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Wednesday, June 18, 2025

शब्द साधक अटलजी, हमारे अटलजी


भारत की राजनीति में अपने चरित्र, ध्येयनिष्ठा, राष्ट्र के प्रति समर्पण, सहिष्णुता, शब्दसाधक,  मिलनसारिता, सहजता, सरलता और गरिमा आदि गुणों से परिपूर्ण व्यक्तित्व वाले श्री अटल बिहारी  वाजपेयी को केवल लेखनी की सीमा में रख पाना बड़ा दुष्कर है. वे बहुआयामी व्यक्तित्व के शाश्वत स्वरूप हैं, जिनको पाकर भारतीय राजनीति धन्य हुई है. उनके विराट मानस पटल में राजनेता केवल एक विभाग भर है, वे मूलतः समाजनेता हैं, जिनका उद्देश्य भारत को परम वैभव के शिखर पर आरूढ़ करना है. वे भारतीय संस्कृति के ऋषि प्रेषित प्रवक्ता हैं, जो समाज में भारद्वाज, अत्रि, याज्ञवल्य, पाराशर, पतंजलि, भृगु आदि की परंपरा को चिरस्थायी स्वरूप देने हेतु कटिबद्ध है, वे आध्यात्म और विज्ञान के सेतु हैं. अटलजी प्रखर वक्ता हैं. उनकी शैली मोहिनी है, हृदय संवेदनाओं से भरा हुआ है, उनकी कविताओं में समष्टि से व्यक्ति तक के विचार समाहित रहते हैं. अटलजी के लेखों में राष्ट्र और राष्ट्रवाद जीवंत रूप में दर्शनीय है. भारत की संस्कृति, सभ्यता, राजधर्म, राजनीति और विदेश नीति आदि विषयों पर अटलजी की लेखनी सभी के लिए प्रेरक है. उन्होंने लंबे समय तक राष्ट्रधर्म, पांचजन्य और वीर अर्जुन आदि राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत पत्र-पत्रिकाओं का संपादन भी किया. ऐसे व्यक्तित्व पर लिखना सचमुच कठिन है. कितना भी प्रयास करें, बहुत कुछ उल्लेख में शेष रह जाएगा. उनकी लेखनी धन्य है. मैंने इस पुस्तक के माध्यम से अटलजी के पत्रकारीय जीवन को संजोने का एक छोटा सा प्रयास किया है. आशा करता हूं कि राष्ट्र की युवा पीढ़ी अटलजी के व्यक्तित्व से प्रेरणा लेकर उनके सपनों के अनुरूप भारत के नव निर्माण का प्रयत्न करेगी.  
डॉ. सौरभ मालवीय

Saturday, May 24, 2025

यह पुस्तक एक थाती है


अटल बिहारी वाजपेयी का व्यक्तित्व किसी एक दिशा में नहीं देखा जा सकता। वे एक राजनीतिज्ञ, संसदीय परंपराओं के ज्ञाता, लोकमर्यादा के आदर्श और देश की विभिन्न समस्याओं की धरातल तक की जानकारी रखने वाले नेता हैं। अटलजी को साहित्यकार कहा जाए, कवि कहा जाए या पत्रकार, समझ नहीं आता। वे विविध विधाओं से संपन्न व्यक्तित्व हैं अटल बिहारी वाजपेयी। वे एक ओजस्वी वक्ता हैं। उनकी भाषा शैली प्रभावशाली है, जिसे सुनकर, पढ़कर लोग उनके मुरीद हो जाते हैं। पत्रकारिता के क्षेत्र में उनकी साहित्यिक भाषा अपने में एक अलग विधा है। उनके संपादकीय राष्ट्रवाद से ओतप्रोत हैं, जिनमें देश के ज्वलंत मुद्दों को उठाते हुए समाधान भी होता है। यह एक अनूठा उदहारण है। वीर अर्जुन, स्वदेश, राष्ट्रधर्म, पांचजन्य आदि में अटलजी ने कार्य किया। अटलजी की सक्रिय पत्रकारिता से समाज लाभान्वित हुआ है। मैं सौभाग्यशाली हूं कि अटलजी के साथ काम करने अवसर मिला। उनके साथ एक लम्बा समय व्यतीत किया है। अटलजी ने विषम परिस्थितियों में पत्रकारिता शुरू की थी।  उन्होंने राष्ट्रधर्म के प्रारंभिक दौर में छपाई की मशीन को खुद अपने हाथों से चलाने से लेकर वितरण तक सब कार्य किए। अटलजी की इसी जिजीविषा ने उन्हें भारतीय राजनीति में एक अच्छे मुकाम तक पहुंचाया।

डॉ. सौरभ मालवीय जी द्वारा लिखित पुस्तक सभी के प्रिय और हमारे आदर्श श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी के पत्रकारीय और साहित्यिक पहलू को रेखांकित करती है तथा उनके जीवन का यह पक्ष लोगों के सामने लाने में सफल सिद्ध होती है। निश्चित तौर पर यह पुस्तक एक थाती है। मेरी हार्दिक शुभकामनाएं हैं कि आपकी यह पुस्तक अटलजी के विभिन्न उत्कृष्ट कार्यों और उनके व्यक्तित्व के विविध रूपों से पाठकों को अवगत कराते हुए पुस्तकों के संसार में अपनी एक अलग पहचान बनाए। 
पुनः डॉ. सौरभ मालवीय जी को शुभकामनाएं।
-लालजी टंडन   

Sunday, May 29, 2022

पुस्तक भेंट


अंत्योदय को साकार करता भारतीय लोकतंत्र। इतिहास में जुड़ा सुनहरा पन्ना।
आदिवासी समुदाय की द्रौपदी मुर्मू जी सर्वोच्च पद पर हुई आसीन।
इस अवसर पर उन्हें अपनी पुस्तक 'राष्ट्रवादी पत्रकारिता के शिखर पुरुष अटल बिहारी वाजपेयी' भेंट की। 
जय जोहार ! जय लोकतंत्र!


Wednesday, February 13, 2019

श्री लालजी टण्डन को बधाई


भाजपा के वरिष्ठ नेता एवं लखनऊ के पूर्व सांसद श्री लालजी टण्डन जी को बिहार का राज्यपाल बनायें जाने की बधाई, शुभकामनाएं...
टण्डन जी बीजेपी के उन नेताओं में है जो अटल जी का अपार स्नेह पाए है। अटलजी पर केंद्रित पुस्तक लेखन से पूर्व चर्चा करते हुए।

Thursday, January 10, 2019

भारतीय पत्रकारिता का पिंड है राष्ट्रवाद, फिर इससे गुरेज क्यों?

सौरभ मालवीय ने कहा अटल बिहारी वाजपेयी जन्मजात वक्ता थे, जन्मजात कवि हृदय थे, पत्रकार थे, प्रखर राष्ट्रवादी थे. उनके बारे में कहा जाता था कि यदि वह पाकिस्तान से चुनाव लड़ते तो वहां से भी जीत जाते और पाकिस्तान का नेता कहे जाते.
जय प्रकाश पाण्डेय
राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के सहयोग से प्रगति मैदान में लगे विश्व पुस्तक मेला 2019 में लेखक मंच पर 'साहित्य आजतक' का अगला सत्र था डॉ. सौरभ मालवीय की पुस्तक 'राष्ट्रवादी पत्रकारिता के शिखर पुरुष- अटल बिहारी वाजपेयी' पर चर्चा का. जहां सईद अंसारी से बातचीत के लिए मौजूद रहे पं माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय के प्राध्यापक और इस किताब के लेखक डॉ. सौरभ मालवीय. सत्र के शुरू में सईद ने मालवीय की राजनीतिक और सामाजिक समझ की तारीफ करते हुए पूछा कि किस तरह वह अटल बिहारी वाजपेयी को एक पत्रकार और वह भी एक राष्ट्रवादी पत्रकारिता के शिखर पुरुष के रूप में देखते हैं.

डॉ. सौरभ मालवीय ने 'साहित्य आजतक' का आभार जताते हुए, 'तेरा तुझको अर्पण' की बात कही और कहा कि देश और समाज ने हमको जो दिया हमने उसे वही लौटाया. अटल बिहारी वाजपेयी इस सोच के महान नायक थे. मेरा मानना है कि राजनीति एक ऐसी विधा है, एक ऐसा क्षेत्र है, जो किसी भी समाज के विकास की प्रक्रिया के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है. परंतु दुर्भाग्य यह है कि आजादी के बाद राजनीति को देखने की दृष्टि संकुचित कर दी गई. राजनीति में काम करने वाला व्यक्ति, नेता बनने वाला व्यक्ति समाज में उस तरह से नहीं स्वीकार किया गया, जैसे कि हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे पढ़ कर डॉक्टर बने, वकील बने, इंजीनियर बने पर कोई व्यक्ति यह नहीं कहना चाहता कि मैं राजनेता हूं. ऐसे सवालों के जवाब में जिस व्यक्ति ने अपनी पूरी उम्र दी उस व्यक्ति का नाम अटल बिहारी वाजपेयी था.

अटल बिहारी वाजपेयी जन्मजात वक्ता थे, जन्मजात कवि हृदय थे, पत्रकार थे, प्रखर राष्ट्रवादी थे. उनके बारे में कहा जाता था कि यदि वह पाकिस्तान से चुनाव लड़ते तो वहां से भी जीत जाते और पाकिस्तान का नेता कहे जाते. राजनीति को जब प्रश्नों के दायरे में खड़ा किया जा रहा है तब अटल जी की स्वीकार्यता जन-जन में थी. राम मनोहर लोहिया, जय प्रकाश नारायण, नंबूदरीपाद, अटल बिहारी वाजपेयी, दीन दयाल उपाध्याय, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, पं जवाहरलाल नेहरू तमाम ऐसे नेता थे, जिन्होंने पहले यह तय किया कि हमें आजादी, राष्ट्र का विकास चाहिए. इन सबने राष्ट्र को सर्वोपरि रखा.

राष्ट्रवादी पत्रकारिता की व्याख्या करते हुए डॉ. सौरभ मालवीय ने कहा कि इसका अर्थ है समाज के सभी वर्गों को, समाज में निचले स्तर पर जीने वाले हर व्यक्ति को सभी संसाधन उपलब्ध कराने में अपना सर्वस्व जीवन निछावर कर देना. अटल बिहारी वाजपेयी ने अपना जीवन इसीलिए निछावर कर दिया. इसीलिए इस किताब को लिखने की जरूरत पड़ी. अटल बिहारी वाजपेयी केवल नेता भर नहीं थे. उनकी सभाएं देश भर में होती थीं, तो दूसरे दलों के नेता भी उनका भाषण एक नेता के तौर पर सुनने जाते थे, किसी दल के नेता विशेष के तौर पर नहीं.

अटल बिहारी वाजपेयी की पत्रकारिता की उम्र बहुत कम थी. वह आज की पत्रकारिता से अलग थी. उस समय के समाचारपत्रों में वैचारिक पत्रकारिता होती थी. अटल जी जितने भी पत्रपत्रिकाओं से जुड़े रहे उन्होंने अपने छोटे वैचारिक लेखों, संपादकीय से भी अपनी विशिष्ट छाप छोड़ी. उन्हें पढ़ने के बाद मन झंकृत हो जाता है. मेला, राष्ट्रीय एकता, भाषा, हिंदी भाषा पर उनके अद्भुत लेख हैं.

आज के दौर की पत्रकारिता पर डॉ. सौरभ मालवीय का कहना था कि पहले की पत्रकारिता में राष्ट्र सर्वोपरि है. गुलामी से आजादी पाने के बाद कोई भी देश टूटा हुआ ही होता है. भारत की स्थिति भी उससे अलग नहीं थी. पर आज की पत्रकारिता जनोन्मुख है. आज की पत्रकारिता जनजागृति की पत्रकारिता है. अब आप चीजों को छुपा नहीं सकते. आज एक चीज बड़े संकट में है कि पत्रकार पक्षकार बन गया है. और जब पत्रकार पक्षकार बनेगा तो देश और मीडिया के सामने चुनौतियां रहेंगी ही. इसका समाधान जनता और मीडिया को खुद करना होगा. अटल बिहारी वाजपेयी ने वैचारिक प्रतिबद्धता होते हुए भी उसे अपनी पत्रकारिता पर हावी नहीं होने दिया. हर मीडिया घराने में न सही पर हर पत्रकार अपने विंडो टाइम में कहीं न कहीं अपने विचारों को ले ही आता है.

लोहिया, गांधी, नेहरू और अटल का जिक्र करते हुए उन्होंने प्राइम टाइम पत्रकारों पर आरोप लगाया कि वे पक्षकार हो गए हैं. इसीलिए पत्रकारिता को राष्ट्रवाद से जोड़ने की बात इस किताब में की गई. जिन्हें राष्ट्रवाद शब्द से दिक्कत है उन्हें पत्रकार कैसे कह सकते हैं, जबकि सच्चाई यही है कि जब कहीं किसी की बात नहीं सुनी जाती तो वह मीडिया के दरवाजे पर आता है. आपको कहीं न्याय न मिल रहा हो तो आप पत्रकार के पास जाइए वहां न्याय मिलेगा, क्योंकि पत्रकार दर्द से जीता है, लेकिन दूसरे के दर्द को पीता है. पत्रकार की जिंदगी मोमबत्ती के समान है, तिल तिल जलना और दूसरों को रोशनी देना. जहां यह मनोभाव है वहां, राष्ट्रवाद और राष्ट्रवादिता से विरोध क्यों. बाल गंगाधर तिलक, गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी को देखिए. हमारी पत्रकारिता का पिंड है राष्ट्रवाद.

Wednesday, November 14, 2018

खास मुलाकात


प्रो.गोविंद जी पाण्डेय द्वारा संपादित पुस्तक 'लखनऊ की सांस्कृतिक गाथा' जिसमें नवाबी शहर की सांस्कृतिक विविधता, तहजीब, तमीज, भाषा और ऐतिहासिक महत्वपूर्ण स्मारक को परिचित कराने की सराहनीय पहल है। गोविंद जी वर्तमान में भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष है। शुभकामनाएं सर।

Saturday, October 13, 2018

राष्ट्रवादी पत्रकारिता के शिखर पुरुष अटल बिहारी वाजपेयी


दिल्ली प्रवास के दौरान 7 अक्टूबर को अग्रज डॉ. सौरभ मालवीय का सान्निध्य प्राप्त हुआ। उनकी विशेषता है कि उनके साथ समय का पता नहीं चलता। खूब खुशमिजाज हैं। आप एक पल भी बोर नहीं हो सकते। इस खूबी के चलते उनकी प्रसिद्धि लोकव्यापी है। वो जहां उपस्थित नहीं होते, वहां भी उनकी उपस्थिति रहती है। 

दिव्य भोजन
दो दिन से बाहर का खाना खा-खाकर परेशान थे। जब उनसे मिलने घर जा रहा था तब ही उन्होंने फोन पर कह दिया था कि भोजन साथ में होगा। "भूखा क्या चाहे दो रोटी।" सब्जी-रोटी और भाई साहब के हाथ के बने दाल-चावल के स्वाद ने दिन बना दिया था। भाँति-भाँति प्रकार की चर्चा का स्वाद भी लिया।
 
पुस्तक चर्चा 
इस अवसर पर उन्होंने अपनी नई किताब "राष्ट्रवादी पत्रकारिता के शिखर पुरुष अटल बिहारी वाजपेयी" भेंट की। जल्द ही हम अपने यूट्यूब चैनल में इस पुस्तक की चर्चा करेंगे।-लोकेन्द्र सिंह राजपूत 

Sunday, September 23, 2018

राष्ट्रवादी पत्रकारिता के शिखर पुरुष थे अटल बिहारी वाजपेयी


अर्चित गुप्ता 
नई दिल्ली: किताब का नाम: राष्ट्रवादी पत्रकारिता के शिखर पुरुष अटल बिहारी वाजपेयी
लेखक: डॉ सौरभ मालवीय
कीमत: 595 रुपये
कवर: हार्ड
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी एक राजनीतिज्ञ, कवि और पत्रकार थे. अटल जी राजनेता और कवि दोनों के रूप में आज भी लोगों के दिलों में बसे हुए हैं. लेकिन अटल जी राजनेता और कवि के साथ-साथ राष्ट्रवादी पत्रकारिता के शिखर पुरुष भी थे. राजनेता बनने से पहले अटल जी एक पत्रकार थे. उन्होंने राष्ट्रवादी पत्रकारिता को बढ़ावा देने और पत्रकारों की आवाज बुलंद करने में अपना खास योगदान दिया था. अटल जी के जीवन पर कई किताबें लिखी गई हैं. लेकिन आज हम एक ऐसी किताब कि बात कर रहें हैं, जिसमें उनके पत्रकारीय जीवन पर प्रकाश डाला गया है. डॉ. सौरभ मालवीय की किताब ‘राष्ट्रवादी पत्रकारिता के शिखर पुरुष अटल बिहारी वाजपेयी’ में अटल जी के पत्रकारीय जीवन के बारें में बखूबी लिखा गया है. इस किताब में अटल जी के जीवन से जुड़ी कई रोचक बातें लिखी गई है. किताब की  विषय सूची को देखकर ही इसे पढ़ने का मन करता है. लेकिन इस किताब में कई बातें ऐसी हैं, जो ज्यादातर लोगों को पहले से मालूम हैं. 

किताब के अनुसार, अटल जी मासिक पत्रिका ‘राष्ट्रधर्म’ के प्रथम संपादक रहे हैं. अटल जी छात्र जीवन से ही संपादक बनना चाहते थे. अटल जी ने पांचजन्य, स्वदेश, वीर अर्जुन और कई अन्य समाचार पत्रों और पत्रिकारओं के लिए कार्य किया था. 20 जनवरी 1982 में ‘तरुण भारत’ की रजत जयंती पर अटल जी ने कहा था, ‘समाचार पत्र के ऊपर एक बड़ा राष्ट्रीय दायित्व है. भले हम समाचार पत्रों की गणना उद्योग में करें, कर्मचारियों के साथ न्याय करने की दृष्टि से आज यह आवश्यक भी होगा, लेकिन समाचार पत्र केवल उद्योग नहीं है, उससे भी कुछ अधिक है.’

अटल जी कहते थे कि समाचार पत्र खरीद कर पढ़ें, मांग कर नहीं. उनका कहना था कि जब हम खाना मांग कर खाना पसंद नहीं करते, हम मांगा हुआ कपड़ा पसंद नहीं करते, तो हम मांगा हुआ अखबार पढ़ने से संकोच क्यों नहीं करते हैं? उनका कहना था कि समाचार पत्रों की बिक्री होना जरूरी है. समाचार पत्र घाटे में न चले, इसका प्रबंधन भी बहुत आवश्यक है.

लेखक ने अपनी इस किताब में अटल जी के पत्रकारीय सफर का बखूबी वर्णन किया है. इस किताब की कीमत 595 रुपये है. किताब की कीमत ज्यादा है और अटल जी पर कई अच्छी किताबें बाजार में पहले से मौजूद हैं. ऐसे में छात्रों को ये किताब महंगी पढ़ने वाली है. लेकिन अगर आप अटल जी के पत्रकारिय जीवन को जानने के लिए उत्सुक हैं, तो आप इस किताब को खरीद सकते हैं.
(एनडीटीवी इंडिया)
 

Sunday, September 9, 2018

पुस्तक भेंट



मान्यवर सूबेदार जी!
संघ के वरिष्ठ प्रचारक
गोरखपुर विश्वविद्यालय में स्नातक का विद्यार्थी था उस समय सूबेदार जी विभाग प्रचारक थे। समाज जींवन की सक्रियता में मेरे प्रथम मार्गदर्शक के नाते भाई साहब की महत्वपूर्ण भूमिका है। आज जो कुछ भी मेरी समझ है वह Subedar Ji  का आशीर्वाद है।
उन्हें अपनी पुस्तक 'राष्ट्रवादी पत्रकारिता के शिखर पुरुष अटल बिहारी वाजपेयी' भेंट की। 

Wednesday, August 29, 2018

पुस्तक का विमोचन


माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के नोयडा परिसर में प्राध्यापक और मित्र डा.सौरभ मालवीय की पुस्तक 'राष्ट्रवादी पत्रकारिता के शिखर पुरुष अटल बिहारी वाजपेयी' का विमोचन आज भोपाल में पदमश्री से अलंकृत वरिष्ठ पत्रकार श्री आलोक मेहता ने किया। इस अवसर पर विवि के कुलपति श्री जगदीश उपासने, कुलाधिसचिव श्री लाजपत आहूजा और लेखक डा. सौरभ मालवीय।पुस्तक का प्रकाशन वाणी  प्रकाशन, दिल्ली ने किया है। बधाई डा. मालवीय।
-संजय द्विवेदी 

'राष्ट्रवादी पत्रकारिता के शिखर पुरुष अटल बिहारी बाजपेयी' का विमोचन

भास्कर  
भोपाल. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के पत्रकारीय जीवन पर आधारित किताब का मंगलवार को  विमोचन किया गया। 'राष्ट्रवादी पत्रकारिता के शिखर पुरुष अटल बिहारी बाजपेयी' नाम से प्रकाशित इस किताब विमोचन पत्रकार आलोक मेहता, माखनलाल प्रत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति जगदीश उपासने, कुलाधिपति लाजपत आहूजा, कुलसचिव प्रो. संजय द्विवेदी ने किया। 

किताब के लेखक डॉ. सौरभ मालवीय हैं। डॉ. सौरभ ने इस किताब में अटलजी से जुड़े कई अनसुने किस्सों का जिक्र किया है। किताब में उनके व्यक्तिव से जुड़ी कई कहानियां हैं। लेखक 23 जनवरी, 1982 में महाराष्ट्र की पुणे नगरपालिका द्वारा आयोजित गौरव सम्मान समारोह का जिक्र किया है। इस समारोह में उन्हें सम्मानित किया गया था। समारोह के दौरान अटलजी ने कहा था कि उनके लिए राजनीति सेवा का एक साधन है। बदलाव का माध्यम है। सत्ता सत्ता के लिए नहीं है। विरोध विरोध के लिए नहीं है। लेखन ने अटलजी से जुड़े ऐसे ही कई किस्सों का किताब में जिक्र किया है। किताब का प्रकाशन वाणी प्रकाशन ने किया है।

पुस्तक लोकार्पण


पुस्तक 'राष्ट्रवादी पत्रारिता के शिखर पुरुष अटल बिहारी बाजपेयी'
वरिष्ठ पत्रकार -  श्री आलोक मेहता
कुलपति -  मा.जगदीश उपासने
कुलाधिपति  -श्री लाजपत आहूजा
कुलसचिव - प्रो.संजय द्विवेदी
लेखक - डॉ. सौरभ मालवीय
वाणी प्रकाशक नई दिल्ली

Wednesday, August 22, 2018

जीते जी सम्मानों से बहुत परहेज करते थे अटल जी

वाजपेयी जी के जीवन पर आधारित पुस्तक ‘राष्ट्रवादी पत्रकारिता के शिखर पुरुष: अटल बिहार वाजपेयी’ का एक अंश.
महाराष्ट्र की पुणे नगरपालिका द्वारा 23 जनवरी, 1982 को आयोजित गौरव सम्मान समारोह में अटल बिहारी वाजपेयी को सम्मानित किया गया. इस अवसर पर समारोह को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा, 'किन शब्दों में मैं अपने भावों को व्यक्त करूं. व्यक्त न करने का कारण या न कर पाने का कारण ये नहीं है कि मैं भावों से गद्गद हो गया हूं. कारण ये है कि मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि मेरा यह सम्मान किसलिए किया जा रहा है. मैं साठ वर्ष का हो गया हूं- क्या इसीलिए सम्मान हो रहा है? साठी बुद्धि नाठी. ये मराठी की म्हण (कहावत) है. हिन्दी में इसका दूसरा चरण है साठा सो पाठा. लेकिन अगर मैं जीवित हूं, तो साठ साल का होने वाला हूं. और जीवन तो किसी के हाथ में नहीं है. पता नहीं, उमर बढ़ती है या घटती है. नाना साहब यहां बैठे हैं- वे अस्सी साल के हो गये हैं, उन्होंने स्वयं आपको बताया है. वे सम्मान के अधिकारी हैं. खरात साहब लेखनी के धनी हैं. उनका अभिनन्दन किया जाये, तो स्वाभाविक है.'

'मोरे साहब से तो मेरी मुलाकात हाल में ही हुई है. वे लोकसभा में हैं और मैं परलोक सभा में हूं. राज्यसभा को लोग पार्लियामेंट नहीं मानते. मुझसे मिलने आते हैं-कहते हैं हमें पार्लियामेंट देखनी है. मैं कहता हूं, मैं राज्यसभा देखने का प्रबन्ध कर सकता हूं. तो राज्यसभा नहीं, लोकसभा देखनी है. तो मैं उन्हें पूछता हूं कि मैं यहां क्या कर रहा हूं? लेकिन यहां सबका भाषण सुनकर मुझे आनन्द हुआ. सब दलों के प्रतिनिधियों ने भिन्न-भिन्न विचारधाराओं के प्रवक्ताओं ने मुझे अपने स्नेह का पात्र समझा, ये मेरे लिए कुछ नहीं तो जीवन का पाथेय है. मैं इसे स्नेह कहूंगा-क्योंकि जब स्नेह होता, तो दोष छिप जाते हैं और जो गुण नहीं होते हैं, उनका आविष्कार भी किया जाता है. अब नानासाहब मेरी तारीफ में कुछ कहें यह अच्छा नहीं. मुझे अब उनकी जितनी उम्र पाने के लिए बीस साल और जीना पड़ेगा. और आने वाला कल क्या लेकर आयेगा कोई नहीं जानता.'

सचमुच में व्यक्ति तब तक सम्मान का अधिकारी नहीं होता, जब तक कि जीवन की कथा का अन्तिम परिच्छेद नहीं लिखा जाता. कब, कहां, कौन फिसल जाये? जिन्दगी की सफेद चादर पर कब, कहां, कौन सा दाग लग जाये. इसीलिए मैं इसे मानपत्र नहीं मानता. पुणे के नागरिकों को मुझसे आशाएं हैं, अपेक्षाएं हैं, मैं इसे उसकी अभिव्यक्ति मानता हूं. जब कभी मेरे पांव डगमगाने को होंगे, होंगे तो नहीं, अगर कर्तव्य के पथ पर कभी आकर्षण मुझे बांधकर कर्तव्य के पथ से हटाने की कोशिश करेगा, तो आपका मानपत्र मुझे ये चेतावनी देता रहेगा. यह चेतावनी देता रहेगा कि पुणे नगर के निवासियों की आशा और अपेक्षाओं पर पानी फेरने का काम कभी मत करना.

मेरे लिए राजनीति सेवा का एक साधन है. परिवर्तन का माध्यम है. सत्ता सत्ता के लिए नहीं है. विरोध विरोध के लिए नहीं है. सत्ता सेवा के लिए है और विरोध सुधार के लिए-परिष्कार के लिए है. लोकशाही एक ऐसी व्यवस्था है, जिसमें बिना हिंसा के परिवर्तन लाया जा सकता है. आज सार्वजनिक जीवन में अस्पृश्यता बढ़ रही है, यह खेद का विषय है. लेकिन आज का समारोह मेरे मन में कुछ आशा जगाता है. मतभेद के बावजूद हम इकट्ठे हो सकते हैं. प्रामाणिक मतभेद रहेंगे. ‘पिण्डे पिण्डे मतिर्भिन्ना’. और मतों की टक्कर में ही भविष्य का पथ प्रशस्त होगा, लेकिन मतभेद एक बात है और मनभेद दूसरी बात है. मतभेद होना चाहिए, मनभेद नहीं होना चाहिए. आखिर तो इस देश का हृदय एक होना चाहिए.

उस दिन संसद में खड़ा था भारत के संविधान की चर्चा करने के लिए. हम भारत के लोग. संविधान में दलों का उल्लेख नहीं है. वैसे संसदीय लोकतन्त्र में दल आवश्यक है, अनिवार्य है. संविधान के प्रथम पृष्ठ पर अगर किसी का उल्लेख है- हम भारत के लोग. हम भारत के नागरिक नहीं है. हम इस देश के लोग, भारत के जन. अलग-अलग प्रदेशों में रहने वाले, अलग-अलग भाषाएं बोलने वाले, अलग-अलग उपासना पद्धतियों का अवलम्बन करने वाले, मगर देश की मिट्टी के साथ अनन्य रूप से जुड़े हुए लोग. यहां की संस्कृति के उत्तराधिकारी और उसके सन्देश वाहक हैं. कोई फॉर्म भर कर नागरिकता प्राप्त कर सकता है, मगर देश का आत्मीय बनने के लिए, देश का जन बनने के लिए संस्कारों की आवश्यकता है-मिट्टी की अनन्य सम्पत्ति आवश्यक है.

मैं अमेरिका जाकर अमेरिका का नागरिक बन सकता हूं, मगर अमेरिकन नहीं बन सकता. इस राष्ट्रीयता का आधार संकुचित नहीं है, संकीर्ण है. स्मृतियां बदलती नहीं हैं. कुछ व्यवस्थाएं कालबाह्य जरूर हो जाती हैं. वे त्याज्य बन जाती हैं. उन्हें छोड़ देना चाहिए. दिल्ली से हम पुणे आते हैं, तो गरम कपड़े छोड़ आते हैं. समय आने पर काया भी बदली जा सकती है, मगर जीवन मूल्यों की आत्मा परिवर्तित नहीं होनी चाहिए.

हम स्वाधीन हुए, हमने अपना संविधान बनाया. उसमें संशोधन की गुंजाइश है और संशोधन की व्यवस्था संविधान में ही है. उसमें व्यक्ति की स्वाधीनता की धारणा है. धार्मिक स्वतन्त्रता है. व्यक्ति की महत्ता है. हमें लोकशाही चाहिए. लोकशाही को हम अक्षुण्ण रखेंगे. मगर स्वतन्त्रता के साथ हमें संयम भी चाहिए. समता के साथ हमें ममता भी चाहिए. अधिकार के साथ कर्तव्य भी चाहिए. और जैसा कि मैंने पहले कहा कि सत्ता के साथ सेवा भी चाहिए. संविधान में हमारे कर्तव्यों का भी उल्लेख है. वह बाद में किया गया था. जिस पृष्ठभूमि में किया गया था, वह ठीक नहीं था. लेकिन अधिकार के साथ कर्तव्य जुड़ा हुआ है. दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. अगर हमारे कुछ अधिकार हैं, तो इस देश के प्रति कुछ कर्तव्य भी हैं. अभी 26 जनवरी का त्योहार आने वाला है. आज 23 जनवरी है. नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जन्मदिन है. मैं उनको अपनी श्रद्धांजलि देना चाहता हूँ. स्वतन्त्रता संग्राम के सभी सेनानियों को हम श्रद्धा निवेदन करें. उनमें से जो जीवित हैं, हम उनका सम्मान करें.

महापौर महोदय, मैं आप से और आपके साथियों से कहना चाहूंगा- राजनीतिक नेताओं का ज्यादा सम्मान मत करिए. पहले ही वे जरूरत से ज्यादा रोशनी में रहते हैं. अब देखिए सारी रोशनी यहां जुटी हुई है और आप अंधेरे में बैठे हैं. राजनीति जीवन पर हावी हो गयी है. सम्मान होना चाहिए काश्तकारों का, कलाकारों का, वैज्ञानिकों का, रचनात्मक कार्यकर्ताओं का, जो उपेक्षित हैं उनका. कुष्ठ रोगियों के लिए जो आश्रम चला रहे हैं,उनका अभिनन्दन होना चाहिए. उनका वन्दन होना चाहिए. जनरल वैद्य रिटायर होकर आये. मैं नहीं जानता पुणे महानगर पालिका ने उनका अभिनन्दन किया था या नहीं. उनका अभिनन्दन होना चाहिए. कैसा विचित्र संयोग है. घटनाचक्र किस तरह से वक्र हो सकता है. जो सेनापति रणभूमि में शत्रुओं के टैंकों को भेदकर जीवित वापस चला आया, वह अपने देश में, अपने ही घर में, देश के कुछ गद्दारों के हाथों शहीद हुआ. मित्रों,हम परकीयों से परास्त नहीं हुए. हम तो अपनों से ही मार खाते रहे, मार खाते रहे. स्वर्गीय वैद्य का मरणोपरान्त भी सत्कार हो सकता है-समारोह हो सकता है. आज मैंने अपनी सुरक्षा का काफी प्रबन्ध पाया. मगर कहीं यह सुरक्षा पर्याप्त नहीं है. आज ये नौबत क्यों आ गयी? आम आदमी की सुरक्षा कहां है? मैं पंजाब जाता हूं. अनेक दलों के कार्यकर्ता मारे गये. और सचमुच मैंने साठ वर्ष पूरे कर लिए, इसके लिए पंजाब के आतंकवादियों को भी धन्यवाद देता हूं. जिनकी लिस्ट में मेरा भी नाम है. और वे कहीं भी, किसी पर भी हमला करने में समर्थ हैं. आम आदमी सुरक्षा का अनुभव कैसे करता है?

मित्रो, राजनीति को मूल्यों से नहीं जोड़ना चाहिए. यह मात्र सत्ता का खेल नहीं है. आज सचमुच में स्वस्थ परम्पराएं डालने का अवसर है, जो दल केन्द्र में सत्तारूढ़ है, वह अनेक प्रदेशों में प्रतिपक्ष में बैठा है. इससे वह प्रतिपक्ष के तकाजे को भी समझ सकता है और सत्ता के दायित्व को भी ठीक तरह से अनुभव कर सकता है. राजनीति में तो प्रतिस्पर्धा चलेगी. लेकिन एक मर्यादा होनी चाहिए, एक लक्ष्मण रेखा होनी चाहिए. इस लक्ष्मण रेखा का अगर उल्लंघन किया जाये, हर प्रश्न को अगर वोट से जोड़ा जायेगा, हर समस्या का विचार अगर चुनाव में हानि या लाभ की दृष्टि से किया जायेगा, तो कहीं ऐसा न हो, सारे पुरखों के बलिदानों पर पानी फिर जाये और एक-दूसरे को मानपत्र देने की बजाय इतिहास कहीं हमारे लिए अपमान का पत्र छोड़कर न चला जाये. सचमुच में हम किसका सम्मान करें, किसे मानपत्र दें, कौन अधिकारी है.

किसी की आलोचना या दोषारोपण पर मैं भावुक होना नहीं चाहता. दो साल पहले सारे राष्ट्र में सन्ताप की लहर जगी थी. हम चुनाव में परास्त हुए थे. हमने अपनी पराजय को स्वीकार किया था. आज निराशा क्यों मन में डेरा डाल रही है? समस्याओं को मिलकर हल करना होगा. एक दूसरे की प्रामाणिकता पर सन्देह नहीं करना चाहिए. मतभेद रहेंगे. लेकिन ऐसी दीवार नहीं खड़ी होनी चाहिए, जो हमारे राष्ट्र जीवन का सारा तानाबाना तोड़ दे. जो सार्वजनिक जीवन में हैं उनके सामने निरन्तर ये द्वन्द्व चलता रहता है, यह श्रेय की साधना करें या प्रेय के पीछे दौड़ें? कभी-कभी जो हितकर है,वह लोकप्रिय नहीं होता. बीमार को कड़वी दवा अच्छी नहीं लगती. लेकिन मरीज का भला चाहने वाला उसको मिठाई नहीं खिलाता. अगर हम लोकप्रियता के पीछे दौड़ें और चुनौतियों का विस्मरण करें, तात्कालिक लाभ के लिए दूरगामी लाभ की बलि चढ़ा दें, और व्यक्ति या दल का विचार करते हुए हम राष्ट्र के तकाजों को, आवश्यकताओं को भूल जायें, तो आने वाला समय हमें कभी क्षमा नहीं करेगा.

महानगरपालिका हमारी स्वराज्य संस्थाओं का एक महत्त्वपूर्ण अंग है. हमारा सामाजिक जीवन पांच स्तम्भों पर खड़ा है. एक है परिवार, दूसरी पाठशाला, तीसरा पूजा गृह, चौथा धर्म और पांचवां पंचायत. ये पांच स्तम्भ हैं. पंचदीप हैं, जो व्यक्ति के निर्माण में, व्यक्ति के विकास में, समाज के गठन में, समाज को धारण करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करते हैं. महानगरपालिका इसी महत्त्वपूर्ण पंचायत का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है. अच्छा होता अगर हम कॉर्पोरेशन की जगह नगर पंचायत कहते, महानगर पंचायत कहते. ग्राम पंचायत, तालुका पंचायत, जिला पंचायत, महानगर पंचायत. और असेम्बली को भी प्रदेश पंचायत कहा जा सकता था और पार्लियामेंट को राष्ट्रीय पंचायत.

महापौर महोदय, मुझे क्षमा करें, कॉर्पोरेशन को तो लोग अंग्रेजी में सही-सही कह भी नहीं सकते. वे कभी-कभी कह जाते हैं-करप्शन. एक जगह मैंने देखा वे कॉर्पोरेशन को कह रहे थे चोरपोरेशन-चोर्पोरेशन. मैंने कहा नहीं-नहीं, ये शुद्ध उच्चारण नहीं हैं, क्योंकि उच्चारण तो हम जानते हैं, पर हम कुछ और कहना चाहते हैं. पंचायत नाम अगर होता, तो इस तरह का भ्रम नहीं पैदा होता. हमारे जीवन से ज्यादा जुड़ जाता. हमने अपने संविधान में केन्द्र और प्रदेशों के बीच अधिकारों का, साधनों का बंटवारा नहीं किया. ये काम होना चाहिए-ये काम संविधान में छूट गया है. पंचायत का चलते-चलते उल्लेख काफी है. क्या म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन, म्युनिसिपलिटी और अन्य स्थानीय स्वराज्य संस्थाएं प्रदेश सरकार की दया पर होनी चाहिए? वह जब चाहे चुनाव करें, जब चाहें, चुनाव न करें. जब चाहे भंग कर दें, जब चाहे बहाल कर दें.

चुनाव का समय निश्चित होना चाहिए, अवधि तय होनी चाहिए. अधिकारों की व्याख्या होनी चाहिए, साधनों का ठीक तरह से बंटवारा होना चाहिए. शहर बढ़ रहे हैं, शहर फैल रहे हैं. रोजगार की तलाश में, औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप शहरीकरण हो रहा है-शहरों में लोग बड़ी संख्या में आ रहे हैं. नगर की सड़कें छोटी पड़ रही हैं, विद्यालयों में स्थान नहीं है, अस्पतालों में जगह नहीं है. पीने का पानी एक बड़ी समस्या बनने वाला है. क्या इसका दीर्घकालिक नियोजन आवश्यक नहीं? पंचायत कहां से पूंजी लाये?

अभी महापौर महोदय कह रहे थे, हमने कॉर्पोरेशन की तरफ से कुछ इमारतें बनायी हैं, दुकानें बनायी हैं. उनसे रुपया आने वाला है, कुछ किराया आयेगा. तो मैंने उन्हें बधाई दी कि आप और ऐसे काम करिए. तब वे मुझसे कहने लगे कि इस बारे में थोड़ा सरकार से हमारी तरफ से कहिए. मैंने कहा-मेरे कहने की क्या जरूरत है? अब तो आप स्वयं सरकार हैं. मगर एक बात मैं जानता हूं-सरकार के दरबार में महापौर की बात बड़ी मुश्किल से सुनी जायेगी, क्योंकि व्यवस्था ऐसी है, जो साधनों का ठीक तरह से बंटवारा नहीं करती. मध्य प्रदेश में ऑक्ट्रॉय खत्म हो गया. प्रदेश सरकार ने टैक्स लगा दिया, जो स्वयं इकट्ठा करती है और प्रदेश सरकार की जिम्मेदारी है कि कॉर्पोरेशन को-म्युनिसिपलिटीज को उसमें से उचित हिस्सा दे. मगर नहीं दे रही है. ग्वालियर का हमारा कॉर्पोरेशन मुश्किल में है. इन्दौर में कठिनाई हो रही है. इसलिए मांग हो रही है कि ऑक्ट्रॉय खत्म मत करो. मैंने सुना है कि महाराष्ट्र में तो ऑक्ट्रॉय भी चल रहा है और टर्नओवर टैक्स भी चल रहा है. ऑक्ट्रॉय अगर खत्म कर दिया जाये, तो कॉर्पोरेशन का काम कैसे चलेगा? क्या आमदनी के और साधन बढ़ने नहीं चाहिए? कैसे बढ़ें? सत्ता का विकेन्द्रीकरण कीजिए. शक्तिशाली केन्द्र मगर सत्ता का विकेन्द्रीकरण. सुनने में अन्तर्विरोध दिखाई देता है, मगर अन्तर्विरोध नहीं है. और विकेन्द्रीकरण संविधान सम्मत है. प्रशासन में नागरिकों की भागीदारी जरूरी है. केवल पाँच साल में एक बार वोट देना पर्याप्त नहीं है. हर नागरिक प्रशासन में कैसे भागीदार बनेगा. इस पर विचार किया जा सकता है.

स्थानीय स्वराज्य संस्थाओं में, स्वायत्त संस्थाओं में जो चुनाव की पद्धति है, उसमें कुछ परिवर्तन की अपेक्षा है. अभी क्षेत्र के अनुसार प्रतिनिधि चुने जाते हैं. क्या इसमें धन्धा लाया जा सकता है, व्यवसाय लाया जा सकता है? क्या मजदूरों को अलग से प्रतिनिधित्व दिया जा सकता है? क्या किसानों के प्रतिनिधि के रूप में कोई आ सकते हैं? सोशलिज्म के साथ क्या हम गिल्ड सोशलिज्म पर विचार कर सकते हैं? ये विविधता से भरा हुआ समाज-बहुरंगी समाज, इसका कोई वर्ग अपने को उपेक्षित न समझे. शासन में भागीदार बनकर वह परिवर्तन प्रक्रिया में हिस्सा ले. सरकारिया कमीशन के सामने हमने इस तरह के विचार रखे. सारा विवाद खत्म हो गया मध्य प्रदेश और केन्द्र के बीच. प्रदेशों को भी अधिक वित्तीय साधन मिलना चाहिए,लेकिन सबसे बड़ी समस्या ये है कि राष्ट्र जीवन के कार्यों में, विकास के कार्यों में, नगर को स्वच्छ रखने के काम में, इसको हरित रखने के काम में,नागरिकों का सक्रिय सहयोग कैसे प्राप्त होगा? नागरिक चेतना कैसे जगाएँ? नगर को स्वच्छ, नगर को सुन्दर बनाने का काम देकर जन अभियान का रूप कैसे दें? हर चीज प्रशासन पर छोड़ दी जाती है. प्रशासन भी पंगु हो रहा है. क्या लोकशक्ति को जगाकर प्रशासन पर नियन्त्रण नहीं रखा जा सकता है? क्या ये सम्भव है कि प्रशासन को सबल भी किया जाये? नागरिक मूक दर्शक न बनें, बल्कि नागरिक इस खम्भे को टिकाने में भागीदार बनें, इस दृष्टि से विचार होना चाहिए.

मित्रो, हमारे राष्ट्र जीवन में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं. नाना साहब अभी मुझसे बातचीत कर रहे थे और आपने उनके भाषण में भी सुना होगा, जो उनके मन में एक दर्द है, एक पीड़ा है. एक टीस है. ये दर्द उन सबके दिल में है, जो देश का भला चाहते हैं. स्वतन्त्रता के बाद हमारी उपलब्धियां कम नहीं हैं. मैं उन लोगों में से नहीं हूं, जो आलोचना के लिए आलोचना करूं. मैं प्रतिपक्ष में हूं, पहले भी पुणे में कह चुका हूं, स्वतन्त्रता के बाद हमने कुछ नहीं किया, ये कहना गलत होगा. लेकिन हम जितना कर सकते थे, उतना नहीं कर पाये. जिस तरह से करना चाहिए, उस तरह से नहीं कर पाये. तो क्या हिम्मत हार जायें? निराश हो जायें? हमने सपने देखे थे, आज सपने टूट गये तो क्या हुआ? हमें सपनों को उत्तराधिकार के रूप में नयी पीढ़ी को सौंपकर जाना है. सपने भंग होने के बाद भी साबुत रहते हैं. सपने टूट जाने के बाद भी जुड़ जाते हैं. आने वाली पीढ़ी को हम कौन से सपने उत्तराधिकार के रूप में सौंप कर जायें? आज भी देश में नौजवानों का बहुमत है. उनमें कुछ करने की उमंग है, उत्साह है. वे कुछ करें. हमारा सहयोग उन्हें होगा, हमारा समर्थन उन्हें मिलेगा. हमारा आशीर्वाद उन्हें मिलेगा. लेकिन क्रिया ऐसी होनी चाहिए, जो कल्याणकारी हो. हमारा चिन्तन ऐसा होना चाहिए, जो उदात्त हो. राजकारण ऐसा होना चाहिए, जो हमारे राष्ट्र जीवन के शाश्वत मूल्यों की वृद्धि कर सके. खरात साहब ने ठीक कहा, ‘अभी सामाजिक क्षेत्र में बहुत परिवर्तन की आवश्यकता है.’ वे अभी सालूपुर का उल्लेख कर कहे थे. शायद आपको मालूम नहीं है कि सालूपुर में जो हत्याकांड हुआ था, उसमें जो अभियुक्त पकड़े गये, उन पर अभी तक मुकदमा नहीं चलाया गया है, क्योंकि प्रशासन गवाह ढूंढ़ने में असमर्थ है. किसी को सजा नहीं मिली.

मैं उस दिन दिल्ली पहुंच गया था. हरिजन भाइयों का सामूहिक चिता में स्नान हो रहा था. एक ओर सूरज छुप रहा था, मानो सूरज शर्म से लाल मुंह करके भाग जाना चाहता था और दूसरी ओर सामूहिक चिता जल रही थी. क्या जन्म के कारण व्यक्ति को जीने का अधिकार नहीं होगा? सम्मान का अधिकार नहीं होगा? किस मुंह से हम दक्षिण अफ्रीका में होने वाले रंगभेद के खिलाफ आवाज उठाएं? फिर भी उठा रहे हैं, उठाना चाहिए. लेकिन यहां तो रंग भी एक है, चमड़ी का रंग भी एक है, रक्त का रंग भी एक है. समाज को टुकड़ों में बांटकर, अलग-अलग खेमों में विभाजित करके, हम सारे संसार को एक परिवार मानते हैं. ऐसी ऊंची-ऊंची बातें नहीं कर सकते. और अगर करेंगे, तो इनका कोई असर नहीं होगा.

भगवान बुद्ध, महावीर, गांधी ने चाहे अहिंसा को परम धर्म माना हो. मनुष्य के जीवन में हिंसा का कोई मूल्य नहीं. पंजाब लहूलुहान पड़ा है. मैं मानने के लिए तैयार नहीं हूं कि वे पराये हैं. जो आतंकवादी हैं, उन्हें सजा मिलनी चाहिए. उनको अलग-थलग किया जाना चाहिए. इसीलिए मैंने शब्द प्रयोग किया-समता पर आधारित ममत्व. ममतायुक्त समता. कथनी और करनी में बढ़ता हुआ अन्तर विश्व में भी हमारी विश्वसनीयता को कम कर रहा है. और देश के भीतर कदम-कदम पर कठिनाइयां पैदा कर रहा है. आवश्यकता इस बात की है कि हम समय की चुनौतियों को समझें और उन चुनौतियों का सफलतापूर्वक सामना करने के लिए साहस जुटाएं, विवेक जुटाएं, शक्ति जुटाएं और छोटे-छोटे मतभेदों को ताक पर रखकर, ये गणतन्त्र चिरंजीवी हो इस तरह की व्यवस्था का विकास हो, इस तरह का प्रबन्ध करने की तैयारी हो.

आपने मुझे सम्मान का अधिकारी समझा, इसके लिए मैं आपको हृदय से धन्यवाद देना चाहता हूं. मैंने प्रयत्न किया है कि सारे देश का चित्र अपने सामने रख कर काम करूं. मैं जनता सरकार में विदेश मन्त्री बना, तब मैंने दो राजदूत प्रधानमन्त्री की सलाह से नियुक्त किये. एक नाना साहब और दूसरे थे नानी पालखीवाला. दोनों किसी पार्टी के नहीं थे. श्री कैलाशचन्द्र हमारे हाई-कमिश्नर होकर मॉरिशस में गये. मैंने ये कभी नहीं सोचा-’ये वेगले आहेत, ये वेगले आहेत. आपल्याच पैकी नाही. ये आपल्याच पैकी काय?’ और मैं उस दिन कश्मीरियों में बैठा था-तो कहने लगे, ये हमारी जाति वाले नहीं हैं-गैर जाति वाले हैं. अरे सब की एक ही जाति है. मनुष्य की एक ही जाति है. जाति जन्म से है. जन्म लेने की प्रक्रिया से है. सारे मनुष्य एक तरह से पैदा होते हैं और गधे दूसरी तरह से पैदा होते हैं. इसलिए जानवरों की अलग जाति है. और कहां मानव जाति का सपना. ’वसुधैव कुटुम्बकम्’ और कहां दल, और दल में भी गुट. जनता पार्टी टूट गयी-बड़ा दुख हुआ. मैं जानता हूं, हमारे कुछ मित्र इस दुख में सहभागी नहीं होंगे. वे सोचते हैं-टूट गया, तो अच्छा हुआ. मगर आप अपने को संभाल कर रखिए. ये टूटना इस देश की नियति हो गयी है. बिखरना हमारा स्वभाव बन गया है. अकारण झगड़ा करना, ऐसा लगता है कि हमारे खून में घुस गया है.

आज भारत अगर चाहे, तो संसार में प्रथम पंक्ति का राष्ट्र बन सकता है. फिर मैं कहना चाहूंगा कि परकीय हमारे पैर नहीं खींच रहे. हम अपने ही पैरों में बेड़ियां डाले हैं. इन्हें हम तोड़ने का संकल्प करें. राष्ट्र को मिलन भूमि मानकर व्यक्ति से ऊपर उठकर जरूरत हो तो दल से ऊपर उठकर- ’तेरा वैभव अमर रहे मां, हम दिन चार रहें न रहें.’ व्यक्ति तो नहीं रहेगा. किसी ने मुझसे पूछा था-आपका सपना क्या है? मैंने कहा- एक महान भारत की रचना. कहने लगे कि आपका सपना, क्या आपको भरोसा है कि आपके जीवन में पूरा हो पायेगा? मैंने कहा-नहीं होगा, लेकिन सपना पूरा करने के लिए फिर से इस देश में जन्म लेना पड़ेगा. मैं जन्म-मरण के चक्र से छूटना चाहता हूँ. लेकिन अगर मेरे देश की हालत सुधरती नहीं है, भारत एक महान-दिव्य-भव्य राष्ट्र नहीं बनता है, अगर हर व्यक्ति के लिए हम गरिमा की, स्वतन्त्रता की गारंटी नहीं कर सकते, अगर विविधताओं को बनाये रखते हुए एकता की रक्षा नहीं कर सकते, तो फिर दूसरा जन्म लेकर भी जूझने के लिए तैयार रहना पड़ेगा. मैं आपको हृदय से धन्यवाद देता हूं. परमात्मा मुझे शक्ति दे. आपने मुझसे जो आशाएं प्रकट की हैं, मैं उनको पूरा करने के लिए बल जुटा रहा हूं.
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक हैं)

Tuesday, August 21, 2018

यह किताब अभिनंदनीय है, सराहनीय है

फ़िरदौस ख़ान
डॊ. सौरभ मालवीय जी ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सहाफ़ी ज़िन्दगी पर ऐसी किताब लिखी है, जिसमें उनकी सहाफ़ी ज़िन्दगी पर रौशनी डालने के साथ-साथ उनके विचारों और लेखों को भी संजोया गया है. सौरभ जी समर्पित प्राध्यापक हैं, ओजस्वी वक्ता हैं. अध्ययन से उनका गहरा नाता है. उनका इंद्रधनुषी व्यक्तित्व इस किताब में साफ़ झलकता है. बेशक उनका यह काम क़ाबिले-तारीफ़ है, इसके लिए सौरभ जी मुबारकबाद के मुस्तहक़ हैं.

सौरभ जी ने हमें किताब पर एक तहरीर लिखने की ज़िम्मेदारी सौंपी है, जो कोई आसान काम नहीं है. क्योंकि  बहुत मुश्किल होता है किसी ऐसी शख़्सियत के बारे में लिखना, जो ख़ुद अपनी ही एक मिसाल हुआ करती है. श्री अटल बिहारी वाजपेयी भी एक ऐसी ही शख़्सियत हैं. वे मन से कवि, विचारों से लेखक, कर्म से राजनेता हैं. बहुआयामी प्रतिभा के धनी अटलजी ने कविताएं भी लिखीं, पत्रकारिता भी की, भाषण भी दिए, विपक्ष में रहकर सियासत भी ख़ूब की, सत्ता का सुख भी भोगा. इस सबके बावजूद वे मन से हमेशा कवि ही रहे. सियासत में मसरूफ़ होने की वजह से कविताओं से उनकी कुछ दूरी बन गई या यूं कहें कि वे कविता को उतना वक़्त नहीं दे पाए, जितना वे देना चाहते थे. इसकी कमी उन्हें हमेशा खलती रही. सियासत ने उनके काव्य जीवन को उनसे छीन लिया. बक़ौल श्री अटल बिहारी वाजपेयी, राजनीति में आना, मेरी सबसे बड़ी भूल है. इच्छा थी कि कुछ पठन-पाठन करूंगा. अध्ययन और अध्वयव्साय की पारिवारिक परंपरा को आगे बढ़ाऊंगा. अतीत से कुछ लूंगा और भविष्य के कुछ दे जाऊंगा. किंतु राजनीति की रपटीली राह में कमाना तो दूर, गांठ की पूंजी भी गंवा बैठा. मन की शांति मर गई. संतोष समाप्त हो गया. एक विचित्र सा खोखलापन जीवन में भर गया. ममता और करुणा के मानवीय मूल्य मुंह चुराने लगे. आत्मा को कुचलकर ही आगे बढ़ा जा सकता है. स्पष्ट है, सांप-छछूंदर जैसी गति हो गई है. न निग़लते बने, न उग़लते.

अटलजी सियासत के दलदल में रहकर भी इससे अलग रहे. उन्होंने सिर्फ़ विरोध के लिए विरोध नहीं किया. वे ख़ुद कहते हैं, स्वतंत्रता के बाद हमारी उपलब्धियां कम नहीं हैं. मैं उन लोगों में से नहीं हूं, जो आलोचना के लिए आलोचना करूं. मैं प्रतिपक्ष में हूं, पहले भी कह चुका हूं, स्वतंत्रता के बाद हमने कुछ नहीं किया, ये कहना ग़लत होगा.
उन्होंने अपनी ज़िन्दगी में उसूलों को अहमियत दी. वे कहते हैं, मैं विश्वास दिलाता हूं कि मैंने कभी सत्ता के लालच में सिद्धांतों के साथ समझौता नहीं किया है, और न भविष्य में करूंगा. सत्ता का सहवास और विपक्ष का वनवास मेरे लिए एक जैसा है. मैं आपको आश्वासन देना चाहता हूं कि कितनी भी आपत्तियां आएं, हम वरदान के लिए झोली नहीं फैलाएंगे. आख़िरी क्षण तक वरदान की तलाश नहीं करेंगे, न मैं संघर्ष का रास्ता छोड़ूंगा.

अटलजी सादगी पसंद हैं. कामयाबी की बुलंदी पर पहुंच कर भी वह अहंकार से दूर हैं, नम्रता से परिपूर्ण हैं. उन्हीं के शब्दों में-
मेरे प्रभु!
मुझे इतनी ऊंचाई कभी मत देना
गैरों को गले न लगा सकूं
इतनी रुखाई कभी मत देना...

बहरहाल, उम्मीद है कि अटल जी की ज़िन्दगी पर आई अन्य किताबों के बीच यह किताब अपनी मौजूदगी दर्ज कराएगी.
(शायरा, लेखिका व पत्रकार)

Friday, August 17, 2018

पुस्तक भेंट


प्रसिद्ध नृत्यांगना एवं सांसद पदमश्री सोनालमान सिंह जी और वरिष्ठ पत्रकार सुमित अवस्थी जी को अपनी पुस्तक 'राष्ट्रवादी पत्रकारिता के शिखर पुरुष अटल बिहारी वाजपेयी' भेंट करते हुए!


Thursday, August 16, 2018

शुभसंसन

लाल जी टंडन
अटल बिहारी वाजपेयी का व्यक्तित्व किसी एक दिशा में नहीं देखा जा सकता। वे एक राजनीतिज्ञ, संसदीय परंपराओं के ज्ञाता, लोकमर्यादा के आदर्श और देश की विभिन्न समस्याओं की धरातल तक की जानकारी रखने वाले नेता हैं। अटलजी को साहित्यकार कहा जाए, कवि कहा जाए या पत्रकार, समझ नहीं आता। वे विविध विधाओं से संपन्न व्यक्तित्व हैं अटल बिहारी वाजपेयी। वे एक ओजस्वी वक्ता हैं। उनकी भाषा शैली प्रभावशाली है, जिसे सुनकर, पढ़कर लोग उनके मुरीद हो जाते हैं। पत्रकारिता के क्षेत्र में उनकी साहित्यिक भाषा अपने में एक अलग विधा है। उनके संपादकीय राष्ट्रवाद से ओतप्रोत हैं, जिनमें देश के ज्वलंत मुद्दों को उठाते हुए समाधान भी होता है। यह एक अनूठा उदहारण है। वीर अर्जुन, स्वदेश, राष्ट्रधर्म, पांचजन्य आदि में अटलजी ने कार्य किया। अटलजी की सक्रिय पत्रकारिता से समाज लाभान्वित हुआ है। मैं सौभाग्यशाली हूं कि अटलजी के साथ काम करने अवसर मिला। उनके साथ एक लम्बा समय व्यतीत किया है। अटलजी ने विषम परिस्थितियों में पत्रकारिता शुरू की थी।  उन्होंने राष्ट्रधर्म के प्रारंभिक दौर में छपाई की मशीन को खुद अपने हाथों से चलाने से लेकर वितरण तक सब कार्य किए। अटलजी की इसी जिजीविषा ने उन्हें भारतीय राजनीति में एक अच्छे मुकाम तक पहुंचाया।
डॉ। सौरभ मालवीय जी द्वारा लिखित पुस्तक सभी के प्रिय और हमारे आदर्श श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी के पत्रकारीय और साहित्यिक पहलू को रेखांकित करती है तथा उनके जीवन का यह पक्ष लोगों के सामने लाने में सफल सिद्ध होती है। निश्चित तौर पर यह पुस्तक एक थाती है। मेरी हार्दिक शुभकामनाएं हैं कि आपकी यह पुस्तक अटलजी के विभिन्न उत्कृष्ट कार्यों और उनके व्यक्तित्व के विविध रूपों से पाठकों को अवगत कराते हुए पुस्तकों के संसार में अपनी एक अलग पहचान बनाए।

पुनः डॉ। सौरभ मालवीय जी को शुभकामनाएं।

अटल जी की यह अमूल्य धरोहर

हृदयनारायण दीक्षित
पूर्व प्रधानमंत्री माननीय अटल बिहारी वाजपेयी पर ढेर सारी पुस्तकें हैं। उनके बहुआयामी व्यक्तित्व पर बहुत कुछ लिखा गया है। लेकिन उनके पत्रकारीय जीवन पर आधारित पुस्तक का प्रकाशन अनूठा है। श्रद्धेय अटल बिहारी बाजपेयी प्रखर राष्ट्रवादी नेता, श्रेष्ठ वक्ता, सर्वश्रेष्ठ सांसद और सफल प्रधानमंत्री रहे हैं। उनका राजनीतिक जीवन सभी के लिए प्रशंसनीय व अनुकरणीय है। उनका जीवन त्याग, तपस्या और राष्ट्र प्रेम से ओत प्रोत हैं। उनके जीवन का एक-एक क्षण भारत माता को समर्पित हैं। उनका व्यक्तित्व कृतित्व आनंदवर्द्धन है। श्री अटल जी का शिष्ट, सौम्य, अजातशत्रु स्वरूप बरबस ही अपनी ओर आकर्षित करता है। मुझे उनके निकट रहने का सौभाग्य मिला है। उनके चिंतन की गहनता, वैचारिक विविधता, प्रशासक की दृढ़ता सहज आकर्षण रही है। जनसंघ के संस्थापक से लेकर भारतीय जनता पार्टी को शिखर तक पहुंचाने में उनका योगदान प्रशंसनीय है। उनकी कविताओं में संवेदनशीलता है। उनकी लेखनी झकझोर कर रख देने वाली है। उनके विचार स्पष्ट हैं। भाषा तरल सरल विरल है। वे अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े और सीधे पत्रकारिता में आ गए थे। पत्रकारिता का चुनाव करना, उनके जीवन की महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। उस समय पूरे देश में स्वतंत्रता की लहर चल रही थी। पत्रकार के रूप में उन्होंने अपने दायित्व का पूरी लगन और निष्ठा से पालन किया। अटल जी प्रतिभाशाली लेखक, उच्चकोटि के संपादक तथा विलक्षण प्रतिभा वाले सहृदय कवि हैं।
श्री अटल जी के पत्रकारीय जीवन पर पुस्तक लिखने का यह प्रयास निसंदेह सराहनीय है। अटल जी जैसे विराट व्यक्तित्व वाले लेखक, कवि और पत्रकार के कृतित्व को एक जगह संग्रहित करना कोई सरल कार्य नहीं है। विभिन्न विषयों राष्ट्र, समाज, संस्कृति आदि पर उनके लेखों को प्रस्तुत कर उसे पुस्तक का रूप देना दुरूह कार्य है। सौरभ जी इस अनुष्ठान में शत-प्रतिशत सफल रहे हैं। पुस्तक प्रेरक हैं। डॉ0 सौरभ मालवीय जी का वैचारिक धरातल स्पष्ट है। वे प्राध्यापक और प्रखर वक्ता हैं। इनकी यह कृति अभिनंदनीय है। शुभकामनाएं। इस पुस्तक से पत्रकारों, कवियों, पाठकों व लेखकों को प्रेरणा मिलेगी।
हृदयनारायण दीक्षित

Saturday, August 11, 2018

पुस्तक अमेज़न पर उपलब्ध है

मेरी पुस्तक ’राष्ट्रवादी पत्रकारिता के शिखर पुरुष अटल बिहारी वाजपेयी’ अमेज़न पर उपलब्ध है.
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Sunday, August 5, 2018

झारखंड के मुख्यमंत्री श्री रघुवरदास से एक मुलाकात


झारखंड के मुख्यमंत्री श्री रघुवरदास को अपनी पुस्तक ’राष्ट्रवादी पत्रकारिता के शिखर पुरुष अटल बिहारी वाजपेयी’ भेंट की