Monday, February 10, 2025

विराट सांस्कृतिक चेतना की पुनर्स्थापना का संकल्प : एक भारत श्रेष्ठ भारत


डॉ. सौरभ मालवीय
भारत एक विशाल राष्ट्र है। इसका निर्माण सनातन संस्कृति से हुआ है। अनेक संस्कृतियां भारत रूपी गुलदान में विभिन्न प्रकार के पुष्पों की भांति रही हैं। इसका अर्थ यह है कि इन विभिन्न संस्कृतियों, भाषाओं, धर्मों एवं पंथों आदि ने इस देश के सांस्कृतिक सौन्दर्य में वृद्धि की है। यहां विविधता में भी एकता है। भारत शान्ति- प्रिय देश है। यह अहिंसा में विश्वास रखता है। परन्तु देश में गुलामी एवं संघर्षों के बाद आजादी से लेकर एक लंबे कालखंड तक ‘बांटो और राज करो’ की नीति पर चलते हुए समाज, जाति, पंथ, मत, मजहब, खान-पान, वेशभूषा आदि के आधार पर विभाजन जारी रहा। इसके परिणाम स्वरूप देश की सांस्कृतिक प्रतिष्ठा पर गंभीर कुठाराघात हुआ। भारत में हिंदूकुश से हिंद महासागर तक फैली हुई सांस्कृतिक एकता छिन्न-भिन्न हो गई और इसका लाभ देशद्रोही शक्तियों ने उठाया।
 
केंद्र की भाजपा सरकार देश को सांस्कृतिक रूप से सुदृढ़ करना चाहती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लौह पुरुष नाम से विख्यात सरदार वल्लभ भाई पटेल के 140वें जन्मदिन के अवसर पर 31 अक्टूबर, 2015 को शिक्षा मंत्रालय के अंतर्गत ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ पहल की घोषणा की थी। इस योजना की प्रेरणा सरदार वल्लभ भाई पटेल के जीवन दर्शन से ली गई है। देश की स्वतंत्रता और इसे गणराज्य बनाने में सरदार वल्लभ भाई पटेल की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है, जिसे भुलाया नहीं जा सकता है। उन्होंने स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान देश के विभिन्न राजघरानों को भारत से पृथक न होकर इसमें सम्मिलित होने के लिए तैयार किया था। उनकी सदैव से ही अभिलाषा थी कि एक भारत श्रेष्ठ भारत का निर्माण हो। उन्होंने आजीवन देश की एकता और अखंडता के लिए कार्य किया। उनका कहना था कि एकता के बिना जनशक्ति शक्ति नहीं है जब तक उसे ठीक तरह से सामंजस्य में ना लाया जाए और एकजुट ना किया जाए और तब यह आध्यात्मिक शक्ति बन जाती है। वे यह भी कहते थे कि यह हर एक नागरिक की जिम्मेदारी है कि वह यह अनुभव करे कि उसका देश स्वतंत्र है और उसकी स्वतंत्रता की रक्षा करना उसका कर्तव्य है। हर एक भारतीय को अब यह भूल जाना चाहिए कि वह एक राजपूत है, एक सिख या जाट है या अन्य कुछ है। उसे यह याद होना चाहिए कि वह एक भारतीय है और उसे इस देश में हर अधिकार है, पर कुछ जिम्मेदारियां भी हैं। वे कहते थे कि इस मिट्टी में कुछ अनूठा है, जो कई बाधाओं के बावजूद हमेशा महान आत्माओं का निवास रहा है।
 
इस योजना का उद्देश्य विभिन्न राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की संस्कृति, परंपराओं और प्रथाओं का ज्ञान इस रचनात्मक कदम के परिणामस्वरूप राज्यों के बीच बेहतर समझ और बंधन को बढ़ावा देना है, जिससे भारत की एकता और अखंडता में वृद्धि हो। इस कार्यक्रम के माध्यम से विभिन्न राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की संस्कृति, आदतों और परंपराओं का साझा ज्ञान राज्यों के बीच संबंध और समझ को बढ़ाकर देश की एकता और अखंडता में सुधार करना है। अंतर- सांस्कृतिक संपर्क से देश के सभी नागरिकों के बीच 'एक राष्ट्र' की भावना पैदा करने में मदद मिलेगी।
 
वास्तव में ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत अभियान’ संपूर्ण देश को एक दूसरे के साथ पुनः जोड़कर एक विराट सांस्कृतिक चेतना के पुनर्स्थापना का अभियान है। भारत की सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि स्वयं में एक बहुलतावादी विचारों की समष्टि है। यही कारण है कि एक ही भगवान राम को अयोध्या में रामलला के रूप में तो कर्नाटक में कोदंडराम अर्थात धनुषधारी के रूप में पूजा जाता है। मथुरा के कान्हा, द्वारका में द्वारकाधीश, मराठों में गर्वीले विठोवा, पुरी में जगन्नाथ जी तो राजपुताने में श्रीनाथ जी के रूप में पूजित हैं। जिस समाज ने जैसी दृष्टि से देखा वैसी ही सृष्टि का सृजन किया, यही भारतीय सांस्कृतिक चेतना की बहुलतावादी दृष्टि के एकत्व का स्वरूप है। एक भारत श्रेष्ठ भारत के माध्यम से हम पुनः एक ऐसे ही समष्टि की स्थापना करने जा रहे हैं।
 
इस कार्यक्रम के माध्यम से एक श्रेष्ठ भारत की परिकल्पना की गई है। एक ऐसे राष्ट्र के रूप में भारत के विचार का जश्न मनाना है, जिसमें विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों की विभिन्न सांस्कृतिक इकाइयां एकजुट होती हैं और एक- दूसरे के साथ बातचीत करती हैं। विविध भाषाओं, व्यंजनों, संगीत, नृत्य, रंगमंच, फिल्मों, हस्तशिल्प, खेल, साहित्य, त्योहारों, चित्रकला, मूर्तिकला आदि की यह शानदार अभिव्यक्ति लोगों को बंधन और भाईचारे की सहज भावना को आत्मसात करने में सक्षम बनाएगी। हमारे लोगों को विशाल भूभाग में फैले आधुनिक भारतीय राज्य के निर्बाध अभिन्न अंग के बारे में जागरूक करना, जिसकी मजबूत नींव पर देश की भू-राजनीतिक ताकत से सभी को लाभ सुनिश्चित होता है। विभिन्न संस्कृतियों और परंपराओं के घटकों के बीच बढ़ते अंतर-संबंध के बारे में बड़े पैमाने पर लोगों को प्रभावित करना, जो राष्ट्र-निर्माण की भावना के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।  इन घनिष्ठ अंतर- सांस्कृतिक अंतःक्रियाओं के माध्यम से समग्र रूप से राष्ट्र के लिए जिम्मेदारी और स्वामित्व की भावना पैदा करना, क्योंकि इसका उद्देश्य स्पष्ट रूप से अंतर- निर्भरता मैट्रिक्स का निर्माण करना है। एक ही समय में राष्ट्र की विविधता और एकता का जश्न मनाना है। लोगों के बीच समझ और प्रशंसा की भावना पैदा करना और राष्ट्र में एकता की एक समृद्ध मूल्य प्रणाली को सुरक्षित करने के लिए आपसी संबंध बनाना है।
 
 ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ कार्यक्रम के अंतर्गत अनेक गतिविधियां की जाती हैं। इसके अंतर्गत पांच पुरस्कार विजेता पुस्तकों और कविता, लोकप्रिय लोकगीतों का एक भाषा से भागीदार राज्य की भाषा में अनुवाद किया गया है। साझेदार राज्यों की पाक पद्धतियों को सीखने के लिए पाक कार्यक्रम आयोजित किए गए हैं। साझेदार राज्यों से आने वाले आगंतुकों के लिए होमस्टे की व्यवस्था की गई है। पर्यटकों के लिए राज्य दर्शन की सुविधा उपलब्ध करवाई गई है। अन्य राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की पारंपरिक पोशाक को स्वीकार करना भी इसमें सम्मिलित है। भागीदार राज्यों के साथ पारंपरिक कृषि पद्धतियों जैसी सूचनाओं का आदान-प्रदान किया जा रहा है।
 
किसी भी भू-भाग अथवा देश की विभिन्न संस्कृतियों को एक सूत्र में बांधे रखने का कार्य आपसी प्रेम, सद्भाव एवं भाईचारे की भावना से ही संभव है। भारत में एक हजार से भी अधिक भाषाएं और बोलियां हैं। यहां कुछ कोस की दूरी पर बोली बदल जाती है। भाषाएं ही नहीं, अपितु यहां अनेक धर्म भी हैं। यहां विभिन्न धर्मों को मानने वाले लोग रहते हैं। इनकी संस्कृति, सभ्यता, रीति-रिवाज, भाषा, व्यंजन, वेशभूषा आदि भी एक-दूसरे से भिन्न है, परन्तु सब मिलजुल कर रहते हैं। एक-दूसरे के त्योहारों में सम्मिलित होते हैं। ऐसा करना आवश्यक भी है, क्योंकि एक दूसरे से मिलने जुलने से ही उन्हें समझने का अवसर प्राप्त होता है। देश को श्रेष्ठ भारत बनाने के लिए सभी देशवासियों का सहयोग आवश्यक है। विविधता में एकता के लिए आवश्यक है कि विभिन्न संस्कृतियों के लोग आपस में मिलजुल कर रहें। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि हम एक दूसरे की आस्थाओं एवं उनकी धार्मिक मान्यताओं का सम्मान करें। जब हम सामने वाले की आस्था का सम्मान करेंगे, तो वह भी हमारी आस्था का सम्मान करेगा। ऐसा करने से आपपास में प्रेम और सद्भाव की भावना उत्पन्न होगी। सरकार की इस योजना के माध्यम से देशवासियों के मन में अपने- अपने धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्म के लोगों के प्रति भी प्रेम एवं सम्मान की भावना विकसित हो सकेगी।
नि:संदेह आज के समय में ऐसी योजनाओं की अत्यधिक आवश्यकता है।

भारतीय संस्कृति में जीवन मूल्य

डॉ . सौरभ मालवीय 
भारत विश्व का एकमात्र ऐसा देश है, जहां की संस्कृति सबसे प्राचीन है। जिस समय विश्व के अनेक देश असभ्य थे, उस समय भी भारत की संस्कृति अपने उच्च स्थान पर विराजमान थी। भारत एक ऐसा देश है, जहां कण-कण का महत्त्व है। यहां के लोगों की मान्यता है कि कण-कण में ईश्वर का वास है। यहां पर्वतों, वृक्षों, पौधों, नदियों, कुंओं एवं पशुओं आदि को पूजा जाता है। यहां पूर्वजों को पूजने की परम्परा है। उनके चरण स्पर्श करके उनका आशीर्वाद प्राप्त किया जाता है। नारी को शक्ति का प्रतीक माना जाता है। नारी को लक्ष्मी का रूप माना जाता है। कन्याओं को देवी मानकर नवरात्रि में उनकी पूजा की जाती है। ये सब संस्कारों के कारण ही होता है। मनुष्य के जैसे संस्कार होते हैं वह उन्हीं के अनुसार व्यवहार करता है।
 
वास्तव में हमारी प्राचीन गौरवशाली संस्कृति में संस्कारों का विशेष महत्त्व है। बालकों को बाल्यकाल से ही संस्कार दिए जाते हैं, जो उनके मन एवं मस्तिष्क में रच बस जाते हैं। उदाहरण के लिए ‘मातृवत् परदारेषु’ अर्थात् पराई स्त्री को मां के समान समझो। यह एक अति उत्तम संस्कार है। ऐसे संस्कारों से उनके चरित्र का निर्माण होता है। वे अपने परिवार की महिलाओं के साथ-साथ अन्य महिलाओं का भी मान-सम्मान करते हैं। उनके लिए उनके मन में आदर और सत्कार का भाव पैदा होता है। ऐसी स्थिति में वे वासना जैसे अवगुण से बचे रहते हैं। इसी प्रकार बालकों को सिखाया जाता है कि ‘परद्रव्याणि लोष्ठवत्’ अर्थात् दूसरे के धन को मिट्टी के समान समझो। ऐसे उत्तम संस्कार के कारण उनके मन में लालच उत्पन्न नहीं होता तथा वह परोपकारी बन जाते हैं। इसी प्रकार उन्हें सिखाया जाता है कि ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ अर्थात् सभी को अपने समान या अपनी आत्मा से जुड़ा समझो। इस संस्कार के कारण समस्त प्राणियों के लिए उनके मन में दया भाव पैदा होता है। इसी प्रकार ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ सनातन धर्म का मूल संस्कार है। यह महा उपनिषद सहित अनेक ग्रन्थों में लिखा हुआ है। इसका अर्थ है कि धरती ही परिवार है। इस संस्कार के कारण व्यक्ति पूरे विश्व को अपना परिवार मानता है तथा इसमें निवास करने वाले सभी मानवों के प्रति वह बन्धुत्व की भावना रखता है।
  
वास्तव में किसी भी समाज को चिरस्थायी प्रगत और उन्नत बनाने के लिए कोई न कोई व्यवस्था देनी ही पड़ती है और संसार के किसी भी मानवीय समाज में इस विषय पर भारत से अधिक चिंतन नहीं हुआ है। कोई भी समाज तभी महान बनता है, जब उसके अवयव श्रेष्ठ हों। उन घटकों को श्रेष्ठ बनाने के लिए यह अत्यावश्यक है कि उनमें दया, करुणा, आर्जव, मार्दव, सरलता, शील, प्रतिभा, न्याय, ज्ञान, परोपकार, सहिष्णुता, प्रीति, रचनाधर्मिता, सहकार, प्रकृति प्रेम, राष्ट्रप्रेम एवं अपने महापुरुषों आदि के प्रति अगाध श्रद्धा हो। मनुष्य में इन्हीं सारे सद्गुणों के आधार पर जो समाज बनता है, वह चिरस्थायी होता है। यह एक महत्वपूर्ण चिंतनीय विषय सहस्रों वर्ष पूर्व से मानव के सम्मुख था कि आखिर किस विधि से सारे उत्तम गुणों का आह्वान एक-एक व्यक्ति में किया जाए कि यह समाज राष्ट्र और विश्व महान बन सके।
संस्कार क्या है?
संस्कार शब्द का मूल अर्थ है- शुद्धीकरण अर्थात् संस्कार शुद्धीकरण की एक प्रक्रिया है। इसे इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि किसी दोषयुक्त वस्तु को दोष रहित करना ही संस्कार है अर्थात् जिस प्रक्रिया से वस्तु को दोष रहित किया जाए, उसमें अतिशय का आदान करना ही ‘संस्कार’ कहलाता है। संस्कार मन:शोधन की एक प्रक्रिया है। संस्कार को सजावट से जोड़कर भी देखा जा सकता है अर्थात् किसी वस्तु को सजाना ही संस्कार है। संस्कार ही मनुष्य को देव तुल्य बनाते हैं। संस्कारवान मनुष्य मान-सम्मान एवं यश प्राप्त करता है।  
 
गौतम धर्मसूत्र के अनुसार- “संस्कार उसे कहते हैं, जिससे दोष हटते हैं और गुणों की वृद्धि होती है।“
मनु स्मृति के अनुसार-
वैदिकै: कर्ममि: पुण्यैनिषेकादिद्वि जन्मानाम ।
कार्य: शरीर संस्कार: पावन: प्रेत्य चेह च ।।
अर्थात् मनुष्य के जीवन को नियमित पवित्र एवं गुणवान बनाने के लिए भारतीय वैदिक ऋषियों ने जीवन को धार्मिक कृत्यों से संबद्ध कर दिया है। मानव के जन्म से पूर्व से मृत्यु के पश्चात तक होने वाले धार्मिक कृत्यों को संस्कार कहा जाता है।         
 
आयुर्वेद के जनक महर्षि आचार्य चरक के अनुसार-
संस्कारोहि गुणान्तराधानम् उच्चते ।
अर्थात् यह प्रभाव भिन्न है। मनुष्य के दुर्गुणों को निकाल कर उसमें सद्गुण आरोपित करने की प्रक्रिया का नाम संस्कार है।
 
अंगिरा ऋषि के अनुसार-
चित्रकर्म यथाडेनेकैरंगैसन्मील्यते षनैः।
ब्राह्ण्यमपि तद्वास्थात्संस्कारैर्विधिपूर्व कैः।।
अर्थात् जिस प्रकार किसी चित्र में विविध रंगों के योग से शनै- शनै निखार लाया जाता है, उसी प्रकार विधिपूर्वक संस्कारों के सम्पादन से मनुष्य को ब्रह्ण्यता प्राप्त होती है।
 
पद्मपुराण में भगवान वेद व्यास मानवीय संस्कारों के महत्वपूर्ण तत्वों का उल्लेख करते हुए कहते हैं-
न चात्मानं प्रशंसेद्वा परनिन्दां च वर्जयेत्।
वेदनिन्दां देवनिन्दां प्रयन विवर्जयेत्।।
अर्थात् स्वयं की प्रशंसा करने वाला, भगवान की निंदा करने वाला, वेदों को न मानने वाला व इसकी निंदा करने वाला तथा दूसरों की सदैव निंदा करने वाले का शीघ्र ही विनाश हो जाता है।
 
प्राचीन गौरवशाली भारत के ऋषि-मुनियों के अनुसार जीवात्मा अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के आधार पर ही नई योनि में जन्म लेती है आर्थात पूर्व जन्म के संस्कारों के अनुरूप ही जीव नया शरीर धारण करता है। इसलिए जीवात्मा सर्वथा संस्कारों की दास होती है। मीमांसा दर्शनकार के अनुसार- कर्मबीज संस्कार: । अर्थात् संस्कार ही कर्म का बीज है तथा ‘तन्न्मित्ता सृष्टि:’ अर्थात् वही सृष्टि का आदि कारण है।
 
भारतीय ऋषियों ने इस संबंध में गहन चिंतन-मनन किया। आयुर्वेद के वंदनीय पुरुष आचार्य चरक कहते हैं-
संस्कारोहि गुणान्तरा धानमुच्चते
अर्थात् यह प्रभाव भिन्न है। मनुष्य के दुर्गुणों को निकाल कर उसमें सद्गुण आरोपित करने की प्रक्रिया का नाम संस्कार है।
राजबली पाण्डेय के अनुसार- “वास्तव में संस्कार-व्यंजक तथा प्रतीकात्मक अनुष्ठान है। उनमें बहुत से अभिनयात्मक उद्गार और धर्म, वैज्ञानिक मुद्रायें एवं इंगित पाई जाती है।"
आचार्य जैमिनी के अनुसार- " संस्कार वह प्रक्रिया है जिसके करने से पदार्थ या व्यक्ति किसी कार्य को करने के योग्य हो जाता है।"
 
वास्तव में संस्कार मानव जीवन को परिष्कृत करने वाली एक आध्यात्मिक विधा है। संस्कारों से संपन्न होने वाला मानव सुसंस्कृत, चरित्रवान, सदाचारी और प्रभुपरायण हो सकता है अन्यथा कुसंस्कार जन्य चारित्रिक पतन ही मनुष्य और समाज को विनाश की ओर ले जाता है। वही संस्कार युक्त होने पर सबका लौकिक और पारलौकिक अभ्युदय सहज सिद्ध हो जाता है। संस्कार सदाचरण और शास्त्रीय आचार के घटक होते हैं। संस्कार, सुविचार और सदाचार के नियामक होते हैं। इन्हीं तीनों की सुसंपन्नता से मानव जीवन को अभिष्ट लक्ष्य की प्राप्ति होती है। भारतीय संस्कृति में संस्कारों का महत्व सर्वोपरि माना गया है, इसी कारण गर्भाधान से मृत्यु पर्यंत मनुष्य पर सांस्कारिक प्रयोग चलते ही रहते हैं। इसलिए भारतीय संस्कृति सदाचार से अनुप्रमाणित रही है। प्राकृतिक पदार्थ भी जब बिना सुसंस्कृत किए प्रयोग के योग्य नहीं बन पाते हैं, तो मानव के लिए संस्कार कितना आवश्यक है यह समझ लेना चाहिए। जब तक मानव बीज रूप में है तभी से उसके दोषों का अहरण नहीं कर लिया जाता, तब तक वह व्यक्ति आर्षेय नहीं बन पाता है और वह मानव जीवन से राष्ट्रीय जीवन में कहीं भी हव्य-कव्य देने का अधिकारी भी नहीं बन पाता। मानव जीवन को पवित्र चमत्कारपूर्ण एवं उत्कृष्ट बनाने के लिए संस्कार अत्यावश्यक हैं। गहरे अर्थों में संस्कार धर्म और नीति समवेत हो जाते हैं। इसीलिए संस्कार की ठीक-ठाक परिभाषा कर पाना सम्भव ही नहीं है। संस्कार शब्दातीत हो जाते हैं, क्योंकि वहां व्यक्ति क्रिया और परिणाम में केवल परिणाम ही बच जाता है। व्यक्ति के अहंकारों का क्रिया में लोप हो जाता है। एक तरह से व्यक्ति मिट ही जाता है तो जब व्यक्ति मिट ही जाता है, तो परिभाषा कौन करेगा। अब वह व्यक्ति समष्टि बन जाता है। वह निज के सुख- दुख हानि- लाभ, जीवन- मरण, यश अपयश के बारे में काम चलाऊ से अधिक विचार ही नहीं करता। उसका तो आनंद परहित परोपकार और समाज एवं सृष्टि को संवारने में ही निहित हो जाता है और संस्कारों की उपर्युक्त क्रिया ही चरित्र, सदाचार, शील, संयम, नियम, ईश्वर प्रणिधान, स्वाध्याय, तप, तितिक्षा, उपरति इत्यादि के रूप में फलित होती है।
 
संस्कारों से अनुप्राणित व्यक्ति की सत्य की खोज एक सनातन यात्रा बन जाती है। और वह प्राप्त सत्य केवल एक भीतरी आनंद देता है, जिसकी ऊर्जा से आपलावित होकर व्यक्ति समाज और मानवता के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देता है। उस सत्य की व्याख्या नहीं की जा सकती। उसे केवल अनुभव किया जा सकता है, क्योंकि वे शब्द छोटे पड़ जाते और जो अनुभूति है वह इतनी विराट है कि अनादि, अनंत। इस अनंत को मानव शब्दों में कैसे पकड़ सकता है, वहां तो सबकुछ अद्वैत हो जाता है। ‘नारद भक्ति सूत्र’ में आता है कि सत्य एक है, वह अद्वैत है। साधारण ढंग से देखने पर दर्शक, दृश्य और द्रष्टा या ज्ञाता ज्ञेय और ज्ञान तीन दिखाई देते हैं। थोड़ी और गहराई में दो ही बच जाते हैं, परन्तु सत्य तो यह है कि वह केवल अद्वैत है। वहां ज्ञाता और ज्ञेय दोनों मिट जाते हैं। केवल ज्ञान बच जाता है।
तस्या ज्ञान मेव साधनमृत्यके
(नारद भक्ति सूत्र 28)
यह संस्कार वही ज्ञान है, इस त्रिभंग से मुक्त होना ही संस्कार का परिणाम है। ऊपरी तौर पर भी हिन्दू संस्कृति ने इसकी बड़ी सुंदर व्यवस्था रखी ही है। कुंभ मेले में अमृत रसपान हेतु लाखों लोग लाखों वर्षों से एकत्र होते रहते हैं। वहां भी वे दृश्य गंगा और यमुना में स्नान करते हैं, लेकिन अनुभूति तो अदृश्य सरस्वती की होती है। यह सरस्वती ही ज्ञान है। यही संस्कार का सुफल है। यह सरस्वती दृश्यमान नहीं है। अनुभूति जन्य है। इस सरस्वती को व्याख्यायित करना संभव ही नहीं है, केवल कुछ लक्षणों को पकड़ा जा सकता है। यह अद्भुत प्रेम है, जिसमें प्रेमी और प्रेयसी दोनों डूब जाते हैं। केवल प्रेम बच जाता है। यह प्रेम केवल करने से समझ में आता है। शब्दों से इसका स्वाद नहीं मिल पाएगा।
 
प्रेमैव कार्यम् प्रेमैव कार्यम्।।
यही संस्कार है। यूं तो प्रत्येक समाज अपने घटकों को सुसंस्कारित करने का प्रयास करता है। उसके लिए आदर्श भी रखता है। संस्कार की परिधि इतनी व्यापक है कि उसमें श्वास प्रश्वास से लेकर प्रत्येक कर्म समाविष्ट है।
ब्राह्सस्कारसंसकृतः ऋषीणां समानतां सामान्यतां
समानलोकतां सामयोज्यतां गच्छति
दैवेनोत्तरेण संस्कारेणानुसंस्कृतो देवानां समानतां
समानलोकतां सायोज्यतां च गच्छति
(हारित संहिता)
संस्कारों से संस्कृत व्यक्ति ऋषियों के समान पूज्य तथा ऋषि तुल्य हो जाता है। वह ऋषि लोक में निवास करता है तथा ऋषियों के समान शरीर प्राप्त करता है और पुनः अग्निष्टोमादि दैवसंस्कारों से अनुसंस्कृत होकर वह देवताओं के समान पूज्य एवं देव तुल्य हो जाता है। वह देवलोक में निवास करता है और देवताओं के समान शरीर को प्राप्त करता है।
अव्याकृत किंतु अनुभव गम्य संस्कारों के फूल जिसके हृदय में खिले हैं और जिसकी पवित्र सुगंध वातावरण को मुग्धकारी बना देती है उन ऋषियों ने लोक कल्याण हेतु संस्कारों के लक्षण कहने का प्रयास किया है। यद्यपि वे अनुभोक्ता अपने आनन्द को शब्दों में परिभाषित तो नहीं कर सकते। फिर भी कुछ संकेत उन्होंने उसी दिशा में दिए हैं, जिससे प्राणी मात्र उसी का अनुसरण कर अपना लौकिक और पारलौकिक उन्नयन कर सके।
 
संस्कृतस्य हि दान्तस्य नियतस्य यतात्मनः
प्राज्ञस्यानन्तरा सिद्धिरिहलोके परत च।।
(महाभारत)
जिसके वैदिक संस्कार विधिवत् सम्पन्न हुए हैं, जो नियमपूर्वक रहकर मन औैर इन्द्रियों पर विजय पा चुका है, उस विज्ञ पुरुष को इहलोक और परलोक में कहीं भी सिद्धि प्राप्त होते देर नहीं लगती।
 
संस्कारों से ही मानव के आचरण पवित्र होते हैं।
आचारः परमो धर्मः सर्वेषामिति निश्चयः
हीनाचारी पवित्रात्मा प्रेत्य चेह विनश्यति।।
 
सभी शास्त्रों का यह निश्चित मत है कि आचार ही सर्वश्रेष्ठ धर्म है। आचारहीन पुरुष यदि पवित्रात्मा भी हो तो उसका परलोक और इहलोक दोनों नष्ट हो जाते हैं।
 
संस्कारों के प्रयोजन पर विचार करने से यह स्पष्ट होता है कि यही एक माध्यम है जब हम परम सत्य की अनुभूति को कल्याणकारी और लोकरंजक बना सकते हैं।
उपायः सोडवताराय
(मांडूक्यकारीका)
सत्यं शिवं सुंदरम् में मनोयोग ही सृष्टि का प्रयोजन है और इस परम प्राप्ति का एकमेव कारण संस्कार है।
 
संस्कार कितने हैं? 
हिन्दू धर्म में संस्कारों का अत्यधिक महत्व है। यहां गर्भ से लेकर मृत्यु के उपरान्त तक के लिए अनेक संस्कार हैं, जिनका पालन करना अनिवार्य है। व्यक्ति के जीवन में कुल कितने संस्कार होते हैं? इस प्रश्न का कोई एक उत्तर नहीं है, क्योंकि इस सम्बन्ध मे शास्त्रों में भिन्नता हैं। विद्वानों ने संस्कारों की भिन्न-भिन्न विद्वानों संख्या बताई है।
गौतम धर्म सूत्र में व्यक्ति के लिए 40 संस्कारों का उल्लेख मिलता है। महर्षि अंगिरा के अनुसार 25 संस्कार हैं। पारस्कर गृहसूत्र, वाराह गृहसूत्र, मनुस्मृति तथा बौधायन गृहसूत्र में कुल 13 संस्कारों का उल्लेख किया गया है। दस कर्मपद्धति के अनुसार 10 संस्कार हैं। कुछ धर्म ग्रंथों में 11 तथा कुछ में 18 संस्कारों का भी उल्लेख मिलता है।
किन्तु वेद का कर्म मीमांसा दर्शन के अनुसार 16 संस्कार होते हैं। समाज में इसी संख्या की मान्यता अधिक है। वास्तव में संस्कार अनेक प्रकार के होते हैं, परन्तु मुख्य 16 संस्कार हैं, जिनमें गर्भाधान संस्कार, पुंसवन संस्कार, सीमान्तोन्नयन संस्कार, जातकर्म संस्कार, नामकरण संस्कार, निष्क्रमण संस्कार, अन्नप्राशन संस्कार, चूड़ाकर्म संस्कार, कर्ण वेधन संस्कार, उपनयन संस्कार, वेदारम्भ संस्कार, समावर्तन संस्कार, विवाह संस्कार, वानप्रस्थ, संन्यास तथा अन्त्येष्टि संस्कार सम्मिलित हैं।
 
विद्वानों का मानना है कि प्राचीन काल में व्यक्ति के लिए 40 संस्कार होते थे, परन्तु समय के साथ इनकी संख्या कम होती गई। किन्तु भारतीय संस्कृति में इन संस्कारों का आज भी विशेष महत्त्व है। आज के आधुनिक युग में भी भारतीय लोग अपने संस्कारों से जुड़े हुए हैं। आज के भौतिकतावादी युग में लोगों की जीवन शैली में अत्यधिक परिवर्तन आया है। यह परिवर्तन सब ओर दिखाई देता है। किन्तु संस्कारों के मामले में लोग आज भी अपनी जड़ों से जुड़े हुए हैं। वे गर्भाधान संस्कार से लेकर मृत्यु पश्चात के अंतिम संस्कार एवं श्राद्ध संस्कार का विधिवत पालन करते हैं। विवाह संस्कार तो अत्यधिक हर्षोल्लास से संपन्न होता है। इसी प्रकार अन्य संस्कार भी विधिवत पूर्ण किए जाते हैं। इन संस्कारों के मध्य वानप्रस्थ संस्कार तथा संन्यास संस्कार अब लुप्त हो गए हैं।
 
आचारः परमो धर्म
आचारः परमं तपः।
आचारः परमं ज्ञानम्
आचरात् किं न साध्यते॥
सदाचरण सबसे बड़ा धर्म है, सदाचरण सबसे बड़ा तप है, सदाचरण सबसे बड़ा ज्ञान है, सदाचरण से क्या प्राप्त नहीं किया जा सकता है?       
 
वास्तव में भारतीय संस्कृति के अनुसार आत्मा अजर- अमर है। यह तो शरीर है, जो अपने कर्मों के आधार पर रूप धारण करता है अर्थात एक योनि से दूसरी योनि को प्राप्त करता है। जीवात्मा को मनुष्य योनि बहुत ताप के पश्चात ही प्राप्त होती है, इसलिए मोक्ष प्राप्त करने के लिए संस्कारों का पालन करना अति आवश्यक है।  
 
खेद का विषय है कि आज कुछ लोग पाश्चात्य कल्चर की अंधी दौड़ में सम्मिलित होकर अपनी ही संस्कृति एवं संस्कारों का उपहास उड़ाने लगे हैं। उन्हें अपनी संस्कृति तुच्छ लगती है तथा विदेशी कल्चर श्रेष्ठ लगता है। उन्हें अपनी भाषा बुरी लगती है और विदेशी भाषा अच्छी लगती है। उन्हें भारतीय पारंपरिक परिधान भी लज्जाजनक लगते हैं तथा विदेशी परिधान सम्मानजनक लगते हैं। इसका सबसे प्रमुख कारण यह है कि हम अपनी जड़ों से कट रहे हैं। यदि यही स्थिति रही तो इससे हमारी संस्कृति को ह्रास होगा। हमें अपनी संस्कृति को बचाने के लिए अपने बालकों को उत्तम संस्कार देने होंगे। बाल्यकाल में सिखाई गई बातें बालकों को जीवनपर्यन्त स्मरण रहती हैं। संस्कार मनुष्य के जीवन को श्रेठ बनाते हैं। इसलिए जीवन में संस्कारों को अत्यधिक महत्त्व देना चाहिए।      
  

भारतीय संस्कृति में गाय का महत्व

डॉ. सौरभ मालवीय
वैदिक काल से ही भारतीय संस्कृति में गाय का विशेष महत्व है.  भारतीय संस्कृति में जिस गाय को पूजनीय कहा गया है, आज उसी गाय को भूखा-प्यासा सड़कों पर भटकने के लिए छोड़ दिया गया है. लोग अपने घरों में कुत्ते तो पाल लेते हैं, लेकिन उनके पास गाय के नाम की एक रोटी तक नहीं है. छोटे गांव-कस्बों की बात तो दूर देश की राजधानी दिल्ली में गाय को कूड़ा-कर्कट खाते हुए देखा जा सकता है. प्लास्टिक और पॊलिथीन खा लेने के कारण उनकी मृत्यु तक हो जाती है. भारतीय राजनीति में जाति, पंथ और धर्म से ऊपर होकर लोकतंत्र और पर्यावरण की भी चिंता होनी चाहिए. गाय की रक्षा, सुरक्षा बहस का मुद्दा आख़िर क्यों बनाया जा रहा है?
धार्मिक ग्रंथों में गाय को पूजनीय माना गया है. श्रीकृष्ण को गाय से विशेष लगाव था. उनकी प्रतिमाओं के साथ गाय देखी जा सकती है. 

बिप्र धेनु सूर संत हित, लिन्ह मनुज अवतार।
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गोपार॥
अर्थात ब्राह्मण (प्रबुद्ध जन) धेनु (गाय) सूर (देवता) संत (सभ्य लोग) इनके लिए ही परमात्मा अवतरित होते हैं. परमात्मा स्वयं के इच्छा से निर्मित होते हैं और मायातीत, गुणातीत एवम् इन्द्रीयातीत इसमें गाय तत्व इतना महत्वपूर्ण है कि वह सबका आश्रय है. गाय में 33 कोटि देवी-देवताओं का वास रहता है. इसलिए गाय का प्रत्येक अंग पूज्यनीय माना जाता है. गो सेवा करने से एक साथ 33 करोड़ देवता प्रसन्न होते हैं. गाय सरलता शुद्धता और सात्विकता की मूर्ति है. गऊ माता की पीठ में ब्रह्म, गले में विष्णु और मुख में रूद्र निवास करते हैं, मध्य भाग में सभी देवगण और रोम-रोम में सभी महार्षि बसते हैं. सभी दानों में गो दान सर्वधिक महत्वपूर्ण माना जाता है.

गाय को भारतीय मनीषा में माता केवल इसीलिए नहीं कहा कि हम उसका दूध पीते हैं. मां इसलिए भी नहीं कहा कि उसके बछड़े हमारे लिए कृषि कार्य में श्रेष्ठ रहते हैं, अपितु हमने मां इसलिए कहा है कि गाय की आंख का वात्सल्य सृष्टि के सभी प्राणियों की आंखों से अधिक आकर्षक होता है. अब तो मनोवैज्ञानिक भी इस गाय की आंखों और उसके वात्सल्य संवेदनाओं की महत्ता स्वीकारने लगे हैं. ऋषियों का ऐसा मंतव्य है कि गाय की आंखों में प्रीति पूर्ण ढंग से आंख डालकर देखने से सहज ध्यान फलित होता है. श्रीकृष्ण भगवान को भगवान बनाने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका गायों की ही थी. स्वयं ऋषियों का यह अनुभव है कि गाय की संगति में रहने से तितिक्षा की प्राप्ति होती है. गाय तितिक्षा की मूर्ति होती है. इसी कारण गाय को धर्म की जननी कहते हैं. धर्मग्रंथों में सभी गाय की पूजा को महत्वपूर्ण बताया गया है. हर धार्मिक कार्यों में सर्वप्रथम पूज्य गणेश और देवी पार्वती को गाय के गोबर से बने पूजा स्थल में रखा जाता है. 
परोपकारय दुहन्ति गाव:
अर्थात यह परोपकारिणी है. गाय की सेवा करने से से परम पुण्य की प्राप्ति होती है. मानव मन की कामनाओं को पूर्ण करने के कारण इसे कामधेनु कहा जाता है. 
ॐ माता रुद्राणां दुहिता वसूनां स्वसादित्यानाममृतस्य नाभि:।
प्र नु वोचं चिकितुषे जनाय मा गामनागामदितिं वधिष्ट नमो नम: स्वाहा।।
ॐ सर्वदेवमये देवि लोकानां शुभनन्दिनि।
मातर्ममाभिषितं सफलं कुरु नन्दिनि।।

उल्लेखनीय यह भी है कि ज्योतिष शास्त्र में नव ग्रहों के अशुभ फल से मुक्ति पाने के लिए गाय से संबंधित उपाय ही बताए जाते जाते हैं. हिन्दू मान्यता के अनुसार गाय ईश्वर का श्रेष्ठ उपहार है. भारतीय परम्परा के पूज्य पशुओं में गाय को सर्वोपरि माना जाता है. गाय से संबंधित गोपाष्‍टमी भारतीय संस्‍कृति का एक महत्‍वपूर्ण पर्व है. यह कार्तिक शुक्ल की अष्टमी को मनाया जाता है, इस कारण इसका नाम गोपाष्टमी पड़ा. इस पावन पर्व पर गौ-माता का पूजन किया जाता है. गाय की परिक्रमा कर सुख-समृद्धि की कामना की जाती है. गोवर्धन के दिन गोबर को जलाकर उसकी पूजा और परिक्रमा की जाती है. धार्मिक प्रवृत्ति के बहुत लोग प्रतिदिन गाय की पूजा करते हैं. भोजन के समय पहली रोटी गाय के लिए निकालने की भी परंपरा है. 
भारत में प्राचीन काल से ही गाय का विशेष महत्व रहा है. मानव जाति की समृद्धि को गौ-वंश की समृद्धि की दृष्टि से जोड़ा जाता है. जिसके पास जितनी अधिक गायें होती थीं, उसे समाज में उतना ही समृद्ध माना जाता था. प्राचीन काल में राजा-महाराजाओं की अपनी गौशालाएं होती थीं, जिनकी व्यवस्था वे स्वयं देखते थे. विजय प्राप्त होने, कन्याओं के विवाह तथा अन्य मंगल उत्सवों पर गाय उपहार स्वरूप या दान स्वरूप दी जाती थीं. 
गोहत्या को पापा माना जाता है, जिनका उल्लेख धार्मिक ग्रंथों में भी मिलता है. 
गोहत्यां ब्रह्महत्यां च करोति ह्यतिदेशिकीम्।
यो हि गच्छत्यगम्यां च यः स्त्रीहत्यां करोति च ॥ 
भिक्षुहत्यां महापापी भ्रूणहत्यां च भारते।
कुम्भीपाके वसेत्सोऽपि यावदिन्द्राश्चतुर्दश ॥
गाय संसार में प्राय: सर्वत्र पाई जाती है. एक अनुमान के अनुसार विश्व में कुल गायों की संख्या 13 खरब है. गाय से उत्तम प्रकार का दूध प्राप्त होता है, जो मां के दूध के समान ही माना जाता है. जिन बच्चों को किसी कारण वश उनकी माता का दूध नहीं मिलता, उन्हें गाय का दूध पिलाया जाता है. 
उल्लेखनीय है कि हमारे देश में गाय की 30 प्रकार की प्रजातियां पाई जाती हैं. इनमें सायवाल जाति, सिंधी, कांकरेज, मालवी, नागौरी, थरपारकर, पवांर, भगनाड़ी, दज्जल, गावलाव, हरियाना, अंगोल या नीलोर और राठ, गीर, देवनी, नीमाड़ी, अमृतमहल, हल्लीकर, बरगूर, बालमबादी, वत्सप्रधान, कंगायम, कृष्णवल्ली आदि प्रजातियों की गाय सम्मिलित हैं. गाय के शरीर में सूर्य की गो-किरण शोषित करने की अद्भुत शक्ति होती है. इसीलिए गाय का दूध अमृत के समान माना जाता है. गाय के दूध से बने घी-मक्खन से मानव शरीर पुष्ट बनता है. गाय का गोबर उपले बनाने के काम आता है, जो अच्छा ईंधन है. गोबर से जैविक खाद भी बनाई जाती है. इसके मूत्र से भी कई रोगों का उपचार किया जा रहा है. यह अच्छा कीटनाशक भी है.

वास्तव में गाय को पर्यावरण संरक्षण से जोड़ने की बजाय राजनीति से जोड़ दिया गया है, जिसके कारण इसे जबरन बहस का विषय बना दिया गया. गाय सबके लिए उपयोगी है. इसलिए गाय पर बहस करने की बजाय इसके संरक्षण पर ध्यान देना चाहिए. सरकार को चाहिए कि वह सड़कों पर विचरती गायों के लिए गौशालाओं का निर्माण कराए.

राम का लोकजीन

 

डॉ. सौरभ मालवीय
सनातन धर्म के अनुयायी श्रीराम को भगवान मानते हैं तथा उनकी पूजा-अर्चना करते हैं। वह भगवान विष्णु के अवतार माने जाते हैं, जिन्होंने लंका नरेश रावण एवं अन्य राक्षसों का संहार करके मानव जाति को उनके अत्याचारों से मुक्त करवाने के लिए अयोध्या के राजा दशरथ के यहां राम के रूप में जन्म लिया था। 
इसके इतर राम ने स्वयं को एक जननायक के रूप में स्थापित किया। उनका संपूर्ण जीवन इस बात का प्रमाण है कि उन्होंने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मर्यादा के नूतन आयाम स्थापित किए। इसीलिए उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है। उन्होंने अपने संपूर्ण जीवन में कभी मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया, इसलिए भी उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है।   
 
आदर्श पुत्र
श्रीराम एक आदर्श पुत्र थे। उन्होंने अपने पिता राजा दशरथ के वचन का पालन किया। उन्होंने राजा दशरथ द्वारा अपनी पत्नी कैकेयी को दिए वचन को पूर्ण करने के लिए राजपाट त्याग कर चौदह वर्ष का वनवास सहर्ष स्वीकार कर लिया। उन्होंने अपनी  माता के वचन का सहृदय से पालन करके यह सिद्ध कर दिया कि उनके लिए पिता के वचन और माता की प्रसन्नता से बढ़कर कुछ भी नहीं है। उन्होंने वैभवशाली जीवन का त्याग करके वन में जीवन व्यतीत करना उचित समझा। उन्होंने अपने पिता की मनोव्यथा एवं उनकी विवशता को अनुभव किया तथा बिना किसी अंतर्द्वन्द्व के वनवास जाने का निर्णय ले लिया। यह निर्णय कोई सरल कार्य नहीं था। आज के युग में कोई अपनी एक इंच भूमि भी अपने भाई को नहीं देना चाहता। भूमि और संपत्ति को लेकर भाइयों के मध्य रक्तपात हो जाता है। ऐसे में त्रेता युग में जन्मे श्रीराम परिवार मूल्य बोध के लिए एक आदर्श स्थापित करते हैं।      
 
चित्रकूट में जब भरत व उनके अन्य परिवारजन उन्हें पुनः अयोध्या वापस लौटने को कहते हैं, वह इसे अस्वीकार कर देते हैं। उनकी माता कैकेयी भी उनसे अपने वचनों को वापस लेने की बात कहती हैं, परन्तु वह अपने निर्णय पर अटल रहते हैं तथा उनके कथन को अस्वीकार कर देते हैं। वह अपनी माता से कहते हैं कि आपका वचन पिता से संबंधित था, मुझसे नहीं। मेरा संबंध तो पिता के वचन से है आपसे नहीं, इसलिए मैं उनके वचन की अवज्ञा नहीं कर सकता। मैं अपने पिता के वचन से बंधा हुआ हूं। तभी से यह कहा जा रहा है कि “रघुकुलरीत सदा चली आई, प्राण जाय पर वचन न जाय।“
वास्तव में राजा दशरथ अपने पुत्र से अत्यधिक स्नेह करते थे। पुत्र के वियोग में उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए, परन्तु अपने वचन का पालन किया।    
 
आदर्श भाई
श्रीराम एक आदर्श भाई भी थे। उनके लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के प्रति अथाह प्रेम, त्याग एवं समर्पण के कारण उन्हें आदर्श भाई माना जाता है। उन्होंने अपनी माता कैकेयी के आदेश पर अपना राज्य अपने छोटे भाई भरत को सौंप दिया और स्वयं अपनी पत्नी सीता और छोटे भाई लक्ष्मण के साथ वनवास के लिए प्रस्थान कर गए। 
रामचरित मानस में भक्त शिरोमणि तुलसीदास कहते हैं-
सजि बन साजु समाजु सबु बनिता बंधु समेत।
बंदि बिप्र गुर चरन प्रभु चले करि सबहि अचेत।। 
अर्थात वन के लिए आवश्यक वस्तुओं को साथ लेकर श्रीराम पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण सहित ब्राह्मण एवं गुरु के चरणों की वंदना करके सबको अचेत करके चले गए।  
 
सद्भाव का संदेश
श्रीराम ने समाज के प्रत्येक वर्ग को आपस में जोड़कर रखने का संदेश दिया। उन्होंने प्रेम एवं भाईचारे का संदेश दिया। निषादों के राजा निषादराज श्रीराम के अभिन्न मित्र थे। वह ऋंगवेरपुर के राजा थे। उनका नाम गुह्यराज था। वह श्रीराम के बाल सखा थे। उन्होंने एक ही गुरुकुल में रहकर शिक्षा प्राप्त की थी। आदिवासी समाज के लोग आज भी निषादराज की पूजा करते हैं। उन्होंने वनवास काल में श्रीराम, सीता एवं लक्ष्मण को गंगा नदी पार करवाई थी। 
 
संपूर्ण प्राणियों से प्रेम
श्रीराम मनुष्यों से ही नहीं, अपितु पशु-पक्षियों से भी हृदय से प्रेम करते थे। पशु-पक्षियों ने भी समय-समय पर उनकी सहायता की। इनकी सहायता से ही उन्हें सीता के हरण के बारे में जानकारी प्राप्त हुई। श्रीराम का गिलहरी से संबंधित एक अत्यंत रोचक प्रसंग है।   
जिस समय श्रीराम की सेना रामसेतु के निर्माण के कार्य में व्यस्त थी, उस समय लक्ष्मण ने उन्हें गिलहरी को निहारते हुए देखा। इस बारे में पूछने पर श्रीराम ने बताया कि एक गिलहरी बार-बार समुद्र के तट पर जाती है तथा रेत पर लोटपोट करके रेत को अपने शरीर पर चिपका लेती। जब रेत उसके शरीर पर चिपक जाती, तो वह सेतु पर जाकर सारा रेत झाड़ देती है। वह बहुत समय से ऐसा कर रही है। यह सुनकर लक्ष्मण ने कहा कि वह केवल क्रीड़ा का आनंद ले रही है। इस पर श्रीराम ने कहा कि लक्ष्मण से कहा कि मुझे ऐसा प्रतीत नहीं होता। उत्तम तो यही होगा कि हम इस संबंध में गिलहरी से ही पूछ लेते हैं। उन्होंने गिलहरी से पूछा कि तुम क्या कर रही हो? गिलहरी ने उत्तर दिया कि कुछ नहीं, केवल सेतु निर्माण के पुनीत कार्य में अपना थोड़ा सा योगदान दे रही हूं। उन्हें उत्तर देकर गिलहरी पुनः अपने कार्य के लिए चल पड़ी, तो लक्ष्मण ने उसे रोकते हुए पूछा कि तुम्हारे रेत के कुछ कणों से क्या होगा?
इस पर गिलहरी ने उत्तर दिया कि आप सत्य कह रहे हैं। मेरे रेत के कुछ कणों से कुछ नहीं होगा, परन्तु मैं अपने सामर्थ्य के अनुसार जो योगदान दे सकती हूं, दे रही हूं। मेरे कार्य का कोई मूल्यांकन नहीं, परन्तु इससे मेरे मन को संतुष्टि प्राप्त हो रही है कि मैं अपनी योग्यता एवं सामर्थ्य के अनुसार अपना योगदान दे रही हूं। मेरे लिए यही पर्याप्त है, क्योंकि यह राष्ट्र का कार्य है एवं धर्म का कार्य है।
गिलहरी का यह प्रसंग सदैव से ही प्रासंगिक रहा है, क्योंकि इससे यह प्रेरणा मिलती है कि प्रत्येक मनुष्य को अपने सामर्थ्य के अनुसार जनहित एवं राष्ट्र हित में कार्य करना चाहिए।    
  
नेतृत्व क्षमता
श्रीराम एक लोक नायक थे। उनमें नेतृत्व की अपार क्षमता थी। उन्होंने समुद्र में पत्थरों से सेतु का निर्माण करवाया, जिसे राम सेतु कहा जाता है। सीताहरण के पश्चात उन्होंने वानरों की सेना के माध्यम से लंका पर चढ़ाई कर दी। एक ओर लंका नरेश रावण की बलशाली राक्षसों की शक्तिशाली सेना थी, तो दूसरी ओर निर्बल वानरों की छोटी सी सेना। किन्तु श्रीराम के पास सत्य की शक्ति थी और वानर सेना का उनके प्रति अटूट प्रेम, श्रद्धा एवं विश्वास था। इस सत्य एवं श्रद्धा के बल पर उन्होंने लंका पर विजय प्राप्त की। वे अपने मित्रों एवं साथियों को आदर एवं सम्मान देते थे। उन्होंने अपने मित्र निषादराज, सुग्रीव, हनुमान, केवट, जामवंत एवं विभीषण आदि को समय-समय पर नेतृत्व करने के अवसर प्रदान किए तथा उनकी हृदय से सराहना भी की। 
 
मातृभूमि से प्रेम 
लंका पर विजय प्राप्त करने के पश्चात श्रीराम ने लंका का राज्य रावण के भाई विभीषण को सौंप दिया तथा अयोध्या लौटने का निर्णय किया। इस पर लक्ष्मण ने कहा कि लंका में स्वर्गीय सुख है। लंका स्वर्णमयी है। अयोध्या में क्या रखा है? इस पर श्रीराम ने कहा- 
अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।। (वाल्मीकि रामायण) 
अर्थात यद्यपि यह लंका स्वर्ण से निर्मित है, फिर भी इसमें मेरी कोई रुचि नहीं है, जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान है।
 
श्रीराम ने स्वयं को एक लोकनायक के रूप में ही प्रस्तुत किया। इसलिए वह कभी स्वाभाविक जीवन व्यतीत नहीं कर पाए। उनका बाल्यकाल शिक्षा ग्रहण करते हुए गुरुकुल में व्यतीत हुआ। गुरुकुल में वह राजकुमारों की भांति नहीं रहे, अपितु उन्हें अन्य बालकों की भांति ही अपने सारे कार्य स्वयं करने पड़ते थे। इसके अतिरिक्त में वह अपने सहपाठियों के साथ कंद-मूल एवं लकड़ियां एकत्रित करने वन भी जाते थे। इस प्रकार उनका बाल्यकाल सुख-समृद्धि में व्यतीत नहीं हुआ। युवा होने पर जब उन्हें राज्य का संपूर्ण दायित्व सौंपने का निर्णय लिया गया एवं उनके राज्यभिषेक की तैयारियां होने लगीं, तो उन्हें अकस्मात चौदह वर्ष के लिए वनवास जाना पड़ा। उन्होंने वनवास की समयावधि में भी अनेक कष्टों का सामना किया। जब रावण ने उनकी पत्नी सीता का हरण कर लिया, तो उन्हें पत्नी के वियोग में एवं उनकी खोज में वन-वन भटकना पड़ा। एक साहसी शत्रु से सामना करने के लिए उनके पास कुछ भी नहीं था। उन्हें वानर राज सुग्रीव की सहायता प्राप्त हुई, परन्तु इससे पूर्व उन्हें बाली का वध करके सुग्रीव को राजा बनाना पड़ा। इस समयावधि में उन्हें अनेक कष्ट एवं आरोपों का सामना करना पड़ा।
 
एक राजा के रूप में भी श्रीराम ने स्वयं को लोकनायक ही सिद्ध किया। उन्होंने लोकनायक के रूप में शासन किया। वह राजा थे। वह चाहते तो निरंकुश होकर निर्णय ले सकते थे, परन्तु उन्होंने लोकनायक के रूप में आदर्श स्थापित किया। उनके राज्य में सबको अभिव्यक्ति का अधिकार था। जब धोबी ने माता सीता के चरित्र पर प्रश्न चिन्ह लगाया, तो श्रीराम ने सीता का त्याग कर दिया। महाकवि भवभूति उत्तररामचरित में कहते हैं-  
स्नेहं दयां च सौख्यं च, यदि वा जानकीमपि।
आराधनाय लोकस्य मुञ्चतो, नास्ति में व्यथा।।
अर्थात देश व समाज की सेवा के लिए स्नेह, दया, मित्रता यहां तक कि धर्मपत्नी को छोड़ने में भी मुझे कोई पीड़ा नहीं होगी।
 
माता सीता एक बार पुनः वनवास के लिए चली गईं। इसके पश्चात श्रीराम ने भी राजसी जीवन का त्याग कर दिया। वह एक वनवासी की भांति जीवन व्यतीत करने लगे। वह भूमि पर चटाई बिछाकर सोते तथा कंद-मूल खाते। वह अपनी पत्नी से अत्यधिक प्रेम करते थे, इसलिए उन्होंने दूसरा विवाह नहीं किया। उस समय राजा अनेक विवाह करते थे, परन्तु श्रीराम पत्नीव्रता रहे।  
 
श्रीराम ने एक पुत्र के रूप में, भाई के रूप में, पति के रूप में, मित्र के रूप में तथा राजा के रूप में समाज के लिए आदर्श स्थापित किया। उन्होंने प्रेम, भाईचारे, त्याग एवं समर्पण का संदेश दिया। वर्तमान युग में जब   स्वार्थ  बढ़ गया है तथा संबंध स्वार्थ सिद्धि तक ही सीमित होकर रह गए हैं, ऐसे में लोकनायक राम एक आदर्श बनकर सामने आते हैं।

Thursday, February 6, 2025

भाऊराव देवरस स्मृति व्याख्यानमाला




लखनऊ। भाऊराव देवरस स्मृति व्याख्यानमाला कार्यक्रम के ३१वें सत्र का आयोजन  ०६ फरवरी २०२५ को भारतीय गन्ना अनुसंधान संस्थान में हुआ।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाहक डॉ. कृष्ण गोपाल जी का पाथेय मिला।

Wednesday, February 5, 2025

महाकुंभ : भारतीय संस्कृति का प्रतीक

राष्ट्रधर्म में प्रकाशित मेरा लेख 
महाकुंभ : भारतीय संस्कृति का प्रतीक 




Sunday, February 2, 2025

बंसन्तोत्सव



बंसन्तोत्सव-2025 
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
बसंत पंचमी के पावन अवसर पर लखनऊ के भाजपा मुख्यालय स्थित मालवीय ग्रन्थालय में माँ सरस्वती पूजन का कार्यक्रम!

विराट सांस्कृतिक चेतना की पुनर्स्थापना का संकल्प : एक भारत श्रेष्ठ भारत

डॉ. सौरभ मालवीय भारत एक विशाल राष्ट्र है। इसका निर्माण सनातन संस्कृति से हुआ है। अनेक संस्कृतियां भारत रूपी गुलदान में विभिन्न प्रकार के पुष...