Tuesday, March 18, 2025

मेरी पुस्तकें

1 राष्ट्रवादी पत्रकारिता के शिखर पुरुष अटल बिहारी वाजपेयी

2 विकास के पथ पर भारत

3 भारत बोध

4 राष्ट्रवाद और मीडिया (सम्पादन) 

5 अंत्योदय को साकार करता उत्तर प्रदेश

6 भारतीय राजनीति के महानायक नरेन्द्र मोदी


7 भारतीय पत्रकारिता के स्वर्णिम हस्ताक्षर 


डॉ. सौरभ मालवीय


डॉ. सौरभ मालवीय हिंदी पत्रकारिता एवम् साहित्य के सुपरिचित हस्ताक्षर हैं। वह राष्ट्रवादी विचारों के प्रहरी हैं। उनका वैचारिक धरातल सुस्पष्ट है। उनकी लेखनी धर्म, संस्कृति, समाज, पर्यावरण, राष्ट्रबोध एवं मानवदर्शन से ओतप्रोत है। वह देशभर के विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं एवं अन्तर्जाल पर समसामयिक विषयों पर तार्किक लेखन करते हैं। वह ज्वलंत एवं राजनीतिक विषयों पर प्रायः टीवी चर्चाओं में अपने विचार रखते हुए देखे जाते हैं। इसके अतिरिक्त वह विभिन्न कार्यक्रमों एवं गोष्ठियों में वक्ता के में रूप में बोलते हुए दिखाई देते हैं। आपको उत्कृष्ट पत्रकारिता एवं लेखन हेतु अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है।    
वह जनसेवा कार्यों से भी जुड़े हैं। 

नाम : डॉ. सौरभ मालवीय
जन्म तिथि : 28 जुलाई, 1982 
जन्म स्थान : ग्राम पटनजी, जनपद देवरिया, उत्तर प्रदेश 
 
शैक्षिक योग्यता
* स्नातकोत्तर (प्रसारण पत्रकारिता) माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय                * पीएचडी (विषय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और मीडिया)

कार्यभार  
मंत्री : विद्या भारती पूर्वी उत्तर प्रदेश (वर्तमान)

लेखन कार्य 
विभिन्न समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं एवं अंतर्जाल पर नियमित लेखन   

प्रकाशित पुस्तकें 
1 राष्ट्रवादी पत्रकारिता के शिखर पुरुष अटल बिहारी वाजपेयी
2 विकास के पथ पर भारत
3 भारत बोध
4 राष्ट्रवाद और मीडिया (सम्पादन) 
5 अंत्योदय को साकार करता उत्तर प्रदेश
6 भारतीय राजनीति के महानायक नरेन्द्र मोदी
7 भारतीय पत्रकारिता के स्वर्णिम हस्ताक्षर 2024

सम्मान 
1 विष्णु प्रभाकर पत्रकारिता सम्मान
2 प्रवक्ता डॉट कॉम लेखक सम्मान
3 लखनऊ रत्न सम्मान
4 अटल बिहारी वाजपेयी संवाद सम्मान
5 अटल श्री सम्मान
6 सर्वपल्ली राधाकृष्णन शिक्षक सम्मान
7 पंडित प्रताप नारायण मिश्र युवा साहित्यकार सम्मान

सम्प्रति
एसोसिएट प्रोफेसर, पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग
लखनऊ विश्वविद्यालय - लखनऊ , उत्तर प्रदेश 

मोबाइल : 8750820740
ईमेल : malviya.sourabh@gmail.com

Wednesday, March 12, 2025

हिंदी साहित्य में होली के रंग


डॉ. सौरभ मालवीय
होली कवियों का प्रिय त्योहार है। यह त्योहार उस समय आता है जब चारों दिशाओं में प्रकृति अपने सौन्दर्य के चरम पर होती है। उपवनों में रंग-बिरंगे पुष्प खिले हुए होते हैं। होली प्रेम का त्योहार माना जाता है, क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण और राधा को होली अत्यंत प्रिय थी। भक्त कवियों एवं कवयित्रियों ने होली पर असंख्य रचनाएं लिखी हैं।
 
कृष्ण भक्त कवि रसखान ने ब्रज की होली पर अत्यंत सुंदर रचनाएं लिखी हैं। इनमें श्रीकृष्ण की राधा के साथ खेली जाने वाली होली प्रमुख है। वे कहते हैं-       
मिली खेलत फाग बढयो अनुराग सुराग सनी सुख की रमकै।
कर कुंकुम लै करि कंजमुखि प्रिय के दृग लावन को धमकै।।
रसखानि गुलाल की धुंधर में ब्रजबालन की दुति यौं दमकै।
मनौ सावन सांझ ललाई के मांझ चहुं दिस तें चपला चमकै।।
अर्थात श्रीकृष्ण राधा और गोपियों के साथ होली खेल रहे हैं। इस खेल के साथ-साथ उनमें प्रेम बढ़ रहा है। कमल के पुष्प के समान सुंदर मुख वाली राधा श्रीकृष्ण के मुख पर कुमकुम लगाने की चेष्टा कर रही है। वह गुलाल फेंकने का अवसर खोज रही है। चहुंओर गुलाल ही गुलाल दिखाई दे रहा है। इस गुलाल के कारण ब्रजबालाओं की देहयष्टि इस प्रकार दमक रही है जैसे सावन मास के सायंकाल में सूर्यास्त से लाल हुए आकाश में चारों ओर बिजली चमकती रही हो।
 
कृष्ण भक्त सूरदास ने भी श्रीकृष्ण और राधा की होली पर असंख्य रचनाएं लिखी हैं। होली उनकी रासलीलाओं में महत्वूर्ण स्थान रखती है। वे कहते हैं-
हहरि संग खेलति है सब फाग।
इहिं मिस करति प्रगट गोपी, उर अंतर कौ अनुराग।।
सारी पहिरि सुरंग, कसि कचुकि, काजर दै दै नैन।
बनि बनि निकसि निकसि भई ठाढ़ी, सुनि माधौ के बैन।।
डफ, बांसुरी रुंज अरु महुअरि, बाजत ताल मृदंग।
अति आनंद मनोहर बानी, गावत उठति तरंग।।
एक कोध गोविंद ग्वाल सब, एक कोध ब्रज नारि।
छांड़ि सकुच सब देति परस्पर, अपनी भाई गारि।।
मिलि दस पांच अली कृष्नहिं, गहि लावतिं अचकाइ।
भरि अरगजा अबीर कनकघट, देति सीस तै नाइ।।
छिरकतिं सखी कुमकुमा केसरि, भुरकतिं बदनधूरि।
सोभित है तन सांझ-समै-घन, आए है मनु पूरि।।
दसहूं दिसा भयौ परिपूरन, 'सूर' सुरंग प्रमोद।
सुर विमान कौतूहल भूले, निरखत स्याम विनोद।
 
अर्थात श्रीकृष्ण के साथ सब होली खेल रहे हैं। फागुन के रंगों के माध्यम से गोपियां अपने हृदय का प्रेम प्रकट कर रही हैं। वे अति सुन्दर साड़ी एवं चित्ताकर्षक चोली पहन कर तथा आंखों में काजल लगाकर श्रीकृष्ण की पुकार सुनकर होली खेलने के लिए अपने घरों से बाहर आ गईं हैं।
डफ, बांसुरी, रुंज, ढोल एवं मृदंग बजने लगे हैं। सब लोग आनंदित होकर मधुर स्वरों में गा रहे हैं। एक ओर श्रीकृष्ण और ग्वाल बाल डटे हुए हैं तो दूसरी ओर समस्त ब्रज की महिलाएं संकोच छोड़कर एक दूसरे को मीठी गालियां दे रहे हैं तथा छेड़छाड़ चल रही है। अकस्मात कुछ सखियां मिलकर श्रीकृष्ण को घेर लेती हैं और स्वर्णघट में भरा सुगंधित रंग उनके सिर पर उंडेल देती हैं। कुछ सखियां उन पर कुमकुम केसर छिडक़ देती हैं। इस प्रकार ऊपर से नीचे तक रंग, अबीर गुलाल से रंगे हुए श्रीकृष्ण ऐसे लग रहे हैं जैसे सांझ के समय आकाश में बादल छा गए हों। फाग के रंगों से दसों दिशाएं परिपूर्ण हो गई हैं। आकाश से देवतागण अपना विचरण भूलकर श्याम सुन्दर का फाग विनोद देखने के लिए रुक गए हैं तथा आनंदित हो रहे हैं।
 
मीराबाई श्रीकृष्ण को अपना स्वामी मानती थीं। उन्होंने होली और श्रीकृष्ण के बारे में अनेक रचनाएं लिखी हैं। उनकी रचनाओं में आध्यात्मिक संदेश भी मिलता है। वे कहती हैं-
फागुन के दिन चार होली खेल मना रे।।
बिन करताल पखावज बाजै अणहदकी झणकार रे।
बिन सुर राग छतीसूं गावै रोम रोम रणकार रे।।
सील संतोखकी केसर घोली प्रेम प्रीत पिचकार रे।
उड़त गुलाल लाल भयो अंबर, बरसत रंग अपार रे।।
घटके सब पट खोल दिये हैं लोकलाज सब डार रे।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर चरणकंवल बलिहार रे।।
 
इस पद में मीराबाई ने होली एवं फागुन के माध्यम से समाधि का उल्लेख किया है। वे कहती हैं कि फागुन मास में होली खेलने के चार दिन ही होते हैं अर्थात बहुत अल्प समय होता है। इसलिए मन होली खेल ले अर्थात श्रीकृष्ण से प्रेम कर ले। करताल एवं पखावाज के बिना ही अनहद की झंकार हो रही है। मेरा मन बिना सुर एवं राग के आलाप कर रहा है। इस प्रकार रोम-रोम श्रीकृष्ण के प्रेम में लीन है। मैंने अपने प्रिय से होली खेलने के लिए शील एवं संतोष रूपी केसर का रंग घोल लिया है। मेरा प्रिय प्रेम ही मेरी पिचकारी है। गुलाल के उड़ने के कारण संपूर्ण आकाश लाल हो गया है। मैंने अपने हृदय के द्वार खोल दिए हैं, क्योंकि अब मुझे लोक लाज का कोई तनिक भी भय नहीं है। मेरे स्वामी गोवर्धन पर्वत को अपनी अंगुली पर उठाने वाले भगवान श्रीकृष्ण हैं। मैंने उनके चरणों में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया है।       
 
श्रृंगार रस के विख्यात कवि बिहारीलाल को भी होली का त्योहार बहुत प्रिय था। उन्होंने भी होली को लेकर अनेक रचनाएं लिखी हैं। वे कहते हैं-
उड़ि गुलाल घूंघर भई तनि रह्यो लाल बितान।
चौरी चारु निकुंजनमें ब्याह फाग सुखदान।।
फूलन के सिर सेहरा, फाग रंग रंगे बेस।
भांवरहीमें दौड़ते, लै गति सुलभ सुदेस।।
भीण्यो केसर रंगसूं लगे अरुन पट पीत।
डालै चांचा चौकमें गहि बहियां दोउ मीत।।
रच्यौ रंगीली रैनमें, होरीके बिच ब्याह।
बनी बिहारन रसमयी रसिक बिहारी नाह।।
 
रीतिकालीन कवि पद्माकर ने भी होली का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है। उन्होंने श्रीकृष्ण की राधा और गोपियों के साथ होली खेलने को लेकर अनेक सुन्दर रचनाएं लिखी हैं। वे कहते हैं- 
फागु की भीर, अभीरिन ने गहि गोविंद लै गई भीतर गोरी
भाय करी मन की पद्माकर उपर नाई अबीर की झोरी
छीने पीतांबर कम्मर तें सु बिदा कई दई मीड़ि कपोलन रोरी।
नैन नचाय कही मुसकाय ''लला फिर आइयो खेलन होरी।"
 
अर्थात श्रीकृष्ण गोपियों के साथ होली खेल रहे हैं। पद्माकर कहते हैं कि राधा होली खेल रही भीड़ में से श्रीकृष्ण का हाथ पकड़कर भीतर ले जाती है। फिर वह अपने मन की करते हुए श्रीकृष्ण पर अबीर की झोली उलट देती है तथा उनकी कमर से पीतांबर छीन लेती है। वह श्रीकृष्ण को यूं ही नहीं छोड़ती, अपितु जाते हुए उनके गालों पर गुलाल लगाती है। वह उन्हें निहारते एवं मुस्कराते हुए कहती है कि लला फिर से आना होली खेलने।
 
हिन्दी कविता के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक माने जाने वाले सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ भी होली के रंगों से अछूते नहीं रहे। उन्होंने भी होली के रंगीले त्योहार पर कई कविताएं लिखी हैं। वे कहते हैं-
होली है भाई होली है
मौज मस्ती की होली है
रंगो से भरा ये त्यौहार
बच्चो की टोली रंग लगाने आयी है
बुरा ना मानो होली है
 
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने भी होली पर बहुत सी कविताएं लिखी हैं। वे खड़ी बोली के प्रथम कवि माने जाते हैं। उनकी होली की कविताएं बहुत ही सुन्दर एवं लुभावनी हैं। वे कहते हैं-
जो कुछ होनी थी, सब होली
धूल उड़ी या रंग उड़ा है
हाथ रही अब कोरी झोली
आंखों में सरसों फूली है
सजी टेसुओं की है टोली
पीली पड़ी अपत, भारत-भू,
फिर भी नहीं तनिक तू डोली
 
उत्तर छायावाद काल के प्रमुख कवि हरिवंश राय बच्चन की होली पर लिखी कविताएं बहुत ही सुन्दर हैं। इनमें प्रेम एवं विरह आदि के अनेक रंग हैं। वे कहते हैं-
तुम अपने रंग में रंग लो तो होली है
देखी मैंने बहुत दिनों तक
दुनिया की रंगीनी
किंतु रही कोरी की कोरी
मेरी चादर झीनी
तन के तार छूए बहुतों ने
मन का तार न भीगा
तुम अपने रंग में रंग लो तो होली है
 

होली आई रे

डॊ. सौरभ मालवीय
फागुन आते ही चहुंओर होली के रंग दिखाई देने लगते हैं. जगह-जगह होली मिलन समारोहों का आयोजन होने लगता है. होली हर्षोल्लास, उमंग और रंगों का पर्व है. यह पर्व फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है. इससे एक दिन पूर्व होलिका जलाई जाती है, जिसे होलिका दहन कहा जाता है. दूसरे दिन रंग खेला जाता है, जिसे धुलेंडी, धुरखेल तथा धूलिवंदन कहा जाता है. लोग एक-दूसरे को रंग, अबीर-गुलाल लगाते हैं. रंग में भरे लोगों की टोलियां नाचती-गाती गांव-शहर में घूमती रहती हैं. ढोल बजाते और होली के गीत गाते लोग मार्ग में आते-जाते लोगों को रंग लगाते हुए होली को हर्षोल्लास से खेलते हैं. विदेशी लोग भी होली खेलते हैं. सांध्य काल में लोग एक-दूसरे के घर जाते हैं और मिष्ठान बांटते हैं.

पुरातन धार्मिक पुस्तकों में होली का वर्णन अनेक मिलता है. नारद पुराण औऱ भविष्य पुराण जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों और ग्रंथों में भी इस पर्व का उल्लेख है. विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित ईसा से तीन सौ वर्ष पुराने एक अभिलेख में भी होली का उल्लेख किया गया है. होली के पर्व को लेकर अनेक कथाएं प्रचलित हैं. सबसे प्रसिद्ध कथा विष्णु भक्त प्रह्लाद की है. माना जाता है कि प्राचीन काल में हिरण्यकशिपु नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था. वह स्वयं को भगवान मानने लगा था.  उसने अपने राज्य में भगवान का नाम लेने पर प्रतिबंध लगा दिया था. जो कोई भगवान का नाम लेता, उसे दंडित किया जाता था. हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु का भक्त था. प्रह्लाद की प्रभु भक्ति से क्रुद्ध होकर हिरण्यकशिपु ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु उसने भक्ति के मार्ग का त्याग नहीं किया. हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह अग्नि में भस्म नहीं हो सकती. हिरण्यकशिपु ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि कुंड में बैठे. अग्नि कुंड में बैठने पर होलिका तो जल गई, परंतु प्रह्लाद बच गया. भक्त प्रह्लाद की स्मृति में इस दिन होली जलाई जाती है. इसके अतिरिक्त यह पर्व राक्षसी ढुंढी, राधा कृष्ण के रास और कामदेव के पुनर्जन्म से भी संबंधित है. कुछ लोगों का मानना है कि होली में रंग लगाकर, नाच-गाकर लोग शिव के गणों का वेश धारण करते हैं तथा शिव की बारात का दृश्य बनाते हैं. कुछ लोगों का यह भी मानना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना नामक राक्षसी का वध किया था. इससे प्रसन्न होकर गोपियों और ग्वालों ने रंग खेला था.

देश में होली का पर्व विभिन्न प्रकार से मनाया जाता है. ब्रज की होली मुख्य आकर्षण का केंद्र है. बरसाने की लठमार होली भी प्रसिद्ध है. इसमें पुरुष महिलाओं पर रंग डालते हैं और महिलाएं उन्हें लाठियों तथा कपड़े के बनाए गए कोड़ों से मारती हैं. मथुरा का प्रसिद्ध 40 दिवसीय होली उत्सव वसंत पंचमी से ही प्रारंभ हो जाता है. श्री राधा रानी को गुलाल अर्पित कर होली उत्सव शुरू करने की अनुमति मांगी जाती है. इसी के साथ ही पूरे ब्रज पर फाग का रंग छाने लगता है. वृंदावन के शाहजी मंदिर में प्रसिद्ध वसंती कमरे में श्रीजी के दर्शन किए जाते हैं. यह कमरा वर्ष में केवल दो दिन के लिए खुलता है. मथुरा के अलावा बरसाना, नंदगांव, वृंदावन आदि सभी मंदिरों में भगवान और भक्त पीले रंग में रंग जाते हैं. ब्रह्मर्षि दुर्वासा की पूजा की जाती है. हिमाचल प्रदेश के कुल्लू में भी वसंत पंचमी से ही लोग होली खेलना प्रारंभ कर देते हैं. कुल्लू के रघुनाथपुर मंदिर में सबसे पहले वसंत पंचमी के दिन भगवान रघुनाथ पर गुलाल चढ़ाया जाता है, फिर भक्तों की होली शुरू हो जाती है. लोगों का मानना है कि रामायण काल में हनुमान ने इसी स्थान पर भरत से भेंट की थी. कुमाऊं में शास्त्रीय संगीत की गोष्ठियां आयोजित की जाती हैं. बिहार का फगुआ प्रसिद्ध है. हरियाणा की धुलंडी में भाभी पल्लू में ईंटें बांधकर देवरों को मारती हैं. पश्चिम बंगाल में दोल जात्रा निकाली जाती है. यह पर्व चैतन्य महाप्रभु के जन्मदिवस के रूप में मनाया जाता है. शोभायात्रा निकाली जाती है. महाराष्ट्र की रंग पंचमी में सूखा गुलाल खेला जाता है. गोवा के शिमगो में शोभा यात्रा निकलती है और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है. पंजाब के होला मोहल्ला में सिक्ख शक्ति प्रदर्शन करते हैं. तमिलनाडु की कमन पोडिगई मुख्य रूप से कामदेव की कथा पर आधारित वसंत का उत्सव है. मणिपुर के याओसांग में योंगसांग उस नन्हीं झोंपड़ी का नाम है, जो पूर्णिमा के दिन प्रत्येक नगर-ग्राम में नदी अथवा सरोवर के तट पर बनाई जाती है. दक्षिण गुजरात के आदिवासी भी धूमधाम से होली मनाते हैं. छत्तीसगढ़ में लोक गीतों के साथ होली मनाई जाती है.  मध्यप्रदेश के मालवा अंचल के आदिवासी भगोरिया मनाते हैं. भारत के अतिरिक्त अन्य देशों में भी होली मनाई जाती है.

होली सदैव ही साहित्यकारों का प्रिय पर्व रहा है. प्राचीन काल के संस्कृत साहित्य में होली का उल्लेख मिलता है. श्रीमद्भागवत महापुराण में रास का वर्णन है. अन्य रचनाओं में 'रंग' नामक उत्सव का वर्णन है. इनमें हर्ष की प्रियदर्शिका एवं रत्नावली और कालिदास की कुमारसंभवम् तथा मालविकाग्निमित्रम् सम्मिलित हैं. भारवि एवं माघ सहित अन्य कई संस्कृत कवियों ने अपनी रचनाओं में वसंत एवं रंगों का वर्णन किया है. चंद बरदाई द्वारा रचित हिंदी के पहले महाकाव्य पृथ्वीराज रासो में होली का उल्लेख है. भक्तिकाल तथा रीतिकाल के हिन्दी साहित्य में होली विशिष्ट उल्लेख मिलता है. आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्तिकालीन सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर, जायसी, मीराबाई, कबीर और रीतिकालीन बिहारी, केशव, घनानंद आदि कवियों ने होली को विशेष महत्व दिया है. प्रसिद्ध कृष्ण भक्त महाकवि सूरदास ने वसंत एवं होली पर अनेक पद रचे हैं. भारतीय सिनेमा ने भी होली को मनोहारी रूप में पेश किया है. अनेक फिल्मों में होली के कर्णप्रिय गीत हैं.

होली आपसी ईर्ष्या-द्वेष भावना को बुलाकर संबंधों को मधुर बनाने का पर्व है, परंतु देखने में आता है कि इस दिन बहुत से लोग शराब पीते हैं, जुआ खेलते हैं, लड़ाई-झगड़े करते हैं. रंगों की जगह एक-दूसरे में कीचड़ डालते हैं. काले-नीले पक्के रंग एक-दूसरे पर फेंकते हैं. ये रंग कई दिन तक नहीं उतरते. रसायन युक्त इन रंगों के कारण अकसर लोगों को त्वचा संबंधी रोग भी हो जाते हैं. इससे आपसी कटुता बढ़ती है. होली प्रेम का पर्व है, इसे इस प्रेमभाव के साथ ही मनाना चाहिए. पर्व का अर्थ रंग लगाना या हुड़दंग करना नहीं है, बल्कि इसका अर्थ आपसी द्वेषभाव को भुलाकर भाईचारे को बढ़ावा देना है. होली खुशियों का पर्व है, इसे शोक में न बदलें.

Wednesday, March 5, 2025

भारतीय संस्कृति में नारी कल, आज और कल


डॉ. सौरभ मालवीय
‘नारी’ इस शब्द में इतनी ऊर्जा है कि इसका उच्चारण ही मन-मस्तक को झंकृत कर देता है, इसके पर्यायी शब्द स्त्री, भामिनी, कान्ता आदि है, इसका पूर्ण स्वरूप मातृत्व में विलसित होता है। नारी, मानव की ही नहीं अपितु मानवता की भी जन्मदात्री है, क्योंकि मानवता के आधार रूप में प्रतिष्ठित सम्पूर्ण गुणों की वही जननी है। जो इस ब्रह्माण्ड को संचालित करने वाला विधाता है, उसकी प्रतिनिधि है नारी। अर्थात समग्र सृष्टि ही नारी है इसके इतर कुछ भी नही है। इस सृष्टि में मनुष्य ने जब बोध पाया और उस अप्रतिम ऊर्जा के प्रति अपना आभार प्रकट करने का प्रयास किया तो वरवश मानव के मुख से निकला कि –
त्वमेव माता च पिता त्वमेव
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विधा द्रविणं त्वमेव
त्वमेव सर्वं मम देव देव॥
अर्थात हे प्रभु तुम माँ हो ............।
अक्सर यह होता है कि जब इस सांसारिक आवरण मैं फंस जाते या मानव की किसी चेष्टा से आहत हो जाते हैं तो बरबस हमें एक ही व्यक्ति की याद आती है और वह है माँ । अत्यंत दुःख की घड़ी में भी हमारे मुख से जो ध्वनी उच्चरित होती है वह सिर्फ माँ ही होती है। क्योंकि माँ की ध्वनि आत्मा से ही गुंजायमान होती है ।  और शब्द हमारे कंठ से निकलते हैं लेकिन माँ ही एक ऐसा शब्द है जो हमारी रूह से निकलता है। मातृत्वरूप में ही उस परम शक्ति को मानव ने पहली बार देखा और बाद में उसे पिता भी माना। बन्धु, मित्र आदि भी माना। इसी की अभिव्यक्ति कालिदास करते है कि-
वागार्थविव संप्रक्तौ वागर्थ प्रतिपत्तये।
जगतः पीतरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरौ ॥ (कुमार सम्भवम)
जगत के माता-पिता (पीतर) भवानी शंकर, वाणी और अर्थ के सदृश एकीभूत है उन्हें वंदन।
इसी क्रम में गोस्वामी तुलसीदास भी यही कहते  हैं –
जगत मातु पितु संभु-भवानी। (बालकाण्ड मानस)
अतएव नारी से उत्पन्न सब नारी ही होते है, शारीरिक आकार-प्रकार में भेद हो सकता है परन्तु, वस्तुतः और तत्वतः सब नारी ही होते है। सन्त ज्ञानेश्वर ने तो स्वयं को“माऊली’’ (मातृत्व,स्त्रीवत) कहा है।
कबीर ने तो स्वयं समेत सभी शिष्यों को भी स्त्री रूप में ही संबोधित किया है वे कहते है –
दुलहिनी गावहु मंगलाचार
रामचन्द्र मोरे पाहुन आये धनि धनि भाग हमार
दुलहिनी गावहु मंगलाचार । - (रमैनी )
घूँघट के पट खोल रे तुझे पीव मिलेंगे
अनहद में मत डोल रे तुझे पीव मिलेंगे । -(सबद )
सूली ऊपर सेज पिया कि केहि बिधि मिलना होय । - (रमैनी )
जीव को सन्त कबीर स्त्री मानते है और शिव (ब्रह्म) को पुरुष यह स्त्री–पुरुष का मिलना ही कल्याण है मोक्ष और सुगति है ।
भारतीय संस्कृति में तो स्त्री ही सृष्टि की समग्र अधिष्ठात्री है, पूरी सृष्टि ही स्त्री है क्योंकि इस सृष्टि में बुद्दि ,निद्रा, सुधा, छाया, शक्ति, तृष्णा, जाति, लज्जा, शान्ति, श्रद्धा, चेतना और लक्ष्मी आदि अनेक रूपों में स्त्री ही व्याप्त है। इसी पूर्णता से स्त्रियाँ भाव-प्रधान होती हैं, सच कहिये तो उनके शरीर में केवल हृदय ही होता है,बुद्दि में भी ह्रदय ही प्रभावी रहता है, तभी तो गर्भधारण से पालन पोषण तक असीम कष्ट में भी आनंद की अनुभूति करती रहती।कोई भी हिसाबी चतुर यह कार्य एक पल भी नही कर सकता। भावप्रधान नारी चित्त ही पति, पुत्र और परिजनों द्वारा वृद्दावस्था में भी अनेकविध कष्ट दिए जाने के बावजूद उनके प्रति शुभशंसा रखती है उनका बुरा नहीं करती,जबकि पुरुष तो ऐसा कभी कर ही नही सकता क्योंकि नर विवेक प्रधान है, हिसाबी है, विवेक हिसाब करता है घाटा लाभ जोड़ता है, और हृदय हिसाब नही करता। जयशंकर प्रसाद ने कामायनी में लिखा है-
यह आज समझ मैं पायी हूँ कि
दुर्बलता में नारी हूँ।
अवयन की सुन्दर कोमलता
लेकर में सबसे हारी हूँ ।।
भावप्रधान नारी का यह चित्त जिसे प्रसाद जी कहते है-
नारी जीवन का चित्र यही
क्या विकल रंग भर देती है।
स्फुट रेखा की सीमा में
आकार कला को देती है।।
परिवार व्यवस्था हमारी सामाजिक व्यवस्था का आधार स्तंभ है,इसके दो स्तम्भ है- स्त्री और पुरुष।परिवार को सुचारू रूप देने में दोनों की भूमिका अत्यंत महतवपूर्ण है,समय के साथ मानवीय विचारों में बदलाव आया है|कई पुरानी परम्पराओं,रूढ़िवादिता एवं अज्ञान का समापन हुआ।महिलाएँ अब घर से बाहर आने लगी है कदम से कदम मिलाकर सभी क्षेत्रों में अपनी धमाकेदार उपस्थिति दे रही है,अपनी इच्छा शक्ति के कारण सभी क्षेत्रों में अपना परचम लहरा रही है अंतरिक्ष हो या प्रशासनिक सेवा,शिक्षा,राजनीति,खेल,मिडिया सहित विविध विधावों में अपनी गुणवत्ता सिद्ध कर कुशलता से प्रत्येक जिम्मेदारी के पद को सँभालने लगी है, आज आवश्यकता है यह समझने की  कि नारी विकास की केन्द्र है और भविष्य भी उसी का है, स्त्री के सुव्यवस्थित एवं सुप्रतिष्ठित जीवन के अभाव में सुव्यवस्थित समाज की रचना नहीं हो सकती। अतः मानव और मानवता दोनों को बनाये रखने के लिए नारी के गौरव को समझना होगा।


Monday, March 3, 2025

प्राथमिक शिक्षा



क्षेत्रीय टोली बैठक
प्राथमिक शिक्षा 
सुल्तानपुर (उत्तर प्रदेश)

मेरी पुस्तकें

1 राष्ट्रवादी पत्रकारिता के शिखर पुरुष अटल बिहारी वाजपेयी 2 विकास के पथ पर भारत 3 भारत बोध 4 राष्ट्रवाद और मीडिया (सम्पादन)  5 अंत्योदय को स...