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Wednesday, April 16, 2025

भारत की पहचान है सांस्कृतिक राष्ट्रवाद


डॉ. सौरभ मालवीय
''सांस्कृतिक राष्ट्रवाद'' प्राचीन अवधारणा है। राष्ट्र वही होगा, जहां संस्कृति होगी। जहां संस्कृति विहीन स्थिति होगी, वहां राष्ट्र की कल्पना भी बेमानी है। भारत में आजादी के बाद शब्दों की विलासिता का जबर्दस्त दौर कुछ तथाकथित बुध्दिजीवियों ने चलाया। इन्होंने देश में तत्कालीन सत्ताधारियों को छल-कपट से अपने घेरे में ले लिया। परिणामस्वरूप राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत जीवनशैली का मार्ग निरन्तर अवरूध्द होता गया। अब अवरूध्द मार्ग खुलने लगा है। संस्कृति से उपजा संस्कार बोलने लगा है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का आधार हमारी युगों पुरानी संस्कृति है, जो सदियों से चली आ रही है। यह सांस्कृतिक एकता है, जो किसी भी बन्धन से अधिक मजबूत और टिकाऊ है, जो किसी देश में लोगों को एकजुट करने में सक्षम है और जिसमें इस देश को एक राष्ट्र के सूत्र में बांध रखा है। भारत की संस्कृति भारत की धरती की उपज है। उसकी चेतना की देन है। साधना की पूंजी है। उसकी एकता, एकात्मता, विशालता, समन्वय धरती से निकला है। भारत में आसेतु-हिमालय एक संस्कृति है। उससे भारतीय राष्ट्र जीवन प्रेरित हुआ है। अनादिकाल से यहां का समाज अनेक सम्प्रदायों को उत्पन्न करके भी एक ही मूल से जीवन रस ग्रहण करता आया है। भारतीय संस्कृति की नींव गंगा, गायत्री, गौ, गीता पर खड़ी है। ज्ञान-कर्म-शील-सातत्य इसकी सुदृढ़ दीवारें हों। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की छत का जिसे संरक्षण मिला है तथा इसमें विराजती है, उस विराट की प्रतिमा जो सत्य, सुन्दर, शिव है। कर्म यहां का जीवन है, पूजा है। यहाँ अधिकार की आराधना नहीं, कर्म की ही उपासना होती है। हमने इसे पूजा है, कभी राम के रूप में, कभी कृष्ण के रूप में। भारतीय संस्कृति, संश्लेषण की संस्कृति है, विश्लेषण का विज्ञान नहीं। समन्वय इसका स्वभाव है। टूटना इसका चरित्र नहीं। आस्था इसकी डगर है और विश्वास इसका पड़ाव। न कोई भटकाव है और न कोई विभ्रम।
प्रचलित राष्ट्रवाद की परिभाषा भूगोल पर आधारित है, देश व राष्ट्र समुद्रों, पर्वतों, नदियों, रेगिस्तानों की सीमाओं से बंधे हो। यूरोपीय विद्वानों के मतानुसार राष्ट्रीयता की भावना सर्वप्रथम 1789 में हुई फ्रेंच जाति के बाद उभरकर सामने आई। पेंग्विन डिक्श्नरी ऑफ सोशियॉलाजी में राष्ट्रीयता की भावना अट्ठारहवीं शताब्दी में सर्वप्रथम यूरोपीय देशों में न्याय राज्य निर्माण होकर वहीं के मानव समूहों को राष्ट्र का स्वरूप प्राप्त हो गया। यूरोप के मानचित्रों पर जर्मन राष्ट्र का प्रादुर्भाव 1871 में हुआ। फिर इटली का एकीकरण हुआ और धीरे-धीरे राष्ट्रीयता की अवधारणा यूरोप के अन्य देशों में भी फैल गयी। यूरोपीय देशों के साम्राज्यवादी एवं बौध्दिक विस्तार के फलस्वरूप राजनीतिक राष्ट्रीयता के विचार का प्रसार अन्य देशों में भी फैल गया। चूंकि वे शासक थे, इसलिए उनकी बात को यूरोपीय विद्वानों के साथ-साथ गैर यूरोपीय विद्वानों ने भी स्वीकार्य कर लिया। प्रभुसत्ता ने जिस-जिस भूमि पर अधिकार (कब्जा) किया, वो उनका राष्ट्र बनता गया। तिब्बत की राष्ट्रीयता को समाप्त करके चीन ने अपनी प्रभुसत्ता बनाई। इज़राइल और फिलिस्तीन ने कब्जे के आधार पर देश या राष्ट्र को परिभाषित किया। राजनीतिक विचारधारा आधारित राष्ट्र साम्यवाद, पूंजीवाद इत्यादि, जाति आधारित यूरोप को अंग्रेजों हब्शियों (नीग्रो) पूजा पध्दति आधारित सभी राष्ट्र जिसमें इस्लाम का राजसत्ता का संरक्षण प्राप्त है। इसी प्रकार राष्ट्रपति बुश का ईसाइयों और मुस्लिमों में भी पूजा पध्दति का मतभेद होने के कारण ये राष्ट्र क्रियात्मक नहीं हो पाते। हिन्दू धर्म में भी अनेक विश्वास और पूजा पध्दतियां हैं, जिसके कारण जैनियों का राष्ट्र या सिक्खों का राष्ट्र जैसी कल्पनाएं अव्यवहारिक/संस्कृति आधारित राष्ट्र व पूरे या यूरोप की समान संस्कृति यूरोपियन संघ बना हुआ है। अमेरिका में विभिन्न जातियों के एक साथ रहने का कारण भी सांस्कृतिक हो सकता है, क्योंकि पिछले चार सौ वर्षों की एक विशेष संस्कृति वहां पर उत्पन्न हुई है, हिन्दु जीवन दर्शन पर आधारित संस्कृति जहां-जहां है, उनको भारतीय या हिन्दू राष्ट्र की कल्पना में सम्मिलित किया जा सकता है, इसमें भौगोलिक सीमाओं का महत्व कम हो जाता, नागरिकता और राष्ट्रीयता में अन्तर कम हो जाता है। भारत एक प्राचीन राष्ट्र है और इसकी राष्ट्रीयता का आधार है संस्कृति - उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्, वर्ष तद् भारतं नाम भारती यत्र संतति: पश्चिमी विचारधारा से प्रभावित तथाकथित एक ऐसा वर्ग है जो इसे राष्ट्र नहीं मानता। ''काफिले आते रहे, कारवां बनता रहा'' या । Nation is making. राष्ट्र, राज्य एवं देश को एक ही मानने या इनके अंतर को न समझने के कारण ये तथाकथित प्रगतिशील लोग भ्रमजाल फैलाते रहते हैं। प्रादेशिक राष्ट्रवाद की संकल्पना यूरोप में राज्यों के अभ्युदय के साथ प्रमुखता से उभरी। एक निश्चित भूखंड, उसमें रहने वाला जन, एक शासन एवं उसकी संप्रभुता को राष्ट्र कहा गया। कालांतर में राजनीतिक स्वरूप के कारण राष्ट्र एवं राज्य को समान अर्थों में प्रयोग में लाया जाने लगा। संयुक्त राष्ट्र संघ राष्ट्र शब्द को प्रयोग में लाया। राज्य एवं देश बनते-बिगड़ते रहे एवं संयुक्त राष्ट्र संघ उन्हें मान्यता देता रहा फलत: राष्ट्र एवं राज्य का अंतर समझने में भूल होती रही। मगर पश्चिमी परिभाषा की कसौटी पर भारत एक राष्ट्र नहीं, क्योंकि एक शासन नहीं। अंग्रेजों एक शासन के अंदर इसे लाए। अत: उसे राष्ट्र बनाने का श्रेय दिया गया। इज़रायल भी एक राष्ट्र नहीं, क्योंकि वहां जन (इज़रायली) था ही नहीं। द्वितीय विश्व युध्द के बाद अनेक राष्ट्रों को षडयंत्रपूर्वक तोड़ा गया। जर्मन-पूर्वी एवं पश्चिमी जर्मनी, वियतनाम उत्तरी एवं दक्षिणी वियतनाम, कोरिया-उत्तरी एवं दक्षिणी कोरिया, लेबनान उत्तरी एवं दक्षिणी लेबनान आदि। भारत का विभाजन भी 1947 में द्विराष्ट्रीयता के आधार पर हुआ। हिन्दु एवं मुस्लिम दो राष्ट्रीयता हैं अत:, दो राष्ट्र होने चाहिए। जर्मनी, वियतनाम, कोरिया, लेबनान आदि टूटे अवश्य पर उन्होंने अपनी राष्ट्रीयता को नहीं छोड़ा पर दुर्भाग्यवश भारत का जो विभाजन हुआ वह एक अलग स्वरूप में हुआ। पूर्वी हिन्दुस्तान, पश्चिमी हिन्दुस्तान एवं मध्य हिन्दुस्तान - अगर इस रूप में रहता तो हिन्दुस्तानी राष्ट्रीयता जिंदा रहती। पंथ राष्ट्रीयता है तो फिर इस्लाम एवं ईसाई मत वालों का एक ही राष्ट्र होना चाहिए था - यह ­प्रश्न नहीं उठाया गया। पंथ को राष्ट्रीयता मानने के कारण ही नागालैंड एवं मिजोरम में अलगाववाद ने हिंसक रूप धारण किया। इसी धारणा के कारण पंजाब में भी अलगाववाद उभारने का असफल प्रयास हुआ। सिक्खों ने सवाल किया कि हिन्दू, मुस्लिम सिख, ईसाई-आपस में हैं भाई-भाई। अगर दो भाइयों का बंटवारा 1947 में हो गया तो हमें भी अलग करो। इसी तरह पाकिस्तान भाषा (बंगला-उर्दू) को राष्ट्रीयता मानकर दो भागों में टूट गया। अगर भाषा राष्ट्रीयता है तो फिर सभी अंग्रेजी बोलने वालों का एक राष्ट्र क्यों नहीं ? इंग्लैण्ड एवं आयरलैण्ड आपस में क्यों लड़ते हैं ? भारत में भी एक ऐसा वर्ग है जो भाषा को राष्ट्रीयता मानकर इस देश को बहुराष्ट्रीयता (Multi Nationality, Mix Culture) बहु सांस्कृतिक राज्य कहता है। गुजराती संस्कृति, पंजाबी संस्कृति, उड़िया संस्कृति, तेलुगु संस्कृति, कन्नड़ संस्कृति, मराठी संस्कृति, तमिल संस्कृति आदि शब्दों का प्रयोग करता है और लोग भी अपनी ''संस्कृति की पहचान'' के नाम पर अलगाववाद के नारे लगाने लगते हैं। यह संस्कृति नहीं बोली (भाषा) है। 1989 में विश्व पटल पर कुछ घटनायें घटीं जिसके कारण राष्ट्रीयता पर एक बहस उभर कर सामने आयी। सोवियत संघ विभाजित होकर 15 भागों में टूट गया। राष्ट्रीयता को नकार कर राज्य को सर्वोपरि मानने वाले वामपंथी राष्ट्रीय एकता की बात करने लगे। - ''भारत में अनेक राष्ट्रीयता हैं'' इसकी वकालत करने वाले सोवियत संघ का उदाहरण देकर यह दावा करते थे कि राष्ट्रीयता से ऊपर राज्य है। साम्यवाद के विस्तार में वे राष्ट्रीयता को बाधक मानते थे। पंथ, भाषा से ऊपर उठकर यहां का जन एक है। अतीत के सुख-दुख की उसे समान अनुभूति है - इसी अनुभूति के कारण वह इस भूमि को मातृभूमि-मोक्ष भूमि मानता है। उसकी नागरिकता भले कुछ भी हो जाये पर इस राष्ट्र से बाहर जाकर भी इस मिट्टी से वह जुड़ा हुआ है। केरल के शंकराचार्य ने चार-पीठ की स्थापना की ज्योतिपीठ (उत्तरांचल), श्रृगेरीपीठ (कर्नाटक), गोवर्धन पीठ (उड़ीसा), शारदापीठ (गुजरात)। उन्होंने एक भी पीठ केरल में स्थापित नहीं की - मलयालम संस्कृति या मलयालम को राष्ट्रीयता मानने वालों को इसका उत्तर देना होगा। चार धाम, चार स्थानों (प्रयाग, हरिद्वार, नासिक, उज्जैन) पर लगने वाले कुम्भ, द्वादश ज्योर्तिलिंग - 52 शक्तिपीठ हमारी राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रीय एकात्मता के प्रतीक हैं। गंगा को मोक्ष दायिनी सभी मानते हैं। आत्मवत सर्व भूतेषु एक सद् विप्रा बहुधा वदन्ति, पुनर्जन्म में विश्वास - हमारी संस्कृति के ये मूल तत्व हैं। हमारी विविधता हमारी संस्कृति की महानता को प्रकट करता है। इस विविधता को राष्ट्रीयता का नाम देकर अलगाववाद की वकालत करने वालों को पराजित करना होगा।
''न मे वाछास्ति यशोस विद्वत्व न च वा सुखे
प्रभुत्वे नैव वा स्वेग्र मोखेप्यानंददयके
परन्तु भारते जन्म मानवस्य च वा पशो:
विहंगस्य च वा जन्तों: वृक्षपाषाणयोरपि''
अर्थात् मुझे यश, विद्वता, किसी अन्य सुख या राजनीतिक प्रभुता की इच्छा नहीं है और न मैं स्वर्ग या मोक्ष की ही कामना करता हूं। परंतु मैं चाहता हूं कि भारत में ही मेरा पुनर्जन्म हो भले ही वह मानव, पशु, जन्तु, वृक्ष या पाषाण के रूप में क्यों न हो।

स्वतंत्रता संग्राम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका


डॉ. सौरभ मालवीय
संघ संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार जन्मजात देशभक्त और प्रथम श्रेणी के क्रांतिकारी थे. वे युगांतर और अनुशीलन समिति जैसे प्रमुख विप्लवी संगठनों में डॉ. पाण्डुरंग खानखोजे, श्री अरविन्द, वारीन्द्र घोष, त्रैलौक्यनाथ चक्रवर्ती आदि के सहयोगी रहे. रासबिहारी बोस और शचीन्द्र सान्याल द्वारा प्रथम विश्वयुद्ध के समय 1915 में संपूर्ण भारत की सैनिक छावनियों में क्रांति की योजना में वे मध्यभारत के प्रमुख थे. उस समय स्वतंत्रता आंदोलन का मंच कांग्रेस थी. उसमें भी उन्होंने प्रमुख भूमिका निभाई. 1921 और 1930 के सत्याग्रहों में भाग लेकर कारावास का दंड पाया.
1925 की विजयादशमी पर संघ स्थापना करते समय डॉ. हेडगेवार जी का उद्देश्य राष्ट्रीय स्वाधीनता ही था. संघ के स्वयंसेवकों को जो प्रतिज्ञा दिलाई जाती थी, उसमें राष्ट्र की स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए तन-मन-धन पूर्वक आजन्म और प्रामाणिकता से प्रयत्नरत रहने का संकल्प होता था. संघ स्थापना के तुरंत बाद से ही स्वयंसेवक स्वतंत्रता संग्राम में अपनी भूमिका निभाने लगे थे.
क्रांतिकारी स्वयंसेवक
संघ का वातावरण देशभक्तिपूर्ण था. 1926-27 में जब संघ नागपुर और आसपास तक ही पहुंचा था उसी काल में प्रसिद्ध क्रांतिकारी राजगुरू नागपुर की भोंसले वेदशाला में पढ़ते समय स्वयंसेवक बने. इसी समय भगतसिंह ने भी नागपुर में डॉक्टर जी से भेंट की थी. दिसंबर 1928 में ये क्रांतिकारी पुलिस उपकप्तान सांडर्स का वध करके लाला लाजपत राय की हत्या का बदला लेकर लाहौर से सुरक्षित आ गए थे. डॉ. हेडगेवार ने राजगुरू को उमरेड में भैया जी दाणी (जो बाद में संघ के अ.भा. सरकार्यवाह रहे) के फार्म हाउस पर छिपने की व्यवस्था की थी.
1928 में साइमन कमीशन के भारत आने पर पूरे देश में उसका बहिष्कार हुआ. नागपुर में हडताल और प्रदर्शन करने में संघ के स्वयंसेवक अग्रिम पंक्ति में थे.
महापुरुषों का समर्थन
1928 में विजयादशमी उत्सव पर भारत की असेंबली के प्रथम अध्यक्ष और सरदार पटेल के बड़े भाई श्री विट्ठल भाई पटेल उपस्थित थे. अगले वर्ष 1929 में महामना मदनमोहन मालवीय जी ने उत्सव में उपस्थित हो संघ को अपना आशीर्वाद दिया. स्वतंत्रता संग्राम की अनेक प्रमुख विभूतियां संघ के साथ स्नेह संबंध रखती थीं.
शाखाओं पर स्वतंत्रता दिवस
31 दिसंबर, 1929 को लाहौर में कांग्रेस ने प्रथम बार पूर्ण स्वाधीनता को लक्ष्य घोषित किया और 16 जनवरी, 1930 को देश भर में स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाने का निश्चय किया गया.
डॉ. हेडगेवार ने दस वर्ष पूर्व 1920 के नागपुर में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में पूर्ण स्वतंत्रता संबंधी प्रस्ताव रखा था, पर तब वह पारित नहीं हो सका था. 1930 में कांग्रेस द्वारा यह लक्ष्य स्वीकार करने पर आनंदित हुए हेडगेवार जी ने संघ की सभी शाखाओं को परिपत्र भेजकर रविवार 26 जनवरी, 1930 को सायं 6 बजे राष्ट्रध्वज वंदन करने और स्वतंत्रता की कल्पना और आवश्यकता विषय पर व्याख्यान की सूचना करवाई. इस आदेश के अनुसार संघ की सब शाखाओं पर स्वतंत्रता दिवस मनाया गया.
सत्याग्रह
6 अप्रैल, 1930 को दांडी में समुद्रतट पर गांधी जी ने नमक कानून तोडा और लगभग 8 वर्ष बाद कांग्रेस ने दूसरा जनान्दोलन प्रारम्भ किया. संघ का कार्य अभी मध्यभारत प्रान्त में ही प्रभावी हो पाया था. यहां नमक कानून के स्थान पर जंगल कानून तोडकर सत्याग्रह करने का निश्चय हुआ. डॉ. हेडगेवार संघ के सरसंघचालक का दायित्व डॉ. परांजपे को सौंप स्वयं अनेक स्वयंसेवकों के साथ सत्याग्रह करने गए.
जुलाई 1930 में सत्याग्रह हेतु यवतमाल जाते समय पुसद नामक स्थान पर आयोजित जनसभा में डॉ. हेडगेवार के संबोधन में स्वतंत्रता संग्राम में संघ का दृष्टिकोण स्पष्ट होता है. उन्होंने कहा- ‘स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों के बूट की पालिश करने से लेकर, उनके बूट को पैर से निकाल कर उससे उनके ही सिर को लहुलुहान करने तक के सब मार्ग मेरे स्वतंत्रता प्राप्ति के साधन हो सकते हैं. मैं तो इतना ही जानता हूं कि देश को स्वतंत्र कराना है.‘’
डॉ. हेडगेवार के साथ गए सत्याग्रही जत्थे में आप्पा जी जोशी (बाद में सरकार्यवाह) दादाराव परमार्थ (बाद में मद्रास में प्रथम प्रांत प्रचारक) आदि 12 स्वयंसेवक थे. उनको 9 मास का सश्रम कारावास दिया गया. उसके बाद अ.भा. शारीरिक शिक्षण प्रमुख (सर सेनापति) श्री मार्तंड राव जोग, नागपुर के जिलासंघचालक श्री अप्पाजी हळदे आदि अनेक कार्यकर्ताओं और शाखाओं के स्वयंसेवकों के जत्थों ने भी सत्याग्रहियों की सुरक्षा के लिए 100 स्वयंसेवकों की टोली बनाई जिसके सदस्य सत्याग्रह के समय उपस्थित रहते थे.
8 अगस्त को गढवाल दिवस पर धारा 144 तोडकर जुलूस निकालने पर पुलिस की मार से अनेक स्वयंसेवक घायल हुए.
विजयादशमी 1931 को डाक्टर जी जेल में थे, उनकी उनुपस्थिति में गांव-गांव में संघ की शाखाओं पर एक संदेश पढा गया, जिसमें कहा गया था- ‘’देश की परतंत्रता नष्ट होकर जब तक सारा समाज बलशाली और आत्मनिर्भर नहीं होता तब तक रे मना ! तुझे निजी सुख की अभिलाषा का अधिकार नहीं.‘’
जनवरी 1932 में विप्लवी दल द्वारा सरकारी खजाना लूटने के लिए हुए बालाघाट कांड में वीर बाघा जतीन (क्रांतिकारी जतीन्द्र नाथ) अपने साथियों सहित शहीद हुए और श्री बाला जी हुद्दार आदि कई क्रांतिकारी बंदी बनाए गए. श्री हुद्दार उस समय संघ के अ.भा. सरकार्यवाह थे.
संघ पर प्रतिबंध
संघ के विषय में गुप्तचर विभाग की रपट के आधार पर मध्य भारत सरकार (जिसके क्षेत्र में नागपुर भी था) ने 15 दिसंबर 1932 को सरकारी कर्मचारियों को संघ में भाग लेने पर प्रतिबंध लगा दिया.
डॉ. हेडगेवार जी के देहांत के बाद 5 अगस्त 1940 को सरकार ने भारत सुरक्षा कानून की धारा 56 व 58 के अंतर्गत संघ की सैनिक वेशभूषा और प्रशिक्षण पर पूरे देश में प्रतिबंध लगा दिया.
1942 का भारत छोडो आंदोलन
संघ के स्वयंसेवकों ने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए भारत छोडो आंदोलन में भी सक्रिय भूमिका निभाई. विदर्भ के अष्टी चिमूर क्षेत्र में समानान्तर सरकार स्थापित कर दी. अमानुषिक अत्याचारों का सामना किया. उस क्षेत्र में एक दर्जन से अधिक स्वयंसेवकों ने अपना जीवन बलिदान किया. नागपुर के निकट रामटेक के तत्कालीन नगर कार्यवाह श्री रमाकान्त केशव देशपांडे उपाख्य बाळासाहब देशपांडे को आन्दोलन में भाग लेने पर मृत्युदंड सुनाया गया. आम माफी के समय मुक्त होकर उन्होंने वनवासी कल्याण आश्रम की स्थापना की.
देश के कोने-कोने में स्वयंसेवक जूझ रहे थे. मेरठ जिले में मवाना तहसील पर झंडा फहराते स्वयंसेवकों पर पुलिस ने गोली चलाई, अनेक घायल हुए.
आंदोलनकारियों की सहायता और शरण देने का कार्य भी बहुत महत्व का था. केवल अंग्रेज सरकार के गुप्तचर ही नहीं, कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता भी अपनी पार्टी के आदेशानुसार देशभक्तों को पकड़वा रहे थे. ऐसे में जयप्रकाश नारायण और अरुणा आसफ अली दिल्ली के संघचालक लाला हंसराज गुप्त के यहां आश्रय पाते थे. प्रसिद्ध समाजवादी श्री अच्युत पटवर्धन और साने गुरूजजी ने पूना के संघचालक श्री भाऊसाहब देशमुख के घर पर केंद्र बनाया था. ‘पतरी सरकार’ गठित करनेवाले प्रसिद्ध क्रांतिकर्मी नाना पाटील को औंध (जिला सतारा) में संघचालक पंडित सातवलेकर जी ने आश्रय दिया.
स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु संघ की योजना
ब्रिटिश सरकार के गुप्तचर विभाग ने 1943 के अंत में संघ के विषय में जो रपट प्रस्तुत की वह राष्ट्रीय अभिलेखागार की फाइलों में सुरक्षित है, जिसमें सिद्ध किया है कि संघ योजनापूर्वक स्वतंत्रता प्राप्ति की ओर बढ़ रहा है.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और राष्ट्र


डॉ. सौरभ मालवीय
राष्ट्र, किसी भूभाग पर रहने वालो का भू भाग, भूसंस्कृति, उसभूमि का प्राकृतिक वैभव, उस भूमि पर रहने वालो के बीच श्रद्धा और प्रेम, उनकी समान परस्परा, समान सुख­दुख, किन्ही अर्थों में भाषिक एकरूपता, दैशिक स्तरपर समान शत्रु मित्र आदि अनेक भावों का समेकित रूप होता है। यह भाव बाहर से सम्प्रेषित नहीं किया जाता अपितु जन्मजात होता है।
भारत में यह बोध अनादिकाल से है। अभी वैज्ञानिक युग में भी यह तय नहीं हो पा रहा है कि वेदो की रचना कब हुई और वेदो में राष्ट्रवाद अपने उत्कर्ष पर है। इसी संकल्पना के कारण वैदिक ऋषियों ने घोषणा की है कि
समानो मन्त्रः समितिः समानी
समानं मनः सहचित्तमेषाम्।
समानं मन्त्रमभिमन्त्रये वः
समानेन वो हविषा जुहोमि।।
अर्थात् हम लोगों के मन्त्र (कार्यसूत्र का सिद्धन्त ) एक जैसे हो। उस मन्त्र के अनुरूप हमलोगो की समिति (संगठन), हमारे चित्त, हमारी मानसिक दशा और कार्यप्रणाली भी समान हो। हमलोग समेकित रूप से लक्ष्य प्राप्ति हेतु परमात्मा से एक समान प्रार्थना करें।
इसी क्रम में हमारे ऋषियों ने आगे कहा कि­
समानी वः अकूतीः समाना हृदयानि वः।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति।।
हमारे लक्ष्य, हमारे हृदय के भाव और हमारे चिन्तन भी समान हो और हमलोग आपस में संगठित रहे।
संगच्छध्वं संवध्वं सं वो मनांसि जनताम्।
देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते।।
अर्थात हमलोग साथ साथ चले, एक साथ बोले, हमारे मनोभाव समान रहें। हमलोग समानरूप से अपने लक्ष्य सिद्धि हेतु देवाताओं की साधना करें।
ऋषियों ने यह उद्घोष श्रुतियों में शताधिक बार किया है। हर बार वे हमे संगठित और सुव्यवस्थित रहकर अपने लक्ष्य के लिये समर्पित होने का आदेश दे रहे है। ऐसा राष्ट्रगीत धरती के किसी समाज में कभी नहीं पैदा हुआ है। पूरा का पूरा वैदिक वाङ्मय ही भारत का राष्ट्रगान है।
ओउम् सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ओउम् शान्तिः शान्ति: शान्ति।।
हम दोनों की परमात्मा साथ साथ रक्षा करें, हमदोनो साथ साथ लक्ष्य भोग करें, साथ साथ पराक्रम करें, हम दोनों के द्वारा पढी गयी विद्या तेजस्वी हो और हम कभी आपस में द्वेष न करें। हमारे त्रितापों (दैविक, दैहिक, भौतिक) का शमन हो।
यहाँ ऋषि हम दोनो का अर्थ केवल दो से ही नहीं कह रहे है अपितु गुरू शिष्य से है। यह एक परम्परा की वार्ता है। जो सगम्र गुरूओं व्दारा समग्र शिष्यों को अनादिकाल से अविच्छिन्न रूप से दी गयी शिक्षा है जिससे भारत की राष्ट्रियता सिञ्चित, पल्लवित, पुष्पित और फलित होती रही है।
भारत का यह अक्षुण्ण राष्ट्र भारत के चप्पे चप्पे में सदैव दृष्टिगोचर होता रहता है। देश मे दुर्भाग्य से देश में पराधीनता का काल आ गया। 1235 वर्षो तक के प्रदीर्घ पराधीन काल में, हिमालय, गंगा, काशी, प्रयाग, कुंभमेला, अनेकतीर्थ, अनन्तऋषि, महात्मा, महापुरूष, समुद्र, सरिता पेड, पौधे आदि भारत के राष्ट्रिय गीत तो अहर्निश गाते ही रहते है, पर उनकी मानवीय अभिव्यक्ति सुप्त पड़ गयी थी। इस कोढ में खाज जैसी स्थिती मैकाले की शिक्षा पद्धति ने पूरी कर दी। हमें बताया गया कि वेद गडरियो के गीत हैं, भारत कभी एक राष्ट्र नहीं रहा। यहाँ मे मूल निवासी तो कोल भील द्रविड आदि रहे है, आर्य मध्यएशिया से आकर उनपर आक्रमण करके देशपर कब्जा कर लिया, भारत गर्म देश है, सपेरों और नटों का बाहुल्य रहा है, यह एक देश ही नहीं रहा है बल्कि उपमहाद्विप है, मुस्लिम आक्रान्ताओं ने भारत को कपडा, भोजन, और अन्य तहजीब सिखाया, अब ईसाई आक्रान्ता भारतीयों के पाप का बोझ उतारने के लिये भगवान के आदेश पर भारत आये हैं। यह भारत का सौभाग्य है कि प्रभु ईसा मसीह भारत पर प्रसन्न हो गये है अब भारत इन ईसाइयों की कृपासे सुशिक्षित और सभ्य हो जायेगा, शैतानी परम्पराओं और झूठे देवताओं से मुक्त होकर असली देवताओं की कृपा पा जायेगा। इस प्रकार के सुझावो को जब सत्ता सहयोग मिल जाता है तो करैला नीम चढ जाता है। और इस स्थिति ने हमें इतना आत्मविस्मृत कर दिया कि हम मूढता की सीमा तक विक्षिप्त हो गये। वैदिक ऋषियों की गरिमावान पंरम्परा को अपना कहने में लज्जानुभव होने लगा। यत्किञ्चित इसका प्रभाव अभी भी अवशेष है। हम जान ही लिय थे कि हम जादू टोने वालों के वंशज हैं। अपनी किसी भी बात की साक्षी के लिये विदेशी प्रमाण खोजने लगे। यदि गौराड्ग शासको ने मान्यता दी तो हमार सीना फूल गया वरना एक अघोषित आत्मग्लानि से हम छूट भी नहीं पाते थे। और तो और हम धर्म की परिभाषा भी ह्विटने, स्पेंसर, थोरो, नीत्से, फिक्टे आदि की डायरियों से खोजना चालू कर दिये। वेदो के भाष्य के सन्दर्भ में मेक्समूलकर, ए.बी. कीथ अदि भगवान वेदव्यास पर भी भारी पडने लगे। आत्मदीनता की इस पराकाष्ठा में महानायक स्वामी विवेकानंन्द ने अमृत तत्व भरा और बडे शान से घोषित किया कि हमे हिंन्दू होने पर गर्व है। इसी घोषणा के बाद हमारी तन्द्रा टूटने लगी। बडे सौभाग्य की बात है कि इस वर्ष उसी महानायक की डेढ सौवी वर्ष गांठ है।
संघ के प्रथमपुरूष जन्मजात क्रान्तदर्शी थे। भारत पराधीनदासता से छूटे यह प्रथम प्रयास था पर उस स्वतन्त्रता के बाद का भारत कैसा हो इसका ब्लू प्रिण्ट समग्र भारत में केवल और केवल डा. केशव बलिराम हेडगेवार नें ही तैयार किया था। वे स्वामी विवेकानंन्द के राष्ट्रियत्व जागरण से अपने अभियान की ऊर्जा ले रहे थे। या यूँ कहे कि स्वामी जी के संकल्पना के 100 तरुण डा. हेडगेवार जी ने तैयार किया और भारत की आत्मा को बचा लिया वरना भारतीय संस्कृति भी बेबीलोन, मिस्र, एजटेक, इन्का, यूफ्रेटस और यूनान आदि की सभ्यताओं जैसे बडे-बडे पुस्तकालयों में भी नही मिलती। प्रो. अर्नाल्ड टायनवी जैसा विद्वान भी भारतीय संस्कृति नहीं खोज पाता।
डा. हेडगेवार जी ने अनुभव किया कि भारतीय मानस की आत्म विस्मृति केवल राष्ट्रवाद के मन्त्र से ही टूटेगी। इसके लिये स्वामी जी का सौद्धान्तिक राजपथ तो उन्होने चुन ही लिया था पर साक्षात् दर्शन हेतु योगी अरविन्द घोष का राष्ट्रिय आह्वान उन्हे सशरीर गुरुतुल्य लगा। श्री अरविन्द घोष के संगठन “अनुशीलन समिति” से जुडकर वे सिद्धान्त और क्रिया दोनो का अभूतपूर्व प्रयोग किये। सन 1915 से 1925 तक के कालखण्ड में वे केवल और केवल राष्ट्रवाद का ही चिन्तन, मनन और प्रयोग करते रहे। योगी अरविन्द अलीपुर जेल से बाहर आने पर कहे थे कि- “ भारत जब भी जागा है तो केवल अपने लिये नहीं अपितु सनातन धर्म के लिये जागा है। जब भी यह कहा जाता है कि भारत महान है तो इसका अर्थ है कि सनातन धर्म महान है। सनातन धर्म का प्रसार ही भारत का प्रसार है। भारत धर्म है और धर्म ही भारत है।
राष्ट्रियता केवल राजनीति नहीं है अपितु यह एक विश्र्वास है, एक आस्था है, एक धर्म है। मैं इतना ही नहीं कह रहा हूँ अपितु यह भी कि सनातन धर्म ही हमारी राष्ट्रियता है। इस हिंदू राष्ट्रकी उत्पत्ति ही सनातान धर्म के साथ हुई है। सनातन धर्म के साथ ही यह राष्ट्र आंदोलित होता है और उसी के साथ बढता है। सनातन धर्म कभी नष्ट होगा तो उसके साथ ही हिन्दू राष्ट्र भी नष्ट हो जायेगा। सनातन धर्म अर्थात् हिन्दू राष्ट्र……….।”
संघ संस्थापक डा. हेडगेवार इन विचारो से इतना प्रभावित हुए कि उन्होने स्वामी विवेकानन्द के समान सगर्व घोषित किया कि
“हो ओउम्। हे भारत हिन्दू राष्ट्र आहे ”
और उपर्युक्त मन्त्र राष्ट्रिय स्वंयसेवक संघ का पथ प्रदर्शक मन्त्र बन गया। इसके उच्चारण मात्र से एक ही साथ स्वामी विवेकानन्द और योगी अरविन्द दोनो ऋषियों की आत्माएं तृप्त होती है, अनादि काल से चला आरहा सत्य सनातन धर्म परिपुष्ट होता है, अनादिकाल से चला आर हा सत्य, विज्ञान, धर्म, संस्कार सब मजबूत होते है, भारतीय जनमें आत्मविश्वास पैदा होता है, भारत माता गर्वोन्नत होती है और प्रसन्न भाव से अपने पुत्रों को लाख­लाख आशीषें देती है। यह भारत माता की स्तुति का बीज मन्त्र है। इससे सम्पुटित कर काई भी पूजन अर्चन लोक परलोक दोनो में अभ्युदय ओर निःश्रेयस का कारण होता है।
यह कोई योगायोग की बात नही है। नियति के चक्र में सब कुछ नियत है। सड्घ के द्वितीय सरसंघचालक श्री माधव सदाशिव गोलवलकर उपाख्य श्री गुरूजी स्वामी विवेकानन्द के गुरुभाई स्वामी श्री अखण्डनन्दजी के दीक्षित शिष्य थे। निश्चित ही स्वामी विवेकान्द अपने सिद्धान्तों को साकाररूप देखने हेतु श्री गुरूजी को शिष्य बनन के लिये प्रेरित किये हांेगे।
संघ की राष्ट्रभक्ति का ज्वलन्त उदाहरण पग पग पर दष्टिगोचर होत है।
शाखा की नित्य प्रार्थना की प्रत्येक पंक्ति इसकी दुन्दुभी बजा रही है। नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे से लेकर परं वैभवंनेतु मेतत्स्वराष्ट्रं समर्था भवत्वा शिषा ते मृशम् तक और अन्ततः भारत माता की जय में भी केवल राष्ट्रवाद ही तो भासित हो रहा है। कोई पंक्ति ऐसी नही है जिंसमे राष्ट्रवाद का साक्षात्कार न हो। इससे बडा राष्ट्रगीत क्या हो सकता है।
एकात्मता स्त्रोत्र, एकात्मता मन्त्र, प्रातःस्मरण, संघ की शाखओं के गीत, बौद्धिक, और शाखा की पूरी संचरना विशुद्ध राष्ट्रवादी प्रयोग है जिससे स्वामी विवेकानन्द की आकांक्षाओ के राष्ट्रिय पुरूषों की अखण्ड मालिका पैदा होती रहे। संघ ने समग्र सांस्कृतिक भारत की वन्दना के गीत गाये है जो किसी भी दृष्टिकोण से भगवान परशुराम, जगद्गुरू शड्कराचार्य और आचार्य चाणक्य के राष्ट्रिय अभियान को ही पुष्ट करते हैं। संघ के कारण सबने जाना कि भारत का परिमाप “हिमालयं समारभ्य यावदिन्दु सरोवरम्” तक है। छुआछूत, भाषा, क्षेत्र, जाति और ऊँच नीच के भाव तो संघ को समाप्त करने की जरूरत ही नहीं पडी। भारत गान की पवित्र गंगा मे स्नान करते ही उपर्युक्त समास्त विकार अनायास भाग गये। बए एक ही मन्त्र गूंज उठा कि
रत्नाकराद्यौत पदां हिमालयं किरीटिनीम्
ब्रम्हराजर्षि रत्नाद्रयां वन्दे भारत मातरम्।।
यही तो राष्ट्रर्षि वंकिम बाबू का राष्ट्रवाद है। श्री गुरूजी ने तो इससे भी आगे बढ़कर शुक्ल यजुर्वेद मे मन्त्र मे एक नव प्राण भर दिया कि
“राष्ट्राय स्वाहा। राष्ट्रायमिदं न मम।।
यही भारत का सनातन राष्ट्रवाद है जो हिन्दुत्व की जड़ है।
भाषागत समानता राष्ट्रवाद के लिये आति महत्वपूर्ण तत्व नही है। इसी से संघ देश की सारी आंचलिक भाषाओं के पिष्टपोषण की बात कहते हुए संस्कृत को केन्द्र में रखता है क्योकि संस्कृत समस्त भाषाओं की जननी है।
अमेरिका मे अंग्रजी भाषी लोग ब्रिटिश सत्ता से अलग होकर (1774 अड) में फ्रेच और स्पेनिशों के साथ मिलकर स्वतन्त्र अमेरिकन राष्ट्र गठित कर लिये।
भाषा ही राष्ट्र हेतु मुख्य तत्व होता तो स्वीटजरलॅण्ड चार देशों मे टूट गया होता। वहां चार भाषाएं जर्मन, फ्रेंच, इटेलियन और रोमन चलती है पर एक ही राष्ट्र है। बेल्जियम के फ्रेंची अपने को बेल्जियमी कहते है फ्रेंच नहीं। भाषाई दृष्टि से स्पेनिश और पोर्तगीज एकदम निकट हैं पर दो राष्ट्र है।
समानपूजा पद्धति भी राष्ट्र का आधार होती तो विश्व मे 63 मुस्लिम देश एक राष्ट्र बन जाते। संसार मे शाताधिक इसाई देश एक राष्ट्र बन जाते। पर और तो और अरब के यहूदी और मुस्लिम ही एक राष्ट्र न बन सके। ईरान­ईराक, लीबिया, मिश्र, सूडान, यमन आदि तेा इसके जीवन्त उदाहरण है।
रक्तगट भी राष्ट्रका आवश्यक तत्व न होने से स्कैन्डिनेविया और आइबेरिया भी अनेक राष्ट्रों मे विभक्त हैं।
राष्ट्र हेतु सर्वाधिक आवश्यक तत्व राष्ट्रजन के हृदय की एकता है। संघ अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा केवल इसी बात पर खर्च कर रहा है कि
“भारतवासी एक हृदय हैं”
संघ का भारत राष्ट्र वृहत्तर है। इसमे वे सब देश समाहित है जो किन्ही राजनीतिक करणों से अलग हो गये। परन्तु उनकी राष्ट्रिय पहचान तो भारत ही है।
पाकिस्तान के “जिये सिन्ध” के नेता श्री जी.एम.सईद कहते है कि -पाकिस्तान के निर्माण का अर्थ है भारत के भूगोल और इतिहास को नकारना। पाकिस्तान को अब एक संघ राज्य बनकर विशाल भारत में सम्मिलित हो जाना चाहिए। मुहाजिरों को कृष्ण तथा कबीर का अनुयायी होना चाहिए। पंजाबी मुसलामान तो नानक, वारिस शाह तथा बुल्ले शाह के वारिस हैं। मै स्वयम 50 वर्षोसे पाकिस्तानी हुँ, 500 वर्षो से मुसलमान हूं लेकिन 5000 वर्षो से सिन्धी हूँ। मुहम्मद बिन कासिम तो लुटेरा था। सिन्ध स्वातंत्र्य के बाद वहां का बन्दरगाह राजा दाहर सेन के नाम पर हो गया।
इण्डियन एक्सप्रेस 02.02.1992
यह राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ की ही सोच थी कि पण्डित श्री दीनदयाल उपाध्याय ने भारत­पाक और बंगला देश मे महासंघ बनाने की बात कही थी । बाद में प्रख्यात समाजवादी डा. राममनोहर लोहिया भी उपाध्याय जी के साथ जुड गये।
संघ के वरिष्ठतम प्रचारक श्री दत्तोपन्त ठेगडी ने तो गहन शोध मे उपरान्त यह सिद्ध कर दिया है कि राष्ट्र की और नेशन की अवधारणा अलग अलग बाते है। “राष्ट्र नेशन एक नहीं है। योगी अरविन्दने भी संयुक्त राष्ट्र संघ मे नामकरण का विरोध किया था। उन्होंने कहा था कि जबकत राष्ट्र की परिभाषा तय न हो तबतक यह नाम रखना ठिक नही होगा। सच में राष्ट्र के समग्र अर्थो में सांगोपांगरूपेण कोई देश इस धरा पर है तोवह केवल भारत है। भारत में ही राष्ट्र की परिभाषा वैज्ञानिक, सांस्कृतिक तथा दार्शनिक रूपेण तृप्त होती है। अन्य किसी देश में नही। राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ मौन तपस्वी के रूप में अहर्निश भारतवासियो में राष्ट्र तत्व भरने का कार्य कर रहा है। संघ के ही कारण राष्ट्र शब्द की गरिमा और महिमा जानने का योग बना है वरना इतना महत्वपूर्ण शब्द केवल वैदिक वाडम्य का कैदी बनकर रह जया होता।
“संघे शक्ति सर्वदा”
“भारत मातरम् विजयते तराम्”


Saturday, March 29, 2025

भारतीय नववर्ष : सृष्टि की रचना का दिन


डॊ. सौरभ मालवीय
नव रात्र हवन के झोके, सुरभित करते जनमन को।
है शक्तिपूत भारत, अब कुचलो आतंकी फन को॥
नव सम्वत् पर संस्कृति का, सादर वन्दन करते हैं।
हो अमित ख्याति भारत की, हम अभिनन्दन करते हैं॥
30 मार्च विक्रम संवत 2082 का प्रारंभ हो रहा है. भारतीय पंचांग में हर नवीन संवत्सर को एक विशेष नाम से जाना जाता है. इस वर्ष इस नवीन संवत्सर का नाम विरोधकर्त है. भारतीय संस्कृति में विक्रम संवत का बहुत महत्व है. चैत्र का महीना भारतीय कैलंडर के हिसाब से वर्ष का प्रथम महीना है. नवीन संवत्सर के संबंध में अन्य पौराणिक कथाएं हैं. वैदिक पुराण एवं शास्त्रों के अनुसार चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा तिथि को आदिशक्ति प्रकट हुईं थी. आदिशक्ति के आदेश पर ब्रह्मा ने सृष्टि की प्रारंभ की थी. इसीलिए इस दिन को अनादिकाल से नववर्ष के रूप में जाना जाता है. मान्यता यह भी है कि इसी दिन भगवान विष्णु ने मत्स्य अवतार लिया था. इसी दिन सतयुग का प्रारंभ  हुआ था. इसी तिथि को राजा विक्रमादित्य ने शकों पर विजय प्राप्त की थी. विजय को चिर स्थायी बनाने के लिए उन्होंने विक्रम संवत का शुभारंभ किया था, तभी से विक्रम संवत चली आ रही है. इसी दिन से महान गणितज्ञ भास्कराचार्य ने सूर्योदय से सूर्यास्त तक दिन, महीने और साल की गणना कर पंचांग की रचना की थी.

सृष्टि की सर्वाधिक उत्कृष्ट काल गणना का श्रीगणेश भारतीय ऋषियों ने अति प्राचीन काल से ही कर दिया था. तदनुसार हमारे सौरमंडल की आयु चार अरब 32 करोड़ वर्ष हैं. आधुनिक विज्ञान भी, कार्बन डेटिंग और हॉफ लाइफ पीरियड की सहायता से इसे चार अरब वर्ष पुराना मान रहा है. यही नहीं हमारी इस पृथ्वी की आयु भी 29 मार्च को, एक अरब 97 करोड़ 29 लाख 49 हजार एक सौ 30 वर्ष पूरी हो गई. इतना ही नहीं, श्रीमद्भागवद पुराण, श्री मारकंडेय पुराण और ब्रह्म पुराण के अनुसार अभिशेत् बाराह कल्प चल रहा है और एक कल्प में एक हजार चतुरयुग होते है. इस खगोल शास्त्रीय गणना के अनुसार हमारी पृथ्वी 14 मनवंतरों में से सातवें वैवस्वत मनवंतर के 28वें चतुरयुगी के  अंतिम चरण कलयुग भी. आज 51 सौ 25 वर्ष में प्रवेश कर लिया.जिस दिन सृष्टि का प्रारंभ हुआ, वह आज ही का पवित्र दिन है. इसी कारण मदुराई के परम पावन शक्तिपीठ मीनाक्षी देवी के मंदिर में चैत्र पर्व की परंपरा बन गई.

भारतीय महीनों के नाम जिस महीने की पूर्णिमा जिस नक्षत्र में पड़ती है, उसी के नाम पर पड़ा. जैसे इस महीने की पूर्णिमा चित्रा नक्षत्र में हैं, इसलिए इसे चैत्र महीने का नाम हुआ. श्रीमद्भागवत के द्वादश  स्कंध के द्वितीय अध्याय के अनुसार जिस समय सप्तर्षि मघा नक्षत्र पर यह उसी समय से कलयुग का प्रारंभ हुआ, महाभारत और भागवत के इस खगोलीय गणना को आधार मान कर विश्वविख्यात डॉ. वेली ने यह निष्कर्ष दिया है कि कलयुग का प्रारंभ 3102 बी.सी. की रात दो बजकर 20 मिनट 30 सेकेंड पर हुआ था. डॉ. बेली महोदय आश्चर्य चकित है कि अत्यंत प्रागैतिहासिक काल में भी भारतीय ऋणियों ने इतनी सूक्ष्तम और सटीक गणना कैसे कर ली. क्रांति वृंत पर 12 हो महीने की सीमाएं तय करने के लिए आकाश में 30-30 अंश के 12 भाग किए गए और नाम भी तारा मंडलों की आकृतियों के आधार पर रखे गए. जो मेष, वृष, मिथुन इत्यादित 12 राशियां बनीं.

चूंकि सूर्य क्रांति मंडल के ठीक केंद्र में नहीं हैं, अत: कोणों के निकट धरती सूर्य की प्रदक्षिणा 28 दिन में कर लेती है और जब अधिक भाग वाले पक्ष में 32 दिन लगता है. प्रति तीन वर्ष में एक मास अधिक मास कहलाता है. संयोग से यह अधिक मास अगले महीने ही प्रारंभ हो रहा है.

भारतीय काल गणना इतनी वैज्ञानिक व्यवस्था है कि सदियों-सदियों तक एक पल का भी अंतर नहीं पड़ता, जबकि पश्चिमी काल गणना में वर्ष के 365.2422 दिन को 30 और 31 के हिसाब से 12 महीनों में विभक्त करते हैं. इस प्रकार प्रत्येक चार वर्ष में फरवरी महीने को लीप ईयर घोषित कर देते हैं फिर भी. नौ मिनट 11 सेकेंड का समय बच जाता है, तो प्रत्येक चार सौ वर्षों में भी एक दिन बढ़ाना पड़ता है, तब भी पूर्णाकन नहीं हो पाता है. अभी 10 साल पहले ही पेरिस के अंतर्राष्ट्रीय परमाणु घड़ी को एक सेकेंड स्लो कर दिया गया. फिर भी 22 सेकेंड का समय अधिक चल रहा है. यह पेरिस की वही प्रयोगशाला है, जहां के सीजीएस सिस्टम से संसार भर के सारे मानक तय किए जाते हैं. रोमन कैलेंडर में तो पहले 10 ही महीने होते थे. किंगनुमापाजुलियस ने 355 दिनों का ही वर्ष माना था, जिसे जुलियस सीजर ने 365 दिन घोषित कर दिया और उसी के नाम पर एक महीना जुलाई बनाया गया. उसके एक सौ साल बाद किंग अगस्ट्स के नाम पर एक और महीना अगस्ट भी बढ़ाया गया. चूंकि ये दोनों राजा थे, इसलिए इनके नाम वाले महीनों के दिन 31 ही रखे गए. आज के इस वैज्ञानिक युग में भी यह कितनी हास्यास्पद बात है कि लगातार दो महीने के दिन समान हैं, जबकि अन्य महीनों में ऐसा नहीं है. यदि नहीं जिसे हम अंग्रेजी कैलेंडर का नौवां महीना सितंबर कहते हैं, दसवां महीना अक्टूबर कहते हैं, ग्यारहवां महीना नवंबर और बारहवां महीना दिसंबर हैं. इनके शब्दों के अर्थ भी लैटिन भाषा में 7,8,9 और 10 होते हैं. भाषा विज्ञानियों के अनुसार भारतीय काल गणना पूरे विश्व में व्याप्त थी और सचमुच सितंबर का अर्थ सप्ताम्बर था, आकाश का सातवां भाग, उसी प्रकार अक्टूबर अष्टाम्बर, नवंबर तो नवमअम्बर और दिसंबर दशाम्बर है.

सन् 1608 में एक संवैधानिक परिवर्तन द्वारा एक जनवरी को नव वर्ष घोषित किया गया. जेनदअवेस्ता के अनुसार धरती की आयु 12 हजार वर्ष है, जबकि बाइबिल केवल दो हजार वर्ष पुराना मानता है. चीनी कैलेंडर एक करोड़ वर्ष पुराना मानता है, जबकि खताईमत के अनुसार इस धरती की आयु 8 करोड़ 88 लाख 40 हजार तीन सौ 18 वर्षों की है. चालडियन कैलेंडर धरती को दो करोड़ 15 लाख वर्ष पुराना मानता है. फीनीसयन इसे मात्र 30 हजार वर्ष की बताते हैं. सीसरो के अनुसार यह 4 लाख 80 हजार वर्ष पुरानी है. सूर्य सिद्धांत और सिद्धांत शिरोमाणि आदि ग्रंथों में चैत्रशुक्ल प्रतिपदा रविवार का दिन ही सृष्टि का प्रथम दिन माना गया है.

संस्कृत के होरा शब्द से ही, अंग्रेजी का आवर (Hour) शब्द बना है. इस प्रकार यह सिद्ध हो रहा है कि वर्ष प्रतिपदा ही नव वर्ष का प्रथम दिन है. एक जनवरी को नव वर्ष मनाने वाले दोहरी भूल के शिकार होते हैं, क्योंकि भारत में जब 31 दिसंबर की रात को 12 बजता है, तो ब्रिटेन में सायंकाल होता है, जो कि नव वर्ष की पहली सुबह हो ही नहीं सकता. और जब उनका एक जनवरी का सूर्योदय होता है, तो यहां के Happy New Year वालों का नशा उतर चुका रहता है. सनसनाती हुई ठंडी हवायें कितना भी सुरा डालने पर शरीर को गरम नहीं कर पाती हैं. ऐसे में सवेरे सवेरे नहा धोकर भगवान सूर्य की पूजा करना तो अत्यंत दुष्कर रहता है. वही पर भारतीय नव वर्ष में वातावरण अत्यंत मनोहारी रहता है. केवल मनुष्य ही नहीं, अपितु जड़ चेतना नर-नाग यक्ष रक्ष किन्नर-गंधर्व, पशु-पक्षी लता, पादप, नदी नद, देवी, देव, मानव से समष्टि तक सब प्रसन्न होकर उस परम शक्ति के स्वागत में सन्नध रहते हैं.

दिवस सुनहले रात रूपहली उषा सांझ की लाली छन-छन कर पत्तों में बनती हुई चांदनी जाली. शीतल मंद सुगंध पवन वातावरण में हवन की सुरभि कर देते हैं. ऐसे ही शुभ वातावरण में जब मध्य दिवस अतिशित न धामा की स्थिति बनती है, तो अखिल लोकनायक श्रीराम का अवतार होता है. आइए इस शुभ अवसर पर हम भारत को पुन: जगतगुरू के पद पर आसीन करने में कृत संकल्प हों.

ज्योतिषाचार्यों के अनुसार इस वर्ष के राजा सूर्य हैं और शनि मंत्री होंगे. यह वर्ष सभी के लिए काफी सुखद रहेगा. उल्लेखनीय है कि ज्योतिष विद्या में ग्रह, ऋतु, मास, तिथि एवं पक्ष आदि की गणना भी चैत्र प्रतिपदा से ही की जाती है. मान्यता है कि नव संवत्सर के दिन नीम की कोमल पत्तियों और पुष्पों का मिश्रण बनाकर उसमें काली मिर्च, नमक, हींग, मिश्री, जीरा और अजवाइन मिलाकर उसका सेवन करने से शरीर स्वस्थ रहता है. इस दिन आंवले का सेवन भी बहुत लाभदायद बताया गया है. माना जाता है कि आंवला नवमीं को जगत पिता ने सृष्टि पर पहला सृजन पौधे के रूप में किया था. यह पौधा आंवले का था. इस तिथि को पवित्र माना जाता है. इस दिन मंदिरों में विशेष पूजा-अर्चना होती है.
निसंदेह, जब भारतीय नववर्ष का प्रारंभ होता है, तो चहुंओर प्रकृति चहक उठती है. भारत की बात ही निराली है.
कवि श्री जयशंकर प्रसाद के शब्दों में-
अरुण यह मधुमय देश हमारा
जहां पहुंच अनजान क्षितिज को
मिलता एक सहारा
अरुण यह मधुमय देश हमारा


Wednesday, March 5, 2025

भारतीय संस्कृति में नारी कल, आज और कल


डॉ. सौरभ मालवीय
‘नारी’ इस शब्द में इतनी ऊर्जा है कि इसका उच्चारण ही मन-मस्तक को झंकृत कर देता है, इसके पर्यायी शब्द स्त्री, भामिनी, कान्ता आदि है, इसका पूर्ण स्वरूप मातृत्व में विलसित होता है। नारी, मानव की ही नहीं अपितु मानवता की भी जन्मदात्री है, क्योंकि मानवता के आधार रूप में प्रतिष्ठित सम्पूर्ण गुणों की वही जननी है। जो इस ब्रह्माण्ड को संचालित करने वाला विधाता है, उसकी प्रतिनिधि है नारी। अर्थात समग्र सृष्टि ही नारी है इसके इतर कुछ भी नही है। इस सृष्टि में मनुष्य ने जब बोध पाया और उस अप्रतिम ऊर्जा के प्रति अपना आभार प्रकट करने का प्रयास किया तो वरवश मानव के मुख से निकला कि –
त्वमेव माता च पिता त्वमेव
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विधा द्रविणं त्वमेव
त्वमेव सर्वं मम देव देव॥
अर्थात हे प्रभु तुम माँ हो ............।
अक्सर यह होता है कि जब इस सांसारिक आवरण मैं फंस जाते या मानव की किसी चेष्टा से आहत हो जाते हैं तो बरबस हमें एक ही व्यक्ति की याद आती है और वह है माँ । अत्यंत दुःख की घड़ी में भी हमारे मुख से जो ध्वनी उच्चरित होती है वह सिर्फ माँ ही होती है। क्योंकि माँ की ध्वनि आत्मा से ही गुंजायमान होती है ।  और शब्द हमारे कंठ से निकलते हैं लेकिन माँ ही एक ऐसा शब्द है जो हमारी रूह से निकलता है। मातृत्वरूप में ही उस परम शक्ति को मानव ने पहली बार देखा और बाद में उसे पिता भी माना। बन्धु, मित्र आदि भी माना। इसी की अभिव्यक्ति कालिदास करते है कि-
वागार्थविव संप्रक्तौ वागर्थ प्रतिपत्तये।
जगतः पीतरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरौ ॥ (कुमार सम्भवम)
जगत के माता-पिता (पीतर) भवानी शंकर, वाणी और अर्थ के सदृश एकीभूत है उन्हें वंदन।
इसी क्रम में गोस्वामी तुलसीदास भी यही कहते  हैं –
जगत मातु पितु संभु-भवानी। (बालकाण्ड मानस)
अतएव नारी से उत्पन्न सब नारी ही होते है, शारीरिक आकार-प्रकार में भेद हो सकता है परन्तु, वस्तुतः और तत्वतः सब नारी ही होते है। सन्त ज्ञानेश्वर ने तो स्वयं को“माऊली’’ (मातृत्व,स्त्रीवत) कहा है।
कबीर ने तो स्वयं समेत सभी शिष्यों को भी स्त्री रूप में ही संबोधित किया है वे कहते है –
दुलहिनी गावहु मंगलाचार
रामचन्द्र मोरे पाहुन आये धनि धनि भाग हमार
दुलहिनी गावहु मंगलाचार । - (रमैनी )
घूँघट के पट खोल रे तुझे पीव मिलेंगे
अनहद में मत डोल रे तुझे पीव मिलेंगे । -(सबद )
सूली ऊपर सेज पिया कि केहि बिधि मिलना होय । - (रमैनी )
जीव को सन्त कबीर स्त्री मानते है और शिव (ब्रह्म) को पुरुष यह स्त्री–पुरुष का मिलना ही कल्याण है मोक्ष और सुगति है ।
भारतीय संस्कृति में तो स्त्री ही सृष्टि की समग्र अधिष्ठात्री है, पूरी सृष्टि ही स्त्री है क्योंकि इस सृष्टि में बुद्दि ,निद्रा, सुधा, छाया, शक्ति, तृष्णा, जाति, लज्जा, शान्ति, श्रद्धा, चेतना और लक्ष्मी आदि अनेक रूपों में स्त्री ही व्याप्त है। इसी पूर्णता से स्त्रियाँ भाव-प्रधान होती हैं, सच कहिये तो उनके शरीर में केवल हृदय ही होता है,बुद्दि में भी ह्रदय ही प्रभावी रहता है, तभी तो गर्भधारण से पालन पोषण तक असीम कष्ट में भी आनंद की अनुभूति करती रहती।कोई भी हिसाबी चतुर यह कार्य एक पल भी नही कर सकता। भावप्रधान नारी चित्त ही पति, पुत्र और परिजनों द्वारा वृद्दावस्था में भी अनेकविध कष्ट दिए जाने के बावजूद उनके प्रति शुभशंसा रखती है उनका बुरा नहीं करती,जबकि पुरुष तो ऐसा कभी कर ही नही सकता क्योंकि नर विवेक प्रधान है, हिसाबी है, विवेक हिसाब करता है घाटा लाभ जोड़ता है, और हृदय हिसाब नही करता। जयशंकर प्रसाद ने कामायनी में लिखा है-
यह आज समझ मैं पायी हूँ कि
दुर्बलता में नारी हूँ।
अवयन की सुन्दर कोमलता
लेकर में सबसे हारी हूँ ।।
भावप्रधान नारी का यह चित्त जिसे प्रसाद जी कहते है-
नारी जीवन का चित्र यही
क्या विकल रंग भर देती है।
स्फुट रेखा की सीमा में
आकार कला को देती है।।
परिवार व्यवस्था हमारी सामाजिक व्यवस्था का आधार स्तंभ है,इसके दो स्तम्भ है- स्त्री और पुरुष।परिवार को सुचारू रूप देने में दोनों की भूमिका अत्यंत महतवपूर्ण है,समय के साथ मानवीय विचारों में बदलाव आया है|कई पुरानी परम्पराओं,रूढ़िवादिता एवं अज्ञान का समापन हुआ।महिलाएँ अब घर से बाहर आने लगी है कदम से कदम मिलाकर सभी क्षेत्रों में अपनी धमाकेदार उपस्थिति दे रही है,अपनी इच्छा शक्ति के कारण सभी क्षेत्रों में अपना परचम लहरा रही है अंतरिक्ष हो या प्रशासनिक सेवा,शिक्षा,राजनीति,खेल,मिडिया सहित विविध विधावों में अपनी गुणवत्ता सिद्ध कर कुशलता से प्रत्येक जिम्मेदारी के पद को सँभालने लगी है, आज आवश्यकता है यह समझने की  कि नारी विकास की केन्द्र है और भविष्य भी उसी का है, स्त्री के सुव्यवस्थित एवं सुप्रतिष्ठित जीवन के अभाव में सुव्यवस्थित समाज की रचना नहीं हो सकती। अतः मानव और मानवता दोनों को बनाये रखने के लिए नारी के गौरव को समझना होगा।


Friday, January 31, 2025

गांधी व्यक्ति नहीं विचार है: डॉ.सौरभ मालवीय




लखनऊ। चारबाग़ स्टेशन पर सर्वोदय साहित्य का 30 वां गांधी पुस्तक मेला प्रारम्भ हुआ -उद्घाटन के अवसर पर कादम्बनी क्लब की चर्चित साहित्यकार और समाजसेवी मधु चतुर्वेदी लोकप्रिय साहित्यकार संजीव जायसवाल संजय , वरिष्ठ पत्रकार और लेखक डॉ सौरभ मालवीय रेल अधिकारी राहुल, प्रतीक श्रीवास्तव, स्टेशन निदेशक आशीष सिंह , तथा अनेक साहित्यकार रेल कर्मी उपस्थित थे।

मधु चतुर्वेदी जी ने गांधी जी को श्रद्धांजलि देते हुए बताया कि गांधी जी का सेवा भाव अतुलनीय है। संजीव जायसवाल संजय जी ने कहा कि गांधी जी ने आधुनिक समय और काल के हिसाब से भारतवासियों को अहिंसा का हथियार दिया। डॉ सौरभ मालवीय ने कहा कि गांधी एक व्यक्ति नहीं बल्कि विचार हैं और पूरे विश्व मे प्रासंगिक हैं। स्टेशन निदेशक आशीष सिंह ने कहा कि चारबाग़ स्टेशन में गांधी जी और नेहरू का प्रथम मिलन हुआ जिससे भारतीय स्वत्रंत्रता संग्राम में एक नया मोड़ आया। उन्होंने गांधी पुस्तक मेला की तारीफ की। गांधी पुस्तक मेला के संयोजक नीरज अरोड़ा ने बताया महात्मा गांधी जी की पुण्यतिथि के अवसर पर सर्वोदय साहित्य द्वारा चारबाग़ स्टेशन परिसर में 30 वां गांधी पुस्तक मेला का आयोजन किया जा रहा है। उक्त पुस्तक मेला में गांधी साहित्य के साथ अनेक महापुरूषों जैसे भारत रत्न विनोबा भावे , लोकनायक जयप्रकाश नारायण, स्वामी विवेकानंद ए पी जे अब्दुल कलाम आदि का साहित्य साथ में श्रेष्ठ हिंदी साहित्य , नैतिक बाल साहित्य समेत अनेक जनउपयोगी साहित्य को उपलब्ध कराया जाएगा। यह पुस्तक मेला 12 फरवरी तक सुबह 10 बजे से रात 10 बजे तक खुलेगा। इस अवसर पर  सर्वोदय साहित्य के संस्थापक कस्तूरी लाल अरोड़ा भी उपस्थित थे।
नीरज अरोड़ा
आयोजक, संयोजक
गांधी पुस्तक मेला
30 जनवरी 2023



Wednesday, August 8, 2018

विदेश नीति : अटल बिहारी वाजपेयी के अनमोल विचार


  1. आप मित्र बदल सकते हैं, पर पड़ोसी नहीं. 
  2. नेपाल हमारा पड़ोसी देश है. दुनिया के कोई देश इतने निकट नहीं हो सकते, जितने भारत और नेपाल हैं.
  3. जो लोग हमें यह पूछते हैं कि हम कब पाकिस्तान के साथ वार्ता करेंगे, वे शायद इस तथ्य से वाकिफ नहीं हैं कि पिछले  वर्षों में पाकिस्तान के साथ बातचीत के लिए हर बार पहल भारत ने ही किया है.
  4. भारत में भारी जन भावना थी कि पाकिस्तान के साथ तब तक कोई सार्थक बातचीत नहीं हो सकती जब तक कि वह आतंकवाद का प्रयोग अपनी विदेशी नीति के एक साधन के रूप में करना नहीं छोड़ देता.
  5. सबके साथ दोस्ती करें, लेकिन राष्ट्र की शक्ति पर विश्वास रखें. राष्ट्र का हित इसी में है कि हम आर्थिक दृष्टि से सबल हों, सैन्य दृष्टि से स्वावलम्बी हों.
  6. पाकिस्तान कश्मीर, कश्मीरियों के लिए नहीं चाहता. वह कश्मीर चाहता है पाकिस्तान के लिए. वह कश्मीरियों को बलि का बकरा बनाना चाहता है.
  7. मैं पाकिस्तान से दोस्ती करने के खिलाफ नहीं हूं. सारा देश पाकिस्तान से संबंधों को सुधारना चाहता है, लेकिन जब तक कश्मीर पर पाकिस्तान का दावा कायम है, तब तक शांति नहीं हो सकती.
  8. पाकिस्तान हमें बार-बार उलझन में डाल रहा है, पर वह स्वयं उलझ जाता है. वह भारत के किरीट कश्मीर की ओर वक्र दृष्टि लगाए है. कश्मीर भारत का अंग है और रहेगा. हमें पाकिस्तान से साफ-साफ कह देना चाहिए कि वह कश्मीर को हथियाने का इरादा छोड़ दे.
  9. हम एक विश्व के आदर्शों की प्राप्ति और मानव के कल्याण तथा उसकी कीर्ति के लिए त्याग और बलिदान की बेला में कभी पीछे पग नहीं हटाएंगे.
  10. कौन हमारे साथ है? कौन हमारा मित्र है? इस विदेश नीति ने हमको मित्रविहीन बना दिया है. यह विदेश नीति राष्ट्रीय हितों का संरक्षण करने में विफल रही है. इस विदेश नीति पर पुनर्विचार होना चाहिए. कल्पना के लोक से उतरकर हम अपनी विदेश नीति का निर्धारण करें.
  11. इस संसार में यदि स्वाधीनता की, अखंडता की रक्षा करनी है, तो शक्ति के और शस्त्रों के बल पर होगी, हवाई सिद्धांतों के जरिए नहीं.
  12. आज परस्पर वैश्विक निर्भरता का मतलब है कि विकासशील देशों में आर्थिक आपदायें, विकसित देशों पर एक प्रतिक्षेप पैदा कर सकता है.
  13. किसी भी देश को खुले आम आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक गठबंधन के साथ साझेदारी, सहायता, उकसाना और आतंकवाद प्रायोजित करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए.
  14. पहले एक दृढ विश्वास था कि संयुक्त राष्ट्र अपने घटक राज्यों की कुल शक्ति की तुलना में अधिक मजबूत होगा.
  15. वास्तविकता यह है कि संयुक्त राष्ट्र जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं भी केवल उतनी ही प्रभावी हो सकती है, जितनी उसके सदस्यों की अनुमति है.
  16. वैश्विक स्तर पर आज परस्पर निर्भरता का मतलब विकासशील देशों में आर्थिक आपदाओं का विकसित देशों पर प्रतिघात करना होगा.
  17. शीत युद्ध के बाद अब एक गलत धारणा यह बन गई है कि संयुक्त राष्ट्र कहीं भी कोई भी समस्या का समाधान कर सकता है.
  18. संयुक्त राष्ट्र की अद्वितीय वैधता इस सार्वभौमिक धारणा में निहित है कि वह किसी विशेष देश या देशों के समूह के हितों की तुलना में एक बड़े उद्देश्य के लिए काम करता है.
  19. हम मानते हैं कि संयुक्त राज्य अमेरिका और शेष अंतर्राष्ट्रीय समुदाये पाकिस्तान पर भारत के खिलाफ सीमा पार आतंकवाद को हमेशा के लिए खत्म करने का दबाव बना सकते हैं.
  20. हमारे परमाणु हथियार विशुद्ध रूप से किसी विरोधी के परमाणु हमले को हतोत्साहित करने के लिए हैं.
  21. एटम बम का जवाब क्या है? एटम बम का जवाब एटम बम है और कोई जवाब नहीं.
  22. हमें विश्वास है कि संयुक्त राज्य अमेरिका और बाकी अंतर्राष्ट्रीय समुदाय अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर पाकिस्तान के भारत के विरुद्ध सीमा पार आतंकवाद को स्थायी और पारदर्शी रूप से खत्म कराने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा सकते हैं.
  23. हम उम्मीद करते हैं कि विश्व प्रबुद्ध स्वार्थ की भावना से काम करेगा.
  24. किसी भी देश को आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक साझदारी का हिस्सा होने का ढोंग नहीं करना चाहिए , जबकि वह आतंकवाद को बढ़ाने, उकसाने, और प्रायोजित करने में लगा हुआ हो.
  25. आज वैश्विक निर्भरता का अर्थ यह है कि विकासशील देशों में आई आर्थिक आपदाएं विकसित देशों में संकट ला सकती हैं.
  26. राज्य को, व्यक्तिगत सम्पत्ति को जब चाहे तब जब्त कर लेने का अधिकार देना एक खतरनाक चीज होगी.
  27. संयुक्त राष्ट्र की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि वह समरत मानवता का सबल स्वर बन सके और देशों के बीच एक-दूसरे पर अवलम्बित सामूहिक सहयोग का गतिशील माध्यम बन सके.
  28. कोई इस बात से इंकार नहीं कर सकता है कि देश मूल्यों के संकट में फंसा है.
  29. इस देश में पुरुषार्थी नवजवानों की कमी नहीं है, लेकिन उनमें से कोई कार बनाने का कारखाना नहीं खोल सकता, क्योंकि किसी को प्रधानमंत्री के घर में जन्म लेने का सौभाग्य नहीं प्राप्त है.
  30. यदि भारत को बहुराष्ट्रीय राज्य के रूप में वर्णित करने की प्रवृत्ति को समय रहते नियंत्रित नहीं किया गया, तो भारत के अनेक टुकड़ों में बंट जानै का खतरा पैदा हो जाएगा.
  31. इतिहास में हुई भूल के लिए आज किसी से बदला लेने का समय नहीं है, लेकिन उस भूल को ठीक करने का सवाल है.
  32. एटम बम का जवाब क्या है? एटम बम का जवाब एटम बम है और कोई जवाब नहीं.
  33. भारत की सुरक्षा की अवधारणा सैनिक शक्ति नहीं है. भारत अनुभव करता है सुरक्षा आंतरिक शक्ति से आती है.
  34. अगर हम देशभक्त न होते और अगर हम निःस्वार्थ भाव से राजनीति में अपना स्थान बनाने का प्रयास न करते और हमारे इन प्रयासों के साथ इतने साल की साधना न होती तो हम यहां तक न पहुंचते.
  35. सेना के उन जवानों का अभिनन्दन होना चाहिए, जिन्होंने अपने रक्त से विजय की गाथा लिखी. विजय का सर्वाधिक श्रेय अगर किसी को दिया जा सकता है, तो हमारे बहादुर जवानों को और उनके कुशल सेनापतियों को. अभी मुझे ऐसा सैनिक मिलना बाकी है, जिसकी पीठ में गोली का निशान हो. जितने भी गोली के निशान हैं, सब निशान सामने लगे हैं. अगर अपनी सेनाओं या रेजिमेंटों के नाम हमें रखने हैं, तो राजपूत रेजिमेंट के स्थान पर राणा प्रताप रेजिमेंट रखें, मराठा रेजिमेंट के स्थान पर शिवाजी रेजिमेंट और ताना रेजिमेंट रखे, सिख रेजिमेंट की जगह रणजीत सिंह रेजिमेंट रखें.

कृषि : अटल बिहारी वाजपेयी के अनमोल विचार


  • खेती भारत का बुनियादी उद्योग है.
  • अन्न उत्पादन द्वारा आत्मनिर्भरता के बिना हम न तो औद्योगिक विकास का सुदृढ़ ढांचा ही तैयार कर सकते है और न विदेशों पर अपनी खतरनाक निर्भरता ही समाप्त कर सकते हैं.
  • हमारा कृषि-विकास संतुलित नहीं है और न उसे स्थायी ही माना जा सकता है.
  • कृषि-विकास का एक चिंताजनक पहलू यह है कि पैदावार बढ़ते ही दामों में गिरावट आने लगती है.

शिक्षा : अटल बिहारी वाजपेयी के अनमोल विचार


  1. शिक्षा आज व्यापार बन गई है. ऐसी दशा में उसमें प्राणवत्ता कहां रहेगी? उपनिषदों या अन्य प्राचीन ग्रंथों की ओर हमारा ध्यान नहीं जाता. आज विद्यालयों में छात्र थोक में आते हैं. 
  2. शिक्षा के द्वारा व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास होता है. व्यक्तित्व के उत्तम विकास के लिए शिक्षा का स्वरूप आदर्शों से युक्त होना चाहिए. हमारी माटी में आदर्शों की कमी नहीं है. शिक्षा द्वारा ही हम नवयुवकों में राष्ट्रप्रेम की भावना जाग्रत कर सकते हैं.
  3. मुझे शिक्षकों का मान-सम्मान करने में गर्व की अनुभूति होती है. अध्यापकों को शासन द्वारा प्रोत्साहन मिलना चाहिए. प्राचीनकाल में अध्यापक का बहत सम्मान था. आज तो अध्यापक पिस रहा है.
  4. किशोरों को शिक्षा से वंचित किया जा रहा है. आरक्षण के कारण योग्यता व्यर्थ हो गई है. छात्रों का प्रवेश विद्यालयों में नहीं हो पा रहा है. किसी को शिक्षा से वंचित नहीं किया जा सकता. यह मौलिक अधिकार है.
  5. निरक्षरता का और निर्धनता का बड़ा गहरा संबंध है.
  6. वर्तमान शिक्षा-पद्धति की विकृतियों से, उसके दोषों से, कमियों से सारा देश परिचित है. मगर नई शिक्षा-नीति कहां है? 
  7. शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होनी चाहिए. ऊंची-से-ऊंची शिक्षा मातृभाषा के माध्यम से दी जानी चाहिए .
  8. मोटे तौर पर शिक्षा रोजगार या धंधे से जुड़ी होनी चाहिए. वह राष्ट्रीय चरित्र के निर्माण में सहायक हो और व्यक्ति को सुसंस्कारित करे.

दरिद्रता : अटल बिहारी वाजपेयी के अनमोल विचार





  1. गरीबी बहुआयामी है. यह पैसे की आय से परे शिक्षा, स्वास्थ्य की देखरेख, राजनीतिक भागीदारी और व्यक्ति की अपनी संस्कृति और सामाजिक संगठन की उन्नति तक फैली हुई है.
  2. दरिद्र में जिन्होंने पूर्ण नारायण के दर्शन किए और उन नारायण की उपासना का उपदेश दिया, उनका अंतःकरण करुणा से भरा हुआ था. गरीबी, बेकारी, भुखमरी ईश्वर का विधान नहीं, मानवीय व्यवस्था की विफलता का परिणाम है.
  3. नर को नारायण का रूप देने वाले भारत ने दरिद्र और लक्ष्मीवान, दोनों में एक ही परम तत्व का दर्शन किया है.
  4. दरिद्रता का सर्वथा उन्मूलन कर हमें प्रत्येक व्यक्ति से उसकी क्षमता के अनुसार कार्य लेना चाहिए और उसकी आवश्यकता के अनुसार उसे देना चाहिए.

जातिवाद : अटल बिहारी वाजपेयी के अनमोल विचार





  1. मनुष्य-मनुष्य के संबंध अच्छे रहें, सांप्रदायिक सद्भाव रहे, मजहब का शोषण न किया जाए, जाति के आधार पर लोगों की हीन भावना को उत्तेजित न किया जाए, इसमें कोई मतभेद नहीं है.
  2. जातिवाद का जहर समाज के हर वर्ग में पहुंच रहा है. यह स्थिति सबके लिए चिंताजनक है. हमें सामाजिक समता भी चाहिए और सामाजिक समरसता भी चाहिए.
  3. समता के साथ ममता, अधिकार के साथ आत्मीयता, वैभव के साथ सादगी-नवनिर्माण के प्राचीन आधार स्तंभ हैं. इन्हीं स्तम्भों पर हमें भावी भारत का भवन खड़ा करना है.
  4. अगर परमात्मा भी आ जाए और कहे कि छुआछूत मानो, तो मैं ऐसे परमात्मा को भी मानने को तैयार नहीं हूं किंतु परमात्मा ऐसा कह ही नहीं सकता.
  5. मानव और मानव के बीच में जो भेद की दीवारें खड़ी हैं, उनको ढहाना होगा, और इसके लिए एक राष्ट्रीय अभियान की आवश्यकता है.
  6. अस्पृश्यता कानून के विरुद्ध ही नहीं, वह परमात्मा तथा मानवता के विरुद्ध भी एक गंभीर अपराध है.
  7. मनुष्य-मनुष्य के बीच में भेदभाव का व्यवहार चल रहा है. इस समस्या को हल करने के लिए हमें एक राष्ट्रीय अभियान की आवश्यकता है.
  8. हरिजनों के कल्याण के साथ गिरिजनों तथा अन्य कबीलों की दशा सुधारने का प्रश्न भी जुड़ा हुआ है.
  9. आदिवासियों की समस्याओं पर हमें सहानुभूति के साथ विचार करना होगा.
  10. पारस्परिक सहकारिता और त्याग की प्रवृत्ति को बल देकर ही मानव-समाज प्रगति और समृद्धि का पूरा-पूरा लाभ उठा सकता है.
  11. सेवा-कार्यों की उम्मीद सरकार से नहीं की जा सकती. उसके लिए समाज-सेवी संस्थाओं को ही आगे उगना पड़ेगा.

लोकतंत्र : अटल बिहारी वाजपेयी के अनमोल विचार


  1. हमारा लोकतंत्र संसार का सबसे बड़ा लोकतंत्र है. लोकतंत्र की परंपरा हमारे यहां बड़ी प्राचीन है.. चालीस साल से ऊपर का मेरा संसद का अनुभव कभी-कभी मुझे बहुत पीड़ित कर देता है. हम किधर जा रहे हैं?
  2. भारत के लोग जिस संविधान को आत्म समर्पित कर चुके हैं, उसे विकृत करने का अधिकार किसी को नहीं दिया जा सकता.
  3. लोकतंत्र बड़ा नाजुक पौधा है. लोकतंत्र को धीरे- धीरे विकसित करना होगा. केन्द्र को सबको साथ लेकर चलने की भावना से आगे बढ़ना होगा.
  4. अगर किसी को दल बदलना है, तो उसे जनता की नजर के सामने दल बदलना चाहिए. उसमें जनता का सामना करने का साहस होना चाहिए. हमारे लोकतंत्र को तभी शक्ति मिलेगी, जब हम दल बदलने वालों को जनता का सामना करने का साहस जुटाने की सलाह देंगे.
  5. हमें अपनी स्वाधीनता को अमर बनाना है, राष्ट्रीय अखंडता को अक्षुण्ण रखना है और विश्व में स्वाभिमान और सम्मान के साथ जीवित रहना है.
  6. लोकतंत्र वह व्यवस्था है, जिसमें बिना घृणा जगाए विरोध किया जा सकता है और बिना हिंसा का आश्रय लिए शासन बदला जा सकता है.
  7. राजनीति सर्वांग जीवन नहीं है. उसका एक पहलू है. यही शिक्षा हमने पाई है, यही संस्कार हमने पाए हैं.
  8. कोई भी दल हो, पूजा का कोई भी स्थान हो, उसको अपनी राजनीतिक गतिविधियां वहां नहीं चलानी चाहिए.
  9. राजनीति काजल की कोठरी है. जो इसमें जाता है, काला होकर ही निकलता है. ऐसी राजनीतिक व्यवस्था में ईमानदार होकर भी सक्रिय रहना, बेदाग छवि बनाए रखना, क्या कठिन नहीं हो गया है? 
  10. कर्सी की मुझे कोई कामना नहीं है. मुझे उन पर दया उगती है, जो विरोधी दल में बैठने का सम्मान छोड़कर कुर्सी की कामना से लालायित होकर सरकारी पार्टी का पन्तु पकड़ने के लिए लालायित हैं.

हिन्दी : अटल बिहारी वाजपेयी के अनमोल विचार





  1. भारत की जितनी भी भाषाएं हैं, वे हमारी भाषाएं हैं, वे हमारी अपनी हैं, उनमें हमारी आत्मा का प्रतिबिम्ब है, वे हमारी आत्माभिव्यक्ति का साधन हैं. उनमें कोई छोटी-बड़ी नहीं है.
  2. भारतीय भाषाओं को लाने का निर्णय एक क्रांतिकारी निर्णय है, लेकिन अगर उससे देश की एकता खतरे में पड़ती है, तो अहिन्दी प्रांत वाले अंग्रेजी चलाएं, मगर हम पटना में, जयपुर में, लखनऊ में अंग्रेजी नहीं चलने देंगे.
  3. राष्ट्र की सच्ची एकता तब पैदा होगी, जब भारतीय भाषाएं अपना स्थान ग्रहण करेंगी.
  4. हिन्दी का किसी भारतीय भाषा से झगड़ा नहीं है. हिन्दी सभी भारतीय भाषाओं को विकसित देखना चाहती है, लेकिन यह निर्णय संविधान सभा का है कि हिन्दी केन्द्र की भाषा बने.
  5. अंग्रेजी केवल हिन्दी की दुश्मन नहीं है, अंग्रेजी हर एक भारतीय भाषा के विकास के मार्ग में, हमारी संस्कृति की उन्नति के मार्ग में रोड़ा है. जो लोग अंग्रेजी के द्वारा राष्ट्रीय एकता की रक्षा करना चाहते हैं वे राष्ट्र की एकता का मतलब नहीं समझते.
  6. हिन्दी की कितनी दयनीय स्थिति है, यह उस दिन भली-भांति पता लग गया, जब भारत-पाक समझौते की हिन्दी प्रति न तो संसद सदस्यों को और न हिन्दी पत्रकारों को उपलब्ध कराई गई.
  7. हिन्दी वालों को चाहिए कि हिन्दी प्रदेशों में हिन्दी को पूरी तरह जीवन के सभी क्षेत्रों में प्रतिष्ठित करें.
  8. हिन्दी को अपनाने का फैसला केवल हिन्दी वालों ने ही नहीं किया. हिन्दी की आवाज पहले अहिन्दी प्रान्तों से उठी. स्वामी दयानन्दजी, महात्मा गांधी या बंगाल के नेता हिन्दीभाषी नहीं थे. हिन्दी हमारी आजादी के आन्दोलन का एक कार्यक्रम बनी.

धर्म और संस्कृति : अटल बिहारी वाजपेयी के अनमोल विचार

  1. हिन्दू धर्म तथा संस्कृति की एक बड़ी विशेषता समय के साथ बदलने की उसकी क्षमता रही है.
  2. हिन्दू धर्म के प्रति मेरे आकर्षण का सबसे मुख्य कारण है कि यह मानव का सर्वोत्कृष्ट धर्म है.
  3. हिन्दू धर्म ऐसा जीवन्त धर्म है, जो धार्मिक अनुभवों की वृद्धि और उसके आचरण की चेतना के साथ निरंतर विकास करता रहता है.
  4. हिन्दू धर्म के अनुसार जीवन का न प्रारंभ है और न अंत ही. यह एक अनंत चक्र है.
  5. मुझे अपने हिन्दूत्व पर अभिमान है, किंतु इसका उरर्थ यह नहीं है कि मैं मुस्तिम-विरोधी हूं. 
  6. हमें हिन्दू कहलाने में गर्व महसूस करना चाहिए, बशर्ते कि हम भारतीय होने में भी आत्मगौरव महसूस करें. 
  7. हिन्दू समाज इतना विशाल है, इतना विविध है कि किसी बैंक में नहीं समा सकता.
  8. हिन्दू समाज गतिशील है, हिंदू समाज में परिवर्तन हुए हैं, परिवर्तन की प्रक्रिया चल रही है. हिन्दू समाज जड़ समाज नहीं है.
  9. भारत के ऋषियों-महर्षियों ने जिस एकात्मक जीवन के ताने-बाने को बुना था, आज वह उपेक्षा तथा उपहास का विषय बनाया जा रहा है.
  10. भारतीय संस्कृति कभी किसी एक उपासना पद्धति से बंधी नहीं रही और न उसका आधार प्रादेशिक रहा.
  11. उपासना, मत और ईश्वर संबंधी विश्वास की स्वतंत्रता भारतीय संस्कृति की परम्परा रही है.
  12. मजहब बदलने से न राष्ट्रीयता बदलती है और न संस्कृति में परिवर्तन होता.
  13. सभ्यता कलेवर है, संस्कृति उसका अन्तरंग. सभ्यता स्थूल होती है, संस्कृति सूक्ष्म. सभ्यता समय के साथ बदलती है, किंतु संस्कृति अधिक स्थायी होती है.
  14. इंसान बनो, केवल नाम से नहीं, रूप से नहीं, शक्ल से नहीं, हृदय से, बुद्धि से, सरकार से, ज्ञान से.
  15. जीवन के फूल को पूर्ण ताकत से खिलाएं.
  16. मनुष्य जीवन अनमोल निधि है, पुण्य का प्रसाद है. हम केवल अपने लिए न जिएं, औरों के लिए भी जिएं. जीवन जीना एक कला है, एक विज्ञान है. दोनों का समन्वय आवश्यक है.
  17. समता के साथ ममता, अधिकार के साथ आत्मीयता, वैभव के साथ सादगी-नवनिर्माण के प्राचीन स्तंभ हैं.
  18. मैं अपनी सीमाओं से परिचित हूं. मुझे अपनी कमियों का अहसास है. सद्भाव में अभाव दिखाई नहीं देता है. यह देश बड़ा ही अद्भुत है, बड़ा अनूठा है. किसी भी पत्थर को सिंदूर लगाकर अभिवादन किया जा सकता है, अभिनन्दन किया जा सकता है.
  19. भगवान जो कुछ करता है, वह भलाई के लिए ही करता है.
  20. परमात्मा एक ही है, लेकिन उसकी प्राप्ति के अनेकानेक मार्ग हैं.
  21. जीवन को टुकड़ों में नहीं बांटा जा सकता, उसका ‘पूर्णता’ में ही विचार किया जाना चाहिए.
  22. मैं हिन्दू परंपरा में गर्व महसूस करता हूं, लेकिन मुझे भारतीय परंपरा में और ज्यादा गर्व है.
  23. सदा से ही हमारी धार्मिक और दार्शनिक विचारधारा का केन्द्र बिंदु व्यक्ति रहा है. हमारे धर्मग्रंथों और महाकाव्यों में सदैव यह संदेश निहित रहा है कि समस्त ब्रह्मांड और सृष्टि का मूल व्यक्ति औरउसका संपूर्ण विकास है.
  24. राष्ट्रशक्ति को अपमानित करने का मूल्य रावण को अपने दस शीशों के रूप में सव्याज चुकाना पड़ा. असुरों की लंका भारत के पावन चरणों में भक्तिभाव से भरकर कन्दकली की भांति सुशोभित हुई. धर्म की स्थापना हुई, अधर्म का नाश हुआ.

राष्ट्र : अटल बिहारी वाजपेयी के अनमोल विचार

  1. निराशा की अमावस की गहन निशा के अंधकार में हम अपना मस्तक आत्म-गौरव के साथ तनिक 
  2. ऊंचा उठाकर देखें. विश्व के गगनमंडल पर हमारी कलित कीर्ति के असंख्य दीपक जल रहे हैं.
  3. अमावस के अभेद्य अंधकार का अंतःकरण पूर्णिमा की उज्ज्वलता का स्मरण कर थर्रा उठता है.
  4. इतिहास ने, भूगोल ने, परंपरा ने, संस्कृति ने, धर्म ने, नदियों ने हमें आपस में बांधा है.
  5. भारतीय जहां जाता है, वहां लक्ष्मी की साधना में लग जाता है. मगर इस देश में उगते ही ऐसा लगता है कि उसकी प्रतिभा कुंठित हो जाती है. भारत जमीन का टुकड़ा नहीं, जीता-जागता राष्ट्रपुरुष है. हिमालय इसका मस्तक है, गौरीशंकर शिखा है. कश्मीर किरीट है, पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे हैं. दिल्ली इसका दिल है. विन्ध्याचल कटि है, नर्मदा करधनी है. पूर्वी और पश्चिमी घाट दो विशाल जंघाएं हैं. कन्याकुमारी इसके चरण हैं, सागर इसके पग पखारता है. पावस के काले-काले मेघ इसके कुंतल केश हैं. चांद और सूरज इसकी आरती उतारते हैं, मलयानिल चंवर घुलता है. यह वन्दन की भूमि है, अभिनन्दन की भूमि है. यह तर्पण की भूमि है, यह अर्पण की भूमि है. इसका कंकर-कंकर शंकर है, इसका बिंदु-बिंदु गंगाजल है. हम जिएंगे तो इसके लिए, मरेंगे तो इसके लिए.
  6. कंधे-से-कंधा लगाकर, कदम-से-कदम मिलाकर हमें अपनी जीवन-यात्रा को ध्येय-सिद्धि के शिखर तक ले जाना है. भावी भारत हमारे प्रयत्नों और परिश्रम पर निर्भर करता है. हम अपना कर्तव्य पालन करें, हमारी सफलता सुनिश्चित है.
  7. देश को हमसे बड़ी आशाएं हैं. हम परिस्थिति की चुनौती को स्वीकार करें. आखों में एक महान भारत के सपने, हृदय में उस सपने को सत्य सृष्टि में परिणत करने के लिए प्रयत्नों की पराकाष्ठा करने का संकल्प, भुजाओं में समूची भारतीय जनता को समेटकर उसे सीने से लगाए रखने का सात्त्विक बल और पैरों में युग-परिवर्तन की गति लेकर हमें चलना है.
  8. भारत एक प्राचीन राष्ट्र है.  अगस्त, को किसी नए राष्ट्र का जन्म नहीं, इस प्राचीन राष्ट्र को ही स्वतंत्रता मिली.
  9. पौरुष, पराक्रम, वीरता हमारे रक्त के रंग में मिली है. यह हमारी महान परंपरा का अंग है. यह संस्कारों द्वारा हमारे जीवन में ढाली जाती है.
  10. इस देश में कभी मजहब के आधार पर, मत-भिन्नता के उगधार पर उत्पीड़न की बात नहीं उठी, न उठेगी, न उठनी चाहिए.
  11. भारत के प्रति अनन्य निष्ठा रखने वाले सभी भारतीय एक हैं, फिर उनका मजहब, भाषा तथा प्रदेश कोई भी क्यों न हो.
  12. भारत कोई इतना छोटा देश नहीं है कि कोई उसको जेब में रख ले और वह उसका पिछलग्गू हो जाए. हम अपनी आजादी के लिए लड़े, दुनिया की आजादी के लिए लड़े.
  13. दुर्गा समाज की संघटित शक्ति की प्रतीक है. व्यक्तिगत और पारिवारिक स्वार्थ-साधना को एक ओर रखकर हमें राष्ट्र की आकांक्षा प्रदीप्त करनी होगी. दलगत स्वार्थों की सीमा छोड़कर विशाल राष्ट्र की हित-चिंता में अपना जीवन लगाना होगा. हमारी विजिगीषु वृत्ति हमारे अंदर अनंत गतिमय कर्मचेतना उत्पन्न करे
  14. राष्ट्र कुछ संप्रदायों अथवा जनसमूहों का समुच्चय मात्र नहीं, अपितु एक जीवमान इकाई है.
  15. कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक फैला हुआ यह भारत एक राष्ट्र है, अनेक राष्ट्रीयताओं का समूह नहीं.
  16. मैं चाहता हूं भारत एक महान राष्ट्र बने, शक्तिशाली बने, संसार के राष्ट्रों में प्रथम पंक्ति में आए.
  17. राजनीति की दृष्टि से हमारे बीच में कोई भी मतभेद हो, जहां तक राष्ट्रीय सुरक्षा और रचतंत्रता के संरक्षण का प्रश्न है, सारा भारत एक है और किसी भी संकट का सामना हम सब पूर्ण शक्ति के साथ करेंगे.
  18. यह संघर्ष जितने बलिदान की मांग करेगा, वे बलिदान दिए जाएंगे, जितने अनुशासन का तकाजा होगा, यह देश उतने अनुशासन का परिचय देगा.
  19. देश एक रहेगा तो किसी एक पार्टी की वजह से एक नहीं रहेगा, किसी एक व्यक्ति की वजह से एक नहीं रहेगा, किसी एक परिवार की वजह से एक नहीं रहेगा. देश एक रहेगा तो देश की जनता की देशभक्ति की वजह से रहेगा.
  20. शहीदों का रक्त अभी गीला है और चिता की राख में चिनगारियां बाकी हैं. उजड़े हुए सुहाग और जंजीरों में जकड़ी हुई जवानियां उन अत्याचारों की गवाह हैं.
  21. देश एक मंदिर है, हम पुजारी हैं. राष्ट्रदेव की पूजा में हमें अपने को समर्पित कर देना चाहिए. 
  22. भारतीयकरण का एक ही अर्थ है भारत में रहने वाले सभी व्यक्ति, चाहे उनकी भाषा कछ भी हो, वह भारत के प्रति अनन्य, अविभाज्य, अव्यभिचारी निष्ठा रखें.
  23. भारतीयकरण आधुनिकीकरण का विरोधी नहीं है. न भारतीयकरण एक बंधी-बंधाई परिकल्पना है.
  24. भारतीयकरण एक नारा नहीं है . यह राष्ट्रीय पुनर्जागरण का मंत्र है. भारत में रहने वाले सभी व्यक्ति भारत के प्रति अनन्य, अविभाज्य, अव्यभिचारी निष्ठा रखें. भारत पहले आना चाहिए, बाकी सब कुछ बाद में.
  25. हम अहिंसा में आस्था रखते हैं और चाहते हैं कि विश्व के संघर्षों का समाधान शांति और समझौते के मार्ग से हो. अहिंसा की भावना उसी में होती है, जिसकी आत्मा में सत्य बैठा होता है, जो समभाव से सभी को देखता है.

Wednesday, April 26, 2017

राष्ट्र सर्वोपरि

डॉ. सौरभ मालवीय
भारत यह एक ऐसा अद्भुत शब्द है जिसका उच्चारण ही मन को झंकृत कर देता है। जिस शब्द की कल्पना से ही संगीत निकलने लगे वह भारत है। ‘भारत’ में ‘भा’ का अर्थ होता है उजाला, सत्य, प्रकाश, आभा, ज्ञान, मोक्ष, परिपूर्ण, पोषण, जीवन आनन्द आदि आदि...। कहां तक कहें यहां तो सहस्र नाम की परम्परा ही है। विष्णु सहस्र नाम, शिव सहस्र नाम श्रीराम सहस्र नाम, गोपाल सहस्र नाम...। तो भारत के अनन्त नाम हैं अनन्त अर्थ हैं और यह संस्कृत का शब्द है संस्कृत इतनी तरल भाषा ;सपुनपपिकि संदहनंहद्ध है कि इसके अर्थ की अनन्तता सहज ही हो जाती है। भारत में ‘रत’ का अर्थ है लीन तल्लीन, लवलीन विलीन आदि। भारत का अर्थ हुआ ज्ञान में तल्लीन, भरणपोषण करने वाला, परम प्रकाशक अतएव इस धरा पर जहां भी ज्ञान की सत्य की साधना हो वह भारत भूमि है। प्रख्यात दार्शनिक ओशो की रचना ‘भारत एक सनातन यात्रा’ की प्रस्तावना में विख्यात साहित्यकर्तृ श्रीमती अमृता प्रीतम कहती हैं- ‘‘भारत एक भाव दशा है और इस जगत में जहां भी ज्ञान के अनन्त ऊंचाइयों को छूने का परम्परागत प्रयास चलता है वह भारत है।’’ इन विशिष्टताओं के बिना भारत अधूरा है। भारतीय संस्कृति के महानायक श्रीराम इस पावन भारत को माता कहते हैं वे इसे स्वर्ग से भी महनीय बताते हैं।
‘‘अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपिगरीयसी।।’’
(श्री बालमीकि रामायण, लंका काण्ड)

हे लक्ष्मण यद्यपि यह लंका सुवर्ण की है फिर भी मुझे रूचिकर नहीं लग रही है क्योंकि माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी महान् है।
ऋग्वेद के ऋषि तन्मय भाव से भारत की वन्दना में अपनी ऋचाओं को चढ़ाकर अपने को निष्क्रय कर रहे हैं कि-
यस्य इमे हिमवन्तो महित्वा यस्य समुद्रंरसया सह आहुः।
यस्येंमे प्रदिशो यस्य तस्मै देवा हविषा विधेम।।  (ऋग्वेद)

महिमावान हिमालय जिसका गुण गा रहा है। नदियों समेत समुद्र जिसके यशोगान में निरत है, बाहु सदृश दिशाएं जिसकी वन्दना कर रही हैं उस परम राष्ट्र देव को हम हविष्य दें।
श्रीमद् भागवत् में भगवान् वेदव्यास जी कहते है कि-
अहो अमीषां किमकारिशोभनं
प्रसन्न एषां स्विदुत स्वयं हरिः।
यैर्जन्म लब्धं नृषु भारताजिरे
मुकुन्द सेवौपयिकं स्पृहा हि नः।।
(श्रीमद् भागवत् 3.19.21)
देवतागण आपस में बात करते हुए कह रहे हैं कि-
अहो वे लोग ऐसा कौन सा पुण्य किये हैं कि उनका जन्म भगवत्सेवार्थ पवित्र भारतवर्ष के आंगन में हुआ है। इन लोगों पर श्री हरि स्वयं प्रसन्न हैं। इस सौभाग्य पर तो हम भी तरसते हैं।
पुराण तो भारत की वन्दना से आपूरित हैं-
गायन्ति देवाः किल गीतकानि
धन्यास्तुते भारत भूमि भागे।
स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते
भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात्।।
(श्री विष्णु पुराण 2.3.24)

देवतागण भी अहर्निश यही गाते रहते हैं कि वे लोग धन्य हैं जो भारतवर्ष में जन्मे है क्योंकि यह भूमि मोक्ष भूमि है।
भारत शब्द का जो अर्थ होता है वही अर्थ ‘काशी’ शब्द का भी होता है।
काश्यां काशते काशी
काशी सर्वप्रकाशिका।
और काशी में मरना मोक्षकारी माना जाता है।
काश्यां मरणान्मुक्तिः
(काशी में मरना मोक्षकर है)

परमपूज्य गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि-
मुक्ति जन्म महि जानि ज्ञान खानि अघ हानिकर।
जहं बस सम्भु भवानि सो कासी सेइय कस न।।
(श्रीरामचरित मानस उत्तर काण्ड)

‘‘यह पवित्र भूमि मोक्ष भू है ज्ञान की खान है, पापनाशी है, यहां भगवान शिव और मां पार्वती सदा विराजते रहते हैं। इस काशी का सेवन क्यों नहीं किया जाय।’’
राष्ट्रकवि श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी ने इसी भारत के भावभूमि की वन्दना में लिखा है कि-
मानचित्र में जो मिलता है नहीं देश भारत है।
भूपर नहीं मनों में ही बस कहीं शेष भारत है।।
भारत एक स्वप्नभू को ऊपर ले जाने वाला।
भारत एक विचार स्वर्ग को भू पर लाने वाला।।
भारत एक भाव जिसको पाकर मनुष्य जगता है,
भारत एक जलज जिस पर जल का न दाग लगता है।।
भारत है संज्ञा विराग के उज्जवल आत्म उदय की,
भारत है आभा मनुष्य की सबसे बड़ी विजय की।
भारत है भावना दाह जगजीवन का हरने की,
भारत है कल्पना मनुज को राग मुक्त करने की।।
जहां कहीं एकता अखण्डित जहां प्रेम का स्वर है,
देश-देश में खड़ा वहां भारत जीवित भास्वर है।
भारत वहां जहां जीवन साधना नहीं है भ्रम में,
धाराओं का समाधान है मिला हुआ संगम में।।
जहां त्याग माधुर्यपूर्ण हो जहां भोग निष्काम।
समरस हो कामना वहीं भारत को करो प्रणाम।।
वृथा मत लो भारत का नाम।।

भारत के भाव भूमि का वन्दन करते हुए भारत के पूर्व प्रधानमन्त्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी कहते हैं-
यह राष्ट्र केवल एक भूमि का टुकड़ा नहीं है, यह जीता जागता राष्ट्र पुरुष है। हिमालय इसका मस्तक है, गौरीशंकर शिखा है। कश्मीर इसका किरीट है। पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे हैं। दिल्ली इसका हृदय है, नर्मदा करधनी है। पूर्वी और पश्चिमी घाट दो विशाल जंघाएं हैं। इसका सागर चरण धुलाता है, मलयानिल विजन डुलाता है। सावन के काले-काले मेघ इसकी कुन्तल केश राशि हैं। चांद और सूरज इसकी आरती उतारते हैं। यह देवताओं की भूमि है। यह संन्यासियों की भूमि है। यह ऋषि की भूमि है, यह कृषि की भूमि है। यह सम्राटों की भूमि है, यह सेनानियों की भूमि है। यह सन्तों की भूमि है, यह तीर्थकरों की भूमि है। यह अर्पण की भूमि है, यह तर्पण की भूमि है, यह वन्दन की भूमि है, यह अभिनन्दन की भूमि है। इसका कंकर-कंकर शंकर है, इसका बिन्दु-बिन्दु गंगाजल है। इसका कण-कण हमें प्यारा है इसका जन-जन हमारा दुलारा है। हम जियेंगे तो इसके लिये और यदि मृत्यु ने बुलाया तो मरेंगे भी इसके लिये। अगर मृत्यु के बाद हमारी हड्डियां गंगाजी में फंेक दी गयी और कोई कान लगाकर सुने तो एक ही आवाज सुनायी देगी वन्दे मातरम्। वन्दे मातरम्।।
(श्री अटल बिहारी वाजपेयी)

युग पुरुष स्वामी विवेकानन्द इस पवित्र भारत माता के प्रति कुछ ऐसा विचार रखते थे-
यदि इस पृथ्वीतल पर कोई एक ऐसा देश है, जो मंगलमयी पुण्यभूमि कहलाने का अधिकारी है, ऐसा देश जहां संसार के समस्त जीवों को अपना कर्मफल भोगने के लिये आना ही है, ऐसा देश जहां ईश्वरोन्मुख प्रत्येक आत्मा को अन्तिम लक्ष्य प्राप्त करने के लिये पहुंचना अनिवार्य है, ऐसा देश जहां मानवता ने ऋजुजा उदारता, शुचिता एवं शान्ति का चरम शिखर स्पर्श किया हो तथा इन सबसे आगे बढक़र भी जो देश अन्तदृष्टि एवं आध्यात्मिकता का घर हो तो वह देश भारत है।
-स्वामी विवेकानन्द, बौद्धिक पुस्तिका 1979 का आमुख
इसी भारत के गुणानुवाद में कवि समाधिस्थ सा होकर गा उठता है कि-
ऊंचा ललाट जिसका हिमगिरि चमक रहा है,
स्वर्णिम किरीट जिस पर आदित्य रख रहा है।
साक्षात् शिव की प्रतिमा जो सब प्रकार उज्जवल,
बहता है जिसके सिर पर गंगा का नीर निर्मल।
वह पुण्य भूमि मेरी यह जन्मभूमि मेरी
यह मातृ भूमि मेरी यह पितृ मेरी।।
अमर साहित्यकार श्री जयशंकर प्रसाद जी कहते हैं कि
अरुण यह मधुमय देश हमारा।
जहां पहुंच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।।
सरस तामरस गर्भ विभा पर नाच रही तरु शिखा मनोहर।
छिटका जीवन हरियाली पर मंगल कुंकुाम सारा।। (‘चंद्रगुप्त’ नाटक)
भारत की संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति होने के बावजूद आज भी जीवंत है और मानवता के विकास में सहायक-इससे संभवतः कोई इनकार न कर सकेगा। प्राचीनतम संस्कृति होने के कारण इसका इतिहास मानवता के हर पग से जुडा़ हुआ है। विश्व के इतिहास का कोई भी प्रमुख पृष्ठ ऐसा नहीं है जो भारतीय संस्कृति से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित न रहा हो। मेसोपोटामिया, मिस्र, रोम, यूनान तथा और, ‘इन्का’ और ‘एजटेक’ सरीखी लुप्त संस्कृतियां भी भारतीय संस्कृति से प्रभावित रही हैं तथा इनके प्रणाम भी हैं। यह एक पृथक बात है कि विश्व के सभी इतिहासकारों से उसे मान्यता न मिली हो; पर जो भी इतिहासकार भारतीय संस्कृति के प्रभाव को खोजने मैक्सिको या दक्षिणी अमेरीका के सुदूर क्षेत्रों में गए हैं, वे वहां की लुप्त संस्कृतियों पर भारतीयता की छाप को जान सकने में समर्थ रहे हैं।

भारत, जो ऋग्वेद काल से एक राष्ट्र है, जिसके अभिनंदन में वैदिक ऋचाएं रची गईं और जिसकी समृद्धि के लिए भारतीय ऋषियों ने बार-बार प्रार्थनाएं कीं, उन सबको जाने-अनजाने हमारे संविधान निर्माताओं ने भुला दिया-यह एक ऐसी वास्तविकता है जिसका स्मरण आज भी दुःखदायी है।
‘इदं राष्ट्रं पिपृहि सौभगाय’
-अथर्व.,7-35-1
‘इस राष्ट्र की श्रीवृद्धि हो।
‘बृहद् राष्ट्रं संवेश्यं दधातु’
-अथर्व-3-8-1
हमें एक महान् राष्ट्र प्राप्त हो।

जीवन की विश्वात्म धारणा को प्रतिदिन करनेवाला भारत, जिसका कभी विश्वास रहा ‘वसुधैव कुटंुबकम्’; पर वह दुष्प्रचार का शिकार होकर स्वयं ही अपने मूल्य छोड़ बैठा और सांस्कृतिक रूप से बिखर गया। यह सांस्कृतिक बिखराव आज भी राजनीति में स्तर पर दिखाई दे रहा है। लेकिन फिर भी न तो इस राष्ट्र के कर्णधारों को इसकी चिंता है और न भूल का एहसास है जो कि जाने-अनजाने संविधान निर्माताओं से हो गई। भारत एक सांस्कृतिक इकाई है- भले ही यह बात इस राष्ट्र के अनेक महान् नेतााओं ने बार-बार विभिन्न संदर्भाें में तथा विभिन्न स्तरों पर कही हो; पर उनकी इस अवधारणा की छाया तक भारतीय संविधान में नहीं है। यह सब इसलिए हुआ, क्यांेकि संविधान सतत् उपलब्ध थी, उसका कहीं भी प्रयोग न करके सारी सामग्री योरोप और अमेरिका में खोजी गई। पश्चिम का राजनैतिक व सांस्कृतिक चिंतन तथा दर्शन भारत से मौलिक रूप से भिन्न है, यह सब जानते हुए भी संविधान निर्माण में अनुच्छेदों के लेखन के समय विदेशी मूल्यों, आदर्शांे, परिपाटियों एवं व्यवस्थाओं का ही प्रयोग किया गया।

‘‘प्रत्येक समाज की अपनी एक मूल प्रकृति होती है और भारत की मूल प्रकृति सहिष्णुता प्रधान व समन्वयात्मक है, इसीलिए उसका उद्देश्य है- ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’। सभी सुखी हों, सभी का कल्याण हो-इसी भाव को लेकर भारत में जीवन-मूल्यों को विकसित किया गया। ये जीवन-मूल्य जितने उदार व उच्च होंगे, उनसे जुडी़ संस्कृति भी उतनी ही उदार व उच्च होगी। अतः हमें अपने श्रेय प्रधान जीवन-मूल्यों को उन भोगवादी मूल्यों तथा रूढ़िवादिता के प्रहार से बचाना होगा, जो इधर समाज में बढे़ हैं।’’

जे. रैम्जे मैक्डोनाल्ड नामक एक अंग्रेज ने, जो कभी ब्रिटेन के प्रधानमंत्री थे, लिखा था, ‘‘जो भी हो, हिन्दू अपनी परम्परा और धर्म के अनुसार भारत को न केवल एक प्रभुसŸाा के अधीन एक राजनीतिक इकाई मानता है, बल्कि अपनी आध्यात्मिक संस्कृति को साकार मन्दिर और उससे भी बढक़र देवी मां का रूप मानता है। भारत और हिन्दुत्व एक दूसरे से ऐसे जुडे़ है, जैसे शरीर से आत्मा। राष्ट्रीयता की व्याख्या करना, उसकी परख करना और उसेे सिद्ध करना एक कठिन काम है, किन्तु जहां तक भारत और आर्यपुत्र का सम्बन्ध है, निश्चय ही उसने उसे अपनी आत्मा में प्रतिष्ठित किया है ‘‘
जार्ज ओटो ट्रेविलयनः द लाइफ एण्ड लेटर्स आफ लार्ड मैकाले, पृ.421

भारत उपासना-पंथों की भूमि, मानव-जाति का पालन, भाषा की जन्मभूमि, इतिहास की माता, पुराणों की दादी एवं परंपरा की परदादी है। मनुष्य के इतिहास में जो भी मूल्यवान एवं सर्जनशील सामग्री है, उसका भंडार अकेले भारत में है। यह ऐसी भूमि है जिसके दर्शन के लिए सब लालायित ही रहते है और एक बार इसकी झलक मिल जाय तो दुनिया के अन्य सारे दृश्यों के बदले में भी वे उसे छोड़ने के लिए तैयार नहीं होंगे।

मार्क ट्वेन मानव ने आदिकाल से जो सपने देखने शुरू किये, उनके साकार होने का इस धरती पर कोई स्थान है तो वह है भारत।
रोमां रोला (फ्रांस के विद्वान)

हिन्दुत्व धार्मिक एकरूपता पर जोर नहीं देता, वरन् आध्यात्मिक दृष्टिकोण अपनाता है। यह जीवन-पद्धति है, न कि कोई विचारधारा।

स्वामी विवेकानन्द का ‘‘राष्ट्रदेव की पूजा’’ का आह्वान
‘‘आगामी पचास वर्ष के लिए यह जननी जन्म भूमि भारतमाता ही हमारी आराध्य देवी बन जाए। तब तक के लिए हमारे मस्तिष्क से व्यर्थ के देवी-देवताओं के हट जाने में कुछ भी हानि नहीं है। सर्वत्र उसके हाथ हैं, सर्वत्र उसके पैर हैं, और सर्वत्र उसके कान हैं। समझ लो कि दूसरे देवी-देवता सो रहे हैं जिन व्यर्थ के देवी-देवताओं को हम देख नहीं पाते, उनके पीछे तो हम इस प्रत्यक्ष देवता की पूजा कर लेंगे तभी हम दूसरे देव-देवियों की पूजा करने ‘‘योग्य होंगे, अन्यथा नहीं’’
(भारत का भविष्य पृ.19)।

हिन्दुओं को प्रेरणा देते हुए स्वामी जी कहते हैं, ‘‘उŸिाष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत’’ (कठोप.1.3.4) यानी उठो, जागो और लक्ष्य प्राप्ति से पहले रूको नहीं। यानी पूर्ण हिन्दूराज स्थापित करो। हिन्दू के अस्तित्व की सुरक्षा का यही एकमेव मार्ग रह गया है।

योगी श्री अरविन्द ने 1918 में युवकों का कहाः
‘‘मैं केवल इतना ही कह सकता हूं कि ऐसी सभी बातों को मेरा पूर्ण समर्थन मिलेगा जो एक शक्तिशाली समाज के ढाचे में व्यक्ति के जीवन को मुक्त करने और सशक्त बनाने में सहायक हों तथा उस स्वाधीनता और ऊर्जा को फिर से वापस दिलायें जो भारत के पास उसकी महानता और विस्तार के वीरत्वपूर्ण काल में थी। हमारे अनेक वर्तमान सामाजिक ढांचे जब गढे़ गये थे, हमारी अनेक रीति-नीति व परम्पराएं जब उत्पन्न हुए थे, वह समय सिकुड़न और अवनति का था। आत्मरक्षा और टिके रहने के लिए संकीर्ण सीमाओं में उनकी उपादेयता थी, पर वर्तमान घड़ी में, जब हमसे एक बार फिर एक स्वतंत्र और साहसपूर्ण आत्म रुपांतरण और विस्तार में प्रविष्ट होने की अपेक्षा की जा रही है, वे हमारी प्रगति में रुकावट बन रही है। मैं एक आक्रामक और विस्तारशील हिन्दुत्व में विश्वास करता हूं, संकीर्णता के साथ रक्षात्मक और आत्मसंकोचशील हिन्दुत्व में नहीं।’’
‘‘सर्व साधारण लोगों को सम्मिलित व राष्ट्र के नवजागरण में करना, भविष्य की महानता पर आधारित करना, भारतीय राजनीति को भारतीय धार्मिक भाव-प्रवणता और आध्यात्मिक में भिगोना-ये भारत में एक महान और शक्तिशाली राजनैतिक जागृति की अपरिहार्य शर्तें है।’’
(1918, भारत का पुनर्जन्म पृ.140.)

‘‘हम प्रकृति के जंगल में से चीरकर अपनी राह निकालने वाले अग्रदूत हैं। कायर चोर कामचोर बनने तथा भार उठाने से मना करने और सब कुछ हमारे लिए शीघ्र और सरल बनाये जाने हेतु शोर मचाने से काम नहीं चलेगा। सबसे ऊपर मैं तुमसे सहनशीलता, दृढ़ता, वीरता-सच्ची आध्यात्मिक वीरता की मांग करता हूं। मुझे शक्तिशाली मनुष्य चाहिए। भावुक बच्चे मुझे नहीं चाहिए। (1919 वहीं. पृ. 154)। ‘‘एक अकेले वीर का संकल्प हजारों कायरों के हृदय में साहस फूंक सकता है।’’
(1920 वहीं. पृ. 157)।

हमने अपने सामने जो काम रखा है वह यांत्रिक नहीं है, किन्तु नैतिक और आध्यात्मिक है। हमारे लक्ष्य किसी एक प्रकार की सरकार को बदल डालना नहीं है, प्रत्युत एक राष्ट्र का निर्माण करना है। उस काम का राजनीति भी एक भाग है, परन्तु एक भाग मात्र है। हम अपनी सारी शक्ति राजनीति पर ही नहीं लगाएंगे, ना ही केवल सामाजिक प्रश्नों पर या ब्रह्मविद्या का दर्शन या साहित्य या विज्ञान के विषयों पर, परन्तु इन सबको हम उस एक ही वस्तु के अर्न्तगत समझते हैं जिसे हम सबसे आवश्यक मानते है। वह वस्तु है धर्म, राष्ट्रीय धर्म, जो हमारा विश्वास है, सार्वभौम भी है।’’

श्री अरविन्द का राष्ट्र को आह्वान
महाभारत की एक आख्या के अनुसार-
अभगच्छत राजेन्द्र देविकां लोक विश्रुताम्।
प्रसूर्तियत्र विप्राणां श्रूयते भरतर्षभ।।

अर्थात् ‘‘सप्तचरुतीर्थ के पास वितस्ता नदी की शाखा देविका नदी के तट पर मनुष्य जाति की उत्पत्ति हुई। प्रमाण यही बताते हैं कि यदि सृष्टि की उत्पत्ति भारत के उत्तराखण्ड अर्थात् ब्रह्मावर्त क्षेत्र में ही हुई।

संसार भर में गोरे, पीले, लाल और श्याम (काले) ये चार रंगों के लोग विभिन्न क्षेत्रों में पाए जाते हैं। एक भारत ही ऐसा देश है, जहां इन चार रंगों का भरपूर मिश्रण एक साथ देखने को मिलता है। वस्तुतः श्वेत-काकेशस, पीले-मंगोलियन, काले-नीग्रो तथा लाल रेड इंडियन इन चार प्रकार के रंगविभाजनों के बाद पांचवी मूल एवं मुख्य नस्ल है, जो भारतीय कहलाती है। इस जाति में उपर्युक्त चारों का सम्मिश्रण है। ऐसा कहीं सिद्ध नहीं हेाता कि भारतीय मानव जाति उपर्युक्त चारों जातियों की वर्ण संकरता से उत्पन्न हुई। उलटे नेतृत्व विज्ञानी यह कहते हैं कि भारतीय सम्मिश्रिण वर्ण ही यहां से विस्तरित होकर दीर्घकाल में जलवायु आदि के भेद से चार मुख्य रूप लेता चला गया।

न केवल रंग यहां चारों के सम्मिश्रित पाए जाते हैं, वरन् भारतीयों का शारीरिक गठन भी एक विलक्षणता लिए है। ऊंची दबी, गोल-लम्बी मस्तकाकृति उठी या चपटी नाक, लम्बी-ठिगनी, पतली-मोटी शरीराकृति, एक्जो व एण्डोमॉर्फिक (एकहरी या दुहरी गठन वाली) आकृतियां भारत में पाई जाती हैं। यहां से अन्यत्र बस जाने पर इनके जो गुण सूत्र उस जलवायु में प्रभावी रहे, वे काकेशस, मंगोलियन, नीग्रॉइड व रेडइंडियंस के रूप में विकसित होते चले गए। अतः मूल आर्य जाति की उत्पत्ति स्थली भारत ही है, बाहर कहीं नहीं, यह स्पष्ट तथ्य एक हाथ लगता है। पाश्चात्य विद्वानों ने एक प्रचार किया कि आर्य भारत से कहीं बाहर विदेश से आकर यहां बसे थे। संभवतः इसके साथ दूसरी निम्न जातियों को जनजाति-आदिवासी वर्ग का बताकर, वे उन्हें उच्च वर्ग के विरूद्ध उभारना चाहते थे। द्रविड़ तथा कोल, ये जो दो जातियां भारत में बाहर से आईं बतायी जाती हैं, वस्तुतः आर्य जाति से ही उत्पन्न हुई थीं, इनकी एक शाखा जो बाहर गयी थी पुनः भारत वापस आकर यहां बस गयी।

भारतीय जातियों पर शोध करने वाले नेतृत्व विज्ञानी श्रनैसफील्ड लिखते हैं कि ‘‘भारत में बाहर से आए आर्य विजेता और मूल आदिम मानव (बरबोरिजिन) जैसे कोई विभाजन नहीं है। ये विभाग सर्वथा आधुनिक है। यहां तो समस्त भारतीयेां में एक विलक्षण स्तर की एकता है। ब्राह्मणों से लेकर सड़क साफ करने वाले भंगियों तक की आकृति और रक्त समान हैं।’’
मनुसंहिता (10/43-44) का एक उदाहरण है
शनकैस्तु क्रियालोपदिनाः क्षत्रिय जातयः।
वृषलत्वं गता लोके ब्राह्मणा दर्शनेन च।।

पौण्ड्राकाशचौण्ड्रद्रविडाः काम्बोजाः शकाः।
पादराः पहल्वाश्चीनाः काम्बोजाः दरदाः खशाः।।

अर्थात् ‘‘ब्राह्मणत्व की उपलब्धि को प्राप्त न हानेे के कारण उस क्रिया का लोप होने से पौण्ड्र, चौण्ड्र, द्रविड़ काम्बोज, भवन, शक पादर, पहल्व, चीनी किरात, दरद व खश ये क्षत्रिय जातियां धीरे-धीरे शूद्रत्व को प्राप्त हो गयीं।’’ स्मरण रहे यहां ब्राह्मणत्व से तात्पर्य है श्रेष्ठ चिन्तन, ज्ञान का उपार्जन व श्रेष्ठ कर्म तथा शूद्रत्व से अर्थ है निकृष्ट चिंतन व निकृष्ट कर्म। क्षत्रिय वे जो पुरूषार्थी थे व बाहुबल से क्षेत्रों की विजय करके राज्य स्थापना हेतु बाहर जाते रहे।

मूल आर्य जाति ने उत्तराखण्ड से नीचे की भूमि में वनों को काटकर, जलाकर उन्हें


भारत में भारतीयता विषय पर सब पहलुओं से विचार किया गया है। इस शरीर के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है, अतएव-
यावज्जीवं सुखं जीवेद् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।।

भारत की आत्मा को समझना है तो उसे राजनीति अथवा अर्थ-नीति के चश्मे से न देखकर सांस्कृतिक दृष्टिकोण से ही देखना होगा भारतीयता की अभिव्यक्ति राजनीति के द्वारा न होकर उसकी संस्कृति के द्वारा ही होगी तभी हम पुनः भारत को विश्व में प्रतिष्ठापित कर पायेंगे। इसी भावना और विचार में भारत की एकता तथा अखण्डता बनी रह सकती है। तभी भारत परम वैभव को प्राप्त कर सकता है।
विश्व के अनेक विद्याविदों, दार्शनिकांे, वैज्ञानिकों और प्रतिभावानों ने भारत के समर्थ को सिद्ध किया है। किसी ने इसे ज्ञान की भूमि कहा है तो किसी ने मोक्ष की, किसी ने इसे सभ्यताओं का मूल कहा है तो किसी ने इसे भाषाओं की जननी, किसी ने यहां आत्मिक पीपासा बुझाई है तो कोई यहां के वैभव से चमत्कृत हुआ है, कोई इसे मानवता का पालना मानता है तो किसी ने इसे संस्कृतियों का संगीत कहा है। तप, ज्ञान, योग, ध्यान, सत्संग, यज्ञ, भजन, कीर्तन, कुम्भ तीर्थ, देवालय और विश्व मंगल के शुभ मानवीय कर्म एवं भावों से निर्मित भारतीय समाज अपने में समेटे खड़ा है इसी से पूरा  भू-मण्डल भारत की ओर आकर्षित होता रहा है और होता रहेगा। भारतीय संस्कृति की यही विकिरण ऊर्जा ही हमारी चिरंतन परम्परा की थाती है।
विश्व सभ्यता और विचार-चिन्तन का इतिहास काफी पुराना है। लेकिन इस समूची पृथ्वी पर पहली बार भारत में ही मनुष्य की संवेदनाओं चिंतन प्रारंभ किया भारतीय चिंतन का आधार हमारी युगों पुरानी संस्कृति है। भारत एक देश है और सभी भारतीय जन एक है, परन्तु हमारा यह विश्वास है कि भारत के एकत्व का आधार उसकी युगों पुरानी अपनी संस्कृति में निहित है- इस बात को न्यायालयों ने उनके निर्णयों में स्वीकार किया है। सांस्कृतिक चिंतन  एक आध्यात्मिक अवधारणा है और यही है भारतीय का वैशिष्ट्य। राष्ट्र का आधार हमारी संस्कृति और विरासत है। हमारे लिए ऐसे राष्ट्रवाद का कोई अर्थ नहीं जो हमे वेदांे, पुराणों, रामायण, महाभारत, गौतमबुद्ध, भगवान महावीर स्वामी, शंकराचार्य, गुरूनानक, महाराणा प्रताप, शिवाजी महाराज, स्वामी दयानन्द, लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, पण्डित दीनदयाल उपाध्याय और असंख्य अन्य राष्ट्रीय अधिनायकों से अलग करता हो। यह राष्ट्रवाद ही हमारा धर्म है।

संप्रति
सहायक प्राध्यापक
माखनलाल चतुर्वेदी
राष्ट्री य पत्रकारिता एवं संचार विश्वेविद्यालयए नोएडा
मोबाइल 8750820740





Tuesday, January 10, 2017

स्वामी विवेकानंद से प्रेरणा लें युवा

राष्ट्रीय युवा दिवस 12 जनवरी पर विशेष 
-डॊ.सौरभ मालवीय
युवा शक्ति देश और समाज की रीढ़ होती है. युवा देश और समाज को नए शिखर पर ले जाते हैं. युवा देश का वर्तमान हैं, तो भूतकाल और भविष्य के सेतु भी हैं. युवा देश और समाज के जीवन मूल्यों के प्रतीक हैं.  युवा गहन ऊर्जा और उच्च महत्वकांक्षाओं से भरे हुए होते हैं. उनकी आंखों में भविष्य के इंद्रधनुषी स्वप्न होते हैं. समाज को बेहतर बनाने और राष्ट्र के निर्माण में सर्वाधिक योगदान युवाओं का ही होता है. देश के स्वतंत्रता आंदोलन में युवाओं ने अपनी शक्ति का परिचय दिया था. परंतु देखने में आ रहा है कि युवाओं में नकारात्मकता जन्म ले रही है.  उनमें धैर्य की कमी है. वे हर वस्तु अति शीघ्र प्राप्त कर लेना चाहते हैं. वे आगे बढ़ने के लिए कठिन परिश्रम की बजाय शॊर्टकट्स खोजते हैं. भोग विलास और आधुनिकता की चकाचौंध उन्हें प्रभावित करती है. उच्च पद, धन-दौलत और ऐश्वर्य का जीवन उनका आदर्श बन गए हैं. अपने इस लक्ष्य को प्राप्त करने में जब वे असफल हो जाते हैं, तो उनमें चिड़चिड़ापन आ जाता है. कई बार वे मानसिक तनाव का भी शिकार हो जाते हैं. युवाओं की इस नकारत्मकता को सकारत्मकता में परिवर्तित करना होगा. उन्हें स्वामी विवेकानंद से प्रेरणा लेनी होगी. उल्लेखनीय है कि 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता के कायस्थ परिवार में जन्मे स्वामी विवेकानन्द ने अमेरिका के शिकागो में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन में हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व कर उसे सार्वभौमिक पहचान दिलाई. गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने उनके बारे में कहा था-"यदि आप भारत को जानना चाहते हैं, तो विवेकानन्द को पढ़िये. उनमें आप सब कुछ सकारात्मक ही पाएंगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं."

स्वामी विवेकानन्द के बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था. उनके पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता उच्च न्यायालय के एक प्रसिद्ध अधिवक्ता थे.  उनकी माता भुवनेश्वरी देवी धार्मिक विचारों की घरेलू महिला थीं. वह बाल्यावस्था से ही कुशाग्र बुद्धि के थे. उनके घर में नियमपूर्वक प्रतिदिन पूजा-पाठ होता था. साथ ही नियमित रूप से भजन-कीर्तन भी होता रहता था. परिवार के धार्मिक वातावरण का उन पर भी प्रभाव गहरा पड़ा. वह वे अपने गुरु रामकृष्ण देव से अत्यधिक प्रभावित थे. उन्होंने अपने गुरु से ही यह ज्ञान प्राप्त किया कि समस्त जीव स्वयं परमात्मा का ही अंश हैं, इसलिए मानव जाति की सेवा द्वारा परमात्मा की भी सेवा की जा सकती है.

स्वामी विवेकानन्द के जन्म दिवस पर अर्थात 12 जनवरी को प्रतिवर्ष राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है. उल्लेखनीय है कि विश्व के अधिकांश देशों में कोई न कोई दिन युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है. संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्णयानुसार वर्ष 1985 को अंतरराष्ट्रीय युवा वर्ष घोषित किया गया.  पहली बार वर्ष 2000 में अंतरराष्ट्रीय युवा दिवस का आयोजन आरंभ किया गया था. संयुक्त राष्ट्र ने 17 दिसंबर 1999 को प्रत्येक वर्ष 12 अगस्त को अंतरराष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की थी. अंतरराष्ट्रीय युवा दिवस मनाने का अर्थ है कि सरकार युवा के मुद्दों और उनकी बातों पर ध्यान आकर्षित करे. भारत में इसका प्रारंभ वर्ष 1985 से हुआ, जब सरकार ने स्वामी विवेकानन्द के जन्म दिवस पर अर्थात 12 जनवरी को प्रतिवर्ष राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की. युवा दिवस के रूप में स्वामी विवेकानन्द का जन्मदिवस चुनने के बारे में सरकार का विचार था कि स्वामी विवेकानन्द का दर्शन एवं उनका जीवन भारतीय युवकों के लिए प्रेरणा का बहुत बड़ा स्रोत हो सकता है. इस दिन देश भर के विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में कई प्रकार के कार्यक्रम होते हैं, रैलियां निकाली जाती हैं, विभिन्न प्रकार की स्पर्धाएं आयोजित की जाती है, व्याख्यान होते हैं तथा विवेकानन्द साहित्य की प्रदर्शनियां लगाई जाती हैं.
स्वामी विवेकानंद ने युवाओं का आह्वान करते हुए कठोपनिषद का एक मंत्र कहा था-
 'उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।'
अर्थात उठो, जागो और तब तक मत रुको, जब तक कि अपने लक्ष्य तक न पहुंच जाओ.'

भारत एक विकासशील और बड़ी जनसंख्या वाला देश है. यहां आधी जनसंख्या युवाओं की है. देश की लगभग 65 प्रतिशत जनसंख्या की आयु 35 वर्ष से कम है. संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत सबसे बड़ी युवा आबादी वाला देश है. यहां के लगभग 60 करोड़ लोग 25 से 30 वर्ष के हैं. यह स्थिति वर्ष 2045 तक बनी रहेगी. विश्व की लगभग आधी जनसंख्या 25 वर्ष से कम आयु की है. अपनी बड़ी युवा जनसंख्या के साथ भारत अर्थव्यवस्था नई ऊंचाई पर जा सकता है. परंतु इस ओर भी ध्यान देना होगा कि आज देश की बड़ी जनसंख्या बेरोजगारी से जूझ रही है. भारतीय संख्यिकी विभाग द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार देश में बेरोजगारों की संख्या लगातार बढ़ रही है. देश में बेरोजगारों की संख्या 11.3 करोड़ से अधिक है. 15 से 60 वर्ष आयु के 74.8 करोड़ लोग बेरोजगार हैं, जो काम करने वाले लोगों की संख्या का  15 प्रतिशत है. जनगणना में बेरोजगारों को श्रेणीबद्ध करके गृहणियों, छात्रों और अन्य में शामिल किया गया है. यह अब तक बेरोजगारों की सबसे बड़ी संख्या है. वर्ष 2001 की जनगणना में जहां 23 प्रतिशत लोग बेरोजगार थे, वहीं 2011 की जनगणना में इनकी संख्या बढ़कर 28 प्रतिशत हो गई. बेरोजगार युवा हताश हो जाते हैं. ऐसी स्थिति में युवा शक्ति का अनुचित उपयोग किया जा सकता है. हताश युवा अपराध के मार्ग पर चल पड़ते हैं. वे नशाख़ोरी के शिकार हो जाते हैं और फिर अपनी नशे की लत को पूरा करने के लिए अपराध भी कर बैठते हैं. इस तरह वे अपना जीवन नष्ट कर लेते हैं. देश में हो रही 70 प्रतिशत आपराधिक गतिविधियों में युवाओं की संलिप्तता रहती है.

युवाओं के उचित मार्गदर्शन के लिए अति आवश्यक है कि उनकी क्षमता का सदुपयोग किया जाए.  उनकी सेवाओं को प्रौढ़ शिक्षा तथा अन्य सराकारी योजनाओं के तहत चलाए जा रहे अभियानों में प्रयुक्त किया जा सकता है. वे सरकार द्वारा सुनिश्चित लक्ष्यों की प्राप्ति के दायित्व को वहन कर सकते हैं. तस्करी, काला बाजारी, जमाखोरी जैसे अपराधों पर अंकुश लगाने में उनकी सेवाएं ली जा सकती हैं. युवाओं को राष्ट्र निर्माण के कार्य में लगाया जाए. राष्ट्र निर्माण का कार्य सरल नहीं है. यह दुष्कर कार्य है. इसे एक साथ और एक ही समय में पूर्ण नहीं किया जा सकता. यह चरणबद्ध कार्य है. इसे चरणों में विभाजित किया जा सकता है. युवा इस श्रेष्ठ कार्य में अपनी क्षमता और योग्यता के अनुसार भाग ले सकते हैं. ऐसी असंख्य योजनाएं, परियोजनां और कार्यक्रम हैं, जिनमें युवाओं की सहभागिता सुनिश्चत की जा सकती है. युवा समाज में समाजिक, आर्थिक और नवनिर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. वे समाज में प्रचलित कुप्रथाओं और अंधविश्वास को समाप्त करने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं. देश में दहेज प्रथा के कारण न जाने कितनी ही महिलाओं पर अत्याचार किए जाते हैं, यहां तक कि उनकी हत्या तक कर दी जाती है. महिलाओं के प्रति यौन हिंसा से तो देश त्रस्त है. नब्बे साल की वॄद्धाओं से लेकर कुछ दिन की मासूम बच्चियों तक से दुष्कर्म कर उनकी हत्या कर दी जाती है. डायन प्रथा के नाम पर महिलाओं की हत्याएं होती रहती हैं. अंधविश्वास में जकड़े लोग नरबलि तक दे डालते हैं. समाज में छुआछूत, ऊंच-नीच और जात-पांत की खाई भी बहुत गहरी है. दलितों विशेषकर महिलाओं के साथ अमानवीयता व्यवहार की घटनाएं भी आए दिन देखने और सुनने को मिलती रहती हैं, जो सभ्य समाज के माथे पर कलंक समान हैं. आतंकवाद के प्रति भी युवाओं में जागृति पैदा करने की आवश्यकता है. भविष्य में देश की लगातार बढ़ती जनसंख्या का पेट भरने के लिए अधिक खाद्यान्न की आवश्यकता होगी. कृषि में उत्पादन के स्तर को उन्नत करने से संबंधित योजनाओं में युवाओं को लगाया जा सकता है. इससे जहां युवाओं को रोजगार मिलेगा, वहीं देश और समाज हित में उनका योगदान रहेगा.

यदि युवाओं को कोई उपयुक्त कार्य नहीं दिया गया, तब मानव संसाधनों का भारी राष्ट्रीय क्षय होगा. उन्हें किसी सकारात्मक कार्य में भागीदार बनाया जाना चाहिए. यदि इस मानव शक्ति की क्रियाशीलता को देश की विकास परियोजनाओं में प्रयुक्त किया जाए, तो यह अद्भुत कार्य कर सकती है. जब भी किसी चुनौती का सामना करने के लिए देश के युवाओं को पुकारा गया, तो वे पीछे नहीं रहे. प्राकृतिक आपदाओं के समय युवा आगे बढ़कर अपना योगदान देते हैं, चाहे भूकंप हो या बाढ़. युवाओं ने सदैव पीड़ितों की सहायता में दिन-रात परिश्रम किया. युवा देश के विकास का एक महत्वपूर्ण अंग है. युवाओं को देश के विकास के लिए अपना सक्रिय योगदान प्रदान करना चाहिए. समाज को बेहतर बनाने और राष्ट्र निर्माण के कार्यों में युवाओं को सम्मिलित करना अति महत्वपूर्ण है तथा इसे यथाशीघ्र एवं व्यापक स्तर पर किया जाना चाहिए.
महादेवी वर्मा के शब्दों में- ‘‘बलवान राष्ट्र वही होता है,जिसकी तरुणाई सबल होती है, जिसमें मृत्यु को वरण करने की क्षमता होती है, जिसमें भविष्य के सपने होते हैं और कुछ कर गुजरने का जज्बा होता है, वही तरुणाई है.’’