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Thursday, August 21, 2025

राधे राधे : जय श्री कृष्णा

 



राधे राधे : जय श्री कृष्णा 
आज श्रीकृष्ण जी की छठी मनाई गयी. 
इस अवसर पर श्री महेन्द्र सिंह जी पूर्व मंत्री उत्तर प्रदेश एवं प्रभारी मध्य प्रदेश बीजेपी तथा यजमान श्री मधुरेश श्रीवास्तव जी 🙏
लखनऊ

Friday, August 15, 2025

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का महत्व


डॉ. सौरभ मालवीय   
त्योहार किसी भी देश एवं उसकी संस्कृति के संवाहक होते हैं। त्योहारों के कारण ही हमें अपनी प्राचीन गौरवशाली संस्कृति को जानने एवं समझने का अवसर प्राप्त होता है। यदि त्योहार नहीं होते, तो हमें अपने देवी-देवताओं एवं महापुरुषों तथा उनके जीवन के संबंध में कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती। त्योहारों का हमारे जीवन में अत्यधिक महत्व है। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पूर्ण विधि विधान से भारत सहित विश्व के विभिन्न भागों में धूमधाम से मनाई जाती है। इस त्योहार का न केवल धार्मिक महत्व है, अपितु इसका सांस्कृतिक, सामाजिक एवं आर्थिक महत्व भी है।
 
धार्मिक महत्व
श्रीकृष्ण भगवान विष्णु के आठवें अवतार माने जाते हैं। भगवान विष्णु ने भाद्रपद कृष्ण अष्टमी की मध्यरात्रि को देवकी एवं वासुदेव के पुत्र के रूप में जन्म लिया था। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार मथुरा नरेश कंस बहुत अत्याचारी था। वह प्रजा पर बहुत अत्याचार करता था। उसका नाश करने के लिए भगवान विष्णु ने मथुरा में जन्म लिया था। कहा जाता है कि कंस अपनी बहन देवकी से अत्यधिक स्नेह करता था। एक दिन वह अपनी बहन को लेकर कहीं जा रहा था, तब आकाशवाणी हुई कि जिस बहन से तू इतना स्नेह करता है उसी के आठवें पुत्र के हाथों तेरा वध होगा। इस भविष्यवाणी को सुनकर कंस बहुत भयभीत हो गया तथा उसने अपनी बहन एवं उसके पति को कारागार में बंद कर दिया। मृत्यु के भय के कारण उसने अपनी बहन के सात नवजात शिशुओं का वध कर दिया। देवकी के आठवें पुत्र के जन्म के समय मूसलाधार वर्षा हो रही थी तथा अंधकार व्याप्त था। श्रीकृष्ण का जन्म होते ही देवकी एवं वासुदेव की बेड़ियां खुल गईं। कारागार के द्वार भी स्वयं ही खुल गए तथा पहरेदार सो गए। वासुदेव उफनती हुई यमुना पार करके अपने पुत्र को गोकुल ग्राम में अपने मित्र नन्द  के घर ले गए। वहां नन्द की पत्नी यशोदा ने एक कन्या को जन्म दिया था। नन्द ने श्रीकृष्ण को अपनी पत्नी के पास लिटा दिया और अपनी पुत्री वासुदेव को सौंप दी। जब वासुदेव कारागार आ गए तो सबकुछ पूर्व की भांति हो गया। शिशु के जन्म का समाचार प्राप्त होते ही कंस वहां आया तथा उसने कन्या को पटक कर मारना चाहा, किन्तु वह यह कहते हुए आकाश की ओर चली गई कि तुझे मारने वाला जन्म ले चुका है। इसके पश्चात कंस ने अपने राज्य के सभी नवजात बालकों की हत्या करने का आदेश दे दिया। उसके सैनिक घर-घर जाकर नवजात शिशुओं को खोजते तथा उन्हें मौत के घात उतार देते। कंस के अत्याचारों से तंग आकर बहुत से लोग राज्य छोड़कर जाने लगे, परन्तु सभी ऐसा नहीं कर सकते थे। दिन-प्रतिदिन कंस के अत्याचार बढ़ते ही जा रहे थे। कंस ने श्रीकृष्ण को मारने के भी अनेक प्रयास किए, किन्तु बाल्यकाल में ही श्रीकृष्ण ने अपने कंस द्वारा भेजे गए सभी राक्षसों को मार दिया। युवा होने पर उन्होंने कंस को मारकर मथुरा को उसके अत्याचारों से मुक्त करवाया। श्रीकृष्ण का पालन-पोषण गोकुल में नन्द बाबा के घर में हुआ। श्रीकृष्ण की अनेक लीलाएं हैं, जो उल्लेखनीय हैं। इन पर असंख्य साहित्यिक ग्रंथ लिखे गए हैं।    
हिन्दुओं का प्रमुख ग्रंथ भगवद गीता श्रीकृष्ण की देन है। उन्होंने महाभारत युद्ध के समय अर्जुन को कुरुक्षेत्र में जो उपदेश दिए थे, वे इसमें संकलित हैं। इसमें धर्म, कर्म, भक्ति, प्रेम, वैराग्य एवं मोक्ष आदि का उल्लेख मिलता है। इसमें जीवन दर्शन है तथा जीवन का सार भी है।    
  
सांस्कृतिक महत्व
भारत सहित विश्वभर के हिन्दू बहुल देशों में जन्माष्टमी का पर्व हर्षोल्लास से मनाया जाता है। इस त्योहार पर मंदिरों की साज-सज्जा की जाती है। उनमें रंगोलियां भी बनाई जाती हैं। श्रद्धालु उपवास रखते हैं। वे पूजा-अर्चना करते हैं। सत्संग एवं कीर्तन भी किए जाते हैं। बहुत से मंदिरों में 'भागवत पुराण' एवं 'भगवद गीता' का पाठ होता है। नाट्य मंडलियों द्वारा कृष्ण लीला का आयोजन किया जाता है। नाट्य मंचन में गीत एवं नृत्य भी सम्मिलित रहता है। नगर में शोभायात्रा भी निकाली जाती है। इन सब आयोजनों से श्रीकृष्ण के जीवन दर्शन एवं उनके कार्यों की जानकारी प्राप्त होती है। इस प्रकार बालक बाल्यकाल से ही अपने देवी-देवताओं के संबंध में जानकारी प्राप्त कर लेते हैं। समय का चक्र घूमता रहता है। तदुपरांत यही बच्चे अपने त्योहारों पर विभिन्न धार्मिक एवं सांस्कृतिक आयोजन करके ये ज्ञान अपने बच्चों को देते हैं। इसी प्रकार ये ज्ञान निरंतर आगे बढ़ता रहता है। इन आयोजनों के कारण रंगोली, भजन-कीर्तन, नाटक, नृत्य आदि कलाओं का भी विकास होता है। त्योहार हमारी शास्त्रीय एवं लोक कलाओं के भी संवाहक हैं। इनके कारण ही अनेक कलाएं फलफूल रही हैं, वरन ये कब की लुप्त हो चुकी होतीं।                 
विदेशों में जन्माष्टमी मनाए जाने के कारण भारतीय संस्कृति विश्व के कोने-कोने में पहुंच रही है। जिस समय विश्व के अनेक देश अज्ञान के अंधकार में डूबे हुए थे, उस समय भी हमारी संस्कृति अपने शिखर पर थी।
 
सामाजिक महत्व
त्योहारों का सामाजिक महत्व भी हैं। श्रीकृष्ण ने विश्व को प्रेम, करुणा, न्याय एवं सद्भाव का संदेश दिया। सामाजिक सद्भाव को बनाए रखने के लिए इन्हीं गुणों की सबसे अधिक आवश्यकता होती है। जन्माष्टमी भी इसी सद्भाव को बनाए रखने का संदेश देती है। वास्तव में जब एक परंपरा के लोग आपस में मिलकर कोई त्योहार मनाते हैं तो उनमें प्रेम एवं भाईचारे का संचार होता है। इसके अतिरिक्त यदि अन्य धर्म एवं पंथ के लोग इसमें सम्मिलित होते हैं, तो इससे सामाजिक सद्भाव, प्रेम एवं भईचारा बढ़ता है। भारतीय संस्कृति भी ऐसी ही अर्थात सबको अपनाने वाली। हमारा आदर्श वाक्य ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ है अर्थात पूरा विश्व एक परिवार है। यह वाक्य सदैव से ही प्रासंगिक रहा है, क्योंकि यह वैश्विक स्तर पर सामूहिक कल्याण को प्राथमिकता देता है। यही भारतीय संस्कृति का मूल मंत्र है, जो इसकी महानता का प्रतीक है। 
अन्य त्योहारों की भांति जन्माष्टमी पर भी भंडारे किए जाते हैं, जिनमें प्रसाद वितरित किया जाता है तथा सामूहिक भोजन ग्रहण किया जाता है। मंदिरों के अतिरिक्त बाजारों में भी भंडारों का आयोजन किया जाता है। लोग चंदा एकत्रित करके भी भंडारे करते हैं। अनेक स्थानों पर क्षेत्र के लोग ही आपस में सब्जियां, अनाज व अन्य खाद्य वस्तुएं एकत्रित करके भोजन बनाते हैं। इस कार्य में महिलाएं भी बढ़-चढ़कर भाग लेती हैं। भोजन बनाने से लेकर भोजन परोसने तक में उनका योगदान सम्मिलित रहता है।
इसके अतिरिक्त इन भंडारों के कारण उन लोगों को भी भरपेट स्वादिष्ट भोजन मिल जाता है, जो अभाववश स्वादिष्ट भोजन ग्रहण नहीं कर पाते हैं। भंडारे में सब लोग मिलजुल कर भोजन ग्रहण करते हैं। यहां किसी प्रकार का भेदभाव अथवा ऊंच-नीच का भाव नहीं होता। यह सामजिक समरसता को बढ़ावा देता है। आज के समय में इसकी अत्यधिक आवश्यकता है।      
 
आर्थिक महत्व
त्योहार आर्थिक गतिविधियों के भी केंद्र होते हैं। जन्माष्टमी से पूर्व ही इसकी तैयारियां प्रारंभ हो जाती हैं। मंदिरों को सजाया जाता है। इसके लिए बहुत से सजावटी सामान की आवश्यकता होती है, जिनमें बिजली की झालरें एवं पुष्प आदि भी सम्मिलत हैं। पुष्पों का एक बड़ा बाजार हैं, जिनमें असंख्य लोग लगे हुए हैं। पुष्प की खेती से लेकर फूल मालाएं बनाने वाले लोगों तक को रोजगार प्राप्त होता है। इसके साथ-साथ मिष्ठान वालों एवं हलवाइयों का कार्य भी बढ़ जाता है। बाजारों में जन्माष्टमी से संबंधित सामान की भरमार देखने को मिलती है। इस सामान को बनाने वालों से लेकर बाजार में इन्हें विक्रय करने वालों को भी रोजगार प्राप्त होता है।
नि:संदेह जन्माष्टमी भारतीय संस्कृति के प्रचार-प्रसार का सशक्त माध्यम है

Thursday, August 7, 2025

रक्षाबंधनः भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधि पर्व


डॉ. सौरभ मालवीय
रक्षाबंधन भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधि पर्व है। अनेकानेक श्रेष्ठतम आदर्शों उच्चतम प्रेरणाओ, महान प्रतिमानों और वैदिक वांग्मय से लेकर अद्यतन संस्कृति तक फैले हुए भारतीयता के समग्र जीवन का प्राण है|यह पर्व श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को आयोजित किया जाता जाता है, जब चन्द्रमा श्रवण नक्षत्र में विचरण करते हों तो यह पर्व आता है। इस श्रवण नक्षत्र का नाम ही मातृ–पितृ भक्ति के श्रेष्टतम बिन्दु श्रवण कुमार के नाम पर पड़ा है|यह नाम ही बताता है कि हमारे आदर्श कैसे होने चाहिए। इस नाम की गरिमा इतनी आदरणीय है कि अनेक कुलीन परिवारों में श्रावणी कर्म किया जाता है।

इसी दिन भारत की सांस्कृतिक नगरी काशी में भगवान विष्णु का हयग्रीव अवतार हुआ था। आज के ही शुभ दिन पर हमारे ऋषियों ने परम-पावन सिन्धु नदी में प्रातःकाल स्नान करके सामवेद को देखा था, इसी सामवेद में परम प्रतापी राजराजेश्वर नरेश्वर श्री लंकेश्वर महाराजा रावण ने स्वर दिया था श्री रावण उत्तम कुल उत्पन्न ऋषि पुलत्स के वंशज थे। सामवेद की स्वर परम्परा आज भी महाराजा लंकेश्वर का अनुसरण करती है|आज ही के दिन भगवान महादेव ने श्री अमरनाथ में परमसती त्रिपुर सुंदरी भगवती को पहली बार राम कथा सुनाई थी इसी के फल स्वरुप रामकथा इस धरती पर उतारी थी,इतना ही नही आज ही के दिन भगवान चंद्रमौलिस्वर विश्वेश्वर महादेव ने देवताओं की अत्मा हिमालय में भगवती जगदम्बा पार्वती को श्रीकृष्ण कथा का भी उपहार दिया था तभी से श्रीमदभगवत कथा की भाव भूमि बनी।

पुराणों में रक्षाबंधन के सन्दर्भ में कथा ऐसी है कि राजा बली की परीक्षा के लिए स्वयं भगवान वामन अवतार राजा बली के यहाँ गए राजा बली अपनी श्रेष्टतम दान कार्य के कारण प्रसिद्ध थे भगवान वामन ने राजा बली से अपने लिए साढ़े तीन पग भूमि की याचना की महाराज बली सहर्ष देने के लिए तैयार हो गए,यद्यपि महाराज बली के गुरु महर्षि शुक्राचार्य ने रजा बली को मना किया था कि भगवान वामन को दान नहीं देना, लेकिन अपने जीवन भर की उच्चतम परम्परा को राजा बली मलिन नहीं कर सकते थे और गुरु आदेश के विपरीत यह जानकर की स्वयं भगवान नारायण उनके यहाँ मांगने आये है राजा बली ने दान देना स्वीकार कर लिया और भगवान वामन ने तीन पग में तीनो लोको को नाप दिया आधे पग में अपनी पीठ राजा बली ने भगवान वामन के चरणों में रख दिया|यह देख साक्षात् नारायण अपने मूल स्वरूप में प्रगट होकर राजा बली को आशीर्वाद दिया और वर मांगने को कहा राजा ने बरदान में भगवान की अखंड भक्ति और यह भी माँगा की आप हमारी रक्षा सदैव करते रहे और निरंतर मेरे आँखों के सामने बने रहे भगवान श्री हरी ने एवमस्तु कहा और रजा बली के राज भवन के मुख्य द्वार पर खड़े हो गए क्योकि अब तो वे राजा बली के पहरेदार भी थे और निरंतर आँखों के सामने खड़े रहने का आशीर्वाद भी दे चुके थे|
   इस प्रकार बहुत समय बीत गया भगवती नारायणी को देव वार्ताकार नारद जी ने यह पूरी सूचना दी तो भगवती बहुत चिंतित और दुखी हुई कि अब नारायण हमेशा राजा की रक्षा में ही रहेंगे,अनेक विचार विमर्श के बाद देवी नारायणी स्वयं रजा बली से याचना करने और दान मांगने राजा के सम्मुख राज सभा में पहुची रजा बली ने भगवती से निवेदन किया की आप निःसंकोच अपनी इक्छा प्रगट करे इस पर भगवती ने राजा से उस पहरेदार को ही मांग लिया जो मूल रूप से भगवान वामन थे यह सुन कर राजा बली ने कहा की श्री हरी वचन दे चुके है की अहर्निश मेरे आँखों के सामने ही रहेंगे यह संकल्प कैसे पूर्ण होगा|यह सुन कर भगवती नारायणी ने आशीर्वाद दिया की भगवन श्री हरी सदैव आप की भावभूमि में ही रहेंगे इसलिए निरंतर दर्शन का तो समाधान हो गया और भगवती ने अपने वस्त्र से कुछ धागे निकाल कर राजा बली के दाहिने हाथ में वाध दिया यह कहते हुए की इस रक्षा सूत्र से आप के और आप के राज्य की निरंतर रक्षा होती रहेगी वह पवित्र दिन श्रवण पूर्णिमा ही था और तभी से रक्षाबंधन की परम्परा हमारे समाज में चली आ रही है।  

Wednesday, July 23, 2025

महाशिवरात्रि का सांस्कृतिक एवं वैज्ञानिक महत्व

 

डॉ. सौरभ मालवीय
पर्व एवं त्योहार भारतीय संस्कृति की पहचान हैं। ये केवल हर्ष एवं उल्लास का माध्यम नहीं हैं, अपितु यह भारतीय संस्कृति के संवाहक भी हैं। इनके माध्यम से ही हमें अपनी गौरवशाली प्राचीन संस्कृति के संबंध में जानकारी प्राप्त होती है। महाशिवरात्रि भी संस्कृति के संवाहक का ऐसा ही एक बड़ा त्योहार है।   

शिवरात्रि प्रत्येक मास की अमावस्या से एक दिन पूर्व अर्थात कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को मनाई जाती है, जबकि महाशिवरात्रि वर्ष में एक बार आती है। यह फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को मनाई जाती है। शिव पुराण की ईशान संहिता में कहा गया है कि फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि में भगवान शिव करोड़ों सूर्यों के समान प्रभाव वाले लिंग रूप में प्रकट हुए थे-
फाल्गुनकृष्णचतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि। शिवलिंगतयोद्भूत: कोटिसूर्यसमप्रभ:॥
माना जाता है कि इसी दिन प्रलय आएगा, जब प्रदोष के समय भगवान शिव तांडव करते हुए ब्रह्मांड को तृतीय नेत्र की ज्वाला से नष्ट कर देंगे। इसीलिए शिवरात्रि को कालरात्रि भी कहा जाता है। 

सांस्कृतिक एवं धार्मिक महत्त्व
महाशिवरात्रि धार्मिक एवं सांस्कृतिक रूप से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। महाशिवरात्रि के सन्दर्भ में अनेक पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं। एक कथा के अनुसार अग्निलिंग के उदय के साथ इसी दिन सृष्टि प्रारंभ हुई थी। एक पौराणिक कथा के अनुसार फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी पर भगवान शिव सर्वप्रथम शिवलिंग के स्वरूप में प्रकट हुए थे। इसीलिए इस दिवस को भगवान शिव के ज्योतिर्लिंग के प्रकाट्य पर्व को प्रत्येक वर्ष महाशिवरात्रि के रूप में मनाया जाता है।

एक अन्य कथा के अनुसार इस दिन भगवान शिव का देवी पार्वती के साथ विवाह सम्पन्न हुआ था। यह उनके विवाह की रात्रि है। उन्होंने वैराग्य त्याग कर गृहस्थ जीवन अ पना लिया था। एक पौराणिक कथा के अनुसार इस दिन भगवान शिव ने समुद्र मंथन के समय निकले कालकूट नामक विष को अपने कंठ में रख लिया था। इससे उनका कंठ नीला हो गया था। इसीलिए उन्हें नीलकंठ नाम से भी जाना जाता है। कहा जाता है कि इस घातक  विष के कारण भगवान शिव को ताप चढ़ गया था। इसे उतारने के लिए उनके मस्तक पर बेल पत्र रखा गया, क्योंकि बेल पत्र शीतल गुण वाला होता है। इससे उन्हें संतुष्टि प्राप्त हुई। तभी से शिवलिंग पर बेल पत्र चढ़ाने की परंपरा आरंभ हुई। एक कथा के अनुसार इस रात्रि भगवान शिव ने संरक्षण एवं विनाश के नृत्य का सृजन किया था। इसलिए भी यह रात्रि विशेष है।

महाशिवरात्रि का वैज्ञानिक महत्त्व
महाशिवरात्रि का वैज्ञानिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्व है। माना जाता है कि इस रात्रि ग्रह का उत्तरी गोलार्द्ध इस प्रकार अवस्थित होता है कि मानव की आंतरिक ऊर्जा प्राकृतिक रूप से ऊपर की ओर जाती है। मान्यता है कि यह ऊर्जा मनुष्य को आध्यात्मिक शिखर तक ले जाने में सहायक सिद्ध होती है। इसलिए इस रात्रि में भगवान शिव की पूजा- अर्चना करने का अत्यंत महत्त्व है। पूजा के समय भक्त सीधा बैठता है तथा उसकी रीढ़ की हड्डी सीधी होती है। इसके कारण उसकी ऊर्जा उसके मस्तिष्क की ओर जाती है। इससे उसे शारीरिक ही नहीं, अपितु मानसिक एवं आध्यात्मिक शक्ति भी प्राप्त होती है। भगवान शिव का पंचाक्षरी मंत्र ॐ नमः शिवाय है। यह मंत्र भगवान शिव को अत्यंत प्रिय है। इस मंत्र का संबंध पंच महाभूतों भूमि, गगन, वायु अग्नि एवं नीर से माना जाता है। इस मंत्र का निरंतर जाप करने से शरीर में ऊर्जा का संचार होता है। इससे मनुष्य का आत्मबल बढ़ता है।   

धर्म ग्रंथों के अनुसार महाशिवरात्रि के दिन भगवान शिव की पूजा- अर्चना करने से वे प्रसन्न होकर अपने भक्तों को मनचाहा वरदान देते हैं। शिवरात्रि का महोत्सव एक दिवस पूर्व ही प्रारंभ हो जाता है। भगवान शिव के मंदिरों में रात्रि भर पूजा-अर्चना की जाती है। भक्त रात्रिभर जागरण करते हैं एवं सूर्योदय के समय पवित्र स्थलों पर स्नान करते हैं। नदी तटों विशेष कर गंगा के तटों पर भक्तों की भीड़ उमड़ पड़ती है। स्नान के पश्चात भगवान शिव के मंदिरों में पूजा-अर्चना की जाती है। भक्त शिवलिंग की परिक्रमा करते हैं। तत्पश्चात भगवान शिव का अभिषेक किया जाता है। शिवलिंग का जलाभिषेक अथवा दुग्धाभिषेक भी किया जाता है। शिवलिंग पर जल से जो अभिषेक जाता है, उसे जलाभिषेक कहा जाता है। इसी प्रकार शिवलिंग पर दुग्ध से जो अभिषेक किया जाता है, उसे दुग्धाभिषेक कहा जाता है। मधु से भी शिवलिंग का अभिषेक किया जाता है। इसके अतिरिक्त शिवलिंग पर सिंदूर लगाया जाता है एवं सुगंधित धूप जलाई जाती है। दीपक भी जलाया जाता है। उस पर फल, अन्न एवं धन चढ़ाया जाता है। उस पर बेल पत्र एवं पान के पत्ते चढ़ाए जाते हैं। इनके अतिरिक्त वे वस्तुएं भी भगवान शिव को चढ़ाई जाती हैं, जो उन्हें प्रिय हैं। इनमें धतूरा एवं धतूरे के पुष्प सम्मिलित हैं। मुक्तिदायिनी गंगा के जल का भी विशेष महत्व है, क्योंकि गंगा देवलोक से सीधी भगवान शिव की जटा पर ही उतरी थी। इसके पश्चात ही वह पृथ्वी लोक में उतरी एवं प्रवाहित हुई। इसलिए सभी नदियों में गंगा का स्थान सर्वोपरि माना जाता है। भक्तजन महाशिवरात्रि के दिन उपवास भी रखते हैं। कुछ लोग निर्जल रहकर भी उपवास करते हैं। उपवास से तन एवं मन दोनों ही शुद्ध होते हैं। शुद्ध मन में ही तो भगवान वास करते हैं। कई स्थानों पर भगवान शिव की बारात भी निकाली जाती है। इसमें कलाकार शिव एवं पार्वती का रूप धारण करते हैं। बारात में सम्मलित लोग शरीर पर भस्म लगाए हुए होते हैं। वे नाचते गाते हुए शिव एवं पार्वती के रथ के पीछे चल रहे होते हैं। भक्तजन इसमें भाग लेते हैं।

महिलाओं के लिए विशेष है शिवरात्रि
शिवरात्रि का महिलाओं के लिए विशेष महत्व है। विवाहित महिलाएं व्रत रखकर अपने पति की दीर्घायु एवं सुखी जीवन के लिए प्रार्थना करती हैं, जबकि अविवाहित युवतियां भगवान शिव से अपने लिए सुयोग्य वर मांगती हैं। भगवान शिव को आदर्श पति के रूप में माना जाता है। इसलिए युवतियां सुयोग्य वर के लिए सोलह सोमवार का व्रत भी करती हैं। मान्यता है कि सोलह सोमवार का व्रत करने से सुयोग्य वर की प्राप्ति होती है।

भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंग
महाशिवरात्रि पर ज्योतिर्लिंग पर विशेष पूजा-अर्चना की जाती है। भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंग हैं अर्थात प्रकाश के लिंग हैं। ये स्वयम्भू के रूप में जाने जाते हैं, जिसका अर्थ है स्वयं उत्पन्न। ये बारह स्थानों पर ज्योतिर्लिंग स्थापित हैं। इनमें उत्तराखंड में हिमालय का दुर्गम केदारनाथ ज्योतिर्लिंग, उत्तर प्रदेश के ही काशी विश्वनाथ मंदिर में स्थापित विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग, बिहार के बैद्यनाथ धाम में स्थापित शिवलिंग, गुजरात के काठियावाड़ में स्थापित सोमनाथ शिवलिंग, मध्यप्रदेश के उज्जैन के अवंति नगर में स्थापित महाकालेश्वर शिवलिंग, मध्यप्रदेश के ही ओंकारेश्वर में नर्मदा तट पर स्थापित ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग, गुजरात के द्वारकाधाम के निकट स्थापित नागेश्वर ज्योतिर्लिंग, महाराष्ट्र की भीमा नदी के किनारे स्थापित भीमशंकर ज्योतिर्लिंग, महाराष्ट्र के नासिक के समीप त्र्यंम्बकेश्वर में स्थापित ज्योतिर्लिंग, महाराष्ट्र के ही औरंगाबाद जिले में एलोरा गुफा के समीप वेसल गांव में स्थापित घुमेश्वर ज्योतिर्लिंग, चेन्नई में कृष्णा नदी के किनारे पर्वत पर स्थापित श्री शैल मल्लिकार्जुन शिवलिंग एवं चेन्नई में ही रामेश्वरम् त्रिचनापल्ली समुद्र तट पर भगवान श्रीराम द्वारा स्थापित रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग सम्मिलित हैं। शिवरात्रि एवं महाशिवरात्रि आर यहां भक्तजनों का तांता लग जाता है। वे ज्योतिर्लिंग के दर्शन करके आध्यात्मिक लाभ अर्थात पुण्य प्राप्त करते हैं।

पुराणों के अनुसार आध्यात्मिक जीवन की पूर्णता प्राप्त करने के लिए भगवान शिव के इन बारह ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने अति आवश्यक हैं। मान्यता है कि इन सभी बारह स्थानों पर भगवान शिव ने स्वयं प्रकट होकर दर्शन दिए थे। इसीलिए यहां ये ज्योतिर्लिंग उत्पन्न हुए हैं।
भारत के अतिरिक्त उन देशों में भी शिवरात्रि का पर्व हर्षोल्लास से मनाया जाता है, जहां हिन्दू लोग निवास करते हैं। भगवान शिव मोक्षदायिनी माने जाते हैं। इसलिए यह त्योहार भी मनुष्य को पुण्य कर्मों के माध्यम से मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रेरित करता है।
(लेखक- लखनऊ विश्वविद्यालय में पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)
 

सत्यम शिवम सुंदरम

डॉ. सौरभ मालवीय
सत्य ही शिव है, शिव ही सुंदर है. भगवान शिव को देवों का देव महादेव भी कहा जाता है। भगवान शिव को आदि गुरु माना जाता है। भगवान शिव की आराधना का मूल मंत्र तो ऊं नम: शिवाय ही है, परंतु इस मंत्र के अतिरिक्त भी कुछ मंत्र हैं, जिनके जाप से भोले शंकर प्रसन्न हो जाते हैं। शिवरात्रि हिन्दुओं विशेषकर शिव भक्तों का प्रमुख त्योहार है। शिव रात्रि भगवान शिव को अतिप्रिय है। शिव पुराण के ईशान संहिता के अनुसार फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि में आदिदेव भगवान शिव करोड़ों सूर्यों के समान प्रभाव वाले लिंग रूप में प्रकट हुए थे-
फाल्गुनकृष्णचतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि। शिवलिंगतयोद्भूत: कोटिसूर्यसमप्रभ:॥
मानयता यह भी है कि इसी दिन प्रलय आएगा, जब प्रदोष के समय भगवान शिव तांडव करते हुए ब्रह्मांड को तीसरे नेत्र की ज्वाला से नष्ट कर देंगे। इसीलिए इसे महाशिवरात्रि अथवा कालरात्रि भी कहा जाता है।

वर्ष में 12 शिवरात्रियां आती हैं। इनमें महाशिवरात्रि की सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। महाशिवरात्रि का पावन पर्व फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को मनाया जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार अग्निलिंग के उदय के साथ इसी दिन सृष्टि का प्रारंभ हुआ था। यह भी मान्यता है कि इसी दिन भगवान शिव का विवाह देवी पार्वती के साथ सम्पन्न हुआ था। कहा जाता है कि महाशिवरात्रि के दिन भगवान शिव ने कालकूट नामक विष को अपने कंठ में रख लिया था, जो समुद्र मंथन के समय समुद्र से निकला था। इससे शिवशंकर का कंठ नीला हो गया था. इसीलिए उन्हें नीलकंठ नाम से भी जाना जाता है. शैव परंपरा की एक पौराणिक कथा के अनुसार, इस रात भगवान शिव ने संरक्षण और विनाश के स्वर्गीय नृत्य का सृजन किया था.

महाशिवरात्रि से संबंधित कई पौराणिक कथाएं हैं. एक कथा के अनुसार चित्रभानु नामक एक शिकारी था. वह वन्य पशुओं का शिकार करके अपना जीवन यापन करता था. एक बार महाशिवरात्रि के दिन अनजाने में उसने शिवकथा सुन ली. इसके बाद वह शिकार की खोज में वन में गया. वह बेल के वृक्ष के ऊपर चढ़कर शिकार की प्रतीक्षा करने लगा और अनजाने में बेल के पत्ते तोड़कर नीचे  फेंकने लगा. वृक्ष के नीचे घास-फूंस से ढका एक शिवलिंग था. बेलपत्र शिवलिंग पर गिरते रहे. इससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उसका ह्रदय निर्मल बना दिया. उसके मन से हिंसा के विचार समाप्त हो गया. वह वन में शिकार करने गया था, परंतु उसने चार हिरणों को जीवनदान दे दिया. इसके बाद उसके जीवन में परिवर्तन आ गया. यह कथा अहिंसा पर की शिक्षा देती है.

मान्यता है कि शिवरात्रि को ग्रहों की विशेष स्थिति होती है. इसके कारण मानव शरीर में ऊर्जा का एक शक्तिशाली पुंज प्रवेश करता है. इसलिए इस रात्रि में जागरण करना बहुत उत्तम माना गया है. इसी कारण शिवरात्रि के पर्व का उत्सव एक दिन पहले से ही प्रारंभ हो जाता है. भगवान शिव के मंदिरों में पूरी रात पूजा-अर्चना की जाती है. भक्तजन रात्रिभर कीर्तन करते हैं.  भक्तजन सूर्योदय के समय पवित्र स्थानों पर स्नान करते हैं. नदी किनारों पर भक्तों का तांता लग जाता है. स्नान के बाद भगवान शिव के मंदिरों में पूजा-अर्चना की जाती है. भक्त शिवलिंग की परिक्रमा करते हैं और फिर भगवान शिव का अभिषेक किया जाता है। भक्तजन शिवलिंग का जलाभिषेक या दुग्धाभिषेक करते हैं. शिवलिंग पर जल से जो अभिषेक जाता है, उसे जलाभिषेक कहा जाता है. इसी प्रकार शिवलिंग पर दूध से जो अभिषेक किया जाता है, उसे दुग्‍धाभिषेक  कहते हैं. शहद से भी अभिषेक किया जाता है. इसके अतिरिक्त शिवलिंग पर सिंदूर लगाया जाता है. सुगंधित धूप जलाई जाती है. दीपक जलाता जाता है. फल, अन्न और धन चढ़ाया जाता है. बेल पत्र और पान के पत्ते अर्पित किए जाते हैं. इनके अतिरिक्त वे वस्तुएं भी भगवान शिव को अर्पित करना चाहिए, जो उन्हें प्रिय हैं. धतूरा और धतूरे के पुष्प भगवान शिव को प्रिय हैं. मुक्तिदायिनी गंगा के जल का भी विशेष महत्व है, क्योंकि  गंगा देवलोक से भगवान श‌िव की जटा से होकर ही पृथ्वी लोक में उतरी हैं. इसील‌िए सभी नद‌ियों में गंगा का स्थान सर्वोपरि माना जाता है। भक्तजन महाशिवरात्रि के दिन उपवास भी रखते हैं. कुछ लोग निर्जल रहकर भी उपवास करते हैं. कई स्थानों पर इस दिन भगवान शिव की बारात भी निकाली जाती है. इसमें कलाकार शिव-पार्वती का रूप धारण करते हैं. भक्तजन इसमें बढ़ चढ़कर भाग लेते हैं. शिवरात्रि का महिलाओं के लिए विशेष महत्व है। विवाहित महिलाएं अपने पति की दीर्घायु और सुखी जीवन के लिए प्रार्थना करती हैं, जबकि अविवाहित लड़कियां भगवान शिव से अपने लिए सुयोग्य वर मांगती हैं. भगवान शिव को आदर्श पति के रूप में माना जाता है. लड़कियां सुयोग्य वर के लिए सोलह सोमवार का व्रत भी करती हैं.

महाशिवरात्रि पर ज्योतिर्लिंग पर विशेष पूजा-अर्चना की जाती है. भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंग अर्थात प्रकाश के लिंग हैं. ये स्वयम्भू के रूप में जाने जाते हैं, जिसका अर्थ है स्वयं उत्पन्न। इनमें गुजरात के काठियावाड़ में स्थापित सोमनाथ शिवलिंग, मद्रास में कृष्णा नदी के किनारे पर्वत पर स्थापित श्री शैल मल्लिकार्जुन शिवलिंग, मध्यप्रदेश के उज्जैन के अवंति नगर में स्थापित महाकालेश्वर शिवलिंग, मध्यप्रदेश के ही ओंकारेश्वर में नर्मदा तट पर स्थापित ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग, गुजरात के द्वारकाधाम के निकट स्थापित नागेश्वर ज्योतिर्लिंग, बिहार के बैद्यनाथ धाम में स्थापित शिवलिंग, महाराष्ट्र की भीमा नदी के किनारे स्थापित भीमशंकर ज्योतिर्लिंग, महाराष्ट्र के नासिक के समीप त्र्यंम्बकेश्वर में स्थापित ज्योतिर्लिंग, महाराष्ट्र के ही औरंगाबाद जिले में एलोरा गुफा के समीप वेसल गांव में स्थापित घुमेश्वर ज्योतिर्लिंग, उत्तराखंड में हिमालय का दुर्गम केदारनाथ ज्योतिर्लिंग, उत्तर प्रदेश के काशी विश्वनाथ मंदिर में स्थापित विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग एवं मद्रास में रामेश्वरम्‌ त्रिचनापल्ली समुद्र तट पर भगवान श्रीराम द्वारा स्थापित रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग  सम्मिलित हैं.

भारत के अतिरिक्त अन्य देशों में भी शिवरात्रि का पर्व हर्षोल्लास से मनाया जाता है. त्योहार मनुष्य को पुण्य कर्मो की शिक्षा देते हैं. हमें समाज के हित के कार्य करने चाहिए. अपने सामर्थ्य के अनुसार मानव कल्याण के लिए अपना योगदान सबको देना चाहिए.

Sunday, June 8, 2025

बुढ़िया माता का दर्शन




डॉ. सौरभ मालवीय  
गोरखपुर के कुसम्ही जंगल में बुढ़िया माता का मंदिर सदियों से श्रद्धालुओं की आस्था का प्रतीक  है.
गोरखपुर के कुसम्ही जंगल में स्थित बुढ़िया माता का मंदिर सदियों से श्रद्धालुओं की आस्था का प्रतीक है. 
शारदीय नवरात्रि में इस मंदिर में श्रद्धालुओं की भीड़ दर्शन के लिए जुट जाती है. मान्यता है कि यहां भक्‍त जो भी मुराद मांगते हैं, वो पूरी हो जाती है. मां अकाल मृत्‍यु से भी भक्‍तों की रक्षा करती हैं. गोरखपुर शहर से पूरब स्थित कुसम्ही जंगल बुढ़िया माता का मंदिर काफी प्रसिद्ध है. मुख्‍यमंत्री योगी आदित्‍यनाथ जी की भी इस मंदिर में बड़ी आस्‍था है.
 दूर-दराज से श्रद्धालु यहां पर दर्शन के साथ मुंडन और अन्य शुभ संस्कार करने के लिए आते हैं. नवरात्रि के अवसर पर आस्था के प्रतीक देवी मां के इस मंदिर में श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है.
हलवा पूड़ी चढ़ाते हैं भक्त
यहां आने वाले श्रद्धालु पूरी श्रद्धा के साथ कढ़ाई चढ़ाते हैं. हलवा-पूड़ी बनाते हैं और माता के चरणों में अर्पित करते हैं. नवरात्रि में 9 दिन का व्रत रखने वाले श्रद्धालु माता के दरबार में मत्था टेकने जरूर आते हैं. गोरखपुर और आसपास के जिलों के अलावा नेपाल से भी यहां पर श्रद्धालुओं के आने का सिलसिला वर्ष भर जारी रहता है.
मान्‍यता है कि आस्था का प्रतीक यह मंदिर काफी प्राचीन है. सदियों पहले यह क्षेत्र वनाच्छादित होने के साथ ही विशालकाय बट वृक्षों से पटा हुआ था. किवदंती है कि सदियों पहले यहां पर एक बुढ़िया माता पुलिया के किनारे बैठी थीं. उसी दौरान लकड़ी की पुलिया से बारात जाने लगी बुढ़िया माता ने बारातियों से नाच दिखाने के लिए कहा. लेकिन बारातियों ने नाच नहीं दिखाया. इसके बाद बारात के लकड़ी के पुलिया पर चढ़ते ही पुलिया टूट गई और बारात पोखरे में समा गई. बुढ़िया माता को नाच दिखाने वाला एक जोकर बच गया.
 यहां आने वाले श्रद्धालुओं की सारी मनोकामनाएं भी पूरी होती हैं.

Thursday, June 5, 2025

भेंट

 


दिव्य राम दरबार की प्राण प्रतिष्ठा


प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने अयोध्या में दिव्य राम दरबार की प्राण प्रतिष्ठा के अवसर पर सभी देशवासियों को शुभकामनाएं दी हैं। श्री मोदी ने कहा कि दिव्य राम दरबार की प्राण प्रतिष्ठा सभी राम भक्तों को श्रद्धा और आनंद से भर देने वाली है।
उन्होंने यह भी कामना की है कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम सभी देशवासियों को सुख, समृद्धि और स्वास्थ्य प्रदान करें।
प्रधानमंत्री ने सोशल मीडिया एक्स पर एक पोस्ट में कहा- "प्रभु श्री राम की जन्मस्थली अयोध्या एक और गौरवशाली और ऐतिहासिक क्षण का साक्षी बनी है। भव्य-दिव्य राम दरबार की प्राण-प्रतिष्ठा का ये पावन अवसर समस्त रामभक्तों को श्रद्धा और आनंद से भावविभोर करने वाला है। मेरी कामना है कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम सभी देशवासियों को सुख-समृद्धि और आरोग्य का आशीर्वाद दें।
जय सियाराम !"

Monday, May 12, 2025

देवर्षि नारद को आदि गुरु मानने से बढ़ेगा गौरव


डॉ. सौरभ मालवीय 
देश में प्राचीन काल से ही ज्येष्ठ मास की कृष्ण पक्ष की द्वितीय तिथि को देवर्षि नारद मुनि की जयंती मनाने की परंपरा चली आ रही है। हिन्दू शास्त्रों के अनुसार देवर्षि नारद मुनि को सृष्टिकर्ता ब्रह्मा का मानस पुत्र माना जाता है। कहा जाता है कि उनका जन्‍म ब्रह्मा जी की गोद से हुआ था। इसलिए वे उनके मानस पुत्र माने जाते हैं। वे समस्त  देवी- देवताओं के ऋषि हैं इसीलिए उन्हें देवर्षि एवं ब्रह्मर्षि कहा जाता है। ब्रह्मर्षि का पद प्राप्त करने के लिए उन्होंने कठिन तपस्या की थी। उन्हें ब्रह्मनंदन एवं वीणाधर के नाम से भी पुकारा जाता है। ‘नारद’ शब्द में ‘नार’ का अर्थ है जल एवं अज्ञान तथा ‘द’ का अर्थ है प्रदान करना एवं नाश करना। वे समस्त प्राणियों को ज्ञान का दान करके अज्ञानता का नाश करते हैं। वे प्राणियों को तर्पण करने में भी सहायता करते थे, इसीलिए उन्हें नारद कहा जाने लगा।
 
भगवान विष्णु के अनन्य भक्त
देवर्षि नारद मुनि सृष्टि के पालनहार भगवान विष्णु के अनन्य भक्त माने जाते हैं। वे तीनों लोकों में भ्रमण करते हुए अपनी वीणा की सुमधुर तान पर भगवान विष्णु की महिमा का गान करते हैं। प्रत्यके समय उनकी जिव्हा पर भगवान विष्णु का नाम रहता है- नारायण-नारायण। वे सदैव भक्ति में लीन रहते हैं। इसके साथ-साथ में भटके हुए लोगों का मार्गदर्शन करते हैं तथा उनकी शंकाओं का समाधान भी करते हैं। उनके महान कार्यों की गणना संभव नहीं है। किन्तु कुछ कार्यों का उल्लेख करना संभव है, जैसे उन्होंने लक्ष्मी का विवाह अपने इष्टदेव भगवान विष्णु के साथ करवाया था। उन्होंने स्वर्ग के राजा इन्द्रदेव को मनाकर अप्सरा उर्वशी का पुरुरवा के साथ विवाह करवाया था। उन्होंने ऋषि बाल्मीकि को महान ग्रंथ रामायण लिखने की प्रेरणा दी थी। उन्होंने व्यास जी को भागवत की रचना करने की प्रेरणा दी थी। उन्होंने विष्णु भक्त प्रह्लाद एवं भक्त ध्रुव का मार्गदर्शन किया था। उन्होंने बृहस्पति एवं शुकदेव आदि को उपदेश देकर उनका मार्गदर्शन किया था। उनके ऐसे असंख्य महान कार्य हैं।
 
देवर्षि नारद मुनि के ग्रंथ   
देवर्षि नारद मुनि बहुत ज्ञानी थे। वे अनेक कलाओं में पारंगत थे। उन्होंने वाद्य यंत्र वीणा का आविष्कार किया था। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि वे ब्रह्मांड के प्राय: सभी विषयों के ज्ञाता थे। लगभग सभी आदि ग्रंथों में उनका उल्लेख मिलता है। वे व्यास, बाल्मीकि एवं शुकदेव आदि के गुरु हैं। उन्हें तीनों लोकों में मान-सम्मान प्राप्त है। वे देवी-देवताओं के मन की बात भी समझ जाते थे। उन्होंने भक्तिभाव का प्रचार-प्रसार किया। उनका कहना था कि व्यक्ति को सर्वदा सर्वभाव से निश्चित होकर केवल अपने प्रभु का ही स्मरण करना चाहिए। यही भक्ति है एवं यही साधना है।  
लोक कल्याण के लिए उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की। इनमें नारद पांचरात्र, नारद के भक्तिसूत्र, नारद पुराण, बृहन्नारदीय उपपुराण-संहिता अथवा नारद स्मृति, नारद-परिव्राज कोपनिषद तथा नारदीय-शिक्षा आदि सम्मिलित हैं।

नारद पांचरात्र वैष्णव संप्रदाय का ग्रंथ माना जाता है। इसमें 'रात्र' का अर्थ है ज्ञान। कहा जाता है कि इस ग्रंथ में ब्रह्मा, वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न एवं अनिरुद्ध का ज्ञान है इसलिए इसे पांचरात्र कहा जाता है। यह ग्रंथ श्रीकृष्ण द्वारा प्रदत्त था। देवर्षि नारद मुनि ने इसका प्रचार-प्रसार किया। इसमें प्रेम, भक्ति, मुक्ति एवं योग आदि का उल्लेख किया गया है। इसमें भक्ति के संबंध में श्रीकृष्ण एवं राधा के प्रेम का उल्लेख किया गया है।
 
नारद भक्ति सूत्र नामक ग्रंथ देवर्षि नारद मुनि द्वारा रचित है। इसमें भक्ति के 84 सूत्रों का उल्लेख किया गया है।
इसमें भक्ति की व्याख्या से लेकर इसकी महत्ता, नियम एवं फल आदि का भी उल्लेख मिलता है। इसमें बताया गया है कि प्रेम भक्ति का प्रथम सोपान है तथा अपने इष्ट के लिए व्याकुल होना भक्तिभाव का चिह्न है। आदर्श भक्ति को समझने के लिए श्रीकृष्ण के प्रति गोपियों के मनोभाव को समझना होगा।
     
नारद पुराण भी वैष्णव का ग्रंथ है। अट्ठारह पुराणों में यह छठे स्थान पर आता है। इसी से इसकी महत्ता का ज्ञान होता है। कहा जाता है कि इस पुराण का श्रवण करने से मुक्ति प्राप्त होती है अर्थात पापी व्यक्ति भी इसका श्रवण करके पाप मुक्त हो जाता है। इसमें पापों का उल्लेख किया गया है। इसके प्रारंभ में अनेक प्रश्न पूछे गए हैं। इसमें अनेक ऐतिहासिक एवं धार्मिक कथाएं, धार्मिक अनुष्ठान, ज्योतिष, मंत्र, बारह मास की व्रत-तिथियों के साथ उनसे संबंधित कथाएं, शिक्षा एवं व्याकरण आदि का भी उल्लेख मिलता है।    
 
बृहन्नारदीय उपपुराण-संहिता अथवा नारद स्मृति नारद स्मृति भी देवर्षि नारद मुनि द्वारा रचित ग्रंथ है। इसमें न्याय, उत्तराधिकार, संपत्ति का क्रय एवं विक्रय, उत्तराधिकार, पारिश्रमिक, ऋण एवं अपराध आदि विषयों उल्लेख है। एक प्रकार से यह न्याय अथवा संविधान का ग्रंथ है। इसमें नारद गीता, नारद नीति एवं 'नारद संगीत आदि ग्रंथ होने का भी उल्लेख किया गया है।
 
नारद-परिव्राजक कोपनिषद अथर्ववेद से संबंधित ग्रंथ है। देवर्षि नारद मुनि इसके उपदेशक हैं। इसमें परिव्राजक संन्यासी के सिद्धांत, आचरण, संन्यासी-धर्म, संन्यासी-भेद आदि का विस्तृत रूप से वर्णन किया गया है। परिव्राजक संन्यासी उसे कहा जाता है जो परिव्रज्या व्रत ग्रहण कर भिक्षाटन करके अपने जीवन का निर्वाह करता है। इसमें ब्रह्म के स्वरूप का विस्तृत रूप से वर्णन किया गया है। इसमें परम पद प्राप्ति की प्रक्रिया का भी स्पष्ट शब्दों में उल्लेख किया गया है। अहं ब्रहृमास्मिअर्थात् ‘मैं ही ब्रह्म हूं’ मंत्र का उल्लेख किया गया है। साधक के लिए यह मोक्ष प्राप्ति की स्थिति है।    
 
लोक कल्याणकारी संदेशवाहक
देवर्षि नारद मुनि एक लोक कल्याणकारी संदेशवाहक एवं लोक-संचारक थे। इसीलिए उन्हें आदि संबाददाता अथवा पत्रकार कहना अनुचित नहीं है। सर्वविदित है कि वही तीनों लोकों में सूचनाओं का आदान-प्रदान करते थे। वे केवल देवी-देवताओं को ही नहीं, अपितु दानवों को भी आवश्यक सूचनाएं देते थे। उस समय मौखिक रूप से ही सूचनाओं का आदान-प्रदान होता था। इसलिए दानव भी उनका आदर-सत्कार करते थे तथा उनसे परामर्श लेने भी संकोच नहीं करते थे।

प्राचीन काल में आधुनिक काल की भांति सूचना के साधन नहीं थे। उस समय चौपालों पर लोग एकत्रित होते थे। इसी समयावधि में उनके मध्य संवाद होता था। इस प्रकार सूचनाओं का आदान-प्रदान होता था। तीर्थ यात्रियों के द्वारा भी सूचनाओं का संचार होता था। व्यापारी भी सूचनाओं के संचार का माध्यम थे। इसके अतरिक्त मेलों, धार्मिक एवं मांगलिक आयोजनों में भी सूचनाओं का आदान-प्रदान होता था। इनमें सम्मिलित होने वाले लोग सूचनाओं को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचाने का कार्य करते थे।           
 
सूचना देने वाले को संवाददाता कहा जाता है। इस प्रकार देवर्षि नारद मुनि आदि संवाददाता थे। वे सदैव एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करते रहते थे। इसके संबंध में एक कथा प्रचलित हैं कि ब्रहमाजी के पुत्र दक्ष के यहां सौ पुत्र हुए तथा सभी पुत्रों को जनसंख्या बढ़ाने का आदेश दिया गया, ताकि सृष्टि आगे बढ़ सके। किन्तु देवर्षि नारद मुनि ने अपने भाई दक्ष के पुत्रों अर्थात अपने भतीजों को तपस्या करने के लिए प्रेरित किया। उनकी बात मानकर सभी दक्ष पुत्र घोर तपस्या करने लगे। दक्ष ने अपने पुत्रों को तपस्या छोड़कर सृष्टि बढ़ाने का पुन: आदेश दिया, परन्तु देवर्षि नारद मुनि ने उन्हें पुनः तपस्या में लगा दिया। इस पर दक्ष को क्रोध आ गया और उसने देवर्षि नारद मुनि को श्राप दे दिया। इस श्राप के अनुसार वे एक स्थान पर अधिक समय तक नहीं ठहर पाएंगे तथा सदैव विचरण करते रहेंगे। इसके साथ ही वे सूचना को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचाने का कार्य करेंगे। देवर्षि नारद मुनि ने इस श्राप को सहर्ष स्वीकार कर लिया। उन्होंने इस श्राप का लोकहित में उपयोग किया।      
 
श्रीकृष्ण ने देवर्षि नारद मुनि की श्राप की इस स्वीकारोक्ति की सराहना की थी। एक बार उन्होंने अर्जुन से कहा था कि यदि देवर्षि नारद मुनि चाहते तो दक्ष के श्राप से मुक्ति पा सकते थे, परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्होंने जनहित में श्राप को सहर्ष स्वीकार किया। उसी समय से वे निरंतर तीनों लोकों का भ्रमण करते रहते हैं।
 
वास्तव में देवर्षि नारद मुनि अत्यंत ज्ञानी एवं अनुभवी थे। वे भली भांति जानते थे कि वे इस श्राप का लोकहित में किस प्रकार उपयोग कर सकते हैं। उन्होंने मानव कल्याण के लिए इसका उपयोग किया। उनके कार्यों से पता चलता है कि किस प्रकार सूचना का उचित उपयोग करके अनिष्ट से बचा जा सकता है।
 
उन्होंने समुद्र मंथन के समय इसमें से विष निकलने की सूचना मंथन में लगे दोनों ही पक्षों को दी थी, किन्तु किसी भी पक्ष ने इस पर तनिक ध्यान नहीं किया। इसका परिणाम भयंकर हुआ तथा विष फैल गया। यह विष इतना भयंकर था कि इससे समस्त सृष्टि का विनाश हो सकता था। उन्होंने इसकी सूचना महादेव को दी। महादेव ने लोकहित में सारा विष पी लिया। इससे सृष्टि तो बच गई, परन्तु महादेव का कंठ नीला हो गया। इस घटना से सूचना के दोनों ही पक्षों के परिणाम का ज्ञान होता है। कहा जाता है कि सती द्वारा राजा दक्ष के यज्ञ कुंड में शरीर त्यागने की सूचना भी देवर्षि नारद मुनि ने ही महादेव को दी थी।
 
आधुनिक समय में पत्रकार देवर्षि नारद मुनि की जयंती को हर्षोल्लास से मनाते हैं। उल्लेखनीय है कि हिंदी साप्ताहिक ‘उदन्त मार्तण्ड’ का प्रकाशन 30 मई 1826 को कोलकाता से प्रारंभ हुआ था। उस दिन नारद जयंती थी। पत्रिका के प्रथम अंक के प्रथम पृष्ठ पर सम्पादक ने लिखा था- “देवऋषि नारद की जयंती के शुभ अवसर पर यह पत्रिका प्रकाशित होने जा रही है क्योंकि नारद जी एक आदर्श संदेशवाहक होने के नाते उनका तीनों लोक में समान सहज संचार था।“
 
इसमें कोई दो मत नहीं है कि महर्षि नारद मुनि एक महान विचारक एवं चिन्तक थे। उनकी सूचनाएं सज्जन के लिए शक्ति तो दुष्ट के लिए विनाशक सिद्ध होती थीं। इसलिए पत्रकारों को उन्हें अपना आदर्श एवं आदि गुरु मानना चाहिए। नि:संदेह इससे उनका गौरव बढ़ेगा तथा पत्रकारिता भी गौरान्वित होगी।
 

Friday, April 18, 2025

भारतीय संस्कृति की धूम


डॉ. सौरभ मालवीय  
भारत की प्राचीन ज्ञान परंपरा एवं सांस्कृतिक धरोहर संपूर्ण विश्व में सराही जा रही है। संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) ने श्रीमद्भगवद गीता एवं महान नाट्यकार भरत मुनि द्वारा रचित नाट्यशास्त्र को अपने प्रतिष्ठित विश्व स्मृति रजिस्टर में सम्मिलित किया है।

विश्व विरासत दिवस के अवसर पर केंद्रीय संस्कृति एवं पर्यटन मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने आज यह जानकारी देते हुए कहा कि यह भारत की सभ्यतागत विरासत के लिए एक ऐतिहासिक क्षण है। उन्होंने एक्स पर लिखा- ”श्रीमद्भगवद्गीता और भरत मुनि के नाट्यशास्त्र को अब यूनेस्को के मेमोरी ऑफ द वर्ल्ड रजिस्टर में सम्मिलित किया गया है। यह वैश्विक सम्मान भारत के शाश्वत ज्ञान एवं कलात्मक प्रतिभा का उत्सव मनाता है। ये कालातीत रचनाएं साहित्यिक कोष से कहीं बढ़कर हैं - वे दार्शनिक और सौंदर्यवादी आधार हैं जिन्होंने भारत के विश्व दृष्टिकोण और हमारे सोचने, अनुभव करने, जीने और अभिव्यक्त करने के ढंग को आकार दिया है।”

प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने गीता और नाट्यशास्त्र को यूनेस्को के मेमोरी ऑफ द वर्ल्ड रजिस्टर में सम्मिलित किए जाने की प्रशंसा करते हुए इसे हमारे शाश्वत ज्ञान और समृद्ध संस्कृति को वैश्विक मान्यता प्रदान किया जाना बताया। गीता और नाट्यशास्त्र को यूनेस्को के मेमोरी ऑफ द वर्ल्ड रजिस्टर में सम्मिलित किया जाना हमारे शाश्वत ज्ञान और समृद्ध संस्कृति को वैश्विक मान्यता प्रदान किया जाना है। गीता एवं नाट्यशास्त्र ने सदियों से सभ्यता और चेतना का पोषण किया है। उनकी अंतर्दृष्टि दुनिया को प्रेरित करना जारी रखे हुए है।

संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) के अनुसार इस वर्ष मेमोरी ऑफ द वर्ल्ड रजिस्टर में कुल 74 नई प्रविष्टियां सम्मिलित की गईं। मेमोरी ऑफ द वर्ल्ड रजिस्टर में संग्रहों की कुल संख्या 570 हो गई है, जो वैश्विक बौद्धिक और सांस्कृतिक स्मृति के विशाल ताने-बाने का प्रतिनिधित्व करती है। इस सूची में ऐसे महत्वपूर्ण विधिक लेख्य एवं ग्रंथ सम्मिलित किए जाते होते हैं, जो मानव सभ्यता, संस्कृति एवं इतिहास की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। नई सम्मिलित की गई प्रविष्टियां वैज्ञानिक क्रांतियों, महिलाओं के योगदान एवं बहुपक्षीय सहयोग के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं, जिन्हें 72 देशों और चार अंतर्राष्ट्रीय संगठनों द्वारा प्रस्तुत किया गया है। भारत के पास अब मेमोरी ऑफ द वर्ल्ड रजिस्टर में 14 शिलालेख सम्मिलित हैं।

यूनेस्को की महानिदेशक ऑड्रे अज़ोले का कहना है कि विधिक लेख्य धरोहर विश्व की स्मृति का एक आवश्यक परंतु कोमल तत्व है। यही कारण है कि यूनेस्को सुरक्षा में निवेश करता है- जैसे कि मॉरिटानिया में चिंगुएट्टी के पुस्तकालय या कोटे डी आइवर में अमादौ हम्पाते बा के अभिलेखागार - सर्वोत्तम प्रथाओं को साझा करते हैं, और इस रजिस्टर को बनाए रखते हैं, जो मानव इतिहास के व्यापकतम धागों को रिकॉर्ड करता है।

इस वर्ष 2025 की सूची में वैज्ञानिक विधिक लेख्यों से लेकर ऐतिहासिक महिला नेत्रियों, दासता की स्मृति एवं मानवाधिकारों से संबंधित अभिलेख भी सम्मिलित हैं।
उल्लेखनीय है कि श्रीमद्भगवद गीता, महाभारत का एक अंश है। यह एक धार्मिक ग्रंथ है, जिसमें धर्म एवं कर्म आदि का उल्लेख है। नाट्यशास्त्र, भारतीय रंगमंच अर्थात नृत्य एवं नाट्यकला का मूल ग्रंथ माना जाता है।

Sunday, April 13, 2025

आया बैसाखी का पावन पर्व


डॊं. सौरभ मालवीय
बैसाखी ऋतु आधारित पर्व है. बैसाखी को वैसाखी भी कहा जाता है. पंजाबी में इसे विसाखी कहते हैं. बैसाखी कृषि आधारित पर्व है. जब फ़सल पक कर तैयार हो जाती है और उसकी कटाई का काम शुरू हो जाता है, तब यह पर्व मनाया जाता है. यह पूरी देश में मनाया जाता है, परंतु पंजाब और हरियाणा में इसकी धूम अधिक होती है. बैसाखी प्रायः प्रति वर्ष 13 अप्रैल को मनाई जाती है, किन्तु कभी-कभी यह पर्व 14 अप्रैल को भी मनाया जाता है.

यह सिखों का प्रसिद्ध पर्व है. जब मुगल शासक औरंगजेब ने अन्याय एवं अत्याचार की सभी सीमाएं तोड़कर  श्री गुरु तेग बहादुरजी को दिल्ली में चांदनी चौक पर शहीद किया था, तब इस तरह 13 अप्रैल,1699 को श्री केसगढ़ साहिब आनंदपुर में दसवें गुरु गोविंद सिंह जी ने अपने अनुयायियों को संगठित कर खालसा पंथ की स्थापना की थी. सिखो के दूसरे गुरु, गुरु अंगद देव का जन्म इसी महीने में हुआ था. सिख इसे सामूहिक जन्मदिवस के रूप में मनाते हैं. गोविंद सिंह जी ने निम्न जाति के समझे जाने वाले लोगों को एक ही पात्र से अमृत छकाकर पांच प्यारे सजाए, जिन्हें पंज प्यारे भी कहा जाता है. ये पांच प्यारे किसी एक जाति या स्थान के नहीं थे. सब अलग-अलग जाति, कुल एवं अलग स्थानों के थे. अमृत छकाने के बाद इनके नाम के साथ सिंह शब्द लगा दिया गया.
इस दिन श्रद्धालु अरदास के लिए गुरुद्वारों में जाते हैं. आनंदपुर साहिब में मुख्य समारोह का आयोजन किया जाता है. प्रात: चार बजे गुरु ग्रंथ साहिब को समारोहपूर्वक कक्ष से बाहर लाया जाता है. फिर दूध और जल से प्रतीकात्मक स्नान करवाया जाता है. इसके पश्चात गुरु ग्रंथ साहिब को तख्त पर बिठाया जाता है. इस अवसर पर पंज प्यारे पंजबानी गाते हैं. दिन में अरदास के बाद गुरु को कड़ा प्रसाद का भोग लगाया जाता है. प्रसाद लेने के बाद श्रद्धालु गुरु के लंगर में सम्मिलत होते हैं. इस दिन श्रद्धालु कारसेवा करते हैं. दिनभर गुरु गोविंदसिंह और पंज प्यारों के सम्मान में शबद और कीर्तन गाए जाते हैं.
शाम को आग के आसपास इकट्ठे होकर लोग नई फ़सल की की खुशियां मनाते हैं और पंजाब का परंपरागत नृत्य भांगड़ा और गिद्दा किया जाता है.

बैसाखी के दिन सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है. हिन्दुओं के लिए भी बैसाखी का बहुत महत्व है. पौराणिक कथा के अनुसार ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना इसी दिन की थी.  इसी दिन अयोध्या में श्रीराम का राज्याभिषेक हुआ था. राजा विक्रमादित्य ने विक्रमी संवत का प्रारंभ इसी दिन से किया था, इसलिए इसे विक्रमी संवत कहा जाता है. बैसाखी के पावन पर्व पर पवित्र नदियों में स्नान किया जाता है. महादेव और दुर्गा देवी की पूजा की जाती है. इस दिन लोग नये कपड़े पहनते हैं. वे घर में मिष्ठान बनाते हैं. बैसाखी के पर्व पर लगने वाला बैसाखी मेला बहुत प्रसिद्ध है. जगह-जगह विशेषकर नदी किनारे बैसाखी के दिन मेले लगते हैं. हिंदुओं के लिए यह पर्व नववर्ष की शुरुआत है. हिन्दू इसे स्नान, भोग लगाकर और पूजा करके मनाते हैं.

Sunday, March 30, 2025

नवरात्रि का संदेश : नारी सशक्तीकरण

 

डॉ. सौरभ मालवीय 
भारतीय पर्व हमारी सांस्कृतिक विरासत के प्रतीक हैं। इनसे हमें ज्ञात होता है कि हमारी प्राचीन संस्कृति कितनी विशाल, संपन्न एवं समृद्ध है। यदि नवरात्रि की बात करें तो यह पर्व भी भारतीय संस्कृति की महानता को दर्शाता है। विगत कुछ दशकों से देश में महिला सशक्तीकरण की बात हो रही है। कुछ लोग विदेशों के उदाहरण देते हैं कि वहां की महिलाएं सशक्त हैं तथा उन्हें बहुत से अधिकार प्राप्त हैं। किंतु ये लोग अपने देश के इतिहास पर चिंतन एवं मनन नहीं करते हैं। वास्तव में भारत विश्व का एकमात्र ऐसा देश है, जहां महिलाओं को पुरुषों के समान माना गया है। उदाहरण के लिए भारत में देवियों की पूजा-अर्चना की जाती है। यहां पर उन्हें भी देवताओं के समान ही पूजा जाता है, अपितु देवियों का स्थान देवता से पहले आता है जैसे राधा कृष्ण, सीता राम आदि। भगवान शिव के साथ देवी पार्वती की भी पूजा की जाती है। भगवान राम के साथ देवी सीता की पूजा की जाती है तथा भगवान श्रीकृष्ण के साथ राधा की पूजा-अर्चना करने का विधान प्राचीन काल से ही चला आ रहा है। हमारी मान्यता के अनुसार शक्ति की देवी दुर्गा है। धन एवं समृद्धि की देवी लक्ष्मी है तथा ज्ञान की देवी सरस्वती है। कहने का अभिप्राय यह है कि मनुष्य को जीवन में जिन वस्तुओं की आवश्यकता होती है, वह सब उन्हें इन देवियों से ही तो प्राप्त होती हैं।    
नवरात्रि देवी दुर्गा को समर्पित एक महत्वपूर्ण पर्व है। नवरात्रि का पर्व वर्ष में चार बार आता है अर्थात चैत्र, आषाढ़, अश्विन, माघ। इनमें से चैत्र एवं आश्विन माह में आने वाली नवरात्रि अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है। माघ एवं आषाढ़ माह में आने वाली नवरात्रि को गुप्त नवरात्रि कहा जाता है, क्योंकि इनमें कोई सार्वजनिक उत्सव का आयोजन नहीं किया जाता है। आश्विन माह में आने वाली नवरात्रि को शारदीय नवरात्रि कहा जाता है। इसका  आरंभ अश्विन मास के शुक्ल पक्ष की प्रथम तिथि से होता है। इस दिवस पर शुभ मुहूर्त में कलश की स्थापना की जाती है। नवरात्रि में नौ दिन देवी दुर्गा के नौ रूपों की पूजा-अर्चना की जाती है।
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम्।।
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम्।।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा: प्रकीर्तिता:।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना:।।
अर्थात देवी पहली शैलपुत्री, दूसरी ब्रह्मचारिणी, तीसरी चंद्रघंटा, चौथी कूष्मांडा, पांचवी स्कंध माता, छठी कात्यायिनी, सातवीं कालरात्रि, आठवीं महागौरी एवं नौवीं देवी सिद्धिदात्री है।

शैलपुत्री
नवरात्रि के प्रथम दिन देवी दुर्गा के प्रथम स्वरूप मां शैलपुत्री की पूजा-अर्चना की जाती है। मां शैलपुत्री को सफेद वस्तुएं अत्यंत प्रिय हैं, इसलिए उन्हें सफेद मिष्ठान का भोग लगाया जाता है। यह प्रसाद गाय के शुद्ध घी से बनाया जाता है। सफेद रंग पवित्रता एवं शांति का प्रतीक माना जाता है। जीवन में सर्वाधिक पवित्रता एवं शांति का ही महत्व है। इनके बिना सब व्यर्थ है। देवी की साधना से सुख एवं समृद्धि में वृद्धि होती है।

ब्रह्मचारिणी
नवरात्रि के दूसरे दिन देवी देवी दुर्गा के द्वितीय स्वरूप मां ब्रह्मचारिणी की पूजा-अर्चना की जाती है। मां ब्रह्मचारिणी को शक्कर एवं पंचामृत का भोग लगाया जाता है। शक्कर जीवन में मिठास का प्रतीक है। जिस प्रकार भोजन में मिष्ठान का महत्व है, उसी प्रकार जीवन में मधुर वाणी का महत्व है। मृदु भाषी व्यक्ति सबका मन मोह लेते हैं। देवी की साधना से भाग्य में वृद्धि होती है तथा आयु भी लम्बी होती है।  

चंद्रघंटा
नवरात्रि के तीसरे दिन देवी दुर्गा के तृतीय स्वरूप मां चंद्रघंटा की पूजा-अर्चना की जाती है। मां चंद्रघंटा को दुग्ध से बने मिष्ठान एवं खीर का भोग लगाया जाता है। खीर भी दुग्ध से बनाई जाती है। दुग्ध समृद्धि एवं अच्छे स्वास्थ्य का प्रतीक है। देवी की साधना से व्यक्ति बुरी शक्तियों से सुरक्षित रहता है।

कुष्मांडा
नवरात्रि के चौथे दिन देवी दुर्गा के चतुर्थ स्वरूप मां कुष्मांडा की पूजा-अर्चना की जाती है। मां कुष्मांडा को मालपुये का भोग लगाया जाता है। देवी की साधना से मनुष्य की समस्त इच्छाएं पूर्ण होती हैं।

स्कंदमाता
नवरात्रि के पांचवे दिन देवी दुर्गा के पांचवे स्वरूप स्कंदमाता की पूजा-अर्चना की जाती है। स्कंदमाता को फल विशेषकर केला अत्यंत प्रिय है, इसलिए उन्हें केले का भोग लगाया जाता है। देवी की साधना से सुख एवं एश्वर्य में वृद्धि होती है। 

कात्यायनी
नवरात्रि के छठे दिन देवी दुर्गा के छठे स्वरूप मां कात्यायनी की पूजा-अर्चना की जाती है। मां कात्यायनी को मीठे पान एवं मधु का भोग लगाया जाता है। देवी की साधना से दुखों का नाश होता है तथा जीवन में सुख का आगमन होता है।

कालरात्रि
नवरात्रि के सातवें दिन देवी दुर्गा के सातवे स्वरूप मां कालरात्रि की पूजा-अर्चना की जाती है। मां कालरात्रि को गुड़ अत्यंत प्रिय है, इसलिए उन्हें गुड़ से बने व्यंजन का भोग लगाया जाता है। देवी की साधना से समस्त नकारात्मक शक्तियों का नाश होता है तथा सकारात्मकता में वृद्धि होती है। जीवन सुखी हो जाता है। 

महागौरी
नवरात्रि के आठवें दिन देवी दुर्गा के आठवे स्वरूप मां महागौरी की पूजा-अर्चना की जाती है। मां महागौरी को नारियल अत्यंत प्रिय है, इसलिए उन्हें नारियल का भोग लगाया जाता है अर्थात नारियल अर्पित किया जाता है। देवी की साधना से व्यक्ति के रुके हुए कार्य पूर्ण होते हैं। 

सिद्धिदात्री
नवरात्रि के अंतिम दिन देवी दुर्गा के नौवें स्वरूप मां सिद्धिदात्री की पूजा-अर्चना की जाती है। इस दिन कन्या पूजन का विधान है। कन्याओं की पूजा की जाती है। उन्हें भोजन ग्रहण कराया जाता है। इसके पश्चात उनके चरण स्पर्श कर उनसे आशीर्वाद लिया जाता है। कन्याओं को प्रसाद के साथ उपहार भेंट किए जाते हैं। तदुपरांत देवी को काले चने, हलवा पूड़ी एवं खीर का भोग लगाया जाता है। देवी की साधना से व्यक्ति के समस्त पापों का नाश होता है तथा उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।

वास्तव में नवरात्रि का पर्व नारी शक्ति का उत्सव है। प्राचीन काल से ही यह पर्व भारतीय संस्कृति में नारी शक्ति का प्रतीक रहा है। कन्या पूजन इस बात को सिद्ध करता है कि भारतीय समाज में कन्या का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। कन्या भ्रूण हत्या तथा नवजात कन्याओं का वध कर देने जैसी बुराइयां हमारे समाज में कब और कैसे सम्मिलित हो गईं, ज्ञात ही नहीं हो पाया। निरंतर घटता लिंगानुपात अत्यंत चिंता का विषय बना हुआ है। विदेशों में भारत की जिन बुराइयों का उल्लेख कुछ लोग बड़े गर्व के साथ करते हैं, वे बुराइयों तो हमारे समाज में कभी नहीं थीं। जिस समय विश्व के अधिकांश देश अशिक्षित एवं असभ्य थे, उस समय हमारा देश शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी था। पुरुष ही नहीं, अपितु महिलाएं भी शिक्षित थीं। वे शास्त्रार्थ करती थीं, अस्त्र-शस्त्र चलाती थीं। देवियों ने कितने ही राक्षसों का अकेले वध किया है।

नारी को ईश्वर ने श्रेष्ठ बनाया है। अनेक मामलों में वह पुरुष से उच्च स्थान पर है। वह जन्मदात्री है। जिस प्रकार एक स्त्री अपने बालकों का पालन-पोषण कर लेती है, उस प्रकार एक पुरुष उनका पालन-पोषण नहीं कर पाता। उदाहरण के लिए यदि किसी की पत्नी की मृत्यु हो जाए, तो वह न चाहते हुए भी इसलिए विवाह कर लेगा कि बच्चों का पालन-पोषण ठीक से हो जाएगा। यदि किसी के पति की मृत्यु हो जाए, तो महिला जीविकोपार्जन के साथ-साथ बच्चों का पालन-पोषण भी कर लेती है। यदि दृष्टि डालें तो आसपास ऐसे बहुत से उदाहरण मिल जाएंगे। कहने का तात्पर्य यह है कि ईश्वर ने नारी को अत्यंत सबल बनाया है। नारी प्रत्येक क्षेत्र में अपनी योग्यता एवं प्रतिभा का सफल प्रदर्शन कर रही है।

Saturday, March 29, 2025

भारतीय नववर्ष उत्सव का उमंग

 

डॉ. सौरभ मालवीय
भारतीय नववर्ष के साथ अनेक त्यौहार आते हैं। इनमें चैत्र शुक्लादि, नवरेह, गुड़ी पड़वा, उगादि, साजिबु नोंगमा पांबा अथवा साजिबु चेराओबा एवं चेटीचंड आदि सम्मिलित हैं। चैत्र शुक्लादि विक्रम संवत के नववर्ष के प्रारम्भ का प्रतीक है। इसे वैदिक अथवा हिन्दू कैलेंडर के रूप में भी जाना जाता है। इस दिन से नवरात्रि का प्रारम्भ होता है। भारतीय नववर्ष के साथ वसंत ऋतु का भी आगमन होता है। इसलिए ये सब त्यौहार वसंत के उत्सव हैं।

नवरेह
जम्मू कश्मीर में नवरेह का त्यौहार हर्ष एवं उल्लास से मनाया जाता है। नव चंद्रवर्ष के रूप में मनाया जाने वाला यह त्यौहार उत्साह एवं रंगों का उत्सव है। यह कश्मीरी पंडितों का विशेष त्यौहार माना जाता है। त्यौहार से एक दिन पूर्व वे पवित्र विचर नाग के झरने की यात्रा करते हैं। इसके पश्चात वे पवित्र जल में स्नान करके अपनी समस्त मलिनताओं का त्याग करते हैं। इसके पश्चात् वे पूजा-अर्चना करके प्रसाद ग्रहण करते हैं। यह प्रसाद चावल एवं विभिन्न प्रकार की जड़ी-बूटियों से बनाया जाता है। नवरेह के प्रातःकाल में वे लोग सर्वप्रथम चावल से भरे पात्र को देखते हैं। उनका मानना है कि ऐसा करने से घर में समृद्धि आती है, क्योंकि चावल धन-धान्य एवं समृद्धि का प्रतीक है।

गुड़ी पड़वा
महाराष्ट्र में गुड़ी पड़वा का त्यौहार धूमधाम से मनाया जाता है। गुड़ी का अर्थ है विजय पताका तथा पड़वा का अर्थ है चंद्रमा का प्रथम दिवस। इस दिन लोग बांस के ऊपर चांदी, तांबे अथवा पीतल के कलश को उल्टा रखते हैं। कलश पर स्वास्तिक का चिह्न बनाया जाता है। बांस पर केसरिया रंग का पताका लगाया जाता है। तदुपरान्त इसे नीम एवं आम की पत्तियां और पुष्पों से सुसज्जित किया जाता है। इसे घर के सबसे उच्च स्थान पर लगाया जाता है। गृह द्वारों पर आम के पत्तों का तोरण लगाया जाता है। मान्यता है कि आम के पत्ते पवित्र होते हैं। इसके लगाने से नकारात्मक शक्तियां घर में प्रवेश नहीं कर पाती हैं तथा घर इनसे सुरक्षित रहता है।  

इस दिन भोजन में गुड़ एवं नीम परोसा जाता है। गुड़ की मिठास सुख एवं नीम की कड़वाहट दुःख का प्रतीक है अर्थात जीवन के सुख- दुःख को समान भाव से अपनाना चाहिए, क्योंकि मानव की परीक्षा दुःख में ही होती है।   
देश के विभिन्न भागों में इसे भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता है। गुड़ी पड़वा गोवा में संवत्सर पड़वा के रूप में मनाया जाता है। केरल में इसे संवत्सर पड़वो के रूप में मनाया जाता है। आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक एवं तमिलनाडु सहित दक्षिण भारत के कई क्षेत्रों में इसे उगादी के रूप में मनाया जाता है। राजस्थान में इसे थापना एवं मणिपुर में साजिबु चेराओबा अथवा साजिबु नोंगमा पांबा के रूप में मनाया जाता है।

सिन्धी समुदाय के लोग चेटीचंड का त्यौहार हर्षोल्लास से मनाते हैं। यह त्यौहार भगवान झूलेलाल के जन्म दिवस के रूप में जाना जाता है। उनका जन्म पाकिस्तान के सिंध प्रांत के ग्राम नसरपुर में हुआ था। उनका वास्तविक नाम उदयचंद था। वे वरुण देव के अवतार माने जाते हैं। उन्हें उदेरोलाल, घोड़ेवारो, जिन्दपीर, लालसाँई, पल्लेवारो, ज्योतिनवारो, अमरलाल आदि नामों से भी जाना जाता है। वह सद्भावना के प्रतीक माने जाते हैं।

विक्रम सम्वत् का इतिहास
30 मार्च से विक्रम सम्वत् 2082 का प्रारम्भ चुका है। विक्रम सम्वत् को नव संवत्सर भी कहा जाता है। संवत्सर पांच प्रकार के होते हैं, जिनमें सौर, चन्द्र, नक्षत्र, सावन और अधिमास सम्मिलित हैं। मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ एवं मीन नामक बारह राशियां सूर्य वर्ष के महीने हैं। सूर्य का वर्ष 365 दिन का होता है। इसका प्रारम्भ सूर्य के मेष राशि में प्रवेश करने से होता है।  चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, अग्रहायण, पौष, माघ और फाल्गुन चन्द्र वर्ष के महीने हैं। चन्द्र वर्ष 355 दिन का होता है। इस प्रकार इन दोनों वर्षों में दस दिन का अंतर हो जाता है। चन्द्र माह के बढ़े हुए दिनों को ही अधिमास या मलमास कहा जाता है। नक्षत्र माह 27 दिन का होता है, जिन्हें अश्विन नक्षत्र, भरणी नक्षत्र, कृत्तिका नक्षत्र, रोहिणी नक्षत्र, मृगशिरा नक्षत्र, आर्द्रा नक्षत्र, पुनर्वसु नक्षत्र, पुष्य नक्षत्र, आश्लेषा नक्षत्र, मघा नक्षत्र, पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र, हस्त नक्षत्र, चित्रा नक्षत्र, स्वाति नक्षत्र, विशाखा नक्षत्र, अनुराधा नक्षत्र, ज्येष्ठा नक्षत्र, मूल नक्षत्र, पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र, उत्तराषाढ़ा नक्षत्र, श्रवण नक्षत्र, घनिष्ठा नक्षत्र, शतभिषा नक्षत्र, पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र, उत्तराभाद्रपद नक्षत्र, रेवती नक्षत्र कहा जाता है। सावन वर्ष में 360 दिन होते हैं। इसका एक महीना 30 दिन का होता है।   
 
विक्रम सम्वत् का महत्त्व
भारतीय संस्कृति में विक्रम सम्वत् का बहुत महत्त्व है। चैत्र का महीना भारतीय कैलेंडर के हिसाब से वर्ष का प्रथम महीना है। नवीन संवत्सर के संबंध में अनेक पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं। वैदिक पुराण एवं शास्त्रों के अनुसार चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा तिथि को आदिशक्ति प्रकट हुई थीं। आदिशक्ति के आदेश पर ब्रह्मा ने सृष्टि की प्रारम्भ की थी। इसीलिए इस दिन को अनादिकाल से नववर्ष के रूप में जाना जाता है। मान्यता यह भी है कि इसी दिन भगवान विष्णु ने मत्स्य अवतार लिया था। इसी दिन सतयुग का प्रारम्भ हुआ था। मान्यता है कि इसी दिन सम्राट विक्रमादित्य ने अपना राज्य स्थापित किया था। श्रीराम का राज्याभिषेक भी इसी दिन हुआ था। युधिष्ठिर का राज्याभिषेक भी इसी दिन हुआ था। नवरात्र भी इसी दिन से प्रारम्भ होते हैं। इसी तिथि को राजा विक्रमादित्य ने शकों पर विजय प्राप्त की थी। विजय को चिर स्थायी बनाने के लिए उन्होंने विक्रम सम्वत् का शुभारंभ किया था, तभी से विक्रम सम्वत् चली आ रही है। इसी दिन से महान गणितज्ञ भास्कराचार्य ने सूर्योदय से सूर्यास्त तक दिन, महीने और वर्ष की गणना करके पंचांग की रचना की थी। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा का ऐतिहासिक महत्त्व भी है। स्वामी दयानंद सरस्वती ने इसी दिन आर्य समाज की स्थापना की थी। इस दिन महर्षि गौतम जयंती मनाई जाती है। इस दिन संघ संस्थापक डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार का जन्मदिवस भी मनाया जाता है।

उत्कृष्ट काल गणना
सृष्टि की सर्वाधिक उत्कृष्ट काल गणना का श्रीगणेश भारतीय ऋषियों ने अति प्राचीन काल से ही कर दिया था। तदनुसार हमारे सौरमंडल की आयु लगभग चार अरब 32 करोड़ वर्ष हैं। आधुनिक विज्ञान भी कार्बन डेटिंग और हॉफ लाइफ पीरियड की सहायता से इसे लगभग चार अरब वर्ष पुराना मान रहा है। इतना ही नहीं, श्रीमद्भागवद पुराण, श्री मारकंडेय पुराण और ब्रह्म पुराण के अनुसार अभिशेत् बाराह कल्प चल रहा है और एक कल्प में एक हजार चतुरयुग होते हैं। जिस दिन सृष्टि का प्रारम्भ हुआ, वह आज ही का पवित्र दिन था। इसी कारण मदुराई के परम पावन शक्तिपीठ मीनाक्षी देवी के मंदिर में चैत्र पर्व मनाने की परंपरा बन गई। नवरात्रि के दौरान यहां भक्तों की भीड़ लगी रहती है।

महीनों का नामकरण
भारतीय महीनों का नामकरण भी बड़ा रोचक है अर्थात जिस महीने की पूर्णिमा जिस नक्षत्र में पड़ती है, उसी के नाम पर उस महीने का नामकरण किया गया है, उदाहरण के लिए इस महीने की पूर्णिमा चित्रा नक्षत्र में हैं, इसलिए इसे चैत्र महीने का नाम दिया गया। क्रांति वृत पर 12 महीने की सीमाएं तय करने के लिए आकाश में 30-30 अंश के 12 भाग किए गए और उनके नाम भी तारा मंडलों की आकृतियों के आधार पर रखे गए। इस प्रकार बारह राशियां बनीं।

चूंकि सूर्य क्रांति मंडल के ठीक केंद्र में नहीं हैं, अत: कोणों के निकट धरती सूर्य की प्रदक्षिणा 28 दिन में कर लेती है और जब अधिक भाग वाले पक्ष में 32 दिन लगते हैं। इसलिए प्रति तीन वर्ष में एक मास अधिक हो जाता है।

काल गणना की वैज्ञानिक व्यवस्था
भारतीय काल गणना इतनी वैज्ञानिक व्यवस्था है कि शताब्दियों तक एक क्षण का भी अंतर नहीं पड़ता, जबकि पश्चिमी काल गणना में वर्ष के 365.2422 दिन को 30 और 31 के हिसाब से 12 महीनों में विभक्त करते हैं। इस प्रकार प्रत्येक चार वर्ष में फरवरी महीने को लीप ईयर घोषित कर देते हैं। तब भी नौ मिनट 11 सेकेंड का समय बच जाता है, तो प्रत्येक चार सौ वर्षों में भी एक दिन बढ़ाना पड़ता है, तब भी पूर्णाकन नहीं हो पाता। अभी कुछ वर्ष पूर्व ही पेरिस के अंतर्राष्ट्रीय परमाणु घड़ी को एक सेकेंड धीमा कर दिया गया। फिर भी 22 सेकेंड का समय अधिक चल रहा है। यह पेरिस की वही प्रयोगशाला है, जहां के सीजीएस सिस्टम से संसार भर के सारे मानक तय किए जाते हैं। रोमन कैलेंडर में तो पहले 10 ही महीने होते थे। किंगनुमापाजुलियस ने 355 दिनों का ही वर्ष माना था, जिसे जुलियस सीजर ने 365 दिन घोषित कर दिया और उसी के नाम पर एक महीना जुलाई बनाया गया। उसके एक सौ वर्ष पश्चात किंग अगस्ट्स के नाम पर एक और महीना अगस्ट अर्थात अगस्त भी बढ़ाया गया। चूंकि ये दोनों राजा थे, इसलिए इनके नाम वाले महीनों के दिन 31 ही रखे गए। आज के इस वैज्ञानिक युग में भी यह कितनी हास्यास्पद बात है कि लगातार दो महीने के दिनों की संख्या समान हैं, जबकि अन्य महीनों में ऐसा नहीं है। जिसे हम अंग्रेजी कैलेंडर का नौवां महीना सितम्बर कहते हैं, दसवां महीना अक्टूबर कहते हैं, ग्यारहवां महीना नवम्बर और बारहवां महीना दिसम्बर हैं। इनके शब्दों के अर्थ भी लैटिन भाषा में 7,8,9 और 10 होते हैं। भाषा विज्ञानियों के अनुसार भारतीय काल गणना पूरे विश्व में व्याप्त थी और सचमुच सितम्बर का अर्थ सप्ताम्बर था, आकाश का सातवां भाग, उसी प्रकार अक्टूबर अष्टाम्बर, नवम्बर तो नवमअम्बर और दिसम्बर दशाम्बर है।
उल्लेखनीय है कि ज्योतिष विद्या में ग्रह, ऋतु, मास, तिथि एवं पक्ष आदि की गणना भी चैत्र प्रतिपदा से ही की जाती है। मान्यता है कि नव संवत्सर के दिन नीम की कोमल पत्तियों और पुष्पों का मिश्रण बनाकर उसमें काली मिर्च, नमक, हींग, मिश्री, जीरा और अजवाइन मिलाकर उसका सेवन करने से शरीर स्वस्थ रहता है। इस दिन आंवले का सेवन भी बहुत लाभदायक बताया गया है। माना जाता है कि आंवला नवमीं को जगत पिता ने सृष्टि पर पहला सृजन पौधे के रूप में किया था। यह पौधा आंवले का था। इस तिथि को पवित्र माना जाता है। इस दिन मंदिरों में विशेष पूजा-अर्चना होती है।

वसंत का उल्लास
भारतीय नववर्ष में वातावरण अत्यंत मनोहारी रहता है। केवल मनुष्य ही नहीं, अपितु जड़ चेतना नर-नाग यक्ष रक्ष किन्नर-गंधर्व, पशु-पक्षी लता, पादप, नदी नद, देवी, देव, मानव से समष्टि तक सब प्रसन्न होकर उस परम शक्ति के स्वागत में सन्नध रहते हैं। वृक्षों पर नए पत्ते आ जाते हैं। उपवनों में भी रंग- बिरंगे पुष्प दिखाई देते हैं।   
नववर्ष पर दिवस सुनहले, रात रूपहली, उषा सांझ की लाली छन-छन कर पत्तों में बनती हुई चांदनी जाली कितनी मनोहारी लगती है। शीतल मंद सुगंध पवन वातावरण में हवन की सुरभि कर देते हैं। ऐसे ही शुभ वातावरण में अखिल लोकनायक श्रीराम का अवतार होता है।

भारतीय नववर्ष वसंत का उल्लास साथ लाता है। जब भारतीय नववर्ष का प्रारम्भ होता है तो प्रकृति चहक उठती है। हमारे गौरवशाली भारत देश की बात ही निराली है। हमारे तीज-त्यौहार, व्रत, उपवास, रामनवमी, जन्माष्टमी, गृह प्रवेश, विवाह तथा अन्य शुभ कार्यों के शुभमुहूर्त आदि सभी आयोजन भारतीय कैलेंडर अर्थात हिन्दू पंचांग के अनुसार ही देखे जाते हैं। इसलिए हमारे जीवन में इसका अत्यंत महत्त्व है।

Wednesday, March 12, 2025

हिंदी साहित्य में होली के रंग


डॉ. सौरभ मालवीय
होली कवियों का प्रिय त्योहार है। यह त्योहार उस समय आता है जब चारों दिशाओं में प्रकृति अपने सौन्दर्य के चरम पर होती है। उपवनों में रंग-बिरंगे पुष्प खिले हुए होते हैं। होली प्रेम का त्योहार माना जाता है, क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण और राधा को होली अत्यंत प्रिय थी। भक्त कवियों एवं कवयित्रियों ने होली पर असंख्य रचनाएं लिखी हैं।
 
कृष्ण भक्त कवि रसखान ने ब्रज की होली पर अत्यंत सुंदर रचनाएं लिखी हैं। इनमें श्रीकृष्ण की राधा के साथ खेली जाने वाली होली प्रमुख है। वे कहते हैं-       
मिली खेलत फाग बढयो अनुराग सुराग सनी सुख की रमकै।
कर कुंकुम लै करि कंजमुखि प्रिय के दृग लावन को धमकै।।
रसखानि गुलाल की धुंधर में ब्रजबालन की दुति यौं दमकै।
मनौ सावन सांझ ललाई के मांझ चहुं दिस तें चपला चमकै।।
अर्थात श्रीकृष्ण राधा और गोपियों के साथ होली खेल रहे हैं। इस खेल के साथ-साथ उनमें प्रेम बढ़ रहा है। कमल के पुष्प के समान सुंदर मुख वाली राधा श्रीकृष्ण के मुख पर कुमकुम लगाने की चेष्टा कर रही है। वह गुलाल फेंकने का अवसर खोज रही है। चहुंओर गुलाल ही गुलाल दिखाई दे रहा है। इस गुलाल के कारण ब्रजबालाओं की देहयष्टि इस प्रकार दमक रही है जैसे सावन मास के सायंकाल में सूर्यास्त से लाल हुए आकाश में चारों ओर बिजली चमकती रही हो।
 
कृष्ण भक्त सूरदास ने भी श्रीकृष्ण और राधा की होली पर असंख्य रचनाएं लिखी हैं। होली उनकी रासलीलाओं में महत्वूर्ण स्थान रखती है। वे कहते हैं-
हहरि संग खेलति है सब फाग।
इहिं मिस करति प्रगट गोपी, उर अंतर कौ अनुराग।।
सारी पहिरि सुरंग, कसि कचुकि, काजर दै दै नैन।
बनि बनि निकसि निकसि भई ठाढ़ी, सुनि माधौ के बैन।।
डफ, बांसुरी रुंज अरु महुअरि, बाजत ताल मृदंग।
अति आनंद मनोहर बानी, गावत उठति तरंग।।
एक कोध गोविंद ग्वाल सब, एक कोध ब्रज नारि।
छांड़ि सकुच सब देति परस्पर, अपनी भाई गारि।।
मिलि दस पांच अली कृष्नहिं, गहि लावतिं अचकाइ।
भरि अरगजा अबीर कनकघट, देति सीस तै नाइ।।
छिरकतिं सखी कुमकुमा केसरि, भुरकतिं बदनधूरि।
सोभित है तन सांझ-समै-घन, आए है मनु पूरि।।
दसहूं दिसा भयौ परिपूरन, 'सूर' सुरंग प्रमोद।
सुर विमान कौतूहल भूले, निरखत स्याम विनोद।
 
अर्थात श्रीकृष्ण के साथ सब होली खेल रहे हैं। फागुन के रंगों के माध्यम से गोपियां अपने हृदय का प्रेम प्रकट कर रही हैं। वे अति सुन्दर साड़ी एवं चित्ताकर्षक चोली पहन कर तथा आंखों में काजल लगाकर श्रीकृष्ण की पुकार सुनकर होली खेलने के लिए अपने घरों से बाहर आ गईं हैं।
डफ, बांसुरी, रुंज, ढोल एवं मृदंग बजने लगे हैं। सब लोग आनंदित होकर मधुर स्वरों में गा रहे हैं। एक ओर श्रीकृष्ण और ग्वाल बाल डटे हुए हैं तो दूसरी ओर समस्त ब्रज की महिलाएं संकोच छोड़कर एक दूसरे को मीठी गालियां दे रहे हैं तथा छेड़छाड़ चल रही है। अकस्मात कुछ सखियां मिलकर श्रीकृष्ण को घेर लेती हैं और स्वर्णघट में भरा सुगंधित रंग उनके सिर पर उंडेल देती हैं। कुछ सखियां उन पर कुमकुम केसर छिडक़ देती हैं। इस प्रकार ऊपर से नीचे तक रंग, अबीर गुलाल से रंगे हुए श्रीकृष्ण ऐसे लग रहे हैं जैसे सांझ के समय आकाश में बादल छा गए हों। फाग के रंगों से दसों दिशाएं परिपूर्ण हो गई हैं। आकाश से देवतागण अपना विचरण भूलकर श्याम सुन्दर का फाग विनोद देखने के लिए रुक गए हैं तथा आनंदित हो रहे हैं।
 
मीराबाई श्रीकृष्ण को अपना स्वामी मानती थीं। उन्होंने होली और श्रीकृष्ण के बारे में अनेक रचनाएं लिखी हैं। उनकी रचनाओं में आध्यात्मिक संदेश भी मिलता है। वे कहती हैं-
फागुन के दिन चार होली खेल मना रे।।
बिन करताल पखावज बाजै अणहदकी झणकार रे।
बिन सुर राग छतीसूं गावै रोम रोम रणकार रे।।
सील संतोखकी केसर घोली प्रेम प्रीत पिचकार रे।
उड़त गुलाल लाल भयो अंबर, बरसत रंग अपार रे।।
घटके सब पट खोल दिये हैं लोकलाज सब डार रे।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर चरणकंवल बलिहार रे।।
 
इस पद में मीराबाई ने होली एवं फागुन के माध्यम से समाधि का उल्लेख किया है। वे कहती हैं कि फागुन मास में होली खेलने के चार दिन ही होते हैं अर्थात बहुत अल्प समय होता है। इसलिए मन होली खेल ले अर्थात श्रीकृष्ण से प्रेम कर ले। करताल एवं पखावाज के बिना ही अनहद की झंकार हो रही है। मेरा मन बिना सुर एवं राग के आलाप कर रहा है। इस प्रकार रोम-रोम श्रीकृष्ण के प्रेम में लीन है। मैंने अपने प्रिय से होली खेलने के लिए शील एवं संतोष रूपी केसर का रंग घोल लिया है। मेरा प्रिय प्रेम ही मेरी पिचकारी है। गुलाल के उड़ने के कारण संपूर्ण आकाश लाल हो गया है। मैंने अपने हृदय के द्वार खोल दिए हैं, क्योंकि अब मुझे लोक लाज का कोई तनिक भी भय नहीं है। मेरे स्वामी गोवर्धन पर्वत को अपनी अंगुली पर उठाने वाले भगवान श्रीकृष्ण हैं। मैंने उनके चरणों में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया है।       
 
श्रृंगार रस के विख्यात कवि बिहारीलाल को भी होली का त्योहार बहुत प्रिय था। उन्होंने भी होली को लेकर अनेक रचनाएं लिखी हैं। वे कहते हैं-
उड़ि गुलाल घूंघर भई तनि रह्यो लाल बितान।
चौरी चारु निकुंजनमें ब्याह फाग सुखदान।।
फूलन के सिर सेहरा, फाग रंग रंगे बेस।
भांवरहीमें दौड़ते, लै गति सुलभ सुदेस।।
भीण्यो केसर रंगसूं लगे अरुन पट पीत।
डालै चांचा चौकमें गहि बहियां दोउ मीत।।
रच्यौ रंगीली रैनमें, होरीके बिच ब्याह।
बनी बिहारन रसमयी रसिक बिहारी नाह।।
 
रीतिकालीन कवि पद्माकर ने भी होली का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है। उन्होंने श्रीकृष्ण की राधा और गोपियों के साथ होली खेलने को लेकर अनेक सुन्दर रचनाएं लिखी हैं। वे कहते हैं- 
फागु की भीर, अभीरिन ने गहि गोविंद लै गई भीतर गोरी
भाय करी मन की पद्माकर उपर नाई अबीर की झोरी
छीने पीतांबर कम्मर तें सु बिदा कई दई मीड़ि कपोलन रोरी।
नैन नचाय कही मुसकाय ''लला फिर आइयो खेलन होरी।"
 
अर्थात श्रीकृष्ण गोपियों के साथ होली खेल रहे हैं। पद्माकर कहते हैं कि राधा होली खेल रही भीड़ में से श्रीकृष्ण का हाथ पकड़कर भीतर ले जाती है। फिर वह अपने मन की करते हुए श्रीकृष्ण पर अबीर की झोली उलट देती है तथा उनकी कमर से पीतांबर छीन लेती है। वह श्रीकृष्ण को यूं ही नहीं छोड़ती, अपितु जाते हुए उनके गालों पर गुलाल लगाती है। वह उन्हें निहारते एवं मुस्कराते हुए कहती है कि लला फिर से आना होली खेलने।
 
हिन्दी कविता के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक माने जाने वाले सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ भी होली के रंगों से अछूते नहीं रहे। उन्होंने भी होली के रंगीले त्योहार पर कई कविताएं लिखी हैं। वे कहते हैं-
होली है भाई होली है
मौज मस्ती की होली है
रंगो से भरा ये त्यौहार
बच्चो की टोली रंग लगाने आयी है
बुरा ना मानो होली है
 
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने भी होली पर बहुत सी कविताएं लिखी हैं। वे खड़ी बोली के प्रथम कवि माने जाते हैं। उनकी होली की कविताएं बहुत ही सुन्दर एवं लुभावनी हैं। वे कहते हैं-
जो कुछ होनी थी, सब होली
धूल उड़ी या रंग उड़ा है
हाथ रही अब कोरी झोली
आंखों में सरसों फूली है
सजी टेसुओं की है टोली
पीली पड़ी अपत, भारत-भू,
फिर भी नहीं तनिक तू डोली
 
उत्तर छायावाद काल के प्रमुख कवि हरिवंश राय बच्चन की होली पर लिखी कविताएं बहुत ही सुन्दर हैं। इनमें प्रेम एवं विरह आदि के अनेक रंग हैं। वे कहते हैं-
तुम अपने रंग में रंग लो तो होली है
देखी मैंने बहुत दिनों तक
दुनिया की रंगीनी
किंतु रही कोरी की कोरी
मेरी चादर झीनी
तन के तार छूए बहुतों ने
मन का तार न भीगा
तुम अपने रंग में रंग लो तो होली है
 

होली आई रे

डॊ. सौरभ मालवीय
फागुन आते ही चहुंओर होली के रंग दिखाई देने लगते हैं. जगह-जगह होली मिलन समारोहों का आयोजन होने लगता है. होली हर्षोल्लास, उमंग और रंगों का पर्व है. यह पर्व फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है. इससे एक दिन पूर्व होलिका जलाई जाती है, जिसे होलिका दहन कहा जाता है. दूसरे दिन रंग खेला जाता है, जिसे धुलेंडी, धुरखेल तथा धूलिवंदन कहा जाता है. लोग एक-दूसरे को रंग, अबीर-गुलाल लगाते हैं. रंग में भरे लोगों की टोलियां नाचती-गाती गांव-शहर में घूमती रहती हैं. ढोल बजाते और होली के गीत गाते लोग मार्ग में आते-जाते लोगों को रंग लगाते हुए होली को हर्षोल्लास से खेलते हैं. विदेशी लोग भी होली खेलते हैं. सांध्य काल में लोग एक-दूसरे के घर जाते हैं और मिष्ठान बांटते हैं.

पुरातन धार्मिक पुस्तकों में होली का वर्णन अनेक मिलता है. नारद पुराण औऱ भविष्य पुराण जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों और ग्रंथों में भी इस पर्व का उल्लेख है. विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित ईसा से तीन सौ वर्ष पुराने एक अभिलेख में भी होली का उल्लेख किया गया है. होली के पर्व को लेकर अनेक कथाएं प्रचलित हैं. सबसे प्रसिद्ध कथा विष्णु भक्त प्रह्लाद की है. माना जाता है कि प्राचीन काल में हिरण्यकशिपु नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था. वह स्वयं को भगवान मानने लगा था.  उसने अपने राज्य में भगवान का नाम लेने पर प्रतिबंध लगा दिया था. जो कोई भगवान का नाम लेता, उसे दंडित किया जाता था. हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु का भक्त था. प्रह्लाद की प्रभु भक्ति से क्रुद्ध होकर हिरण्यकशिपु ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु उसने भक्ति के मार्ग का त्याग नहीं किया. हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह अग्नि में भस्म नहीं हो सकती. हिरण्यकशिपु ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि कुंड में बैठे. अग्नि कुंड में बैठने पर होलिका तो जल गई, परंतु प्रह्लाद बच गया. भक्त प्रह्लाद की स्मृति में इस दिन होली जलाई जाती है. इसके अतिरिक्त यह पर्व राक्षसी ढुंढी, राधा कृष्ण के रास और कामदेव के पुनर्जन्म से भी संबंधित है. कुछ लोगों का मानना है कि होली में रंग लगाकर, नाच-गाकर लोग शिव के गणों का वेश धारण करते हैं तथा शिव की बारात का दृश्य बनाते हैं. कुछ लोगों का यह भी मानना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना नामक राक्षसी का वध किया था. इससे प्रसन्न होकर गोपियों और ग्वालों ने रंग खेला था.

देश में होली का पर्व विभिन्न प्रकार से मनाया जाता है. ब्रज की होली मुख्य आकर्षण का केंद्र है. बरसाने की लठमार होली भी प्रसिद्ध है. इसमें पुरुष महिलाओं पर रंग डालते हैं और महिलाएं उन्हें लाठियों तथा कपड़े के बनाए गए कोड़ों से मारती हैं. मथुरा का प्रसिद्ध 40 दिवसीय होली उत्सव वसंत पंचमी से ही प्रारंभ हो जाता है. श्री राधा रानी को गुलाल अर्पित कर होली उत्सव शुरू करने की अनुमति मांगी जाती है. इसी के साथ ही पूरे ब्रज पर फाग का रंग छाने लगता है. वृंदावन के शाहजी मंदिर में प्रसिद्ध वसंती कमरे में श्रीजी के दर्शन किए जाते हैं. यह कमरा वर्ष में केवल दो दिन के लिए खुलता है. मथुरा के अलावा बरसाना, नंदगांव, वृंदावन आदि सभी मंदिरों में भगवान और भक्त पीले रंग में रंग जाते हैं. ब्रह्मर्षि दुर्वासा की पूजा की जाती है. हिमाचल प्रदेश के कुल्लू में भी वसंत पंचमी से ही लोग होली खेलना प्रारंभ कर देते हैं. कुल्लू के रघुनाथपुर मंदिर में सबसे पहले वसंत पंचमी के दिन भगवान रघुनाथ पर गुलाल चढ़ाया जाता है, फिर भक्तों की होली शुरू हो जाती है. लोगों का मानना है कि रामायण काल में हनुमान ने इसी स्थान पर भरत से भेंट की थी. कुमाऊं में शास्त्रीय संगीत की गोष्ठियां आयोजित की जाती हैं. बिहार का फगुआ प्रसिद्ध है. हरियाणा की धुलंडी में भाभी पल्लू में ईंटें बांधकर देवरों को मारती हैं. पश्चिम बंगाल में दोल जात्रा निकाली जाती है. यह पर्व चैतन्य महाप्रभु के जन्मदिवस के रूप में मनाया जाता है. शोभायात्रा निकाली जाती है. महाराष्ट्र की रंग पंचमी में सूखा गुलाल खेला जाता है. गोवा के शिमगो में शोभा यात्रा निकलती है और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है. पंजाब के होला मोहल्ला में सिक्ख शक्ति प्रदर्शन करते हैं. तमिलनाडु की कमन पोडिगई मुख्य रूप से कामदेव की कथा पर आधारित वसंत का उत्सव है. मणिपुर के याओसांग में योंगसांग उस नन्हीं झोंपड़ी का नाम है, जो पूर्णिमा के दिन प्रत्येक नगर-ग्राम में नदी अथवा सरोवर के तट पर बनाई जाती है. दक्षिण गुजरात के आदिवासी भी धूमधाम से होली मनाते हैं. छत्तीसगढ़ में लोक गीतों के साथ होली मनाई जाती है.  मध्यप्रदेश के मालवा अंचल के आदिवासी भगोरिया मनाते हैं. भारत के अतिरिक्त अन्य देशों में भी होली मनाई जाती है.

होली सदैव ही साहित्यकारों का प्रिय पर्व रहा है. प्राचीन काल के संस्कृत साहित्य में होली का उल्लेख मिलता है. श्रीमद्भागवत महापुराण में रास का वर्णन है. अन्य रचनाओं में 'रंग' नामक उत्सव का वर्णन है. इनमें हर्ष की प्रियदर्शिका एवं रत्नावली और कालिदास की कुमारसंभवम् तथा मालविकाग्निमित्रम् सम्मिलित हैं. भारवि एवं माघ सहित अन्य कई संस्कृत कवियों ने अपनी रचनाओं में वसंत एवं रंगों का वर्णन किया है. चंद बरदाई द्वारा रचित हिंदी के पहले महाकाव्य पृथ्वीराज रासो में होली का उल्लेख है. भक्तिकाल तथा रीतिकाल के हिन्दी साहित्य में होली विशिष्ट उल्लेख मिलता है. आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्तिकालीन सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर, जायसी, मीराबाई, कबीर और रीतिकालीन बिहारी, केशव, घनानंद आदि कवियों ने होली को विशेष महत्व दिया है. प्रसिद्ध कृष्ण भक्त महाकवि सूरदास ने वसंत एवं होली पर अनेक पद रचे हैं. भारतीय सिनेमा ने भी होली को मनोहारी रूप में पेश किया है. अनेक फिल्मों में होली के कर्णप्रिय गीत हैं.

होली आपसी ईर्ष्या-द्वेष भावना को बुलाकर संबंधों को मधुर बनाने का पर्व है, परंतु देखने में आता है कि इस दिन बहुत से लोग शराब पीते हैं, जुआ खेलते हैं, लड़ाई-झगड़े करते हैं. रंगों की जगह एक-दूसरे में कीचड़ डालते हैं. काले-नीले पक्के रंग एक-दूसरे पर फेंकते हैं. ये रंग कई दिन तक नहीं उतरते. रसायन युक्त इन रंगों के कारण अकसर लोगों को त्वचा संबंधी रोग भी हो जाते हैं. इससे आपसी कटुता बढ़ती है. होली प्रेम का पर्व है, इसे इस प्रेमभाव के साथ ही मनाना चाहिए. पर्व का अर्थ रंग लगाना या हुड़दंग करना नहीं है, बल्कि इसका अर्थ आपसी द्वेषभाव को भुलाकर भाईचारे को बढ़ावा देना है. होली खुशियों का पर्व है, इसे शोक में न बदलें.

Tuesday, February 25, 2025

महाकुंभ ने रचा इतिहास


डॉ. सौरभ मालवीय
उत्तर प्रदेश के प्रयाग में आयोजित महाकुंभ सफलतापूर्वक संपन्न हो गया। चूंकि उत्तर प्रदेश धार्मिक दृष्टि से अत्यंत समृद्ध राज्य है, इसलिए प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ धार्मिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों पर विशेष ध्यान दे रहे हैं। इसके अंतर्गत योगी सरकार ने महाकुंभ के भव्य आयोजन के लिए 6,990 करोड़ रुपये आवंटित किए थे। उन्होंने महाकुंभ के सफल आयोजन के लिए संबंधित अधिकारियों को विशेष निर्देश दिए थे।
 
उल्लेखनीय है कि प्रयागराज में 13 जनवरी को पौष पूर्णिमा स्नान के साथ कुंभ मेले का शुभारंभ हुआ था तथा 26 फरवरी को महाशिवरात्रि के अंतिम स्नान के साथ इसका समापन हो गया। इस समयावधि में 50 करोड़ से अधिक श्रद्धालुओं ने स्नान किया। शाही स्नान 14 जनवरी को मकर संक्रांति पर, 29 जनवरी को मौनी अमावस्या पर, 3 फरवरी को बसंत पंचमी पर, 12 फरवरी को माघी पूर्णिमा पर तथा 26 फरवरी को महाशिवरात्रि पर हुआ। इन विशेष दिनों में श्रद्धालुओं की अत्यधिक भीड़ अधिक देखी गई।  
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह, रक्षामंत्री राजनाथ सिंह, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यानाथ सहित देश के लगभग सभी राजनेता, अभिनेता, खिलाड़ी, व्यवसायी आदि संगम में स्नान कर चुके हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संगम में डुबकी लगाई। इसके पश्चात उन्होंने सोशल मीडिया पर लिखा कि महाकुंभ में आज पवित्र संगम में डुबकी लगाकर मैं भी करोड़ों लोगों की तरह धन्य हुआ। मां गंगा सभी को असीम शांति, बुद्धि, सौहार्द और अच्छा स्वास्थ्य दें।
 
गृहमंत्री अमित शाह ने संगम में स्नान करने के पश्चात कहा कि कुंभ हमें शांति और सौहार्द का संदेश देता है। कुंभ आपसे यह नहीं पूछता है कि आप धर्म, जाति या संप्रदाय से हैं। यह सभी लोगों को गले लगाता है। इससे पूर्व उन्होंने सोशल मीडिया पर लिखा था कि महाकुंभ’ सनातन संस्कृति की अविरल धारा का अद्वितीय प्रतीक है। कुंभ समरसता पर आधारित हमारे सनातन जीवन-दर्शन को दर्शाता है। आज धर्म नगरी प्रयागराज में एकता और अखंडता के इस महापर्व में संगम स्नान करने और संतजनों का आशीर्वाद लेने के लिए उत्सुक हूं।
 
रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने भी संगम में दुबकी लगाई। उन्होंने सोशल मीडिया पर लिखा-
गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती।
नर्मदे सिन्धु कावेरि जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु।।
आज तीर्थराज प्रयागराज में, भारत की शाश्वत आध्यात्मिक विरासत और लोक आस्था के प्रतीक महाकुंभ में स्नान-ध्यान करके स्वयं को कृतार्थ अनुभव कर रहा हूं।
 
उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विगत दिसंबर में महाकुंभ के दृष्टिगत प्रयागराज में लगभग 5500 करोड़ रुपये की विभिन्‍न विकास परियोजनाओं का लोकार्पण एवं शिलान्‍यास किया था। प्रधानमंत्री ने कहा कि यह विश्व के सबसे बड़े समागमों में से एक है, जहां 45 दिनों तक चलने वाले महायज्ञ के लिए प्रतिदिन लाखों श्रद्धालुओं का स्वागत किया जाता है और इस अवसर के लिए एक नया नगर बसाया जाता है। प्रयागराज की धरती पर एक नया इतिहास लिखा जा रहा है। प्रधानमंत्री ने इस बात पर बल दिया कि महाकुंभ, देश की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक पहचान को नए शिखर पर ले जाएगा। उन्होंने कहा कि एकता के ऐसे महायज्ञ की चर्चा संपूर्ण विश्व में होगी।
 
भारत को पवित्र स्थलों और तीर्थों की भूमि बताते हुए उन्होंने कहा कि यह गंगा, यमुना, सरस्वती, कावेरी, नर्मदा और कई अन्य असंख्य नदियों की भूमि है। प्रयाग को इन नदियों के संगम, संग्रह, समागम, संयोजन, प्रभाव और शक्ति के रूप में वर्णित करते हुए तथा कई तीर्थ स्थलों के महत्व और उनकी महानता के बारे में बताते हुए उन्होंने  कहा कि प्रयाग केवल तीन नदियों का संगम नहीं है, अपितु उससे भी कहीं अधिक है। यह एक पवित्र समय होता है जब सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है, तब सभी दिव्य शक्तियां, अमृत, ऋषि और संत प्रयाग में उतरते हैं। प्रयाग एक ऐसा स्थान है जिसके बिना पुराण अधूरे रह जाएंगे। प्रयाग एक ऐसा स्थान है जिसकी स्तुति वेदों की ऋचाओं में की गई है। प्रयाग एक ऐसा स्थान है, जहां हर कदम पर पवित्र स्थान और पुण्य क्षेत्र हैं। प्रयागराज के सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्व पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने एक संस्कृत श्लोक पढ़ा और इसे समझाते हुए कहा कि त्रिवेणी का प्रभाव, वेणीमाधव की महिमा, सोमेश्वर का आशीर्वाद, ऋषि भारद्वाज की तपस्थली, भगवान नागराज वसु जी की विशेष भूमि, अक्षयवट की अमरता और ईश्वर की कृपा यही हमारे तीर्थराज प्रयाग को बनाती है। प्रयागराज एक ऐसी जगह है, जहां धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों तत्व उपलब्ध हैं। प्रयागराज केवल एक भूमि का टुकड़ा नहीं है, यह आध्यात्मिकता का अनुभव करने की जगह है।
 
उन्होंने कहा कि महाकुंभ हमारी आस्था, आध्यात्म और संस्कृति के दिव्य पर्व की विरासत की जीवंत पहचान है। हर बार महाकुंभ धर्म, ज्ञान, भक्ति और कला के दिव्य समागम का प्रतीक होता है। संगम में डुबकी लगाना करोड़ों तीर्थ स्‍थलों की यात्रा के बराबर है। पवित्र डुबकी लगाने वाला व्यक्ति अपने सभी पापों से मुक्त हो जाता है। आस्था का यह शाश्वत प्रवाह विभिन्न सम्राटों और राज्यों के शासनकाल, यहां तक कि अंग्रेजों के निरंकुश शासन के दौरान भी कभी नहीं रुका और इसके पीछे प्रमुख कारण यह है कि कुंभ किसी बाहरी ताकतों द्वारा संचालित नहीं होता है। कुंभ मनुष्य की अंतरात्मा की चेतना का प्रतिनिधित्व करता है, वह चेतना जो भीतर से आती है और भारत के हर कोने से लोगों को संगम के तट पर खींचती है। गांवों, कस्बों, शहरों से लोग प्रयागराज की ओर निकलते हैं और सामूहिकता और जनसमूह की ऐसी शक्ति शायद ही कहीं और देखने को मिलती है। एक बार महाकुंभ में आने के बाद हर कोई एक हो जाता है, चाहे वह संत हो, मुनि हो, ज्ञानी हो या आम आदमी हो और जाति-पंथ का भेद भी खत्म हो जाता है। करोड़ों लोग एक लक्ष्य और एक विचार से जुड़ते हैं। महाकुंभ के दौरान विभिन्न राज्यों से अलग-अलग भाषा, जाति, विश्वास वाले करोड़ों लोग संगम पर एकत्र होकर एकजुटता का प्रदर्शन करते हैं। यही उनकी मान्यता है कि महाकुंभ एकता का महायज्ञ है, जहां हर तरह के भेदभाव का त्याग किया जाता है और यहां संगम में डुबकी लगाने वाला हर भारतीय एक भारत, श्रेष्ठ भारत की सुंदर तस्वीर पेश करता है।
 
उन्होंने भारत की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक परंपरा में कुंभ के महत्व पर बल दिया और बताया कि कैसे यह हमेशा से संतों के बीच महत्वपूर्ण राष्ट्रीय मुद्दों और चुनौतियों पर गहन विचार-विमर्श का मंच रहा है। उन्होंने कहा कि जब अतीत में आधुनिक संचार के माध्‍यम मौजूद नहीं थे, तब कुंभ महत्वपूर्ण सामाजिक परिवर्तनों का आधार बन गया, जहां संत और विद्वान राष्ट्र के कल्याण पर चर्चा करने के लिए एकत्र हुए और वर्तमान और भविष्य की चुनौतियों पर विचार-विमर्श किया, जिससे देश की विचार प्रक्रिया को नई दिशा और ऊर्जा मिली। आज भी कुंभ एक ऐसे मंच के रूप में अपना महत्व बनाए हुए है, जहां इस तरह की चर्चाएं जारी रहती हैं, जो पूरे देश में सकारात्मक संदेश भेजती हैं और राष्ट्रीय कल्याण पर सामूहिक विचारों को प्रेरित करती हैं। भले ही ऐसे समारोहों के नाम, उपलब्धि और मार्ग अलग-अलग हों, लेकिन उद्देश्य और यात्रा एक ही है। कुंभ राष्ट्रीय विमर्श का प्रतीक और भविष्य की प्रगति का एक प्रकाश स्तंभ बना हुआ है।
 
उन्होंने कहा कि केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर मौजूदा सरकार के तहत भारत की परंपराओं और आस्था के प्रति गहरा सम्मान है। केंद्र और राज्य दोनों की सरकारें कुंभ में आने वाले तीर्थयात्रियों के लिए सुविधाएं प्रदान करना अपनी जिम्मेदारी मानती हैं। सरकार का लक्ष्‍य विकास के साथ-साथ भारत की विरासत को समृद्ध करना भी है।
 
कुंभ सहायक
केंद्र एवं राज्य सरकारों ने महाकुंभ में भाग लेने वाले श्रद्धालुओं की सुविधाओं का विशेष ध्यान रखा। कुंभ के लिए पहली बार एआई और चैटबॉट तकनीक के उपयोग को चिह्नित करते हुए 'कुंभ सहायक' चैटबॉट का शुभारंभ किया गया, जो ग्यारह भारतीय भाषाओं में संवाद करने में सक्षम है। इससे लोगों को बहुत लाभ हुआ।
 
कुंभवाणी
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने गत 10 जनवरी को प्रयागराज स्थित सर्किट हाउस से महाकुंभ 2025 को समर्पित आकाशवाणी के विशेष एफएम चैनल‘कुंभवाणी एवं ‘कुंभ मंगल ध्वनि का लोकार्पण किया। उन्होंने कुंभ मंगल ध्वनि का भी लोकार्पण किया। उन्होंने कहा था कि कुम्भवाणी द्वारा प्रसारित आंखों देखा हाल उन लोगों के लिए विशेष रूप से लाभदायक होगा, जो कुंभ में भाग लेने के लिए प्रयागराज नहीं आ सकेंगे। यह इस ऐतिहासिक महाकुंभ के माहौल को देश व दुनिया तक पहुंचाने में सहायक होगा। देश के लोक सेवा प्रसारक प्रसार भारती की ये पहल न केवल भारत में आस्था की ऐतिहासिक परंपरा को बढ़ावा देगी, अपितु श्रद्धालुओं को महत्वपूर्ण जानकारी देगी व सांस्कृतिक कार्यक्रमों का घर बैठे अनुभव करवाएगी।
 
उल्लेखनीय है कि योगी सरकर ने महाकुंभ से पूर्व प्रयागराज के ऐतिहासिक मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया। इसके साथ-साथ मंदिरों का नवीनीकरण भी किया गया। इसके अतिरिक्त राज्य में हरित क्षेत्र के विस्तार को बढ़ावा दिया गया। विशेषकर प्रयागराज जिले में सड़कों के किनारे पौधे लगाए गए। यह भी उल्लेखनीय है कि स्वच्छता पर भी विशेष ध्यान दिया गया। क्षेत्रों को पॉलीथिन से मुक्त रखने का भी प्रयास किया गया। इसके अंतर्गत महाकुंभ में सिंगल यूज्ड प्लास्टिक पर पूर्ण रूप से प्रतिबंध लगा दिया गया था। मेले में प्राकृतिक उत्पाद जैसे दोना, पत्तल, कुल्हड़ एवं जूट व कपड़े के थैलों के प्रयोग को बढ़ावा दिया गया। योगी सरकार ने श्रद्धालुओं की प्रत्येक सुविधा का ध्यान रखा। इसके अंतर्गत यातावात की भी समुचित व्यवस्था की गई। प्रयागराज आने वाली बसों, रेलगाड़ियों एवं वायुयान की संख्या में वृद्धि की गई। महाकुंभ के लिए रेलवे द्वारा लगभग 1200 रेलगाड़ियां तथा परिवहन विभाग द्वारा सात हजार बसों का संचालन किया गया।
 
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने स्वयं हवाई जहाज से मेला स्थल का निरीक्षण किया। इसलिए यह कहना उचित है कि महाकुंभ के सफल आयोजन के लिए योगी सरकार बधाई की पात्र है।

Wednesday, February 19, 2025

कुंभ मेला


डॉ. सौरभ मालवीय  
कुंभ मेला, जो भारत के प्रमुख धार्मिक और सांस्कृतिक उत्सवों में से एक है, का आयोजन हर चार वर्ष में एक बार किया जाता है, और यह विशेष रूप से चार प्रमुख स्थानों—हरिद्वार, इलाहाबाद (प्रयागराज), उज्जैन, और नासिक में आयोजित होता है। 144 वर्ष पर होने वाला कुंभ मेला, जिसे *महाकुंभ* कहा जाता है, एक अद्वितीय और ऐतिहासिक घटना है, जो धार्मिक दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण है।
महाकुंभ का इतिहास:
कुंभ मेला की उत्पत्ति प्राचीन हिंदू मान्यताओं से जुड़ी हुई है। इसे महाभारत और पुराणों में विस्तार से वर्णित किया गया है। कहा जाता है कि जब देवता और राक्षसों के बीच *समुद्र मंथन* हुआ था, तो उससे एक अमृत कलश प्रकट हुआ था। इस अमृत कलश की रक्षा के लिए देवताओं और राक्षसों के बीच संघर्ष हुआ, और इस दौरान अमृत का कुछ भाग चार स्थानों—हरिद्वार, इलाहाबाद, उज्जैन और नासिक में गिरा। इस घटना के बाद से इन स्थानों पर कुंभ मेला आयोजित किया जाता है।
 महाकुंभ का महत्व:
1. *धार्मिक दृष्टिकोण से*: महाकुंभ में स्नान करने से पुण्य की प्राप्ति होती है और सभी पापों से मुक्ति मिलती है। यह अवसर भगवान के दर्शन करने और अपनी आस्था को पुनः जागृत करने का होता है।
2. *संस्कृतिक दृष्टिकोण से*: यह मेला भारतीय संस्कृति, परंपराओं और धार्मिक विश्वासों को पुनः जीवित करता है। यह समाज को एकता, भाईचारे और शांति का संदेश देता है।
3. *वैज्ञानिक दृष्टिकोण से*: कुछ वैज्ञानिक मानते हैं कि कुंभ मेले के आयोजन से जुड़ी जगहें पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र से संबंधित हैं, जहाँ ऊर्जा का संचार होता है। यह ऊर्जा सेहत और मानसिक शांति के लिए लाभकारी हो सकती है।
144 वर्ष का कुंभ (महाकुंभ):
महाकुंभ वह कुंभ मेला होता है जो हर 144 वर्षों में एक बार आयोजित होता है। यह विशेष रूप से ऐतिहासिक महत्व रखता है क्योंकि यह एक दुर्लभ और अद्वितीय घटना है, जो किसी पीढ़ी में केवल एक बार होती है। इसका आयोजन उस स्थान पर होता है जहां विशेष रूप से खगोलीय स्थितियों के अनुरूप समय आता है, जैसे सूर्य, चंद्रमा और ग्रहों की स्थिति। यह महाकुंभ एक असाधारण धार्मिक और सांस्कृतिक अनुभव प्रदान करता है।
इस प्रकार, महाकुंभ का महत्व न केवल धार्मिक दृष्टि से है, बल्कि यह भारतीय सभ्यता और संस्कृति के एक महत्वपूर्ण हिस्से के रूप में भी स्वीकार्य है।

Monday, February 10, 2025

विराट सांस्कृतिक चेतना की पुनर्स्थापना का संकल्प : एक भारत श्रेष्ठ भारत


डॉ. सौरभ मालवीय
भारत एक विशाल राष्ट्र है। इसका निर्माण सनातन संस्कृति से हुआ है। अनेक संस्कृतियां भारत रूपी गुलदान में विभिन्न प्रकार के पुष्पों की भांति रही हैं। इसका अर्थ यह है कि इन विभिन्न संस्कृतियों, भाषाओं, धर्मों एवं पंथों आदि ने इस देश के सांस्कृतिक सौन्दर्य में वृद्धि की है। यहां विविधता में भी एकता है। भारत शान्ति- प्रिय देश है। यह अहिंसा में विश्वास रखता है। परन्तु देश में गुलामी एवं संघर्षों के बाद आजादी से लेकर एक लंबे कालखंड तक ‘बांटो और राज करो’ की नीति पर चलते हुए समाज, जाति, पंथ, मत, मजहब, खान-पान, वेशभूषा आदि के आधार पर विभाजन जारी रहा। इसके परिणाम स्वरूप देश की सांस्कृतिक प्रतिष्ठा पर गंभीर कुठाराघात हुआ। भारत में हिंदूकुश से हिंद महासागर तक फैली हुई सांस्कृतिक एकता छिन्न-भिन्न हो गई और इसका लाभ देशद्रोही शक्तियों ने उठाया।
 
केंद्र की भाजपा सरकार देश को सांस्कृतिक रूप से सुदृढ़ करना चाहती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लौह पुरुष नाम से विख्यात सरदार वल्लभ भाई पटेल के 140वें जन्मदिन के अवसर पर 31 अक्टूबर, 2015 को शिक्षा मंत्रालय के अंतर्गत ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ पहल की घोषणा की थी। इस योजना की प्रेरणा सरदार वल्लभ भाई पटेल के जीवन दर्शन से ली गई है। देश की स्वतंत्रता और इसे गणराज्य बनाने में सरदार वल्लभ भाई पटेल की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है, जिसे भुलाया नहीं जा सकता है। उन्होंने स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान देश के विभिन्न राजघरानों को भारत से पृथक न होकर इसमें सम्मिलित होने के लिए तैयार किया था। उनकी सदैव से ही अभिलाषा थी कि एक भारत श्रेष्ठ भारत का निर्माण हो। उन्होंने आजीवन देश की एकता और अखंडता के लिए कार्य किया। उनका कहना था कि एकता के बिना जनशक्ति शक्ति नहीं है जब तक उसे ठीक तरह से सामंजस्य में ना लाया जाए और एकजुट ना किया जाए और तब यह आध्यात्मिक शक्ति बन जाती है। वे यह भी कहते थे कि यह हर एक नागरिक की जिम्मेदारी है कि वह यह अनुभव करे कि उसका देश स्वतंत्र है और उसकी स्वतंत्रता की रक्षा करना उसका कर्तव्य है। हर एक भारतीय को अब यह भूल जाना चाहिए कि वह एक राजपूत है, एक सिख या जाट है या अन्य कुछ है। उसे यह याद होना चाहिए कि वह एक भारतीय है और उसे इस देश में हर अधिकार है, पर कुछ जिम्मेदारियां भी हैं। वे कहते थे कि इस मिट्टी में कुछ अनूठा है, जो कई बाधाओं के बावजूद हमेशा महान आत्माओं का निवास रहा है।
 
इस योजना का उद्देश्य विभिन्न राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की संस्कृति, परंपराओं और प्रथाओं का ज्ञान इस रचनात्मक कदम के परिणामस्वरूप राज्यों के बीच बेहतर समझ और बंधन को बढ़ावा देना है, जिससे भारत की एकता और अखंडता में वृद्धि हो। इस कार्यक्रम के माध्यम से विभिन्न राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की संस्कृति, आदतों और परंपराओं का साझा ज्ञान राज्यों के बीच संबंध और समझ को बढ़ाकर देश की एकता और अखंडता में सुधार करना है। अंतर- सांस्कृतिक संपर्क से देश के सभी नागरिकों के बीच 'एक राष्ट्र' की भावना पैदा करने में मदद मिलेगी।
 
वास्तव में ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत अभियान’ संपूर्ण देश को एक दूसरे के साथ पुनः जोड़कर एक विराट सांस्कृतिक चेतना के पुनर्स्थापना का अभियान है। भारत की सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि स्वयं में एक बहुलतावादी विचारों की समष्टि है। यही कारण है कि एक ही भगवान राम को अयोध्या में रामलला के रूप में तो कर्नाटक में कोदंडराम अर्थात धनुषधारी के रूप में पूजा जाता है। मथुरा के कान्हा, द्वारका में द्वारकाधीश, मराठों में गर्वीले विठोवा, पुरी में जगन्नाथ जी तो राजपुताने में श्रीनाथ जी के रूप में पूजित हैं। जिस समाज ने जैसी दृष्टि से देखा वैसी ही सृष्टि का सृजन किया, यही भारतीय सांस्कृतिक चेतना की बहुलतावादी दृष्टि के एकत्व का स्वरूप है। एक भारत श्रेष्ठ भारत के माध्यम से हम पुनः एक ऐसे ही समष्टि की स्थापना करने जा रहे हैं।
 
इस कार्यक्रम के माध्यम से एक श्रेष्ठ भारत की परिकल्पना की गई है। एक ऐसे राष्ट्र के रूप में भारत के विचार का जश्न मनाना है, जिसमें विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों की विभिन्न सांस्कृतिक इकाइयां एकजुट होती हैं और एक- दूसरे के साथ बातचीत करती हैं। विविध भाषाओं, व्यंजनों, संगीत, नृत्य, रंगमंच, फिल्मों, हस्तशिल्प, खेल, साहित्य, त्योहारों, चित्रकला, मूर्तिकला आदि की यह शानदार अभिव्यक्ति लोगों को बंधन और भाईचारे की सहज भावना को आत्मसात करने में सक्षम बनाएगी। हमारे लोगों को विशाल भूभाग में फैले आधुनिक भारतीय राज्य के निर्बाध अभिन्न अंग के बारे में जागरूक करना, जिसकी मजबूत नींव पर देश की भू-राजनीतिक ताकत से सभी को लाभ सुनिश्चित होता है। विभिन्न संस्कृतियों और परंपराओं के घटकों के बीच बढ़ते अंतर-संबंध के बारे में बड़े पैमाने पर लोगों को प्रभावित करना, जो राष्ट्र-निर्माण की भावना के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।  इन घनिष्ठ अंतर- सांस्कृतिक अंतःक्रियाओं के माध्यम से समग्र रूप से राष्ट्र के लिए जिम्मेदारी और स्वामित्व की भावना पैदा करना, क्योंकि इसका उद्देश्य स्पष्ट रूप से अंतर- निर्भरता मैट्रिक्स का निर्माण करना है। एक ही समय में राष्ट्र की विविधता और एकता का जश्न मनाना है। लोगों के बीच समझ और प्रशंसा की भावना पैदा करना और राष्ट्र में एकता की एक समृद्ध मूल्य प्रणाली को सुरक्षित करने के लिए आपसी संबंध बनाना है।
 
 ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ कार्यक्रम के अंतर्गत अनेक गतिविधियां की जाती हैं। इसके अंतर्गत पांच पुरस्कार विजेता पुस्तकों और कविता, लोकप्रिय लोकगीतों का एक भाषा से भागीदार राज्य की भाषा में अनुवाद किया गया है। साझेदार राज्यों की पाक पद्धतियों को सीखने के लिए पाक कार्यक्रम आयोजित किए गए हैं। साझेदार राज्यों से आने वाले आगंतुकों के लिए होमस्टे की व्यवस्था की गई है। पर्यटकों के लिए राज्य दर्शन की सुविधा उपलब्ध करवाई गई है। अन्य राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की पारंपरिक पोशाक को स्वीकार करना भी इसमें सम्मिलित है। भागीदार राज्यों के साथ पारंपरिक कृषि पद्धतियों जैसी सूचनाओं का आदान-प्रदान किया जा रहा है।
 
किसी भी भू-भाग अथवा देश की विभिन्न संस्कृतियों को एक सूत्र में बांधे रखने का कार्य आपसी प्रेम, सद्भाव एवं भाईचारे की भावना से ही संभव है। भारत में एक हजार से भी अधिक भाषाएं और बोलियां हैं। यहां कुछ कोस की दूरी पर बोली बदल जाती है। भाषाएं ही नहीं, अपितु यहां अनेक धर्म भी हैं। यहां विभिन्न धर्मों को मानने वाले लोग रहते हैं। इनकी संस्कृति, सभ्यता, रीति-रिवाज, भाषा, व्यंजन, वेशभूषा आदि भी एक-दूसरे से भिन्न है, परन्तु सब मिलजुल कर रहते हैं। एक-दूसरे के त्योहारों में सम्मिलित होते हैं। ऐसा करना आवश्यक भी है, क्योंकि एक दूसरे से मिलने जुलने से ही उन्हें समझने का अवसर प्राप्त होता है। देश को श्रेष्ठ भारत बनाने के लिए सभी देशवासियों का सहयोग आवश्यक है। विविधता में एकता के लिए आवश्यक है कि विभिन्न संस्कृतियों के लोग आपस में मिलजुल कर रहें। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि हम एक दूसरे की आस्थाओं एवं उनकी धार्मिक मान्यताओं का सम्मान करें। जब हम सामने वाले की आस्था का सम्मान करेंगे, तो वह भी हमारी आस्था का सम्मान करेगा। ऐसा करने से आपपास में प्रेम और सद्भाव की भावना उत्पन्न होगी। सरकार की इस योजना के माध्यम से देशवासियों के मन में अपने- अपने धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्म के लोगों के प्रति भी प्रेम एवं सम्मान की भावना विकसित हो सकेगी।
नि:संदेह आज के समय में ऐसी योजनाओं की अत्यधिक आवश्यकता है।