृतिक बहुलता में भी एक समग्र संस्कृति का बोध होता है। जो उसे अनेकता में भी एकता के सूत्र में पिरोये रखने की ताकत रखता है। यही वह धागा है, जिसने सहस्त्रों विदेशी आक्रांताओं के आक्रमण के बाद भी राष्ट्र को कभी विखंडित नहीं होने दिया, और एक सूत्र में पिरोए रखा।
पश्चिमी दार्शनिक मनुष्य के सिर्फ शारीरिक और मानसिक विकास की बात करते हैं। वहीं अधिकांश भारतीय दार्शनिक व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक विकास के साथ ही धार्मिक विकास पर भी जोर देते हैं। पण्डित दीनदयाल उपाध्याय एकात्म मानव दर्शन की बाद करते हैं, तो उनका भी आशय यही होता है कि पूर्ण मानव बनना तभी सम्भव है, जब मनुष्य का शारीरिक और बौद्धिक विकास के साथ-साथ उसका अध्यात्मिक विकास भी हो। इस एकात्म मानव दर्शन में व्यष्टि से समष्टि तक सब एक ही सूत्र में गुंथित है युवा व्यक्तित्व का विकास होगा तो समाज विकसित होगा, समाज विकसित होगा तो राष्ट्र तो राष्ट्र की उन्नति होगी, और राष्ट्र की उन्नति होगी तो विश्व का कल्याण होगा। राष्ट्र के सम्बन्ध में दीनदयाल जी का विचार था कि जब एक मानव समुदाय के समक्ष, एक वृत्त-विचार आदर्श रहता है और वह समुदाय किसी भूमि विशेष को मातृ भाव से देखता है तो वह राष्ट्र कहलाता है, अर्थात पण्डित जी के अनुसार देश के युवा राष्ट्र के सच्चे सपूत तभी कहलायेंगे जब वे भारत मॉं को मातृ जमीन का टुकड़ा न समझें, बल्कि उसे सांस्कृतिक मॉं के रूप में स्वीकार करें। उनका विचार था कि राष्ट्र की भी एक आत्मा होती है जिसे चिती रूप में जाना जाता है।
प्रसिद्ध विद्वान मैक्डूगल के अनुसार किसी भी समूह की एक मूल प्रवृत्ति होती है, वैसे ही चिती किसी समाज की मूल प्रवृत्ति है जो जन्मजात है, और उसके होने का कारण ऐतिहासिक नहीं है। इसी क्रम में वर्तमान परिप्रेक्ष्य के भौतिकवादी स्वरूप को देखते हुए एवं युवाओंे के मौजूदा स्थिति और स्वभाव के बारे में चिंता प्रकट करते हुए एक बार अपने उद्बोधन में पण्डित दीनदयाल जी कहा था कि किसी भी राष्ट्र का युवा का इस कदर भौतिकवादी होना और राष्ट्र राज्य के प्रति उदासीन होना अत्यन्त घातक है। दीनदयाल जी का युवाओं के लिए चिंतन था कि भारत जैसा विशाल एवं सर्वसम्पन्न राष्ट्र जिसने अपनी ऐतिहासिक तथा सांस्कृति पृष्ठभूमि के आधार पर सम्पूर्ण विश्व को अपने ज्ञान पुंज के आलोकित कर मानवता का पाठ पढ़ाया तथा विश्व में जगत गुरू के पद पर प्रतिष्ठापित हुआ। ऐसे विशाल राष्ट्र के पराधीनता के कारणों पर दीनदयाल जी का विचार और स्वाधीनता पश्चात समर्थ सशक्त भारत बनाने में युवाओं के योगदान को महत्त्वपूर्ण माना है।
पं. दीनदयाल उपध्याय के मन में जो मानवता के प्रति विचार थेए उसे गति 1920 में प्रकाशित पण्डित बद्रीशाह कुलधारिया की पुस्तक ‘दैशिक शास्त्रश् से मिली। दैशिक शास्त्र की भावभूमि तो दीनदयाल जी के मन में पहले से ही थी और एक नया विचार उनके मन में उदित हुआ कि सम्पूर्ण विश्व का प्रतिनिधित्व युवा ही करते हैं द्य अतः युवाओं के विचारों का अध्ययन करके मानवता के लिए एक शास्वत जीवन प्रणाली दी जाएए जो कि युवाओं के लिए प्रेरक तो ही साथ ही साथ युवाओं के माध्यम से भारत एक वैश्विक शक्ति बन सके।