Friday, April 18, 2025

भारतीय संस्कृति की धूम


डॉ. सौरभ मालवीय  
भारत की प्राचीन ज्ञान परंपरा एवं सांस्कृतिक धरोहर संपूर्ण विश्व में सराही जा रही है। संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) ने श्रीमद्भगवद गीता एवं महान नाट्यकार भरत मुनि द्वारा रचित नाट्यशास्त्र को अपने प्रतिष्ठित विश्व स्मृति रजिस्टर में सम्मिलित किया है।

विश्व विरासत दिवस के अवसर पर केंद्रीय संस्कृति एवं पर्यटन मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने आज यह जानकारी देते हुए कहा कि यह भारत की सभ्यतागत विरासत के लिए एक ऐतिहासिक क्षण है। उन्होंने एक्स पर लिखा- ”श्रीमद्भगवद्गीता और भरत मुनि के नाट्यशास्त्र को अब यूनेस्को के मेमोरी ऑफ द वर्ल्ड रजिस्टर में सम्मिलित किया गया है। यह वैश्विक सम्मान भारत के शाश्वत ज्ञान एवं कलात्मक प्रतिभा का उत्सव मनाता है। ये कालातीत रचनाएं साहित्यिक कोष से कहीं बढ़कर हैं - वे दार्शनिक और सौंदर्यवादी आधार हैं जिन्होंने भारत के विश्व दृष्टिकोण और हमारे सोचने, अनुभव करने, जीने और अभिव्यक्त करने के ढंग को आकार दिया है।”

प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने गीता और नाट्यशास्त्र को यूनेस्को के मेमोरी ऑफ द वर्ल्ड रजिस्टर में सम्मिलित किए जाने की प्रशंसा करते हुए इसे हमारे शाश्वत ज्ञान और समृद्ध संस्कृति को वैश्विक मान्यता प्रदान किया जाना बताया। गीता और नाट्यशास्त्र को यूनेस्को के मेमोरी ऑफ द वर्ल्ड रजिस्टर में सम्मिलित किया जाना हमारे शाश्वत ज्ञान और समृद्ध संस्कृति को वैश्विक मान्यता प्रदान किया जाना है। गीता एवं नाट्यशास्त्र ने सदियों से सभ्यता और चेतना का पोषण किया है। उनकी अंतर्दृष्टि दुनिया को प्रेरित करना जारी रखे हुए है।

संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) के अनुसार इस वर्ष मेमोरी ऑफ द वर्ल्ड रजिस्टर में कुल 74 नई प्रविष्टियां सम्मिलित की गईं। मेमोरी ऑफ द वर्ल्ड रजिस्टर में संग्रहों की कुल संख्या 570 हो गई है, जो वैश्विक बौद्धिक और सांस्कृतिक स्मृति के विशाल ताने-बाने का प्रतिनिधित्व करती है। इस सूची में ऐसे महत्वपूर्ण विधिक लेख्य एवं ग्रंथ सम्मिलित किए जाते होते हैं, जो मानव सभ्यता, संस्कृति एवं इतिहास की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। नई सम्मिलित की गई प्रविष्टियां वैज्ञानिक क्रांतियों, महिलाओं के योगदान एवं बहुपक्षीय सहयोग के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं, जिन्हें 72 देशों और चार अंतर्राष्ट्रीय संगठनों द्वारा प्रस्तुत किया गया है। भारत के पास अब मेमोरी ऑफ द वर्ल्ड रजिस्टर में 14 शिलालेख सम्मिलित हैं।

यूनेस्को की महानिदेशक ऑड्रे अज़ोले का कहना है कि विधिक लेख्य धरोहर विश्व की स्मृति का एक आवश्यक परंतु कोमल तत्व है। यही कारण है कि यूनेस्को सुरक्षा में निवेश करता है- जैसे कि मॉरिटानिया में चिंगुएट्टी के पुस्तकालय या कोटे डी आइवर में अमादौ हम्पाते बा के अभिलेखागार - सर्वोत्तम प्रथाओं को साझा करते हैं, और इस रजिस्टर को बनाए रखते हैं, जो मानव इतिहास के व्यापकतम धागों को रिकॉर्ड करता है।

इस वर्ष 2025 की सूची में वैज्ञानिक विधिक लेख्यों से लेकर ऐतिहासिक महिला नेत्रियों, दासता की स्मृति एवं मानवाधिकारों से संबंधित अभिलेख भी सम्मिलित हैं।
उल्लेखनीय है कि श्रीमद्भगवद गीता, महाभारत का एक अंश है। यह एक धार्मिक ग्रंथ है, जिसमें धर्म एवं कर्म आदि का उल्लेख है। नाट्यशास्त्र, भारतीय रंगमंच अर्थात नृत्य एवं नाट्यकला का मूल ग्रंथ माना जाता है।

अहिल्यबाई होलकर भारतीयता की प्रतीक थी : डॉ.सौरभ मालवीय





शिक्षा का क्षेत्र ही सामाजिक परिवर्तन का सबसे सशक्त माध्यम माध्यम होता है। उसमें साहित्य की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। साहित्य ही ज्ञान को संरक्षित करता है। संस्कारयुक्त शिक्षा हमारा उद्देश्य है। विद्या भारती अनेक वर्षों से समाज में भारतीयता पूर्ण शिक्षा एवं आध्यात्मिक मूल्यों से जुड़े रहने का लक्ष्य लेकर काम कर रही है।

 उक्त बातें विद्या भारती के क्षेत्रीय मंत्री डॉ.सौरभ मालवीय ने भारतीय शिक्षा समिति कानपुर प्रांत द्वारा प्रकाशित  'लोकमाता अहिल्याबाई होल्कर' विशेषांक के विमोचन करते हुए कही।

सरस्वती  विद्या मंदिर इंटर कॉलेज दामोदर नगर कानपुर में भारतीय शिक्षा समिति कानपुर प्रांत द्वारा तीन दिवसीय प्रधानाचार्य समीक्षा एवं कार्य योजना बैठक आयोजित की गई जिसमें सभी संकुल से प्रधानाचार्य ने सहभाग किया। कार्यक्रम का शुभारंभ श्री भवानी जी प्रांत संघ चालक , डॉ. सौरभ मालवीय क्षेत्रीय  मंत्री पूर्वी उत्तर प्रदेश, श्री रजनीश जी प्रांत संगठन मंत्री कानपुर प्रांत  ने दीप  प्रज्ज्वलित किया। डॉक्टर सौरभ मालवीय, भवानी जी प्रांत संघ चालक जी ने श्री रजनीश जी ने अनुभव पत्रिका का विमोचन संकुल प्रमुख व प्रांत प्रमुख श्री रामकृष्ण बाजपेई जी के साथ किया इसके बाद मा सौरभ मालवीय जी ने  कानपुर प्रांत की बेवसाइट का लोकार्पण किया इसके बाद डॉ.मालवीय ने कहा कि हम योजना बनाकर कार्य  करते हैं हमारी प्रमुख भूमिका विद्यालय को श्रेष्ठ बनाना है विद्यालय जीवंत है इसके हम प्रेरक हैं  तब विद्यालय समाज केंद्रित होता है। छात्रों के सर्वांगीड़ और समग्र विकास को ध्यान में रखते हुए बहुत सारे कार्यक्रम और गतिविधियों की योजना भी हम विद्यालय स्तर पर करते है।

भवानी जी ने कहा कि हम राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका का कार्य करते हैं अतः हमको अपने कार्य के प्रति समर्पित होकर कार्य करना चाहिए इस कार्यक्रम में मा ,डॉक्टर  राकेश निरंजन जी अध्यक्ष, श्री अयोध्या प्रसाद जी मिश्र प्रदेश निरीक्षक, श्री आर के सिंह जी सह मंत्री जी  श्री अजय जी ,श्री शिवकरण जी संभाग निरीक्षक श्री शिव सिंह जी सेवा प्रमुख,विद्यालय के प्रबंधक श्री ओम  प्रकाश अग्रवाल जी तथा समस्त प्रधानाचार्य बंधु एवं भगिनी उपस्थित रहे।

Thursday, April 17, 2025

भारतीय संस्कृति की विवेचना एवं उपादेयता : सांस्कृतिक राष्ट्रवाद

 


डॉ. सौरभ मालवीय
सहायक प्राध्यापक
माखन लाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल
 
सारांश
मनुष्य के सोचने के ढंग मूल्यों व्यवहारों तथा उनके साहित्य, धर्म, कला में जो अन्तर दिखाई पड़ता है वह संस्कृति के कारण है। भारतीयों के लिए आज भी आत्मिक मूल्य सर्वोपरि है, व्यक्तित्व के विकास में जिन कारकों का योगदान होता है, उनमें संस्कृति प्रधान है। मनोवैज्ञानिक रूप बेनीडिक्ट ‘पैटन्र्स ऑफ कल्चर में लिखते है कि ‘संस्कृति का प्रभाव बचपन से ही पड़ने लगता है जिन परिस्थितियों में वह जन्म के क्षण पैदा होता है, इसका प्रभाव उसके व्यवहार एवं स्वभाव में होता है। जिस समय वह बोलता है, अपनी संस्कृति का छोटा-सा प्राणी है। जिस समय से वह बढ़ता है एवं कार्यों में हिस्सा लेता है सांस्कृतिक परिवेश उसके स्वभाव को गढ़ते है। आदतों, मान्यताओं, विश्वासों, स्वभावों में संस्कृति की अमिट छाप दिखाई पड़ती है।
भूमिका
भारतीय संस्कृति पर वे पुनः कहते हैं कि दर्शन, भाषा, साहित्य, ज्ञान-विज्ञान, इतिहास, कला आदि संस्कृति के सभी अंगों पर वेदादिशशास्त्रमूलक सिद्धांतों की ही छाप है। बाहरी प्रभाव उससे पृथक दिख पडत़ा है। संसार के प्रायः सभी देशों में भारतीय संस्कृति के प्रभाव स्पष्ट दिखायी देते हैं। दर्शन शास्त्र तो व्यापकरूपेण फैला हुआ है। इतना तो सिद्ध है कि इन सबका सम्बन्ध हिन्दू संस्कृति से है। इस प्रकार सभी दृष्टियों से यही मानना पड़ता है कि हिन्दू संस्कृति ही भारतीय संस्कृति है।
विवेचन एवं व्याख्या
संस्कृति शब्द संस्कार से बना है। संस्कृत व्याकरण के मूर्धन्य पुरुष भगवान् पाणिनि के अनुसार सम् उपसर्गपूर्वक कृ धातु से भूषण अर्थ में सुट् आगमपूर्वक क्तिन प्रत्यय होने से संस्कृति शब्द बनता है।
सम्परिभ्यांकरोतौभूषणे
            (6.1.137 पाणिनीय सूत्रे)
इस प्रकार लौकिक, पारलौकिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, आर्थिक, राजनैतिक अभ्युदयके उपयुक्त देहेन्द्रिय, मन, बुद्धि तथा अहंकरादि की भूषणयुक्त सम्यक चेष्टाएं संस्कृति कहलाती हैं।
धर्मसम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज
(संस्कार, संस्कृति और धर्म पृष्ठ 69)
न्याय दर्शन के अनुसार वेग, भावना और स्थितिस्थापक यह त्रिविध संस्कार हैं। इसमें भी अनुभव जन्य स्मृतिका हेतु भावना है।
ऋषियों ने स्वाश्रय की प्रागुद्भूत अवस्था के समान अवस्थान्तरोत्पादक अतीन्द्रिय धर्म को ही संस्कार माना है।
स्वाश्रयस्य प्रागुद् भूतावस्थासमानावस्थान्तरोत्पादककोउतीन्द्रिययो धर्मः संस्कारः।
योग के अनुसार न केवल मानस संकल्प, विचारादि से ही अपितु देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार आदि की सभी हलचलों, चेष्टाओं, व्यापारों से संस्कार उत्पन्न होते हैं। विख्यात विचारक प्रो. जाली महाशय कहते हैं:
Sanskars are supposed to purity the person of human being in his life and for the life after death.
(Hindu law and custom)
 
सम् की आवृत्ति करके ‘सम्यक संस्कार’ को ही संस्कृति कहा जाता है। अर्थात् संस्कारों की उपयुक्त कृतियों को ही संस्कृति कहते हैं। परंतु जैसे वेदोक्त कर्म और कर्मजन्य अदृष्ट दोनों को ही धर्म कहते हैं। वैसे ही संस्कार और संस्कारोपयुक्त कृतियां दोनों ही संस्कृति शब्द से व्यवहृत हो सकती हैं। इस प्रकार सांसारिक निम्न स्तर की सीमाओं में आबद्ध आत्मा के उत्थानानुकूल सम्यक् भूषणभूत कृतियां ही संस्कृति हैं।
गहरे अर्थों में सभ्यता और संस्कृति एक ही बात मानी जाती है। संस्कृति का परिणाम सभ्यता है। जिस प्रकार सम्यक् कृति संस्कृति है उसी प्रकार सभा में साधुता का स्वभाव सभ्यता है। आचार-विचार, रहन-सहन, बोलचाल, चाल-चलन आदि की साधुता का निर्णय शास्त्रों से ही होता है। वेदादि शास्त्रों द्वारा निर्णीत सम्यक् एवं साधु चेष्टा ही सभ्यता है और वही संस्कृति भी है।
हम सबके भीतर जो दिव्य निवासी है उनके सायुज्य का नाम या सायुज्य का सत्प्रयास भी संस्कार है।
सर्वभूताधिवासः
संस्कार का अन्य नाम है सचेतन के आध्यात्मिक विकास का विधान। इसी के द्वारा जीवन का सत्-चित् आत्मा के दिव्य जीवन में रूपांतरित होता है।
यत् सानोः सानुभारुहद् भूर्यस्पष्ट कत्र्वम्। तदिन्द्रो अर्थ चेतति यूथेन वृष्णिरेंजति
(ऋग्वेद 1.10.2)
आचार्य चाणक्य के अनुसार संस्कारित व्यक्ति परस्त्री को मातृवत् परद्रव्य को मिट्टी की भांति एवं सभी प्राणियों में आत्मदर्शी होता है।
मातृवत्परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत्।
आत्मवत्सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः।।
                                                                                                                        (चाणक्य नीति 12.14)
स्मृतिकार भगवान् मनु ने भारतीय संस्कृति की महत्ता को रेखांकित करते हुए लिखा है कि-
एतद्देशप्रसूतस्य सकाशदग्रजन्मनः।
स्व स्व चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।
                                                                                                            (मनुस्मृति 2.20)
अर्थात् इस पवित्र भूमि में पैदा हुए (अग्रजन्मा) महापुरुषों से ही धरती के सभी लोगों को अपने-अपने सद्वृतो की शिक्षा लेनी चाहिए।
अथर्ववेद मधुर वचन को भी सुसंस्कार कहते हैं।
                                                                                    -मधुमती वाचमुदेयम् (अथर्ववेद 16.2.2)
सुसंस्कारों से शील की व्युत्पत्ति होती है और शील ही सबका भूषण है।
                                                                                    -शील सर्वस्य भूषणम् (गरुण पुराण 1.113.13)
धैर्य, क्षमा, दान, सहिष्णुता, अस्तेय, अतिथि सेवा ये सब आत्मनियंत्रित संस्कार हैं, इसे ही शील कहा जाता है। मनुस्मृति में वृद्ध सेवा और प्रणाम अत्यंत महत्वपूर्ण संस्कार के रूप में वर्णित हैं।
अभिवादनशीलस्य नित्य वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्यायशोबलम्।।
                                                                                                                        (मनुस्मृति 2.121)
पूर्वाम्नाय पुरीपीठाधिपति  जगद्गुरु श्री निश्चलानंद जी सरस्वती लिखते हैं कि-
सदोष और विषम शरीर तथा संसार से मन को उपरतकर उसे निर्दोष एवं समब्रह्म में समाहितकर सर्गजय (पुनर्भवपर विजय) आध्यात्मिक और आधिदैविक दृष्टि से संस्कारों का प्रयोजन है। बाह्याभ्यन्तर पदार्थोंक अभ्युदय और निःश्रेयस के युक्त बनाना संस्कारों के द्वारा सम्भव है। पार्थिव, वारुण, तैजस् और वायव्य बाह्य वस्तुएं दृश्य, भौतिक, सावयव तथा परिच्छिन्न होने से संस्कार्य हैं। स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण शरीर दृश्य और परिच्छिन्न होने से संस्कार योग्य है। जो कुछ सदोष और विषम है, वह संस्कार्य है। ब्रह्मात्मत्व विभु, निर्दोष और सम होने से असंस्कार्य है।                                  
                                                                                                                        (संस्कारतत्व विमर्श)
मूलाम्नाय कांचीकामकोटि के प्रमुख जगद्गुरु स्वामी श्री जयेन्द्र सरस्वती जी महाराज के अनुसार-
तदर्थमेव सनातन धर्म उत्पादिता चित्तशुद्धिहेतुकाः क्रियाः संस्कारनाम्ना व्यवहियन्ते।
अर्थात् सनातन धर्म में चित्त शुद्धि के निमित्त जो क्रियाएं की जाती हैं उसे संस्कार कहते हैं।
आचार्य श्री कृपाशंकर जी रामायणी भगवद्भक्ति के संस्कार  में लिखते हैं कि-
यन्नवे भाजने लग्नः संस्कारो नान्यथा भवेत्।
अर्थात् प्रत्येक माता, पिता, आचार्य आदि का पावन कर्तव्य है कि बालकों के मन को सुसंस्कृत करें।
आचार्य शंख के अनुसार सुसंस्कृत व्यक्ति ब्रह्मलोक में ब्रह्म पद को प्राप्त करता है फिर वह कभी पतित नहीं होता है।
संस्कारैः संस्कृतः पूर्वैरुरुत्तरैरनुसंस्कृतः।
नित्यमष्टगुणैर्युक्तो ब्राह्मणों ब्रह्मलौकिकः।।
 भोजवृत्ति के अनुसार-
‘‘द्विविधाश्चित्तस्य वासनारूपाः संस्काराः’’
संस्कार वासना रूपात्मक हुआ करते हैं।
योग सुधाकर में संस्कार पूर्वजन्म परम्परा में संचित चित्त के धर्म हैं-
‘‘संस्काराश्चित्तधर्माः पूर्व जन्म परम्परा संचिताः सन्ति।’’
योगिराज ब्रह्मानंद गिरि के अनुसार ज्योत्सना में वासना को भावना नामक संस्कार कहा जाता है।
‘‘वासना भावनाख्यः संस्कारः’’
 योग सूत्र में बताया गया है कि ऋतम्भरा के संस्कारों से ही समाधि प्रज्ञा होती है।
 
श्री नागोजिभट्ट
ज्ञानरागादिवासनारूप संस्कारः
कहते हैं। संस्कार अधिवासन हैं-
संस्कारोगन्धमाल्याधैर्यः स्यात्तदधिवासनम्।।
                                                                                                                        (अमरकोश 2.134)
संस्कार से ही मनुष्य द्विज बनता है।
नासंस्कारा द्विजः
                                                                                                                        (बौधायनगृह्य सूत्र)
 महर्षि जैमिनी ने गुणों के अभिवर्द्धन को संस्कार कहा है-
‘‘द्रव्य गुण संस्कारेषु बादरिः’’
      (3.1.3)
श्रीशबर ऋषि ने संस्कृति को परिभाषित करते हुए लिखा है कि-
संस्कारो नाम स श्रवति यक्ष्मिन्जाते पदार्था भवति योग्यः कस्याचिदर्थस्य।
                                                (मीमांसा दर्शन)
अर्थात् संस्कार वह होता है जिसके उत्पन्न होने पर पदार्थ किसी प्रयोजन के लिये योग्य होता है।
महर्षि श्रीभट्टपाद के अनुसार-
योग्यता चादधानाः क्रियाः संस्कारा इत्युच्यन्ते
      (तन्त्रवार्तिक)
संस्कार वे क्रियाएं हैं जो योग्यता प्रदान करती हैं। छान्दोग्य उपनिषद् में आया है कि परमात्मा मन से सम्पन्न और सुसंस्कृत करते हैं।
 
‘‘मनसा संस्कारोति ब्रह्मा’’
(छान्दोग्योपनिषद् 4.16.3)
संस्कार के अभाव से जन्म निरर्थक माना जाता है।
‘‘संस्कार रहिता ये तु तेषां जन्म निरर्थकम्’’
      (आश्वलायन गृह्य सूत्र)
महर्षि पाणिनि ने उसे उत्कर्ष करने वाला बताया है।
‘‘उत्कर्ष साधनं संस्कारः’’
बौद्ध दर्शन में निर्माण, आभूषण, समवाय, प्रकृति, कर्म और स्कन्ध के अर्थ में संस्कारों का प्रयोग किया है। वे इसे अवचक्र की द्वादश शृंख्लाओं में गिनते हैं। वे निम्नोक्त हैं-
अविद्या, संस्कार, विज्ञान, नामरूप, षडायतन, स्पर्श, वेदना, तृष्णा, उपादान, भव, जाति और जरा मरण।
अद्वैत वेदान्त में आत्मा के ऊपर मिथ्या अध्यास के रूप में संस्कार का प्रयोग हुआ है।
कविकुलगुरु कालिदास इस संस्कार को शिक्षण के रूप में प्रयुक्त करते हैं।
निसर्गसंस्कार विनीत इत्यसौ
नृपेण चक्रे युवराज शब्दभाक्
(रघुवंश 3.35)
वहीं कालिदास इसे आभूषण के अर्थों में भी प्रयुक्त करते हैं-
‘‘स्वभाव सुन्दरं वस्तु न संस्कारमपेक्षते’’
      (अभिज्ञान शाकुन्तलम् 7-23)
संस्कार पुण्य के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है
फलानुमेयाः प्रारम्भाः संस्काराः प्राक्तना इव
      (रघुवंश 1-20)
तर्क संग्रह में इसे प्रभाव स्मृति माना जाता है
संस्कारजन्यं ज्ञानं स्मृतिः
      (तर्क संग्रह)
इसी प्रकार के बहुअर्थीय सन्दर्भों वाले इस पवित्र शब्द को ऋषियों ने एक दिव्य अनिर्वचनीय पुण्य उत्पन्न करने वाला धार्मिक कृत्य कहा है।
आत्मशरीरान्यतरनिष्ठो विहित क्रियाजन्योडतिशय विशेष: संस्कारः।
      (वीरमित्रोदय संस्कार प्रकाश)
आचार्य मेधातिथि के अनुसार सुसंस्कृत व्यक्ति ही आत्मोपासना का अधिकारी हो सकता है।
‘‘एतैस्तु संस्कृत आत्मोपासनास्वधिक्रियते’’
      (मनुस्मृतिका मेधातिथि भाष्य)
वैद्यराज आचार्य चरक कहते हैं कि
संस्कारो हि गुणान्तराधानमुच्यते
      (चरक संहिता विमान 1-27)
अर्थात दुर्गुणों, दोषों का परिहार तथा गुणों का परिवर्तन करके भिन्न एवं नये गुणों का आधान करना ही संस्कार कहलाता है।
योगसूत्र में संस्कार के द्वारा पूर्वजन्मों की स्मृतियां प्राप्त करने को कहा गया है। भगवान पतंजलि कहते हैं-
संस्कार साक्षात् करणात् पूर्वजातिज्ञानम्
      (योगसूत्र 3.18)
आचार्य रामानुज संस्कार को योग्यता का मूल मानते हैं।
संस्कारो हि नाम कार्यान्तर योग्यता करणम्।
      (श्री भाष्य 1.1.1)
पूज्यपाद धर्मसम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज ने संस्कार और संस्कृति पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि-
‘‘संस्कृति का लक्ष्य आत्मा का उत्थान है। जिसके द्वारा इसका मार्ग बताया जाय वही संस्कृति का आधार हो सकता है। यद्यपि सामान्यरूपेण भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के धर्मग्रन्थों के आधार पर विभिन्न संस्कृतियां निर्णीत होती हैं। तथापि अनादि अपौरुषैय ग्रन्थ वेद ही हैं। अतः वेद एवं वेदानुसारी आर्ष धर्मग्रन्थों के अनुकूल लौकिक-पारलौकिक अभ्युदय एवं निःश्रेयसों पयोगी व्यापार ही मुख्य संस्कृति है और वही हिन्दू संस्कृति, वैदिक संस्कृति या भारतीय संस्कृति है।’’
     (संस्कार संस्कृति और धर्म)
श्रेष्ठतम वेदान्ती स्वामी श्री विवेकानन्द जी संस्कृति के बारे में बताते हैं कि-
संस्कारों से ही चरित्र बनता है। वास्तव में चरित्र ही जीवन की आधारशिला है उसका मेरुदंड है। राष्ट्र की सम्पन्नता चरित्रवानों की ही देन है। जहां के निवासी चारित्र्य से विभूषित होते हैं वह राष्ट्र प्रगत होगा ही। राष्ट्रोत्थान और व्यष्टि चरित्र ये दोनों अन्योन्याश्रित हैं। मन निर्मल, सत्वगुणयुक्त और विवेकशील हो इसके लिये निरंतर अभ्यास करने की आवश्यकता है। प्रत्येक कार्य से मानो चित्त रूपी सरोवर के ऊपर एक तरंग खेल जाती है। यह कम्पन कुछ समय बाद नष्ट हो जाता है फिर क्या शेष रहता है- केवल संस्कार समूह। मन में ऐसे बहुत से संस्कार पडऩे पर वे इकट्ठे होकर आदत के रूप में परिणित हो जाते हैं। ऐसा कहा जाता है कि आदत ही द्वितीय स्वभाव है। केवल द्वितीय स्वभाव ही नहीं वरन् प्रथम स्वभाव भी है। हमारे मन में जो विचारधारायें बह जाती हैं उनमें से केवल प्रत्येक अपना एक चिह्न-संस्कार छोड ज़ाती है। केवल सत्कार्य करते रहो, सर्वदा पवित्र चिन्तन करो, इस प्रकार चरित्र निर्माण ही बुरे संस्कारों को रोकने का एकमात्र उपाय है।
      (कल्याण संस्कार अंक)
पूज्य योगी श्री देवराहा बाबा के शब्दों में- “फूलों में जो स्थान सुगन्ध का है, फलों में जो स्थान मिठास का है, भोजन में जो स्थान स्वाद का है, ठीक वही स्थान जीवन में सम्यक संस्कार का है। संस्कारों की प्रतिष्ठा से ही यह देश महान बना है। किसी भी देश का आचार-विचार ही उसकी संस्कृति कहलाती है। आचार-व्यवहार, संस्कार और संस्कृति में गहरा तादाम्य है। संस्कार प्रतिष्ठा भगवत्प्रतिष्ठा के समतुल्य है।”
     (योगिराज देवराहा बाबा के उपदेश)
सन्तश्री विनोबाभावे जी कहते हैं- हिन्दुस्थान कभी अशिक्षित और असंस्कृत नहीं रहा है। हर एक को अपने-अपने घरों में शुद्ध संस्कार प्राप्त हुए हैं। जो बडे़-बडे़ पराक्रमशाली लोग हुए उनके कुल के संस्कार भी अच्छे थे। कुछ गुदडी़ के लाल भी निकलते हैं, क्योंकि उनकी आत्मा स्वभावतः महान् और बडी़ विलक्षण होती है। इस प्रकार कुछ अपवादों को छोड द़ें तो सभी महापुरुषों में उनके कुल के संस्कार दिखायी पडत़े हैं। संस्कारों से जो शिक्षण प्राप्त होता है वह और किसी पद्धति से नहीं।
      (संस्कार सौरभ)
संस्कारों की महत्ता को प्रकाशित करते हुए महर्षि दयानन्द सरस्वती कहते हैं कि संस्कारों से ही पवित्रता आती है। अतएव अनेक विध प्रयासों द्वारा संस्कार करते रहना चाहिए।
संस्कारैस्संस्कृतं यद्यन्येध्यमत्र तदुच्यते।
असंस्कृतं तु यल्लो के तदमेध्यं प्रकीत्र्यते।।
     (संस्कार की भूमिका)
गौतम ऋषि ने कहा है कि-
संस्क्रियते अनेन श्रौतेन कर्मणा वा पुरुषा इति संस्कार
     (गौतम सूत्र)
अर्थात् श्रुतियों (त्रच्क्, यजु, साम और अथर्व) एवं स्मृतियों (मनु, वृहस्पति, भरद्वाज, याज्ञवल्क्य, यास्क आदि) द्वारा विहित कर्म ही संस्कार कहलाता है।
 
श्री दादा धर्माधिकारी संस्कृति के संदर्भ में लिखते हैं कि- संस्कृति एक अखिल- जागतिक भाव और सार्वभौम तत्त्व है। उसके लक्षण अखिल जागतिक हैं। उसके मूल तत्त्व भी विश्व के समस्त देशों मंे विद्यमान हैं। संस्कृति की मूलभूत परिभाषा में एकता झलकती है। इसलिए वह संस्कृति है और मनुष्यों को सभ्य बना सकती है। अतः संस्कृति उस शिक्षा व दीक्षा को भी कह सकते हैं जो सामान्य मानव का जीवन सुधारे। इससे स्पष्ट है कि एक देश की संस्कृति में उस देश की पुरातन आदतें, प्रथाएं व रहन-सहन भी सन्निहित होते हैं और वे उस देश के मनुष्यों के चरित्र निर्माण में सहायक होते हैं। वैसे सभी संस्कृतियों का लक्ष्य मानव-आत्मा को उन्नत करना ही होता है; क्योंकि सभी मानव मूलतः एवं प्रकृति से सदृश हैं। इस कारण सभी देशों की जातियों की संस्कृतियां कई अंशों में समान भी पाई जाती हैं। लेकिन फिर भी देश, काल और पात्र की परिस्थितियों एवं संस्कृतियों के प्रेरकों-निर्माताओं के आदर्श विभिन्न होते हैं। इस विभिन्नता के कारण ही देशों की संस्कृतियों में भी भिन्नता आ जाती है। भारतीय संस्कृति के प्रमुख प्रणेता ऋषि-महर्षि व दार्शनिक रहे हैं। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति अन्य देशों की संस्कृतियों से कुछ भिन्नता लिए हुए है। इस संदर्भ में हम भारतीय योगी अरविंद की परिभाषा उल्लेखित कर देना आवश्यक समझते हैं। वे संस्कृति को परिभाषित करते हुए लिखते हैं ‘‘इस संसार में सच्चा सुख आत्मा, मन और शरीर के समुचित समन्वय और उसे बनाये रखने में ही निहित होता है। किसी संस्कृति का मूल्यांकन इसी बात से करना चाहिए कि वह इस समन्वय को प्राप्त करने की दशा में कहा तक सफल रही है।’’
 
भारतीय संस्कृति धर्म प्रधान एवं आध्यात्मिक होने के कारण दार्शनिक आवरण से अधिक आवृत्त हो गई है। इसीलिए भारतीय संस्कृति से तात्पर्य सत्यं, शिवं, सुन्दरम के लिए मस्तिष्क और हृदय में आकर्षण उत्पन्न करना तथा अभिव्यंजना द्वारा उसकी प्रशंसा करने से लिया जाता है। इसी श्रेणी में हम श्री वासुदेव शरण अग्रवाल द्वारा परिभाषित संस्कृति की परिभाषा का उल्लेख कर देना भी उचित समझते हैं। वे अपनी पुस्तक ‘कला और संस्कृति’ में लिखते हैं- ‘‘वास्तव में संस्कृति वह है जो सूक्ष्म एवं स्थूल मन एवं कर्म, अध्यात्म जीवन एवं प्रत्यक्ष जीवन में कल्याण करती है।’’ अतः यदि हम संस्कृति को जीवन के महत्वपूर्ण एवं सार्थक रूपों की आत्म-चेतना कहें तो अनुचित नहीं होगा।
प्रो. गोविन्द चन्द्र पाण्डेय के अनुसारः ‘‘संस्कृति से तात्पर्य है सामाजिक मानस अथवा चेतना से जिसका इस प्रसंग में स्वप्रकाश विजयी के अर्थ में नहीं किन्तु विचारों, प्रयोजनों और भावनाओं की संगठित समष्टि के अर्थ में ग्रहण करना चाहिए।’’
डॉ. रामधारी सिंह दिनकर के अनुसारः ‘‘संस्कृति वह चीज मानी जाती है जो सारे जीवन में व्याप्त हुए हैं तथा जिसकी रचना और विकास में अनेक सदियों के अनुभवों का साथ है।’’ डॉ. सत्यकेतु विद्यालंकार ने संस्कृति शब्द को स्पष्ट करते हुए लिखा है, ‘‘मनुष्य अपनी बुद्धि का प्रयोग कर विचार और कर्म के क्षेत्र में जो सृजन करता है उसे संस्कृति कहते हैं।’’
 डॉ. देवराज के अनुसारः ‘‘संस्कृति उस बोध या चेतना को कहते हैं जिसका सार्वभौम उपभोग या स्वीकार हो सकता है और जिसका विषय वस्तुसत्ता के वे पहलू हैं जो निर्वैयक्तिक रूप में अर्थमान हैं।’’
 
शिवदत्त ज्ञानी के अनुसारः ‘‘किसी समाज, जाति अथवा राष्ट्र के समस्त व्यक्तियों के उदात्त संस्कारों के पुंज का नाम उस समाज, जाति और राष्ट्र की संस्कृति है। किसी भी राष्ट्र के शारीरिक, मानसिक व आत्मिक शक्तियों का विकास संस्कृति का मुख्य उद्देश्य है।’’
इस प्रकार संस्कार का अर्थ है संवारना, सजाना, उन्नत बनाना और इसकी प्रक्रिया का नाम संस्कृति है।
संस्कृति का समरूप या पर्यायवाची culture शब्द नहीं हो सकता। अंग्रेजी का शब्द culture लैटिन के cult से बना है। oxford शब्दकोश के अनुसार cult का अर्थ पूजा पद्धति से है। Cult is a system of religion worship या to a person or thing.
लैटिन के culture का अर्थ काट-छांट करना होता है, जो विशेषतः वनस्पतियों के अर्थ में प्रयोग होता है। फूल पत्तों की कटाई-छंटाई करना मूल अर्थ था। इसी कारण Horticulture, Agriculture, Cultivate culture आदि शब्द अस्तित्वमान है। यह culture शब्द केवल और केवल वानस्पतिक अर्थों में प्रयुक्त होता था जो कृषि कार्य से सम्बद्ध थे। इसी कारण वे कृषि जन्य अन्य शब्द भी निर्मित हुए। बाद में कल्टस culture से the cult film, cult figure, personalty cult the cult of aestheticism आदि शाब्दिक अवधारणाएं बनीं। परन्तु कोई भी शब्द भारतीय शब्द संस्कृति के पासंग में भी नहीं समा रहा है। कितना मूलभूत अन्तर है भावों का। जिस प्रकार अंग्रेजी लैटिन के वे सभी शब्द culture के व्युत्पन्न हैं उसी प्रकार भाषा विज्ञानियों के अनुसार संस्कृति, संस्कृत, संस्कार आदि शब्द भी एक ही मूल के हैं। मूल समस्या तब प्रारम्भ हुई जब हम अंग्रेजी के माध्यम से संस्कृत, संस्कृति का अध्ययन करने लगे। शब्दों के हेर-फेर से भावों और तज्जन्य परिणामों पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा।
अंग्रेजी में ‘संस्कृति’ शब्द का समानार्थक शब्द ‘कल्चर’ है। ‘कल्चर’ शब्द की व्याख्या करते हुए अमेरिकन विद्वान व्हाइट-हेड ने लिखा है: ‘कल्चर’ मानसिक प्रक्रिया है और सौन्दर्य तथा मानवीय अनुभूतियों का हृदयंगम करने की क्षमता है।’’
बेकन के अनुसार: ‘कल्चर’ में मानवता के आंतरिक एवं स्वतंत्र जीवन की अभिव्यक्ति होती है।’ भारतीय संस्कृति का विदेशों में विकास उसकी अपनी महिमा और उदारता के कारण हुआ है तथापि कई बार ऐसा शस्त्र और शौर्य से भी किया गया है। ‘‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’’। हम संसार को सभ्य बनायेंगे, ऐसा इस देश का लक्ष्य रहा है। उसके लिये भारतीय संस्कृति द्वारा प्रवाहित ज्ञान धारायें जब काम नहीं कर सकी तो अस्त्र भी उठाये गये है और उसके लिये सारे विश्व ने साथ भी दिया है। महाभारत का युद्ध हुआ था उसमें काबुल, कन्धार, जावा, सुमात्रा, मलय, सिंहल, आर्यदेश (आयरलेण्ड) पाताल (अमेरिका) आदि देशों के सम्मिलित होने का वर्णन है यह विश्व युद्ध था।
 
भारतीय संस्कृति माता है और विश्व के तमाम देश अनेक संस्कृतियां और जातियां उसके पुत्र-पुत्री पोता-पोती की तरह है। घर सबका यही था, भाषा सबकी यहीं की संस्कृति थी ओर संस्कृति थी और संस्कृति भी यही की थी जो कालान्तर में बदलते-बदलते और बढ़ते-बढ़ते अनेक रूप और प्रकारों में उसी तरह हो गई जैसे आस्ट्रेलियाई मूंगों की दूर-दूर तक फैली हुई चट्टान।
इस तथ्य का मनोवैज्ञानिक ‘बेनीडिक्ट’ अपनी पुस्तक में इस प्रकार वर्णन करते है संस्कृति जिससे व्यक्ति अपना जीवन बनाता है, कच्चा पदार्थ प्रस्तुत करती है तथा उसका स्तर निम्न है तो व्यक्ति को कष्ट देती है तथा उसका व्यक्तित्व निकृष्ट स्तर का बनता है और यदि श्रेष्ठ हुई तो व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास का अवसर मिलता है।
निष्कर्ष
सुसंस्कारिता ही मानव जीवन का बहुमूल्य गरिमा है, इसे अपनाने वाले ही संस्कृति को समाज को धन्य बनाते और स्वयं उसके अनुयायी होने का गौरव प्राप्त करते हैं। अभिसिंचित करता रहा है। इस सत्य के प्रमाण आज भी इतिहासकार देते है। उल्लेख मिलता ही है कि दक्षिण-पूर्वी ऐशिया ने भारत से ही अपनी संस्कृति ली। ईसा से पांचवी शताब्दी पूर्व भारत के व्यापारी सुमात्रा, मलाया और पास के अन्य द्वीपों में जाकर बस गये, वहां के निवासियों से वैवाहिक सम्बन्ध भी स्थापित कर लिये। चैथी शताब्दी के पूर्व में अपनी विशिष्टता के कारण संस्कृति उन देशों की राजभाषा बन चुकी थी। राज्यों की सामूहिक शक्ति जावा के वोरोबदर स्तूप और कम्बोडिया के शैव मन्दिर में सन्निहित थी। राजतन्त्र इन धर्म संस्थानों के अधीन रहकर कार्य करता था। चीन, जापान, तिब्बत, कोरिया की संस्कृतियों पर भारत की अमिट छाप आज देखी जा सकती है। बौद्ध स्तूपों, मन्दिरों के ध्वंशावशेष अनेक स्थानों पर बिखरे पडे़ है।
 
संदर्भ सूची
पाण्डेय, डॉ. रामसजन. (1995). संतों की सांस्कृतिक संसृति. दिल्ली : उपकार प्रकाशन. पृष्ठ. 14
दिनकर, रामधारी सिंह.(1956). संस्कृति के चार अध्याय. दिल्ली : राजपाल एंड संस, पृष्ठ. 5
शुक्ल, दुर्गाशंकर.(1956).भारत की राष्ट्रीय संस्कृति (अनु.). नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया, पृष्ठ.3
तिवारी, डॉ. शशि एवं अन्य.(1986). भारतीय धर्म और संस्कृति. दिल्ली : दिल्ली विश्वविद्यालय, पृष्ठ.1
शास्त्री, डॉ. अनंत कृष्ण.(1942). ऐतरेयब्राह्मण. यूनिवर्सिटी ऑफ भावनकोर, पृष्ट. 1-6

Wednesday, April 16, 2025

भारत की पहचान है सांस्कृतिक राष्ट्रवाद


डॉ. सौरभ मालवीय
''सांस्कृतिक राष्ट्रवाद'' प्राचीन अवधारणा है। राष्ट्र वही होगा, जहां संस्कृति होगी। जहां संस्कृति विहीन स्थिति होगी, वहां राष्ट्र की कल्पना भी बेमानी है। भारत में आजादी के बाद शब्दों की विलासिता का जबर्दस्त दौर कुछ तथाकथित बुध्दिजीवियों ने चलाया। इन्होंने देश में तत्कालीन सत्ताधारियों को छल-कपट से अपने घेरे में ले लिया। परिणामस्वरूप राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत जीवनशैली का मार्ग निरन्तर अवरूध्द होता गया। अब अवरूध्द मार्ग खुलने लगा है। संस्कृति से उपजा संस्कार बोलने लगा है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का आधार हमारी युगों पुरानी संस्कृति है, जो सदियों से चली आ रही है। यह सांस्कृतिक एकता है, जो किसी भी बन्धन से अधिक मजबूत और टिकाऊ है, जो किसी देश में लोगों को एकजुट करने में सक्षम है और जिसमें इस देश को एक राष्ट्र के सूत्र में बांध रखा है। भारत की संस्कृति भारत की धरती की उपज है। उसकी चेतना की देन है। साधना की पूंजी है। उसकी एकता, एकात्मता, विशालता, समन्वय धरती से निकला है। भारत में आसेतु-हिमालय एक संस्कृति है। उससे भारतीय राष्ट्र जीवन प्रेरित हुआ है। अनादिकाल से यहां का समाज अनेक सम्प्रदायों को उत्पन्न करके भी एक ही मूल से जीवन रस ग्रहण करता आया है। भारतीय संस्कृति की नींव गंगा, गायत्री, गौ, गीता पर खड़ी है। ज्ञान-कर्म-शील-सातत्य इसकी सुदृढ़ दीवारें हों। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की छत का जिसे संरक्षण मिला है तथा इसमें विराजती है, उस विराट की प्रतिमा जो सत्य, सुन्दर, शिव है। कर्म यहां का जीवन है, पूजा है। यहाँ अधिकार की आराधना नहीं, कर्म की ही उपासना होती है। हमने इसे पूजा है, कभी राम के रूप में, कभी कृष्ण के रूप में। भारतीय संस्कृति, संश्लेषण की संस्कृति है, विश्लेषण का विज्ञान नहीं। समन्वय इसका स्वभाव है। टूटना इसका चरित्र नहीं। आस्था इसकी डगर है और विश्वास इसका पड़ाव। न कोई भटकाव है और न कोई विभ्रम।
प्रचलित राष्ट्रवाद की परिभाषा भूगोल पर आधारित है, देश व राष्ट्र समुद्रों, पर्वतों, नदियों, रेगिस्तानों की सीमाओं से बंधे हो। यूरोपीय विद्वानों के मतानुसार राष्ट्रीयता की भावना सर्वप्रथम 1789 में हुई फ्रेंच जाति के बाद उभरकर सामने आई। पेंग्विन डिक्श्नरी ऑफ सोशियॉलाजी में राष्ट्रीयता की भावना अट्ठारहवीं शताब्दी में सर्वप्रथम यूरोपीय देशों में न्याय राज्य निर्माण होकर वहीं के मानव समूहों को राष्ट्र का स्वरूप प्राप्त हो गया। यूरोप के मानचित्रों पर जर्मन राष्ट्र का प्रादुर्भाव 1871 में हुआ। फिर इटली का एकीकरण हुआ और धीरे-धीरे राष्ट्रीयता की अवधारणा यूरोप के अन्य देशों में भी फैल गयी। यूरोपीय देशों के साम्राज्यवादी एवं बौध्दिक विस्तार के फलस्वरूप राजनीतिक राष्ट्रीयता के विचार का प्रसार अन्य देशों में भी फैल गया। चूंकि वे शासक थे, इसलिए उनकी बात को यूरोपीय विद्वानों के साथ-साथ गैर यूरोपीय विद्वानों ने भी स्वीकार्य कर लिया। प्रभुसत्ता ने जिस-जिस भूमि पर अधिकार (कब्जा) किया, वो उनका राष्ट्र बनता गया। तिब्बत की राष्ट्रीयता को समाप्त करके चीन ने अपनी प्रभुसत्ता बनाई। इज़राइल और फिलिस्तीन ने कब्जे के आधार पर देश या राष्ट्र को परिभाषित किया। राजनीतिक विचारधारा आधारित राष्ट्र साम्यवाद, पूंजीवाद इत्यादि, जाति आधारित यूरोप को अंग्रेजों हब्शियों (नीग्रो) पूजा पध्दति आधारित सभी राष्ट्र जिसमें इस्लाम का राजसत्ता का संरक्षण प्राप्त है। इसी प्रकार राष्ट्रपति बुश का ईसाइयों और मुस्लिमों में भी पूजा पध्दति का मतभेद होने के कारण ये राष्ट्र क्रियात्मक नहीं हो पाते। हिन्दू धर्म में भी अनेक विश्वास और पूजा पध्दतियां हैं, जिसके कारण जैनियों का राष्ट्र या सिक्खों का राष्ट्र जैसी कल्पनाएं अव्यवहारिक/संस्कृति आधारित राष्ट्र व पूरे या यूरोप की समान संस्कृति यूरोपियन संघ बना हुआ है। अमेरिका में विभिन्न जातियों के एक साथ रहने का कारण भी सांस्कृतिक हो सकता है, क्योंकि पिछले चार सौ वर्षों की एक विशेष संस्कृति वहां पर उत्पन्न हुई है, हिन्दु जीवन दर्शन पर आधारित संस्कृति जहां-जहां है, उनको भारतीय या हिन्दू राष्ट्र की कल्पना में सम्मिलित किया जा सकता है, इसमें भौगोलिक सीमाओं का महत्व कम हो जाता, नागरिकता और राष्ट्रीयता में अन्तर कम हो जाता है। भारत एक प्राचीन राष्ट्र है और इसकी राष्ट्रीयता का आधार है संस्कृति - उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्, वर्ष तद् भारतं नाम भारती यत्र संतति: पश्चिमी विचारधारा से प्रभावित तथाकथित एक ऐसा वर्ग है जो इसे राष्ट्र नहीं मानता। ''काफिले आते रहे, कारवां बनता रहा'' या । Nation is making. राष्ट्र, राज्य एवं देश को एक ही मानने या इनके अंतर को न समझने के कारण ये तथाकथित प्रगतिशील लोग भ्रमजाल फैलाते रहते हैं। प्रादेशिक राष्ट्रवाद की संकल्पना यूरोप में राज्यों के अभ्युदय के साथ प्रमुखता से उभरी। एक निश्चित भूखंड, उसमें रहने वाला जन, एक शासन एवं उसकी संप्रभुता को राष्ट्र कहा गया। कालांतर में राजनीतिक स्वरूप के कारण राष्ट्र एवं राज्य को समान अर्थों में प्रयोग में लाया जाने लगा। संयुक्त राष्ट्र संघ राष्ट्र शब्द को प्रयोग में लाया। राज्य एवं देश बनते-बिगड़ते रहे एवं संयुक्त राष्ट्र संघ उन्हें मान्यता देता रहा फलत: राष्ट्र एवं राज्य का अंतर समझने में भूल होती रही। मगर पश्चिमी परिभाषा की कसौटी पर भारत एक राष्ट्र नहीं, क्योंकि एक शासन नहीं। अंग्रेजों एक शासन के अंदर इसे लाए। अत: उसे राष्ट्र बनाने का श्रेय दिया गया। इज़रायल भी एक राष्ट्र नहीं, क्योंकि वहां जन (इज़रायली) था ही नहीं। द्वितीय विश्व युध्द के बाद अनेक राष्ट्रों को षडयंत्रपूर्वक तोड़ा गया। जर्मन-पूर्वी एवं पश्चिमी जर्मनी, वियतनाम उत्तरी एवं दक्षिणी वियतनाम, कोरिया-उत्तरी एवं दक्षिणी कोरिया, लेबनान उत्तरी एवं दक्षिणी लेबनान आदि। भारत का विभाजन भी 1947 में द्विराष्ट्रीयता के आधार पर हुआ। हिन्दु एवं मुस्लिम दो राष्ट्रीयता हैं अत:, दो राष्ट्र होने चाहिए। जर्मनी, वियतनाम, कोरिया, लेबनान आदि टूटे अवश्य पर उन्होंने अपनी राष्ट्रीयता को नहीं छोड़ा पर दुर्भाग्यवश भारत का जो विभाजन हुआ वह एक अलग स्वरूप में हुआ। पूर्वी हिन्दुस्तान, पश्चिमी हिन्दुस्तान एवं मध्य हिन्दुस्तान - अगर इस रूप में रहता तो हिन्दुस्तानी राष्ट्रीयता जिंदा रहती। पंथ राष्ट्रीयता है तो फिर इस्लाम एवं ईसाई मत वालों का एक ही राष्ट्र होना चाहिए था - यह ­प्रश्न नहीं उठाया गया। पंथ को राष्ट्रीयता मानने के कारण ही नागालैंड एवं मिजोरम में अलगाववाद ने हिंसक रूप धारण किया। इसी धारणा के कारण पंजाब में भी अलगाववाद उभारने का असफल प्रयास हुआ। सिक्खों ने सवाल किया कि हिन्दू, मुस्लिम सिख, ईसाई-आपस में हैं भाई-भाई। अगर दो भाइयों का बंटवारा 1947 में हो गया तो हमें भी अलग करो। इसी तरह पाकिस्तान भाषा (बंगला-उर्दू) को राष्ट्रीयता मानकर दो भागों में टूट गया। अगर भाषा राष्ट्रीयता है तो फिर सभी अंग्रेजी बोलने वालों का एक राष्ट्र क्यों नहीं ? इंग्लैण्ड एवं आयरलैण्ड आपस में क्यों लड़ते हैं ? भारत में भी एक ऐसा वर्ग है जो भाषा को राष्ट्रीयता मानकर इस देश को बहुराष्ट्रीयता (Multi Nationality, Mix Culture) बहु सांस्कृतिक राज्य कहता है। गुजराती संस्कृति, पंजाबी संस्कृति, उड़िया संस्कृति, तेलुगु संस्कृति, कन्नड़ संस्कृति, मराठी संस्कृति, तमिल संस्कृति आदि शब्दों का प्रयोग करता है और लोग भी अपनी ''संस्कृति की पहचान'' के नाम पर अलगाववाद के नारे लगाने लगते हैं। यह संस्कृति नहीं बोली (भाषा) है। 1989 में विश्व पटल पर कुछ घटनायें घटीं जिसके कारण राष्ट्रीयता पर एक बहस उभर कर सामने आयी। सोवियत संघ विभाजित होकर 15 भागों में टूट गया। राष्ट्रीयता को नकार कर राज्य को सर्वोपरि मानने वाले वामपंथी राष्ट्रीय एकता की बात करने लगे। - ''भारत में अनेक राष्ट्रीयता हैं'' इसकी वकालत करने वाले सोवियत संघ का उदाहरण देकर यह दावा करते थे कि राष्ट्रीयता से ऊपर राज्य है। साम्यवाद के विस्तार में वे राष्ट्रीयता को बाधक मानते थे। पंथ, भाषा से ऊपर उठकर यहां का जन एक है। अतीत के सुख-दुख की उसे समान अनुभूति है - इसी अनुभूति के कारण वह इस भूमि को मातृभूमि-मोक्ष भूमि मानता है। उसकी नागरिकता भले कुछ भी हो जाये पर इस राष्ट्र से बाहर जाकर भी इस मिट्टी से वह जुड़ा हुआ है। केरल के शंकराचार्य ने चार-पीठ की स्थापना की ज्योतिपीठ (उत्तरांचल), श्रृगेरीपीठ (कर्नाटक), गोवर्धन पीठ (उड़ीसा), शारदापीठ (गुजरात)। उन्होंने एक भी पीठ केरल में स्थापित नहीं की - मलयालम संस्कृति या मलयालम को राष्ट्रीयता मानने वालों को इसका उत्तर देना होगा। चार धाम, चार स्थानों (प्रयाग, हरिद्वार, नासिक, उज्जैन) पर लगने वाले कुम्भ, द्वादश ज्योर्तिलिंग - 52 शक्तिपीठ हमारी राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रीय एकात्मता के प्रतीक हैं। गंगा को मोक्ष दायिनी सभी मानते हैं। आत्मवत सर्व भूतेषु एक सद् विप्रा बहुधा वदन्ति, पुनर्जन्म में विश्वास - हमारी संस्कृति के ये मूल तत्व हैं। हमारी विविधता हमारी संस्कृति की महानता को प्रकट करता है। इस विविधता को राष्ट्रीयता का नाम देकर अलगाववाद की वकालत करने वालों को पराजित करना होगा।
''न मे वाछास्ति यशोस विद्वत्व न च वा सुखे
प्रभुत्वे नैव वा स्वेग्र मोखेप्यानंददयके
परन्तु भारते जन्म मानवस्य च वा पशो:
विहंगस्य च वा जन्तों: वृक्षपाषाणयोरपि''
अर्थात् मुझे यश, विद्वता, किसी अन्य सुख या राजनीतिक प्रभुता की इच्छा नहीं है और न मैं स्वर्ग या मोक्ष की ही कामना करता हूं। परंतु मैं चाहता हूं कि भारत में ही मेरा पुनर्जन्म हो भले ही वह मानव, पशु, जन्तु, वृक्ष या पाषाण के रूप में क्यों न हो।

स्वतंत्रता संग्राम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका


डॉ. सौरभ मालवीय
संघ संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार जन्मजात देशभक्त और प्रथम श्रेणी के क्रांतिकारी थे. वे युगांतर और अनुशीलन समिति जैसे प्रमुख विप्लवी संगठनों में डॉ. पाण्डुरंग खानखोजे, श्री अरविन्द, वारीन्द्र घोष, त्रैलौक्यनाथ चक्रवर्ती आदि के सहयोगी रहे. रासबिहारी बोस और शचीन्द्र सान्याल द्वारा प्रथम विश्वयुद्ध के समय 1915 में संपूर्ण भारत की सैनिक छावनियों में क्रांति की योजना में वे मध्यभारत के प्रमुख थे. उस समय स्वतंत्रता आंदोलन का मंच कांग्रेस थी. उसमें भी उन्होंने प्रमुख भूमिका निभाई. 1921 और 1930 के सत्याग्रहों में भाग लेकर कारावास का दंड पाया.
1925 की विजयादशमी पर संघ स्थापना करते समय डॉ. हेडगेवार जी का उद्देश्य राष्ट्रीय स्वाधीनता ही था. संघ के स्वयंसेवकों को जो प्रतिज्ञा दिलाई जाती थी, उसमें राष्ट्र की स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए तन-मन-धन पूर्वक आजन्म और प्रामाणिकता से प्रयत्नरत रहने का संकल्प होता था. संघ स्थापना के तुरंत बाद से ही स्वयंसेवक स्वतंत्रता संग्राम में अपनी भूमिका निभाने लगे थे.
क्रांतिकारी स्वयंसेवक
संघ का वातावरण देशभक्तिपूर्ण था. 1926-27 में जब संघ नागपुर और आसपास तक ही पहुंचा था उसी काल में प्रसिद्ध क्रांतिकारी राजगुरू नागपुर की भोंसले वेदशाला में पढ़ते समय स्वयंसेवक बने. इसी समय भगतसिंह ने भी नागपुर में डॉक्टर जी से भेंट की थी. दिसंबर 1928 में ये क्रांतिकारी पुलिस उपकप्तान सांडर्स का वध करके लाला लाजपत राय की हत्या का बदला लेकर लाहौर से सुरक्षित आ गए थे. डॉ. हेडगेवार ने राजगुरू को उमरेड में भैया जी दाणी (जो बाद में संघ के अ.भा. सरकार्यवाह रहे) के फार्म हाउस पर छिपने की व्यवस्था की थी.
1928 में साइमन कमीशन के भारत आने पर पूरे देश में उसका बहिष्कार हुआ. नागपुर में हडताल और प्रदर्शन करने में संघ के स्वयंसेवक अग्रिम पंक्ति में थे.
महापुरुषों का समर्थन
1928 में विजयादशमी उत्सव पर भारत की असेंबली के प्रथम अध्यक्ष और सरदार पटेल के बड़े भाई श्री विट्ठल भाई पटेल उपस्थित थे. अगले वर्ष 1929 में महामना मदनमोहन मालवीय जी ने उत्सव में उपस्थित हो संघ को अपना आशीर्वाद दिया. स्वतंत्रता संग्राम की अनेक प्रमुख विभूतियां संघ के साथ स्नेह संबंध रखती थीं.
शाखाओं पर स्वतंत्रता दिवस
31 दिसंबर, 1929 को लाहौर में कांग्रेस ने प्रथम बार पूर्ण स्वाधीनता को लक्ष्य घोषित किया और 16 जनवरी, 1930 को देश भर में स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाने का निश्चय किया गया.
डॉ. हेडगेवार ने दस वर्ष पूर्व 1920 के नागपुर में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में पूर्ण स्वतंत्रता संबंधी प्रस्ताव रखा था, पर तब वह पारित नहीं हो सका था. 1930 में कांग्रेस द्वारा यह लक्ष्य स्वीकार करने पर आनंदित हुए हेडगेवार जी ने संघ की सभी शाखाओं को परिपत्र भेजकर रविवार 26 जनवरी, 1930 को सायं 6 बजे राष्ट्रध्वज वंदन करने और स्वतंत्रता की कल्पना और आवश्यकता विषय पर व्याख्यान की सूचना करवाई. इस आदेश के अनुसार संघ की सब शाखाओं पर स्वतंत्रता दिवस मनाया गया.
सत्याग्रह
6 अप्रैल, 1930 को दांडी में समुद्रतट पर गांधी जी ने नमक कानून तोडा और लगभग 8 वर्ष बाद कांग्रेस ने दूसरा जनान्दोलन प्रारम्भ किया. संघ का कार्य अभी मध्यभारत प्रान्त में ही प्रभावी हो पाया था. यहां नमक कानून के स्थान पर जंगल कानून तोडकर सत्याग्रह करने का निश्चय हुआ. डॉ. हेडगेवार संघ के सरसंघचालक का दायित्व डॉ. परांजपे को सौंप स्वयं अनेक स्वयंसेवकों के साथ सत्याग्रह करने गए.
जुलाई 1930 में सत्याग्रह हेतु यवतमाल जाते समय पुसद नामक स्थान पर आयोजित जनसभा में डॉ. हेडगेवार के संबोधन में स्वतंत्रता संग्राम में संघ का दृष्टिकोण स्पष्ट होता है. उन्होंने कहा- ‘स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों के बूट की पालिश करने से लेकर, उनके बूट को पैर से निकाल कर उससे उनके ही सिर को लहुलुहान करने तक के सब मार्ग मेरे स्वतंत्रता प्राप्ति के साधन हो सकते हैं. मैं तो इतना ही जानता हूं कि देश को स्वतंत्र कराना है.‘’
डॉ. हेडगेवार के साथ गए सत्याग्रही जत्थे में आप्पा जी जोशी (बाद में सरकार्यवाह) दादाराव परमार्थ (बाद में मद्रास में प्रथम प्रांत प्रचारक) आदि 12 स्वयंसेवक थे. उनको 9 मास का सश्रम कारावास दिया गया. उसके बाद अ.भा. शारीरिक शिक्षण प्रमुख (सर सेनापति) श्री मार्तंड राव जोग, नागपुर के जिलासंघचालक श्री अप्पाजी हळदे आदि अनेक कार्यकर्ताओं और शाखाओं के स्वयंसेवकों के जत्थों ने भी सत्याग्रहियों की सुरक्षा के लिए 100 स्वयंसेवकों की टोली बनाई जिसके सदस्य सत्याग्रह के समय उपस्थित रहते थे.
8 अगस्त को गढवाल दिवस पर धारा 144 तोडकर जुलूस निकालने पर पुलिस की मार से अनेक स्वयंसेवक घायल हुए.
विजयादशमी 1931 को डाक्टर जी जेल में थे, उनकी उनुपस्थिति में गांव-गांव में संघ की शाखाओं पर एक संदेश पढा गया, जिसमें कहा गया था- ‘’देश की परतंत्रता नष्ट होकर जब तक सारा समाज बलशाली और आत्मनिर्भर नहीं होता तब तक रे मना ! तुझे निजी सुख की अभिलाषा का अधिकार नहीं.‘’
जनवरी 1932 में विप्लवी दल द्वारा सरकारी खजाना लूटने के लिए हुए बालाघाट कांड में वीर बाघा जतीन (क्रांतिकारी जतीन्द्र नाथ) अपने साथियों सहित शहीद हुए और श्री बाला जी हुद्दार आदि कई क्रांतिकारी बंदी बनाए गए. श्री हुद्दार उस समय संघ के अ.भा. सरकार्यवाह थे.
संघ पर प्रतिबंध
संघ के विषय में गुप्तचर विभाग की रपट के आधार पर मध्य भारत सरकार (जिसके क्षेत्र में नागपुर भी था) ने 15 दिसंबर 1932 को सरकारी कर्मचारियों को संघ में भाग लेने पर प्रतिबंध लगा दिया.
डॉ. हेडगेवार जी के देहांत के बाद 5 अगस्त 1940 को सरकार ने भारत सुरक्षा कानून की धारा 56 व 58 के अंतर्गत संघ की सैनिक वेशभूषा और प्रशिक्षण पर पूरे देश में प्रतिबंध लगा दिया.
1942 का भारत छोडो आंदोलन
संघ के स्वयंसेवकों ने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए भारत छोडो आंदोलन में भी सक्रिय भूमिका निभाई. विदर्भ के अष्टी चिमूर क्षेत्र में समानान्तर सरकार स्थापित कर दी. अमानुषिक अत्याचारों का सामना किया. उस क्षेत्र में एक दर्जन से अधिक स्वयंसेवकों ने अपना जीवन बलिदान किया. नागपुर के निकट रामटेक के तत्कालीन नगर कार्यवाह श्री रमाकान्त केशव देशपांडे उपाख्य बाळासाहब देशपांडे को आन्दोलन में भाग लेने पर मृत्युदंड सुनाया गया. आम माफी के समय मुक्त होकर उन्होंने वनवासी कल्याण आश्रम की स्थापना की.
देश के कोने-कोने में स्वयंसेवक जूझ रहे थे. मेरठ जिले में मवाना तहसील पर झंडा फहराते स्वयंसेवकों पर पुलिस ने गोली चलाई, अनेक घायल हुए.
आंदोलनकारियों की सहायता और शरण देने का कार्य भी बहुत महत्व का था. केवल अंग्रेज सरकार के गुप्तचर ही नहीं, कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता भी अपनी पार्टी के आदेशानुसार देशभक्तों को पकड़वा रहे थे. ऐसे में जयप्रकाश नारायण और अरुणा आसफ अली दिल्ली के संघचालक लाला हंसराज गुप्त के यहां आश्रय पाते थे. प्रसिद्ध समाजवादी श्री अच्युत पटवर्धन और साने गुरूजजी ने पूना के संघचालक श्री भाऊसाहब देशमुख के घर पर केंद्र बनाया था. ‘पतरी सरकार’ गठित करनेवाले प्रसिद्ध क्रांतिकर्मी नाना पाटील को औंध (जिला सतारा) में संघचालक पंडित सातवलेकर जी ने आश्रय दिया.
स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु संघ की योजना
ब्रिटिश सरकार के गुप्तचर विभाग ने 1943 के अंत में संघ के विषय में जो रपट प्रस्तुत की वह राष्ट्रीय अभिलेखागार की फाइलों में सुरक्षित है, जिसमें सिद्ध किया है कि संघ योजनापूर्वक स्वतंत्रता प्राप्ति की ओर बढ़ रहा है.

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद


डॉ. सौरभ मालवीय 
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद प्राचीन अवधारणा है। राष्ट्र वही होगा, जहां संस्कृति होगी। जहां संस्कृति विहीन स्थिति होगी, वहां राष्ट्र की कल्पना भी बेमानी है। भारत में आजादी के बाद शब्दों की विलासिता का जबर्दस्त दौर कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों ने चलाया। इन्होंने देश में तत्कालीन सत्ताधारियों को छल-कपट से अपने घेरे में ले लिया। परिणामस्वरूप राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत जीवनशैली का मार्ग निरन्तर अवरूद्ध होता गया। अब अवरूद्ध मार्ग खुलने लगा है। संस्कृति से उपजा संस्कार बोलने लगा है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का आधार हमारी युगों पुरानी संस्कृति है, जो सदियों से चली आ रही है। यह सांस्कृतिक एकता है, जो किसी भी बन्धन से अधिक मजबूत और टिकाऊ है, जो किसी देश में लोगों को एकजुट करने में सक्षम है और जिसमें इस देश को एक राष्ट्र के सूत्र में बांध रखा है। भारत की संस्कृति भारत की धरती की उपज है। उसकी चेतना की देन है। साधना की पूंजी है। उसकी एकता, एकात्मता, विशालता, समन्वय धरती से निकला है। भारत में आसेतु-हिमालय एक संस्कृति है । उससे भारतीय राष्ट्र जीवन प्रेरित हुआ है। अनादिकाल से यहां का समाज अनेक सम्प्रदायों को उत्पन्न करके भी एक ही मूल से जीवन रस ग्रहण करता आया है।

भारतीय संस्कृति की नींव गंगा, गायत्री, गौ, गीता पर खड़ी है। ज्ञान-कर्म-शील-सातत्य इसकी सुदृढ़ दीवारें हों। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की छत का जिसे संरक्षण मिला है तथा इसमें विराजती है, उस विराट की प्रतिमा जो सत्य, सुन्दर, शिव है। कर्म यहां का जीवन है, पूजा है। यहाँ अधिकार की आराधना नहीं, कर्म की ही उपासना होती है। हमने इसे पूजा है, कभी राम के रूप में, कभी —ष्ण के रूप में। भारतीय संस्कृति संश्लेषण की संस्कृति है, विश्लेषण का विज्ञान नहीं। समन्वय इसका स्वभाव है। टूटना इसका चरित्र नहीं। आस्था इसकी डगर है और विश्वास इसका पड़ाव। न कोई भटकाव है और न कोई विभ्रम।


भारतीय संस्कृति की नींव गंगा, गायत्री, गौ, गीता पर खड़ी है। ज्ञान-कर्म-शील-सातत्य इसकी सुदृढ़ दीवारें हों। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की छत का जिसे संरक्षण मिला है तथा इसमें विराजती है, उस विराट की प्रतिमा जो सत्य, सुन्दर, शिव है। कर्म यहां का जीवन है, पूजा है। यहाँ अधिकार की आराधना नहीं, कर्म की ही उपासना होती है। हमने इसे पूजा है, कभी राम के रूप में, कभी —ष्ण के रूप में। भारतीय संस्कृति संश्लेषण की संस्कृति है, विश्लेषण का विज्ञान नहीं। समन्वय इसका स्वभाव है। टूटना इसका चरित्र नहीं। आस्था इसकी डगर है और विश्वास इसका पड़ाव। न कोई भटकाव है और न कोई विभ्रम।

प्रचलित राष्ट्रवाद की परिभाषा भूगोल पर आधारित है, देश व राष्ट्र समुद्रों, पर्वतों, नदियों, रेगिस्तानों की सीमाओं से बंधे हो। यूरोपीय विद्वानों के मतानुसार राष्ट्रीयता की भावना सर्वप्रथम 1789 में हुई फ्रेंच जाति के बाद उभरकर सामने आई। पेंनिग्व डिक्शनरी ऑफ सोशियॉलाजी में राष्ट्रीयता की भावना अट्ठारहवीं शताब्दी में सर्वप्रथम यूरोपीय देशों में न्याय राज्य निर्माण होकर वहीं के मानव समूहों को राष्ट्र का स्वरूप प्राप्त हो गया। यूरोप के मानचित्रों पर जर्मन राष्ट्र का प्रादुर्भाव 1871 में हुआ। फिर इटली का एकीकरण हुआ और धीरे-धीरे राष्ट्रीयता की अवधारणा यूरोप के अन्य देशों में भी फैल गयी। यूरोपीय देशों के साम्राज्यवादी एवं बौद्धिक विस्तार के फलस्वरूप राजनीतिक राष्ट्रीयता के विचार का प्रसार अन्य देशों में भी फैल गया। चूंकि वे शासक थे, इसलिए उनकी बात को यूरोपीय विद्वानों के साथ-साथ गैर यूरोपीय विद्वानों ने भी स्वीकार्य कर लिया। प्रभुसत्ता ने जिस-जिस भूमि पर अधिकार (कब्जा) किया, वो उनका राष्ट्र बनता गया। तिब्बत की राष्ट्रीयता को समाप्त करके चीन ने अपनी प्रभुसत्ता बनाई। इज़राइल और फिलिस्तीन ने कब्जे के आधार पर देश या राष्ट्र को परिभाषित किया। राजनीतिक विचारधारा आधारित राष्ट्र साम्यवाद, पूंजीवाद इत्यादि, जाति आधारित यूरोप को अंग्रेजों हिब्शयों (नीग्रो) पूजा पद्धति आधारित सभी राष्ट्र जिसमें इस्लाम का राजसत्ता का संरक्षण प्राप्त है। इसी प्रकार राष्ट्रपति बुश का ईसाइयों और मुस्लिमों में भी पूजा पद्धति का मतभेद होने के कारण ये राष्ट्र क्रियात्मक नहीं हो पाते। हिन्दू धर्म में भी अनेक विश्वास और पूजा पद्धतियां हैं, जिसके कारण जैनियों का राष्ट्र या सिक्खों का राष्ट्र जैसी कल्पनाएं अव्यवहारिक/संस्कृति आधारित राष्ट्र व पूरे या यूरोप की समान संस्कृति यूरोपियन संघ बना हुआ है।

अमेरिका में विभिन्न जातियों के एक साथ रहने का कारण भी संस्कृति हो सकता है, क्योंकि पिछले चार सौ वषो की एक विशेष संस्कृति वहां पर उत्पन्न हुई है, हिन्दु जीवन दर्शन पर आधारित संस्कृति जहां-जहां है, उनको भारतीय या हिन्दू राष्ट्र की कल्पना में सिम्मलित किया जा सकता है, इसमें भौगोलिक सीमाओं का महत्व कम हो जाता, नागरिकता और राष्ट्रीयता में अन्तर कम हो जाता है।भारत एक प्राचीन राष्ट्र है और इसकी राष्ट्रीयता का आधार है संस्कृति

उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्, वर्ष तद् भारतं नाम भारती यत्र संतति

पश्चिमी विचारधारा से प्रभावित तथाकथित एक ऐसा वर्ग है जो इसे राष्ट्र नहीं मानता। "काफिले आते रहे, कारवां बनता रहा" या । छंजपवद पे उंापदहण् राष्ट्र, राज्य एवं देश को एक ही मानने या इनके अंतर को न समझने के कारण ये तथाकथित प्रगतिशील लोग भ्रमजाल फैलाते रहते हैं। प्रादेशिक राष्ट्रवाद की संकल्पना यूरोप में राज्यों के अभ्युदय के साथ प्रमुखता से उभरी। एक निश्चित भूखंड, उसमें रहने वाला जन, एक शासन एवं उसकी संप्रभुता को राष्ट्र कहा गया। कालांतर में राजनीतिक स्वरूप के कारण राष्ट्र एवं राज्य को समान अथो में प्रयोग में लाया जाने लगा। संयुक्त राष्ट्र संघ राष्ट्र शब्द को प्रयोग में लाया। राज्य एवं देश बनते-बिगड़ते रहे एवं संयुक्त राष्ट्र संघ उन्हें मान्यता देता रहा फलत: राष्ट्र एवं राज्य का अंतर समझने में भूल होती रही। मगर पश्चिमी परिभाषा की कसौटी पर भारत एक राष्ट्र नहीं, क्योंकि एक शासन नहीं। अंग्रेजों एक शासन के अंदर इसे लाए। अत: उसे राष्ट्र बनाने का श्रेय दिया गया। इज़रायल भी एक राष्ट्र नहीं, क्योंकि वहां जन (इज़रायली) था ही नहीं। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अनेक राष्ट्रों को षड्यंत्रपूर्वक तोड़ा गया। जर्मन-पूर्वी एवं पश्चिमी जर्मनी, वियतनाम उत्तरी एवं दक्षिणी वियतनाम, कोरिया-उत्तरी एवं दक्षिणी कोरिया, लेबनान उत्तरी एवं दक्षिणी लेबनान आदि। भारत का विभाजन भी 1947 में द्विराष्ट्रीयता के आधार पर हुआ।

हिन्दु एवं मुस्लिम दो राष्ट्रीयता हैं अत:, दो राष्ट्र होने चाहिए। जर्मनी, वियतनाम, कोरिया, लेबनान आदि टूटे अवश्य पर उन्होंने अपनी राष्ट्रीयता को नहीं छोड़ा पर दुर्भाग्यवश भारत का जो विभाजन हुआ वह एक अलग स्वरूप में हुआ। पूर्वी हिन्दुस्तान, पश्चिमी हिन्दुस्तान एवं मध्य हिन्दुस्तान - अगर इस रूप में रहता तो हिन्दुस्तानी राष्ट्रीयता जिंदा रहती। पंथ राष्ट्रीयता है तो फिर इस्लाम एवं ईसाई मत वालों का एक ही राष्ट्र होना चाहिए था - यह प्रश्न नहीं उठाया गया। पंथ को राष्ट्रीयता मानने के कारण ही नागालैंड एवं मिजोरम में अलगाववाद ने हिंसक रूप धारण किया। इसी धारणा के कारण पंजाब में भी अलगाववाद उभारने का असफल प्रयास हुआ। सिक्खों ने सवाल किया कि हिन्दू, मुस्लिम सिख, ईसाई-आपस में हैं भाई-भाई। अगर दो भाइयों का बंटवारा 1947 में हो गया तो हमें भी अलग करो। इसी तरह पाकिस्तान भाषा (बंगला-उर्दू) को राष्ट्रीयता मानकर दो भागों में टूट गया। अगर भाषा राष्ट्रीयता है तो फिर सभी अंग्रेजी बोलने वालों का एक राष्ट्र क्यों नहीं ? इंग्लैण्ड एवं आयरलैण्ड आपस में क्यों लड़ते हैं ? भारत में भी एक ऐसा वर्ग है जो भाषा को राष्ट्रीयता मानकर इस देश को बहुराष्ट्रीयता (डनसजप छंजपवदंसपजलए डपग ब्नसजनतमद्ध बहु संस्कृति राज्य कहता है। गुजराती संस्कृति पंजाबी संस्कृति , उड़िया संस्कृति , तेलुगु संस्कृति कéड़ संस्कृति मराठी संस्कृति , तमिल संस्कृति आदि शब्दों का प्रयोग करता है और लोग भी अपनी संस्कृति की पहचानß के नाम पर अलगाववाद के नारे लगाने लगते हैं। यह संस्कृति नहीं बोली (भाषा) है। 1989 में विश्व पटल पर कुछ घटनायें घटीं जिसके कारण राष्ट्रीयता पर एक बहस उभर कर सामने आयी। सोवियत संघ विभाजित होकर 15 भागों में टूट गया। राष्ट्रीयता को नकार कर राज्य को सर्वोपरि मानने वाले वामपंथी राष्ट्रीय एकता की बात करने लगे।

"भारत में अनेक राष्ट्रीयता हैं" इसकी वकालत करने वाले सोवियत संघ का उदाहरण देकर यह दावा करते थे कि राष्ट्रीयता से ऊपर राज्य है। साम्यवाद के विस्तार में वे राष्ट्रीयता को बाधक मानते थे। पंथ, भाषा से ऊपर उठकर यहां का जन एक है। अतीत के सुख-दुख की उसे समान अनुभूति है - इसी अनुभूति के कारण वह इस भूमि को मातृभूमि-मोक्ष भूमि मानता है। उसकी नागरिकता भले कुछ भी हो जाये पर इस राष्ट्र से बाहर जाकर भी इस मिट्टी से वह जुड़ा हुआ है। केरल के शंकराचार्य ने चार-पीठ की स्थापना की ज्योतिपीठ (उत्तरांचल), श्रृगेरीपीठ (कर्नाटक), गोवर्धन पीठ (उड़ीसा), शारदापीठ (गुजरात)। उन्होंने एक भी पीठ केरल में स्थापित नहीं की - मलयालम संस्कृति या मलयालम को राष्ट्रीयता मानने वालों को इसका उत्तर देना होगा। चार धाम, चार स्थानों (प्रयाग, हरिद्वार, नासिक, उज्जैन) पर लगने वाले कुम्भ, द्वादश ज्योÆतलिंग - 52 शक्तिपीठ हमारी राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रीय एकात्मता के प्रतीक हैं। गंगा को मोक्ष दायिनी सभी मानते हैं। आत्मवत सर्व भूतेषु एक सद् विप्रा बहुधा वदन्ति, पुनर्जन्म में विश्वास - हमारी संस्कृति के ये मूल तत्व हैं। हमारी विविधता हमारी संस्कृति की महानता को प्रकट करता है। इस विविधता को राष्ट्रीयता का नाम देकर अलगाववाद की वकालत करने वालों को पराजित करना होगा।

न मे वाछास्ति यशोस विद्वत्व न च वा सुखे
प्रभुत्वे नैव वा स्वे मोखेप्यानंददयके
परन्तु भारते जन्म मानवस्य च वा पशो:
विहंगस्य च वा जन्तों: वृक्षपाषाणयोरपि

आर्थात मुझे यश, विद्वता, किसी अन्य सुख या राजनीतिक प्रभुता की इच्छा नहीं है और न मैं स्वर्ग या मोक्ष की ही कामना करता हूं। परंतु मैं चाहता हूं कि भारत में ही मेरा पुनर्जन्म हो भले ही वह मानव, पशु, जन्तु, वृक्ष या पाषाण के रूप में क्यों न हो।

अहिल्यबाई होलकर भारतीयता की प्रतीक थी : डॉ.सौरभ मालवीय

अहिल्यबाई होलकर भारतीयता की प्रतीक थी : डॉ.सौरभ मालवीय