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Wednesday, April 16, 2025

भारत की पहचान है सांस्कृतिक राष्ट्रवाद


डॉ. सौरभ मालवीय
''सांस्कृतिक राष्ट्रवाद'' प्राचीन अवधारणा है। राष्ट्र वही होगा, जहां संस्कृति होगी। जहां संस्कृति विहीन स्थिति होगी, वहां राष्ट्र की कल्पना भी बेमानी है। भारत में आजादी के बाद शब्दों की विलासिता का जबर्दस्त दौर कुछ तथाकथित बुध्दिजीवियों ने चलाया। इन्होंने देश में तत्कालीन सत्ताधारियों को छल-कपट से अपने घेरे में ले लिया। परिणामस्वरूप राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत जीवनशैली का मार्ग निरन्तर अवरूध्द होता गया। अब अवरूध्द मार्ग खुलने लगा है। संस्कृति से उपजा संस्कार बोलने लगा है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का आधार हमारी युगों पुरानी संस्कृति है, जो सदियों से चली आ रही है। यह सांस्कृतिक एकता है, जो किसी भी बन्धन से अधिक मजबूत और टिकाऊ है, जो किसी देश में लोगों को एकजुट करने में सक्षम है और जिसमें इस देश को एक राष्ट्र के सूत्र में बांध रखा है। भारत की संस्कृति भारत की धरती की उपज है। उसकी चेतना की देन है। साधना की पूंजी है। उसकी एकता, एकात्मता, विशालता, समन्वय धरती से निकला है। भारत में आसेतु-हिमालय एक संस्कृति है। उससे भारतीय राष्ट्र जीवन प्रेरित हुआ है। अनादिकाल से यहां का समाज अनेक सम्प्रदायों को उत्पन्न करके भी एक ही मूल से जीवन रस ग्रहण करता आया है। भारतीय संस्कृति की नींव गंगा, गायत्री, गौ, गीता पर खड़ी है। ज्ञान-कर्म-शील-सातत्य इसकी सुदृढ़ दीवारें हों। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की छत का जिसे संरक्षण मिला है तथा इसमें विराजती है, उस विराट की प्रतिमा जो सत्य, सुन्दर, शिव है। कर्म यहां का जीवन है, पूजा है। यहाँ अधिकार की आराधना नहीं, कर्म की ही उपासना होती है। हमने इसे पूजा है, कभी राम के रूप में, कभी कृष्ण के रूप में। भारतीय संस्कृति, संश्लेषण की संस्कृति है, विश्लेषण का विज्ञान नहीं। समन्वय इसका स्वभाव है। टूटना इसका चरित्र नहीं। आस्था इसकी डगर है और विश्वास इसका पड़ाव। न कोई भटकाव है और न कोई विभ्रम।
प्रचलित राष्ट्रवाद की परिभाषा भूगोल पर आधारित है, देश व राष्ट्र समुद्रों, पर्वतों, नदियों, रेगिस्तानों की सीमाओं से बंधे हो। यूरोपीय विद्वानों के मतानुसार राष्ट्रीयता की भावना सर्वप्रथम 1789 में हुई फ्रेंच जाति के बाद उभरकर सामने आई। पेंग्विन डिक्श्नरी ऑफ सोशियॉलाजी में राष्ट्रीयता की भावना अट्ठारहवीं शताब्दी में सर्वप्रथम यूरोपीय देशों में न्याय राज्य निर्माण होकर वहीं के मानव समूहों को राष्ट्र का स्वरूप प्राप्त हो गया। यूरोप के मानचित्रों पर जर्मन राष्ट्र का प्रादुर्भाव 1871 में हुआ। फिर इटली का एकीकरण हुआ और धीरे-धीरे राष्ट्रीयता की अवधारणा यूरोप के अन्य देशों में भी फैल गयी। यूरोपीय देशों के साम्राज्यवादी एवं बौध्दिक विस्तार के फलस्वरूप राजनीतिक राष्ट्रीयता के विचार का प्रसार अन्य देशों में भी फैल गया। चूंकि वे शासक थे, इसलिए उनकी बात को यूरोपीय विद्वानों के साथ-साथ गैर यूरोपीय विद्वानों ने भी स्वीकार्य कर लिया। प्रभुसत्ता ने जिस-जिस भूमि पर अधिकार (कब्जा) किया, वो उनका राष्ट्र बनता गया। तिब्बत की राष्ट्रीयता को समाप्त करके चीन ने अपनी प्रभुसत्ता बनाई। इज़राइल और फिलिस्तीन ने कब्जे के आधार पर देश या राष्ट्र को परिभाषित किया। राजनीतिक विचारधारा आधारित राष्ट्र साम्यवाद, पूंजीवाद इत्यादि, जाति आधारित यूरोप को अंग्रेजों हब्शियों (नीग्रो) पूजा पध्दति आधारित सभी राष्ट्र जिसमें इस्लाम का राजसत्ता का संरक्षण प्राप्त है। इसी प्रकार राष्ट्रपति बुश का ईसाइयों और मुस्लिमों में भी पूजा पध्दति का मतभेद होने के कारण ये राष्ट्र क्रियात्मक नहीं हो पाते। हिन्दू धर्म में भी अनेक विश्वास और पूजा पध्दतियां हैं, जिसके कारण जैनियों का राष्ट्र या सिक्खों का राष्ट्र जैसी कल्पनाएं अव्यवहारिक/संस्कृति आधारित राष्ट्र व पूरे या यूरोप की समान संस्कृति यूरोपियन संघ बना हुआ है। अमेरिका में विभिन्न जातियों के एक साथ रहने का कारण भी सांस्कृतिक हो सकता है, क्योंकि पिछले चार सौ वर्षों की एक विशेष संस्कृति वहां पर उत्पन्न हुई है, हिन्दु जीवन दर्शन पर आधारित संस्कृति जहां-जहां है, उनको भारतीय या हिन्दू राष्ट्र की कल्पना में सम्मिलित किया जा सकता है, इसमें भौगोलिक सीमाओं का महत्व कम हो जाता, नागरिकता और राष्ट्रीयता में अन्तर कम हो जाता है। भारत एक प्राचीन राष्ट्र है और इसकी राष्ट्रीयता का आधार है संस्कृति - उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्, वर्ष तद् भारतं नाम भारती यत्र संतति: पश्चिमी विचारधारा से प्रभावित तथाकथित एक ऐसा वर्ग है जो इसे राष्ट्र नहीं मानता। ''काफिले आते रहे, कारवां बनता रहा'' या । Nation is making. राष्ट्र, राज्य एवं देश को एक ही मानने या इनके अंतर को न समझने के कारण ये तथाकथित प्रगतिशील लोग भ्रमजाल फैलाते रहते हैं। प्रादेशिक राष्ट्रवाद की संकल्पना यूरोप में राज्यों के अभ्युदय के साथ प्रमुखता से उभरी। एक निश्चित भूखंड, उसमें रहने वाला जन, एक शासन एवं उसकी संप्रभुता को राष्ट्र कहा गया। कालांतर में राजनीतिक स्वरूप के कारण राष्ट्र एवं राज्य को समान अर्थों में प्रयोग में लाया जाने लगा। संयुक्त राष्ट्र संघ राष्ट्र शब्द को प्रयोग में लाया। राज्य एवं देश बनते-बिगड़ते रहे एवं संयुक्त राष्ट्र संघ उन्हें मान्यता देता रहा फलत: राष्ट्र एवं राज्य का अंतर समझने में भूल होती रही। मगर पश्चिमी परिभाषा की कसौटी पर भारत एक राष्ट्र नहीं, क्योंकि एक शासन नहीं। अंग्रेजों एक शासन के अंदर इसे लाए। अत: उसे राष्ट्र बनाने का श्रेय दिया गया। इज़रायल भी एक राष्ट्र नहीं, क्योंकि वहां जन (इज़रायली) था ही नहीं। द्वितीय विश्व युध्द के बाद अनेक राष्ट्रों को षडयंत्रपूर्वक तोड़ा गया। जर्मन-पूर्वी एवं पश्चिमी जर्मनी, वियतनाम उत्तरी एवं दक्षिणी वियतनाम, कोरिया-उत्तरी एवं दक्षिणी कोरिया, लेबनान उत्तरी एवं दक्षिणी लेबनान आदि। भारत का विभाजन भी 1947 में द्विराष्ट्रीयता के आधार पर हुआ। हिन्दु एवं मुस्लिम दो राष्ट्रीयता हैं अत:, दो राष्ट्र होने चाहिए। जर्मनी, वियतनाम, कोरिया, लेबनान आदि टूटे अवश्य पर उन्होंने अपनी राष्ट्रीयता को नहीं छोड़ा पर दुर्भाग्यवश भारत का जो विभाजन हुआ वह एक अलग स्वरूप में हुआ। पूर्वी हिन्दुस्तान, पश्चिमी हिन्दुस्तान एवं मध्य हिन्दुस्तान - अगर इस रूप में रहता तो हिन्दुस्तानी राष्ट्रीयता जिंदा रहती। पंथ राष्ट्रीयता है तो फिर इस्लाम एवं ईसाई मत वालों का एक ही राष्ट्र होना चाहिए था - यह ­प्रश्न नहीं उठाया गया। पंथ को राष्ट्रीयता मानने के कारण ही नागालैंड एवं मिजोरम में अलगाववाद ने हिंसक रूप धारण किया। इसी धारणा के कारण पंजाब में भी अलगाववाद उभारने का असफल प्रयास हुआ। सिक्खों ने सवाल किया कि हिन्दू, मुस्लिम सिख, ईसाई-आपस में हैं भाई-भाई। अगर दो भाइयों का बंटवारा 1947 में हो गया तो हमें भी अलग करो। इसी तरह पाकिस्तान भाषा (बंगला-उर्दू) को राष्ट्रीयता मानकर दो भागों में टूट गया। अगर भाषा राष्ट्रीयता है तो फिर सभी अंग्रेजी बोलने वालों का एक राष्ट्र क्यों नहीं ? इंग्लैण्ड एवं आयरलैण्ड आपस में क्यों लड़ते हैं ? भारत में भी एक ऐसा वर्ग है जो भाषा को राष्ट्रीयता मानकर इस देश को बहुराष्ट्रीयता (Multi Nationality, Mix Culture) बहु सांस्कृतिक राज्य कहता है। गुजराती संस्कृति, पंजाबी संस्कृति, उड़िया संस्कृति, तेलुगु संस्कृति, कन्नड़ संस्कृति, मराठी संस्कृति, तमिल संस्कृति आदि शब्दों का प्रयोग करता है और लोग भी अपनी ''संस्कृति की पहचान'' के नाम पर अलगाववाद के नारे लगाने लगते हैं। यह संस्कृति नहीं बोली (भाषा) है। 1989 में विश्व पटल पर कुछ घटनायें घटीं जिसके कारण राष्ट्रीयता पर एक बहस उभर कर सामने आयी। सोवियत संघ विभाजित होकर 15 भागों में टूट गया। राष्ट्रीयता को नकार कर राज्य को सर्वोपरि मानने वाले वामपंथी राष्ट्रीय एकता की बात करने लगे। - ''भारत में अनेक राष्ट्रीयता हैं'' इसकी वकालत करने वाले सोवियत संघ का उदाहरण देकर यह दावा करते थे कि राष्ट्रीयता से ऊपर राज्य है। साम्यवाद के विस्तार में वे राष्ट्रीयता को बाधक मानते थे। पंथ, भाषा से ऊपर उठकर यहां का जन एक है। अतीत के सुख-दुख की उसे समान अनुभूति है - इसी अनुभूति के कारण वह इस भूमि को मातृभूमि-मोक्ष भूमि मानता है। उसकी नागरिकता भले कुछ भी हो जाये पर इस राष्ट्र से बाहर जाकर भी इस मिट्टी से वह जुड़ा हुआ है। केरल के शंकराचार्य ने चार-पीठ की स्थापना की ज्योतिपीठ (उत्तरांचल), श्रृगेरीपीठ (कर्नाटक), गोवर्धन पीठ (उड़ीसा), शारदापीठ (गुजरात)। उन्होंने एक भी पीठ केरल में स्थापित नहीं की - मलयालम संस्कृति या मलयालम को राष्ट्रीयता मानने वालों को इसका उत्तर देना होगा। चार धाम, चार स्थानों (प्रयाग, हरिद्वार, नासिक, उज्जैन) पर लगने वाले कुम्भ, द्वादश ज्योर्तिलिंग - 52 शक्तिपीठ हमारी राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रीय एकात्मता के प्रतीक हैं। गंगा को मोक्ष दायिनी सभी मानते हैं। आत्मवत सर्व भूतेषु एक सद् विप्रा बहुधा वदन्ति, पुनर्जन्म में विश्वास - हमारी संस्कृति के ये मूल तत्व हैं। हमारी विविधता हमारी संस्कृति की महानता को प्रकट करता है। इस विविधता को राष्ट्रीयता का नाम देकर अलगाववाद की वकालत करने वालों को पराजित करना होगा।
''न मे वाछास्ति यशोस विद्वत्व न च वा सुखे
प्रभुत्वे नैव वा स्वेग्र मोखेप्यानंददयके
परन्तु भारते जन्म मानवस्य च वा पशो:
विहंगस्य च वा जन्तों: वृक्षपाषाणयोरपि''
अर्थात् मुझे यश, विद्वता, किसी अन्य सुख या राजनीतिक प्रभुता की इच्छा नहीं है और न मैं स्वर्ग या मोक्ष की ही कामना करता हूं। परंतु मैं चाहता हूं कि भारत में ही मेरा पुनर्जन्म हो भले ही वह मानव, पशु, जन्तु, वृक्ष या पाषाण के रूप में क्यों न हो।

स्वतंत्रता संग्राम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका


डॉ. सौरभ मालवीय
संघ संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार जन्मजात देशभक्त और प्रथम श्रेणी के क्रांतिकारी थे. वे युगांतर और अनुशीलन समिति जैसे प्रमुख विप्लवी संगठनों में डॉ. पाण्डुरंग खानखोजे, श्री अरविन्द, वारीन्द्र घोष, त्रैलौक्यनाथ चक्रवर्ती आदि के सहयोगी रहे. रासबिहारी बोस और शचीन्द्र सान्याल द्वारा प्रथम विश्वयुद्ध के समय 1915 में संपूर्ण भारत की सैनिक छावनियों में क्रांति की योजना में वे मध्यभारत के प्रमुख थे. उस समय स्वतंत्रता आंदोलन का मंच कांग्रेस थी. उसमें भी उन्होंने प्रमुख भूमिका निभाई. 1921 और 1930 के सत्याग्रहों में भाग लेकर कारावास का दंड पाया.
1925 की विजयादशमी पर संघ स्थापना करते समय डॉ. हेडगेवार जी का उद्देश्य राष्ट्रीय स्वाधीनता ही था. संघ के स्वयंसेवकों को जो प्रतिज्ञा दिलाई जाती थी, उसमें राष्ट्र की स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए तन-मन-धन पूर्वक आजन्म और प्रामाणिकता से प्रयत्नरत रहने का संकल्प होता था. संघ स्थापना के तुरंत बाद से ही स्वयंसेवक स्वतंत्रता संग्राम में अपनी भूमिका निभाने लगे थे.
क्रांतिकारी स्वयंसेवक
संघ का वातावरण देशभक्तिपूर्ण था. 1926-27 में जब संघ नागपुर और आसपास तक ही पहुंचा था उसी काल में प्रसिद्ध क्रांतिकारी राजगुरू नागपुर की भोंसले वेदशाला में पढ़ते समय स्वयंसेवक बने. इसी समय भगतसिंह ने भी नागपुर में डॉक्टर जी से भेंट की थी. दिसंबर 1928 में ये क्रांतिकारी पुलिस उपकप्तान सांडर्स का वध करके लाला लाजपत राय की हत्या का बदला लेकर लाहौर से सुरक्षित आ गए थे. डॉ. हेडगेवार ने राजगुरू को उमरेड में भैया जी दाणी (जो बाद में संघ के अ.भा. सरकार्यवाह रहे) के फार्म हाउस पर छिपने की व्यवस्था की थी.
1928 में साइमन कमीशन के भारत आने पर पूरे देश में उसका बहिष्कार हुआ. नागपुर में हडताल और प्रदर्शन करने में संघ के स्वयंसेवक अग्रिम पंक्ति में थे.
महापुरुषों का समर्थन
1928 में विजयादशमी उत्सव पर भारत की असेंबली के प्रथम अध्यक्ष और सरदार पटेल के बड़े भाई श्री विट्ठल भाई पटेल उपस्थित थे. अगले वर्ष 1929 में महामना मदनमोहन मालवीय जी ने उत्सव में उपस्थित हो संघ को अपना आशीर्वाद दिया. स्वतंत्रता संग्राम की अनेक प्रमुख विभूतियां संघ के साथ स्नेह संबंध रखती थीं.
शाखाओं पर स्वतंत्रता दिवस
31 दिसंबर, 1929 को लाहौर में कांग्रेस ने प्रथम बार पूर्ण स्वाधीनता को लक्ष्य घोषित किया और 16 जनवरी, 1930 को देश भर में स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाने का निश्चय किया गया.
डॉ. हेडगेवार ने दस वर्ष पूर्व 1920 के नागपुर में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में पूर्ण स्वतंत्रता संबंधी प्रस्ताव रखा था, पर तब वह पारित नहीं हो सका था. 1930 में कांग्रेस द्वारा यह लक्ष्य स्वीकार करने पर आनंदित हुए हेडगेवार जी ने संघ की सभी शाखाओं को परिपत्र भेजकर रविवार 26 जनवरी, 1930 को सायं 6 बजे राष्ट्रध्वज वंदन करने और स्वतंत्रता की कल्पना और आवश्यकता विषय पर व्याख्यान की सूचना करवाई. इस आदेश के अनुसार संघ की सब शाखाओं पर स्वतंत्रता दिवस मनाया गया.
सत्याग्रह
6 अप्रैल, 1930 को दांडी में समुद्रतट पर गांधी जी ने नमक कानून तोडा और लगभग 8 वर्ष बाद कांग्रेस ने दूसरा जनान्दोलन प्रारम्भ किया. संघ का कार्य अभी मध्यभारत प्रान्त में ही प्रभावी हो पाया था. यहां नमक कानून के स्थान पर जंगल कानून तोडकर सत्याग्रह करने का निश्चय हुआ. डॉ. हेडगेवार संघ के सरसंघचालक का दायित्व डॉ. परांजपे को सौंप स्वयं अनेक स्वयंसेवकों के साथ सत्याग्रह करने गए.
जुलाई 1930 में सत्याग्रह हेतु यवतमाल जाते समय पुसद नामक स्थान पर आयोजित जनसभा में डॉ. हेडगेवार के संबोधन में स्वतंत्रता संग्राम में संघ का दृष्टिकोण स्पष्ट होता है. उन्होंने कहा- ‘स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों के बूट की पालिश करने से लेकर, उनके बूट को पैर से निकाल कर उससे उनके ही सिर को लहुलुहान करने तक के सब मार्ग मेरे स्वतंत्रता प्राप्ति के साधन हो सकते हैं. मैं तो इतना ही जानता हूं कि देश को स्वतंत्र कराना है.‘’
डॉ. हेडगेवार के साथ गए सत्याग्रही जत्थे में आप्पा जी जोशी (बाद में सरकार्यवाह) दादाराव परमार्थ (बाद में मद्रास में प्रथम प्रांत प्रचारक) आदि 12 स्वयंसेवक थे. उनको 9 मास का सश्रम कारावास दिया गया. उसके बाद अ.भा. शारीरिक शिक्षण प्रमुख (सर सेनापति) श्री मार्तंड राव जोग, नागपुर के जिलासंघचालक श्री अप्पाजी हळदे आदि अनेक कार्यकर्ताओं और शाखाओं के स्वयंसेवकों के जत्थों ने भी सत्याग्रहियों की सुरक्षा के लिए 100 स्वयंसेवकों की टोली बनाई जिसके सदस्य सत्याग्रह के समय उपस्थित रहते थे.
8 अगस्त को गढवाल दिवस पर धारा 144 तोडकर जुलूस निकालने पर पुलिस की मार से अनेक स्वयंसेवक घायल हुए.
विजयादशमी 1931 को डाक्टर जी जेल में थे, उनकी उनुपस्थिति में गांव-गांव में संघ की शाखाओं पर एक संदेश पढा गया, जिसमें कहा गया था- ‘’देश की परतंत्रता नष्ट होकर जब तक सारा समाज बलशाली और आत्मनिर्भर नहीं होता तब तक रे मना ! तुझे निजी सुख की अभिलाषा का अधिकार नहीं.‘’
जनवरी 1932 में विप्लवी दल द्वारा सरकारी खजाना लूटने के लिए हुए बालाघाट कांड में वीर बाघा जतीन (क्रांतिकारी जतीन्द्र नाथ) अपने साथियों सहित शहीद हुए और श्री बाला जी हुद्दार आदि कई क्रांतिकारी बंदी बनाए गए. श्री हुद्दार उस समय संघ के अ.भा. सरकार्यवाह थे.
संघ पर प्रतिबंध
संघ के विषय में गुप्तचर विभाग की रपट के आधार पर मध्य भारत सरकार (जिसके क्षेत्र में नागपुर भी था) ने 15 दिसंबर 1932 को सरकारी कर्मचारियों को संघ में भाग लेने पर प्रतिबंध लगा दिया.
डॉ. हेडगेवार जी के देहांत के बाद 5 अगस्त 1940 को सरकार ने भारत सुरक्षा कानून की धारा 56 व 58 के अंतर्गत संघ की सैनिक वेशभूषा और प्रशिक्षण पर पूरे देश में प्रतिबंध लगा दिया.
1942 का भारत छोडो आंदोलन
संघ के स्वयंसेवकों ने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए भारत छोडो आंदोलन में भी सक्रिय भूमिका निभाई. विदर्भ के अष्टी चिमूर क्षेत्र में समानान्तर सरकार स्थापित कर दी. अमानुषिक अत्याचारों का सामना किया. उस क्षेत्र में एक दर्जन से अधिक स्वयंसेवकों ने अपना जीवन बलिदान किया. नागपुर के निकट रामटेक के तत्कालीन नगर कार्यवाह श्री रमाकान्त केशव देशपांडे उपाख्य बाळासाहब देशपांडे को आन्दोलन में भाग लेने पर मृत्युदंड सुनाया गया. आम माफी के समय मुक्त होकर उन्होंने वनवासी कल्याण आश्रम की स्थापना की.
देश के कोने-कोने में स्वयंसेवक जूझ रहे थे. मेरठ जिले में मवाना तहसील पर झंडा फहराते स्वयंसेवकों पर पुलिस ने गोली चलाई, अनेक घायल हुए.
आंदोलनकारियों की सहायता और शरण देने का कार्य भी बहुत महत्व का था. केवल अंग्रेज सरकार के गुप्तचर ही नहीं, कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता भी अपनी पार्टी के आदेशानुसार देशभक्तों को पकड़वा रहे थे. ऐसे में जयप्रकाश नारायण और अरुणा आसफ अली दिल्ली के संघचालक लाला हंसराज गुप्त के यहां आश्रय पाते थे. प्रसिद्ध समाजवादी श्री अच्युत पटवर्धन और साने गुरूजजी ने पूना के संघचालक श्री भाऊसाहब देशमुख के घर पर केंद्र बनाया था. ‘पतरी सरकार’ गठित करनेवाले प्रसिद्ध क्रांतिकर्मी नाना पाटील को औंध (जिला सतारा) में संघचालक पंडित सातवलेकर जी ने आश्रय दिया.
स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु संघ की योजना
ब्रिटिश सरकार के गुप्तचर विभाग ने 1943 के अंत में संघ के विषय में जो रपट प्रस्तुत की वह राष्ट्रीय अभिलेखागार की फाइलों में सुरक्षित है, जिसमें सिद्ध किया है कि संघ योजनापूर्वक स्वतंत्रता प्राप्ति की ओर बढ़ रहा है.

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद


डॉ. सौरभ मालवीय 
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद प्राचीन अवधारणा है। राष्ट्र वही होगा, जहां संस्कृति होगी। जहां संस्कृति विहीन स्थिति होगी, वहां राष्ट्र की कल्पना भी बेमानी है। भारत में आजादी के बाद शब्दों की विलासिता का जबर्दस्त दौर कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों ने चलाया। इन्होंने देश में तत्कालीन सत्ताधारियों को छल-कपट से अपने घेरे में ले लिया। परिणामस्वरूप राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत जीवनशैली का मार्ग निरन्तर अवरूद्ध होता गया। अब अवरूद्ध मार्ग खुलने लगा है। संस्कृति से उपजा संस्कार बोलने लगा है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का आधार हमारी युगों पुरानी संस्कृति है, जो सदियों से चली आ रही है। यह सांस्कृतिक एकता है, जो किसी भी बन्धन से अधिक मजबूत और टिकाऊ है, जो किसी देश में लोगों को एकजुट करने में सक्षम है और जिसमें इस देश को एक राष्ट्र के सूत्र में बांध रखा है। भारत की संस्कृति भारत की धरती की उपज है। उसकी चेतना की देन है। साधना की पूंजी है। उसकी एकता, एकात्मता, विशालता, समन्वय धरती से निकला है। भारत में आसेतु-हिमालय एक संस्कृति है । उससे भारतीय राष्ट्र जीवन प्रेरित हुआ है। अनादिकाल से यहां का समाज अनेक सम्प्रदायों को उत्पन्न करके भी एक ही मूल से जीवन रस ग्रहण करता आया है।

भारतीय संस्कृति की नींव गंगा, गायत्री, गौ, गीता पर खड़ी है। ज्ञान-कर्म-शील-सातत्य इसकी सुदृढ़ दीवारें हों। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की छत का जिसे संरक्षण मिला है तथा इसमें विराजती है, उस विराट की प्रतिमा जो सत्य, सुन्दर, शिव है। कर्म यहां का जीवन है, पूजा है। यहाँ अधिकार की आराधना नहीं, कर्म की ही उपासना होती है। हमने इसे पूजा है, कभी राम के रूप में, कभी —ष्ण के रूप में। भारतीय संस्कृति संश्लेषण की संस्कृति है, विश्लेषण का विज्ञान नहीं। समन्वय इसका स्वभाव है। टूटना इसका चरित्र नहीं। आस्था इसकी डगर है और विश्वास इसका पड़ाव। न कोई भटकाव है और न कोई विभ्रम।


भारतीय संस्कृति की नींव गंगा, गायत्री, गौ, गीता पर खड़ी है। ज्ञान-कर्म-शील-सातत्य इसकी सुदृढ़ दीवारें हों। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की छत का जिसे संरक्षण मिला है तथा इसमें विराजती है, उस विराट की प्रतिमा जो सत्य, सुन्दर, शिव है। कर्म यहां का जीवन है, पूजा है। यहाँ अधिकार की आराधना नहीं, कर्म की ही उपासना होती है। हमने इसे पूजा है, कभी राम के रूप में, कभी —ष्ण के रूप में। भारतीय संस्कृति संश्लेषण की संस्कृति है, विश्लेषण का विज्ञान नहीं। समन्वय इसका स्वभाव है। टूटना इसका चरित्र नहीं। आस्था इसकी डगर है और विश्वास इसका पड़ाव। न कोई भटकाव है और न कोई विभ्रम।

प्रचलित राष्ट्रवाद की परिभाषा भूगोल पर आधारित है, देश व राष्ट्र समुद्रों, पर्वतों, नदियों, रेगिस्तानों की सीमाओं से बंधे हो। यूरोपीय विद्वानों के मतानुसार राष्ट्रीयता की भावना सर्वप्रथम 1789 में हुई फ्रेंच जाति के बाद उभरकर सामने आई। पेंनिग्व डिक्शनरी ऑफ सोशियॉलाजी में राष्ट्रीयता की भावना अट्ठारहवीं शताब्दी में सर्वप्रथम यूरोपीय देशों में न्याय राज्य निर्माण होकर वहीं के मानव समूहों को राष्ट्र का स्वरूप प्राप्त हो गया। यूरोप के मानचित्रों पर जर्मन राष्ट्र का प्रादुर्भाव 1871 में हुआ। फिर इटली का एकीकरण हुआ और धीरे-धीरे राष्ट्रीयता की अवधारणा यूरोप के अन्य देशों में भी फैल गयी। यूरोपीय देशों के साम्राज्यवादी एवं बौद्धिक विस्तार के फलस्वरूप राजनीतिक राष्ट्रीयता के विचार का प्रसार अन्य देशों में भी फैल गया। चूंकि वे शासक थे, इसलिए उनकी बात को यूरोपीय विद्वानों के साथ-साथ गैर यूरोपीय विद्वानों ने भी स्वीकार्य कर लिया। प्रभुसत्ता ने जिस-जिस भूमि पर अधिकार (कब्जा) किया, वो उनका राष्ट्र बनता गया। तिब्बत की राष्ट्रीयता को समाप्त करके चीन ने अपनी प्रभुसत्ता बनाई। इज़राइल और फिलिस्तीन ने कब्जे के आधार पर देश या राष्ट्र को परिभाषित किया। राजनीतिक विचारधारा आधारित राष्ट्र साम्यवाद, पूंजीवाद इत्यादि, जाति आधारित यूरोप को अंग्रेजों हिब्शयों (नीग्रो) पूजा पद्धति आधारित सभी राष्ट्र जिसमें इस्लाम का राजसत्ता का संरक्षण प्राप्त है। इसी प्रकार राष्ट्रपति बुश का ईसाइयों और मुस्लिमों में भी पूजा पद्धति का मतभेद होने के कारण ये राष्ट्र क्रियात्मक नहीं हो पाते। हिन्दू धर्म में भी अनेक विश्वास और पूजा पद्धतियां हैं, जिसके कारण जैनियों का राष्ट्र या सिक्खों का राष्ट्र जैसी कल्पनाएं अव्यवहारिक/संस्कृति आधारित राष्ट्र व पूरे या यूरोप की समान संस्कृति यूरोपियन संघ बना हुआ है।

अमेरिका में विभिन्न जातियों के एक साथ रहने का कारण भी संस्कृति हो सकता है, क्योंकि पिछले चार सौ वषो की एक विशेष संस्कृति वहां पर उत्पन्न हुई है, हिन्दु जीवन दर्शन पर आधारित संस्कृति जहां-जहां है, उनको भारतीय या हिन्दू राष्ट्र की कल्पना में सिम्मलित किया जा सकता है, इसमें भौगोलिक सीमाओं का महत्व कम हो जाता, नागरिकता और राष्ट्रीयता में अन्तर कम हो जाता है।भारत एक प्राचीन राष्ट्र है और इसकी राष्ट्रीयता का आधार है संस्कृति

उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्, वर्ष तद् भारतं नाम भारती यत्र संतति

पश्चिमी विचारधारा से प्रभावित तथाकथित एक ऐसा वर्ग है जो इसे राष्ट्र नहीं मानता। "काफिले आते रहे, कारवां बनता रहा" या । छंजपवद पे उंापदहण् राष्ट्र, राज्य एवं देश को एक ही मानने या इनके अंतर को न समझने के कारण ये तथाकथित प्रगतिशील लोग भ्रमजाल फैलाते रहते हैं। प्रादेशिक राष्ट्रवाद की संकल्पना यूरोप में राज्यों के अभ्युदय के साथ प्रमुखता से उभरी। एक निश्चित भूखंड, उसमें रहने वाला जन, एक शासन एवं उसकी संप्रभुता को राष्ट्र कहा गया। कालांतर में राजनीतिक स्वरूप के कारण राष्ट्र एवं राज्य को समान अथो में प्रयोग में लाया जाने लगा। संयुक्त राष्ट्र संघ राष्ट्र शब्द को प्रयोग में लाया। राज्य एवं देश बनते-बिगड़ते रहे एवं संयुक्त राष्ट्र संघ उन्हें मान्यता देता रहा फलत: राष्ट्र एवं राज्य का अंतर समझने में भूल होती रही। मगर पश्चिमी परिभाषा की कसौटी पर भारत एक राष्ट्र नहीं, क्योंकि एक शासन नहीं। अंग्रेजों एक शासन के अंदर इसे लाए। अत: उसे राष्ट्र बनाने का श्रेय दिया गया। इज़रायल भी एक राष्ट्र नहीं, क्योंकि वहां जन (इज़रायली) था ही नहीं। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अनेक राष्ट्रों को षड्यंत्रपूर्वक तोड़ा गया। जर्मन-पूर्वी एवं पश्चिमी जर्मनी, वियतनाम उत्तरी एवं दक्षिणी वियतनाम, कोरिया-उत्तरी एवं दक्षिणी कोरिया, लेबनान उत्तरी एवं दक्षिणी लेबनान आदि। भारत का विभाजन भी 1947 में द्विराष्ट्रीयता के आधार पर हुआ।

हिन्दु एवं मुस्लिम दो राष्ट्रीयता हैं अत:, दो राष्ट्र होने चाहिए। जर्मनी, वियतनाम, कोरिया, लेबनान आदि टूटे अवश्य पर उन्होंने अपनी राष्ट्रीयता को नहीं छोड़ा पर दुर्भाग्यवश भारत का जो विभाजन हुआ वह एक अलग स्वरूप में हुआ। पूर्वी हिन्दुस्तान, पश्चिमी हिन्दुस्तान एवं मध्य हिन्दुस्तान - अगर इस रूप में रहता तो हिन्दुस्तानी राष्ट्रीयता जिंदा रहती। पंथ राष्ट्रीयता है तो फिर इस्लाम एवं ईसाई मत वालों का एक ही राष्ट्र होना चाहिए था - यह प्रश्न नहीं उठाया गया। पंथ को राष्ट्रीयता मानने के कारण ही नागालैंड एवं मिजोरम में अलगाववाद ने हिंसक रूप धारण किया। इसी धारणा के कारण पंजाब में भी अलगाववाद उभारने का असफल प्रयास हुआ। सिक्खों ने सवाल किया कि हिन्दू, मुस्लिम सिख, ईसाई-आपस में हैं भाई-भाई। अगर दो भाइयों का बंटवारा 1947 में हो गया तो हमें भी अलग करो। इसी तरह पाकिस्तान भाषा (बंगला-उर्दू) को राष्ट्रीयता मानकर दो भागों में टूट गया। अगर भाषा राष्ट्रीयता है तो फिर सभी अंग्रेजी बोलने वालों का एक राष्ट्र क्यों नहीं ? इंग्लैण्ड एवं आयरलैण्ड आपस में क्यों लड़ते हैं ? भारत में भी एक ऐसा वर्ग है जो भाषा को राष्ट्रीयता मानकर इस देश को बहुराष्ट्रीयता (डनसजप छंजपवदंसपजलए डपग ब्नसजनतमद्ध बहु संस्कृति राज्य कहता है। गुजराती संस्कृति पंजाबी संस्कृति , उड़िया संस्कृति , तेलुगु संस्कृति कéड़ संस्कृति मराठी संस्कृति , तमिल संस्कृति आदि शब्दों का प्रयोग करता है और लोग भी अपनी संस्कृति की पहचानß के नाम पर अलगाववाद के नारे लगाने लगते हैं। यह संस्कृति नहीं बोली (भाषा) है। 1989 में विश्व पटल पर कुछ घटनायें घटीं जिसके कारण राष्ट्रीयता पर एक बहस उभर कर सामने आयी। सोवियत संघ विभाजित होकर 15 भागों में टूट गया। राष्ट्रीयता को नकार कर राज्य को सर्वोपरि मानने वाले वामपंथी राष्ट्रीय एकता की बात करने लगे।

"भारत में अनेक राष्ट्रीयता हैं" इसकी वकालत करने वाले सोवियत संघ का उदाहरण देकर यह दावा करते थे कि राष्ट्रीयता से ऊपर राज्य है। साम्यवाद के विस्तार में वे राष्ट्रीयता को बाधक मानते थे। पंथ, भाषा से ऊपर उठकर यहां का जन एक है। अतीत के सुख-दुख की उसे समान अनुभूति है - इसी अनुभूति के कारण वह इस भूमि को मातृभूमि-मोक्ष भूमि मानता है। उसकी नागरिकता भले कुछ भी हो जाये पर इस राष्ट्र से बाहर जाकर भी इस मिट्टी से वह जुड़ा हुआ है। केरल के शंकराचार्य ने चार-पीठ की स्थापना की ज्योतिपीठ (उत्तरांचल), श्रृगेरीपीठ (कर्नाटक), गोवर्धन पीठ (उड़ीसा), शारदापीठ (गुजरात)। उन्होंने एक भी पीठ केरल में स्थापित नहीं की - मलयालम संस्कृति या मलयालम को राष्ट्रीयता मानने वालों को इसका उत्तर देना होगा। चार धाम, चार स्थानों (प्रयाग, हरिद्वार, नासिक, उज्जैन) पर लगने वाले कुम्भ, द्वादश ज्योÆतलिंग - 52 शक्तिपीठ हमारी राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रीय एकात्मता के प्रतीक हैं। गंगा को मोक्ष दायिनी सभी मानते हैं। आत्मवत सर्व भूतेषु एक सद् विप्रा बहुधा वदन्ति, पुनर्जन्म में विश्वास - हमारी संस्कृति के ये मूल तत्व हैं। हमारी विविधता हमारी संस्कृति की महानता को प्रकट करता है। इस विविधता को राष्ट्रीयता का नाम देकर अलगाववाद की वकालत करने वालों को पराजित करना होगा।

न मे वाछास्ति यशोस विद्वत्व न च वा सुखे
प्रभुत्वे नैव वा स्वे मोखेप्यानंददयके
परन्तु भारते जन्म मानवस्य च वा पशो:
विहंगस्य च वा जन्तों: वृक्षपाषाणयोरपि

आर्थात मुझे यश, विद्वता, किसी अन्य सुख या राजनीतिक प्रभुता की इच्छा नहीं है और न मैं स्वर्ग या मोक्ष की ही कामना करता हूं। परंतु मैं चाहता हूं कि भारत में ही मेरा पुनर्जन्म हो भले ही वह मानव, पशु, जन्तु, वृक्ष या पाषाण के रूप में क्यों न हो।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और राष्ट्र


डॉ. सौरभ मालवीय
राष्ट्र, किसी भूभाग पर रहने वालो का भू भाग, भूसंस्कृति, उसभूमि का प्राकृतिक वैभव, उस भूमि पर रहने वालो के बीच श्रद्धा और प्रेम, उनकी समान परस्परा, समान सुख­दुख, किन्ही अर्थों में भाषिक एकरूपता, दैशिक स्तरपर समान शत्रु मित्र आदि अनेक भावों का समेकित रूप होता है। यह भाव बाहर से सम्प्रेषित नहीं किया जाता अपितु जन्मजात होता है।
भारत में यह बोध अनादिकाल से है। अभी वैज्ञानिक युग में भी यह तय नहीं हो पा रहा है कि वेदो की रचना कब हुई और वेदो में राष्ट्रवाद अपने उत्कर्ष पर है। इसी संकल्पना के कारण वैदिक ऋषियों ने घोषणा की है कि
समानो मन्त्रः समितिः समानी
समानं मनः सहचित्तमेषाम्।
समानं मन्त्रमभिमन्त्रये वः
समानेन वो हविषा जुहोमि।।
अर्थात् हम लोगों के मन्त्र (कार्यसूत्र का सिद्धन्त ) एक जैसे हो। उस मन्त्र के अनुरूप हमलोगो की समिति (संगठन), हमारे चित्त, हमारी मानसिक दशा और कार्यप्रणाली भी समान हो। हमलोग समेकित रूप से लक्ष्य प्राप्ति हेतु परमात्मा से एक समान प्रार्थना करें।
इसी क्रम में हमारे ऋषियों ने आगे कहा कि­
समानी वः अकूतीः समाना हृदयानि वः।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति।।
हमारे लक्ष्य, हमारे हृदय के भाव और हमारे चिन्तन भी समान हो और हमलोग आपस में संगठित रहे।
संगच्छध्वं संवध्वं सं वो मनांसि जनताम्।
देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते।।
अर्थात हमलोग साथ साथ चले, एक साथ बोले, हमारे मनोभाव समान रहें। हमलोग समानरूप से अपने लक्ष्य सिद्धि हेतु देवाताओं की साधना करें।
ऋषियों ने यह उद्घोष श्रुतियों में शताधिक बार किया है। हर बार वे हमे संगठित और सुव्यवस्थित रहकर अपने लक्ष्य के लिये समर्पित होने का आदेश दे रहे है। ऐसा राष्ट्रगीत धरती के किसी समाज में कभी नहीं पैदा हुआ है। पूरा का पूरा वैदिक वाङ्मय ही भारत का राष्ट्रगान है।
ओउम् सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ओउम् शान्तिः शान्ति: शान्ति।।
हम दोनों की परमात्मा साथ साथ रक्षा करें, हमदोनो साथ साथ लक्ष्य भोग करें, साथ साथ पराक्रम करें, हम दोनों के द्वारा पढी गयी विद्या तेजस्वी हो और हम कभी आपस में द्वेष न करें। हमारे त्रितापों (दैविक, दैहिक, भौतिक) का शमन हो।
यहाँ ऋषि हम दोनो का अर्थ केवल दो से ही नहीं कह रहे है अपितु गुरू शिष्य से है। यह एक परम्परा की वार्ता है। जो सगम्र गुरूओं व्दारा समग्र शिष्यों को अनादिकाल से अविच्छिन्न रूप से दी गयी शिक्षा है जिससे भारत की राष्ट्रियता सिञ्चित, पल्लवित, पुष्पित और फलित होती रही है।
भारत का यह अक्षुण्ण राष्ट्र भारत के चप्पे चप्पे में सदैव दृष्टिगोचर होता रहता है। देश मे दुर्भाग्य से देश में पराधीनता का काल आ गया। 1235 वर्षो तक के प्रदीर्घ पराधीन काल में, हिमालय, गंगा, काशी, प्रयाग, कुंभमेला, अनेकतीर्थ, अनन्तऋषि, महात्मा, महापुरूष, समुद्र, सरिता पेड, पौधे आदि भारत के राष्ट्रिय गीत तो अहर्निश गाते ही रहते है, पर उनकी मानवीय अभिव्यक्ति सुप्त पड़ गयी थी। इस कोढ में खाज जैसी स्थिती मैकाले की शिक्षा पद्धति ने पूरी कर दी। हमें बताया गया कि वेद गडरियो के गीत हैं, भारत कभी एक राष्ट्र नहीं रहा। यहाँ मे मूल निवासी तो कोल भील द्रविड आदि रहे है, आर्य मध्यएशिया से आकर उनपर आक्रमण करके देशपर कब्जा कर लिया, भारत गर्म देश है, सपेरों और नटों का बाहुल्य रहा है, यह एक देश ही नहीं रहा है बल्कि उपमहाद्विप है, मुस्लिम आक्रान्ताओं ने भारत को कपडा, भोजन, और अन्य तहजीब सिखाया, अब ईसाई आक्रान्ता भारतीयों के पाप का बोझ उतारने के लिये भगवान के आदेश पर भारत आये हैं। यह भारत का सौभाग्य है कि प्रभु ईसा मसीह भारत पर प्रसन्न हो गये है अब भारत इन ईसाइयों की कृपासे सुशिक्षित और सभ्य हो जायेगा, शैतानी परम्पराओं और झूठे देवताओं से मुक्त होकर असली देवताओं की कृपा पा जायेगा। इस प्रकार के सुझावो को जब सत्ता सहयोग मिल जाता है तो करैला नीम चढ जाता है। और इस स्थिति ने हमें इतना आत्मविस्मृत कर दिया कि हम मूढता की सीमा तक विक्षिप्त हो गये। वैदिक ऋषियों की गरिमावान पंरम्परा को अपना कहने में लज्जानुभव होने लगा। यत्किञ्चित इसका प्रभाव अभी भी अवशेष है। हम जान ही लिय थे कि हम जादू टोने वालों के वंशज हैं। अपनी किसी भी बात की साक्षी के लिये विदेशी प्रमाण खोजने लगे। यदि गौराड्ग शासको ने मान्यता दी तो हमार सीना फूल गया वरना एक अघोषित आत्मग्लानि से हम छूट भी नहीं पाते थे। और तो और हम धर्म की परिभाषा भी ह्विटने, स्पेंसर, थोरो, नीत्से, फिक्टे आदि की डायरियों से खोजना चालू कर दिये। वेदो के भाष्य के सन्दर्भ में मेक्समूलकर, ए.बी. कीथ अदि भगवान वेदव्यास पर भी भारी पडने लगे। आत्मदीनता की इस पराकाष्ठा में महानायक स्वामी विवेकानंन्द ने अमृत तत्व भरा और बडे शान से घोषित किया कि हमे हिंन्दू होने पर गर्व है। इसी घोषणा के बाद हमारी तन्द्रा टूटने लगी। बडे सौभाग्य की बात है कि इस वर्ष उसी महानायक की डेढ सौवी वर्ष गांठ है।
संघ के प्रथमपुरूष जन्मजात क्रान्तदर्शी थे। भारत पराधीनदासता से छूटे यह प्रथम प्रयास था पर उस स्वतन्त्रता के बाद का भारत कैसा हो इसका ब्लू प्रिण्ट समग्र भारत में केवल और केवल डा. केशव बलिराम हेडगेवार नें ही तैयार किया था। वे स्वामी विवेकानंन्द के राष्ट्रियत्व जागरण से अपने अभियान की ऊर्जा ले रहे थे। या यूँ कहे कि स्वामी जी के संकल्पना के 100 तरुण डा. हेडगेवार जी ने तैयार किया और भारत की आत्मा को बचा लिया वरना भारतीय संस्कृति भी बेबीलोन, मिस्र, एजटेक, इन्का, यूफ्रेटस और यूनान आदि की सभ्यताओं जैसे बडे-बडे पुस्तकालयों में भी नही मिलती। प्रो. अर्नाल्ड टायनवी जैसा विद्वान भी भारतीय संस्कृति नहीं खोज पाता।
डा. हेडगेवार जी ने अनुभव किया कि भारतीय मानस की आत्म विस्मृति केवल राष्ट्रवाद के मन्त्र से ही टूटेगी। इसके लिये स्वामी जी का सौद्धान्तिक राजपथ तो उन्होने चुन ही लिया था पर साक्षात् दर्शन हेतु योगी अरविन्द घोष का राष्ट्रिय आह्वान उन्हे सशरीर गुरुतुल्य लगा। श्री अरविन्द घोष के संगठन “अनुशीलन समिति” से जुडकर वे सिद्धान्त और क्रिया दोनो का अभूतपूर्व प्रयोग किये। सन 1915 से 1925 तक के कालखण्ड में वे केवल और केवल राष्ट्रवाद का ही चिन्तन, मनन और प्रयोग करते रहे। योगी अरविन्द अलीपुर जेल से बाहर आने पर कहे थे कि- “ भारत जब भी जागा है तो केवल अपने लिये नहीं अपितु सनातन धर्म के लिये जागा है। जब भी यह कहा जाता है कि भारत महान है तो इसका अर्थ है कि सनातन धर्म महान है। सनातन धर्म का प्रसार ही भारत का प्रसार है। भारत धर्म है और धर्म ही भारत है।
राष्ट्रियता केवल राजनीति नहीं है अपितु यह एक विश्र्वास है, एक आस्था है, एक धर्म है। मैं इतना ही नहीं कह रहा हूँ अपितु यह भी कि सनातन धर्म ही हमारी राष्ट्रियता है। इस हिंदू राष्ट्रकी उत्पत्ति ही सनातान धर्म के साथ हुई है। सनातन धर्म के साथ ही यह राष्ट्र आंदोलित होता है और उसी के साथ बढता है। सनातन धर्म कभी नष्ट होगा तो उसके साथ ही हिन्दू राष्ट्र भी नष्ट हो जायेगा। सनातन धर्म अर्थात् हिन्दू राष्ट्र……….।”
संघ संस्थापक डा. हेडगेवार इन विचारो से इतना प्रभावित हुए कि उन्होने स्वामी विवेकानन्द के समान सगर्व घोषित किया कि
“हो ओउम्। हे भारत हिन्दू राष्ट्र आहे ”
और उपर्युक्त मन्त्र राष्ट्रिय स्वंयसेवक संघ का पथ प्रदर्शक मन्त्र बन गया। इसके उच्चारण मात्र से एक ही साथ स्वामी विवेकानन्द और योगी अरविन्द दोनो ऋषियों की आत्माएं तृप्त होती है, अनादि काल से चला आरहा सत्य सनातन धर्म परिपुष्ट होता है, अनादिकाल से चला आर हा सत्य, विज्ञान, धर्म, संस्कार सब मजबूत होते है, भारतीय जनमें आत्मविश्वास पैदा होता है, भारत माता गर्वोन्नत होती है और प्रसन्न भाव से अपने पुत्रों को लाख­लाख आशीषें देती है। यह भारत माता की स्तुति का बीज मन्त्र है। इससे सम्पुटित कर काई भी पूजन अर्चन लोक परलोक दोनो में अभ्युदय ओर निःश्रेयस का कारण होता है।
यह कोई योगायोग की बात नही है। नियति के चक्र में सब कुछ नियत है। सड्घ के द्वितीय सरसंघचालक श्री माधव सदाशिव गोलवलकर उपाख्य श्री गुरूजी स्वामी विवेकानन्द के गुरुभाई स्वामी श्री अखण्डनन्दजी के दीक्षित शिष्य थे। निश्चित ही स्वामी विवेकान्द अपने सिद्धान्तों को साकाररूप देखने हेतु श्री गुरूजी को शिष्य बनन के लिये प्रेरित किये हांेगे।
संघ की राष्ट्रभक्ति का ज्वलन्त उदाहरण पग पग पर दष्टिगोचर होत है।
शाखा की नित्य प्रार्थना की प्रत्येक पंक्ति इसकी दुन्दुभी बजा रही है। नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे से लेकर परं वैभवंनेतु मेतत्स्वराष्ट्रं समर्था भवत्वा शिषा ते मृशम् तक और अन्ततः भारत माता की जय में भी केवल राष्ट्रवाद ही तो भासित हो रहा है। कोई पंक्ति ऐसी नही है जिंसमे राष्ट्रवाद का साक्षात्कार न हो। इससे बडा राष्ट्रगीत क्या हो सकता है।
एकात्मता स्त्रोत्र, एकात्मता मन्त्र, प्रातःस्मरण, संघ की शाखओं के गीत, बौद्धिक, और शाखा की पूरी संचरना विशुद्ध राष्ट्रवादी प्रयोग है जिससे स्वामी विवेकानन्द की आकांक्षाओ के राष्ट्रिय पुरूषों की अखण्ड मालिका पैदा होती रहे। संघ ने समग्र सांस्कृतिक भारत की वन्दना के गीत गाये है जो किसी भी दृष्टिकोण से भगवान परशुराम, जगद्गुरू शड्कराचार्य और आचार्य चाणक्य के राष्ट्रिय अभियान को ही पुष्ट करते हैं। संघ के कारण सबने जाना कि भारत का परिमाप “हिमालयं समारभ्य यावदिन्दु सरोवरम्” तक है। छुआछूत, भाषा, क्षेत्र, जाति और ऊँच नीच के भाव तो संघ को समाप्त करने की जरूरत ही नहीं पडी। भारत गान की पवित्र गंगा मे स्नान करते ही उपर्युक्त समास्त विकार अनायास भाग गये। बए एक ही मन्त्र गूंज उठा कि
रत्नाकराद्यौत पदां हिमालयं किरीटिनीम्
ब्रम्हराजर्षि रत्नाद्रयां वन्दे भारत मातरम्।।
यही तो राष्ट्रर्षि वंकिम बाबू का राष्ट्रवाद है। श्री गुरूजी ने तो इससे भी आगे बढ़कर शुक्ल यजुर्वेद मे मन्त्र मे एक नव प्राण भर दिया कि
“राष्ट्राय स्वाहा। राष्ट्रायमिदं न मम।।
यही भारत का सनातन राष्ट्रवाद है जो हिन्दुत्व की जड़ है।
भाषागत समानता राष्ट्रवाद के लिये आति महत्वपूर्ण तत्व नही है। इसी से संघ देश की सारी आंचलिक भाषाओं के पिष्टपोषण की बात कहते हुए संस्कृत को केन्द्र में रखता है क्योकि संस्कृत समस्त भाषाओं की जननी है।
अमेरिका मे अंग्रजी भाषी लोग ब्रिटिश सत्ता से अलग होकर (1774 अड) में फ्रेच और स्पेनिशों के साथ मिलकर स्वतन्त्र अमेरिकन राष्ट्र गठित कर लिये।
भाषा ही राष्ट्र हेतु मुख्य तत्व होता तो स्वीटजरलॅण्ड चार देशों मे टूट गया होता। वहां चार भाषाएं जर्मन, फ्रेंच, इटेलियन और रोमन चलती है पर एक ही राष्ट्र है। बेल्जियम के फ्रेंची अपने को बेल्जियमी कहते है फ्रेंच नहीं। भाषाई दृष्टि से स्पेनिश और पोर्तगीज एकदम निकट हैं पर दो राष्ट्र है।
समानपूजा पद्धति भी राष्ट्र का आधार होती तो विश्व मे 63 मुस्लिम देश एक राष्ट्र बन जाते। संसार मे शाताधिक इसाई देश एक राष्ट्र बन जाते। पर और तो और अरब के यहूदी और मुस्लिम ही एक राष्ट्र न बन सके। ईरान­ईराक, लीबिया, मिश्र, सूडान, यमन आदि तेा इसके जीवन्त उदाहरण है।
रक्तगट भी राष्ट्रका आवश्यक तत्व न होने से स्कैन्डिनेविया और आइबेरिया भी अनेक राष्ट्रों मे विभक्त हैं।
राष्ट्र हेतु सर्वाधिक आवश्यक तत्व राष्ट्रजन के हृदय की एकता है। संघ अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा केवल इसी बात पर खर्च कर रहा है कि
“भारतवासी एक हृदय हैं”
संघ का भारत राष्ट्र वृहत्तर है। इसमे वे सब देश समाहित है जो किन्ही राजनीतिक करणों से अलग हो गये। परन्तु उनकी राष्ट्रिय पहचान तो भारत ही है।
पाकिस्तान के “जिये सिन्ध” के नेता श्री जी.एम.सईद कहते है कि -पाकिस्तान के निर्माण का अर्थ है भारत के भूगोल और इतिहास को नकारना। पाकिस्तान को अब एक संघ राज्य बनकर विशाल भारत में सम्मिलित हो जाना चाहिए। मुहाजिरों को कृष्ण तथा कबीर का अनुयायी होना चाहिए। पंजाबी मुसलामान तो नानक, वारिस शाह तथा बुल्ले शाह के वारिस हैं। मै स्वयम 50 वर्षोसे पाकिस्तानी हुँ, 500 वर्षो से मुसलमान हूं लेकिन 5000 वर्षो से सिन्धी हूँ। मुहम्मद बिन कासिम तो लुटेरा था। सिन्ध स्वातंत्र्य के बाद वहां का बन्दरगाह राजा दाहर सेन के नाम पर हो गया।
इण्डियन एक्सप्रेस 02.02.1992
यह राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ की ही सोच थी कि पण्डित श्री दीनदयाल उपाध्याय ने भारत­पाक और बंगला देश मे महासंघ बनाने की बात कही थी । बाद में प्रख्यात समाजवादी डा. राममनोहर लोहिया भी उपाध्याय जी के साथ जुड गये।
संघ के वरिष्ठतम प्रचारक श्री दत्तोपन्त ठेगडी ने तो गहन शोध मे उपरान्त यह सिद्ध कर दिया है कि राष्ट्र की और नेशन की अवधारणा अलग अलग बाते है। “राष्ट्र नेशन एक नहीं है। योगी अरविन्दने भी संयुक्त राष्ट्र संघ मे नामकरण का विरोध किया था। उन्होंने कहा था कि जबकत राष्ट्र की परिभाषा तय न हो तबतक यह नाम रखना ठिक नही होगा। सच में राष्ट्र के समग्र अर्थो में सांगोपांगरूपेण कोई देश इस धरा पर है तोवह केवल भारत है। भारत में ही राष्ट्र की परिभाषा वैज्ञानिक, सांस्कृतिक तथा दार्शनिक रूपेण तृप्त होती है। अन्य किसी देश में नही। राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ मौन तपस्वी के रूप में अहर्निश भारतवासियो में राष्ट्र तत्व भरने का कार्य कर रहा है। संघ के ही कारण राष्ट्र शब्द की गरिमा और महिमा जानने का योग बना है वरना इतना महत्वपूर्ण शब्द केवल वैदिक वाडम्य का कैदी बनकर रह जया होता।
“संघे शक्ति सर्वदा”
“भारत मातरम् विजयते तराम्”


Wednesday, March 5, 2025

भारतीय संस्कृति में नारी कल, आज और कल


डॉ. सौरभ मालवीय
‘नारी’ इस शब्द में इतनी ऊर्जा है कि इसका उच्चारण ही मन-मस्तक को झंकृत कर देता है, इसके पर्यायी शब्द स्त्री, भामिनी, कान्ता आदि है, इसका पूर्ण स्वरूप मातृत्व में विलसित होता है। नारी, मानव की ही नहीं अपितु मानवता की भी जन्मदात्री है, क्योंकि मानवता के आधार रूप में प्रतिष्ठित सम्पूर्ण गुणों की वही जननी है। जो इस ब्रह्माण्ड को संचालित करने वाला विधाता है, उसकी प्रतिनिधि है नारी। अर्थात समग्र सृष्टि ही नारी है इसके इतर कुछ भी नही है। इस सृष्टि में मनुष्य ने जब बोध पाया और उस अप्रतिम ऊर्जा के प्रति अपना आभार प्रकट करने का प्रयास किया तो वरवश मानव के मुख से निकला कि –
त्वमेव माता च पिता त्वमेव
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विधा द्रविणं त्वमेव
त्वमेव सर्वं मम देव देव॥
अर्थात हे प्रभु तुम माँ हो ............।
अक्सर यह होता है कि जब इस सांसारिक आवरण मैं फंस जाते या मानव की किसी चेष्टा से आहत हो जाते हैं तो बरबस हमें एक ही व्यक्ति की याद आती है और वह है माँ । अत्यंत दुःख की घड़ी में भी हमारे मुख से जो ध्वनी उच्चरित होती है वह सिर्फ माँ ही होती है। क्योंकि माँ की ध्वनि आत्मा से ही गुंजायमान होती है ।  और शब्द हमारे कंठ से निकलते हैं लेकिन माँ ही एक ऐसा शब्द है जो हमारी रूह से निकलता है। मातृत्वरूप में ही उस परम शक्ति को मानव ने पहली बार देखा और बाद में उसे पिता भी माना। बन्धु, मित्र आदि भी माना। इसी की अभिव्यक्ति कालिदास करते है कि-
वागार्थविव संप्रक्तौ वागर्थ प्रतिपत्तये।
जगतः पीतरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरौ ॥ (कुमार सम्भवम)
जगत के माता-पिता (पीतर) भवानी शंकर, वाणी और अर्थ के सदृश एकीभूत है उन्हें वंदन।
इसी क्रम में गोस्वामी तुलसीदास भी यही कहते  हैं –
जगत मातु पितु संभु-भवानी। (बालकाण्ड मानस)
अतएव नारी से उत्पन्न सब नारी ही होते है, शारीरिक आकार-प्रकार में भेद हो सकता है परन्तु, वस्तुतः और तत्वतः सब नारी ही होते है। सन्त ज्ञानेश्वर ने तो स्वयं को“माऊली’’ (मातृत्व,स्त्रीवत) कहा है।
कबीर ने तो स्वयं समेत सभी शिष्यों को भी स्त्री रूप में ही संबोधित किया है वे कहते है –
दुलहिनी गावहु मंगलाचार
रामचन्द्र मोरे पाहुन आये धनि धनि भाग हमार
दुलहिनी गावहु मंगलाचार । - (रमैनी )
घूँघट के पट खोल रे तुझे पीव मिलेंगे
अनहद में मत डोल रे तुझे पीव मिलेंगे । -(सबद )
सूली ऊपर सेज पिया कि केहि बिधि मिलना होय । - (रमैनी )
जीव को सन्त कबीर स्त्री मानते है और शिव (ब्रह्म) को पुरुष यह स्त्री–पुरुष का मिलना ही कल्याण है मोक्ष और सुगति है ।
भारतीय संस्कृति में तो स्त्री ही सृष्टि की समग्र अधिष्ठात्री है, पूरी सृष्टि ही स्त्री है क्योंकि इस सृष्टि में बुद्दि ,निद्रा, सुधा, छाया, शक्ति, तृष्णा, जाति, लज्जा, शान्ति, श्रद्धा, चेतना और लक्ष्मी आदि अनेक रूपों में स्त्री ही व्याप्त है। इसी पूर्णता से स्त्रियाँ भाव-प्रधान होती हैं, सच कहिये तो उनके शरीर में केवल हृदय ही होता है,बुद्दि में भी ह्रदय ही प्रभावी रहता है, तभी तो गर्भधारण से पालन पोषण तक असीम कष्ट में भी आनंद की अनुभूति करती रहती।कोई भी हिसाबी चतुर यह कार्य एक पल भी नही कर सकता। भावप्रधान नारी चित्त ही पति, पुत्र और परिजनों द्वारा वृद्दावस्था में भी अनेकविध कष्ट दिए जाने के बावजूद उनके प्रति शुभशंसा रखती है उनका बुरा नहीं करती,जबकि पुरुष तो ऐसा कभी कर ही नही सकता क्योंकि नर विवेक प्रधान है, हिसाबी है, विवेक हिसाब करता है घाटा लाभ जोड़ता है, और हृदय हिसाब नही करता। जयशंकर प्रसाद ने कामायनी में लिखा है-
यह आज समझ मैं पायी हूँ कि
दुर्बलता में नारी हूँ।
अवयन की सुन्दर कोमलता
लेकर में सबसे हारी हूँ ।।
भावप्रधान नारी का यह चित्त जिसे प्रसाद जी कहते है-
नारी जीवन का चित्र यही
क्या विकल रंग भर देती है।
स्फुट रेखा की सीमा में
आकार कला को देती है।।
परिवार व्यवस्था हमारी सामाजिक व्यवस्था का आधार स्तंभ है,इसके दो स्तम्भ है- स्त्री और पुरुष।परिवार को सुचारू रूप देने में दोनों की भूमिका अत्यंत महतवपूर्ण है,समय के साथ मानवीय विचारों में बदलाव आया है|कई पुरानी परम्पराओं,रूढ़िवादिता एवं अज्ञान का समापन हुआ।महिलाएँ अब घर से बाहर आने लगी है कदम से कदम मिलाकर सभी क्षेत्रों में अपनी धमाकेदार उपस्थिति दे रही है,अपनी इच्छा शक्ति के कारण सभी क्षेत्रों में अपना परचम लहरा रही है अंतरिक्ष हो या प्रशासनिक सेवा,शिक्षा,राजनीति,खेल,मिडिया सहित विविध विधावों में अपनी गुणवत्ता सिद्ध कर कुशलता से प्रत्येक जिम्मेदारी के पद को सँभालने लगी है, आज आवश्यकता है यह समझने की  कि नारी विकास की केन्द्र है और भविष्य भी उसी का है, स्त्री के सुव्यवस्थित एवं सुप्रतिष्ठित जीवन के अभाव में सुव्यवस्थित समाज की रचना नहीं हो सकती। अतः मानव और मानवता दोनों को बनाये रखने के लिए नारी के गौरव को समझना होगा।


Tuesday, September 24, 2024

अंत्योदय से समृद्ध होगा भारत

 

डॉ. सौरभ मालवीय 
देश की समृद्धि के लिए अंत्योदय अत्यंत आवश्यक है। अंत्योदय का अर्थ है- समाज के अंतिम व्यक्ति का उदय। दूसरे शब्दों में- समाज के सबसे निचले स्तर के लोगों का विकास करना ही अंत्योदय है। अंत्योदय के बिना देश उन्नति नहीं कर सकता, क्योंकि जब तक देश के अति निर्धन वर्ग का उत्थान नहीं होता, तब तक वह मुख्यधारा में सम्मिलित नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति में देश भी समृद्ध नहीं हो पाएगा। इसलिए अंत्योदय आवश्यक है।
 
जनसंघ के संस्थापक दीनदयाल उपाध्याय ने अंत्योदय का नारा दिया था। अंत्योदय उनका सपना था। वे कहते थे कि आर्थिक योजनाओं तथा आर्थिक प्रगति का माप समाज के ऊपर की सीढ़ी पर पहुंचे हुए व्यक्ति नहीं, बल्कि सबसे नीचे के स्तर पर विद्यमान व्यक्ति से होगा। अंत्योदय के माध्यम से केवल भारत ही नहीं, अपितु समग्र विश्व का विकास हो सकता है। इसके सुनियोजित योजना एवं उत्तरदायित्व आवश्यक है। विश्व के बहुत से विकसित राष्ट्र हालांकि किसी भी योजना के बिना ही वर्तमान आर्थिक विकास की दर प्राप्त करने में सफल रहे हैं, जिससे कुछ लोगों को यह अनुभव हो रहा है कि योजनाएं न केवल अनावश्यक हैं, अपितु निहायत अवांछनीय भी हैं। इसके बावजूद आम सहमति इस बात पर भी है कि यदि अविकसित राष्ट्र थोड़े समय में वही हासिल करना चाहते हैं, जो विकसित देशों ने लगभग एक शताब्दी में प्राप्त किया है तो विकास को अपनी प्राकृतिक गति पर नहीं छोड़ा जा सकता। विकास की प्रक्रिया शुरू करने के लिए भी एक प्रयास करना पड़ेगा और यह प्रयास नियोजित ढंग से होना चाहिए।   
 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 25 सितंबर, 2014 को पंडित दीनदयाल उपाध्याय की 98वीं जयंती के अवसर पर अंत्योदय दिवस की घोषणा की थी, तभी से यह दिवस मनाया जा रहा है। इसका उद्देश्य समाज के अंतिम व्यक्ति तक विकास का प्रकाश पहुंचाना है, ताकि वे भी प्रगति करके समाज की मुख्यधारा में सम्मिलित हो सकें। आर्थिक उन्नति के साथ-साथ यह दिवस समाज में व्याप्त असमानताओं के उन्मूलन के लिए कार्य करने की प्रोत्साहित करता है। इसके अतिरिक्त यह दिवस विभिन्न सरकारी योजनाओं एवं कार्यक्रमों का प्रचार-प्रसार को बढ़ावा देता है, जिससे निर्धनों एवं वंचित वर्गों के लोगों को उनके कल्याण के लिए संचालित की जा रही योजनाओं की जानकारी प्राप्त हो सके तथा वे इसका लाभ उठा सकें। सरकार इन वर्गों के कल्याण के लिए अनेक योजनाएं संचालित कर रही है। दीनदयाल अंत्योदय योजना के कई घटक हैं, जिन्हें अलग-अलग समय पर प्रारंभ किया गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 25 सितंबर, 2014 को दीनदयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल्य योजना भी प्रारंभ की। इसका उद्देश्य निर्धन ग्रामीण युवाओं को नौकरियों में नियमित रूप से न्यूनतम पारिश्रमिक के समान या उससे अधिक मासिक पारिश्रमिक प्रदान करना है। यह योजना ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा ग्रामीण आजीविका को बढ़ावा देने के लिए की क्रियान्वित की जा रही है। इससे पूर्व 24 सितंबर, 2013 को राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन प्रारंभ किया गया था। इसके अंतर्गत शहरी निर्धनों को आर्थिक रूप से मजबूत बनाने एवं उन्हें स्वरोजगार के लिए प्रोत्साहित करने पर ध्यान दिया जाता है। इससे पूर्व 25 सितंबर, 2004 को दीनदयाल अंत्योदय उपचार योजना प्रारंभ की गई थी। इस योजना के अंतर्गत निर्धन रोगियों को एंबुलेंस की सुविधा प्रदान की जाती है।
    
उल्लेखनीय है कि सरकार अंत्योदय अन्न योजना संचालित कर रही है। यह योजना 25 दिसंबर 2000 को तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा प्रारंभ की गई थी। इसे केंद्रीय खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति मंत्रालय द्वारा लागू किया गया था। इसका उद्देश्य सार्वजनिक वितरण परमाली द्वारा देश के सबसे निर्धन लोगों को रियायती दरों पर भोजन उपलब्ध करवाना है। इस योजना के अंतर्गत निर्धन परिवारों को 35 किलो राशन प्रदान किया जाता है। इसमें 20 किलो गेहूं और 15 किलो चावल सम्मिलित होता है। इसके अंतर्गत गेहूं तीन रुपये प्रति किलोग्राम और चावल दो रुपये प्रति किलोग्राम की दर से दिया जाता है। इसे सबसे पहले राजस्थान में लागू किया गया था। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि कच्ची नौकरियों में निर्धन परिवारों के युवाओं को प्राथमिकता दी जाएगी। इसमें वे परिवार सम्मिलित हैं, जिनकी वार्षिक आय एक लाख 80 हजार रुपये से कम है। कोरोना काल से यह राशन नि:शुल्क कर दिया गया है।
 
भारतीय जनता पार्टी की केंद्र एवं राज्य सरकारें अंत्योदय के सिद्धांत को लेकर शासन कर रही हैं। भाजपा के अनुसार एकात्म मानववाद और अंत्योदय का दर्शन पार्टी के मार्गदर्शक सिद्धांतों में से एक है। इस सिद्धांत को हम सबका साथ सबका विकास के साथ मिला हुआ देख सकते हैं जो गरीब, ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के लिए सरकार द्वारा तय की गई नीतियों में भी नजर आता है।
 
दीनदयाल जी और उनकी आर्थिक नीतियों ने हमेशा गरीबों की भलाई पर जोर देने की बात की है। उनके आर्थिक विचार में पंक्ति के अंतिम पड़ाव पर खड़ा व्यक्ति शामिल रहा है। उन्होंने कहा था कि‘आर्थिक नीति निर्धारण और प्रगति की सफलता का पैमाना यह नहीं है कि समाज के सबसे शीर्ष पर मौजूद व्यक्ति को उससे कितना फायदा मिल रहा है बल्कि यह है कि समाज पर जो लोग सबसे नीचे हैं उन्हें उन नीतियों का कितना फायदा मिला है। अंत्योदय का मतलब समाज के सबसे निचले स्तर पर मौजूद व्यक्ति का कल्याण है। उन्होंने यह भी कहा था कि यह हमारी सोच और हमारे सिद्धांत हैं कि ये गरीब और अशिक्षित लोग हमारे ईश्वर हैं, यही हमारा सामाजिक और मानवीय धर्म है।
 
उनके इसी अंत्योदय के विचार से प्रेरित होकर केन्द्र में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में मौजूद एनडीए सरकार और तमाम प्रदेशों में शासन करने वाली भाजपा सरकारें अंत्योदय के रास्ते पर बढ़ने की ओर अग्रसर हैं तथा गरीब, ग्रामीण एवं किसानों के लिए और समाज के सबसे शोषित वर्ग से आने वाले युवाओं और महिलाओं के कल्याण की ओर प्रतिबद्ध हैं। गरीब को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करते हुए औसत जीवन स्तर में बढ़ोतरी हुई है। मुद्रा, जनधन, उज्जवला, स्वच्छता मिशन, शौचालयों का निर्माण, दीनदयाल ग्राम ज्योति योजना, आवास योजना, सस्ती दवाएं और इलाज, इन सभी योजनाओं पर कार्य को आगे बढ़ा दिया गया है।
 
तकनीक के प्रयोग से कृषि में सुधार किया जा रहा है एवं किसानों की आय दुगनी करने के इरादे से सिंचाई तकनीकों के लिए विशेष व्यवस्थाएं की जा रही हैं। केंद्रीय बजट की सहायता से गांवों में भी कई निवेश किए जा रहे हैं। दीनदयाल जी के विचारों से प्रेरित बीजेपी सरकार देश के संसाधनों का उपयोग केवल देश की उन्नति के लिए करने के लिए प्रतिबद्ध है जिसके लिए यह सरकार भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने, काले धन को रोकने और जनता की कमाई की लूट रोकने के लिए कड़े कदम उठा रही है। एक भारत-श्रेष्ठ भारत का रास्ता गरीबी दूर करके ही मिलेगा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कुशल नेतृत्व में अंत्योदय व सेवा के संकल्प को पूर्ण कर विकसित भारत के निर्माण के लिए भाजपा प्रतिबद्ध है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कहना है कि मां भारती की सेवा में जीवनपर्यंत समर्पित रहे अंत्योदय के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का व्यक्तित्व और कृतित्व देशवासियों के लिए हमेशा प्रेरणास्रोत बना रहेगा।
 
वास्तव में दीनदयाल अंत्योदय योजना ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए स्वरोजगार के अवसरों में वृद्धि करती है। इसके अंतर्गत कृषि और गैर-कृषि दोनों प्रकार की आजीविकाओं में सहायता मिलती है। इससे महिलाओं को आर्थिक सशक्तिकरण के लिए सहायता मिलती है। महिला स्वयं सहायता समूहों को उनकी आजीविका बढ़ाने में सहायता मिलती है। इसके अंतर्गत महिलाओं को बैंकिंग संवाददाता सखियों के रूप में प्रशिक्षण दिया जाता है।
(लेखक – लखनऊ विश्वविधालय में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)

Saturday, February 10, 2018

भावी भारत, युवा और पंडित दीनदयाल उपध्याय


डॉ. सौरभ मालवीय
1947 में जब देश स्वतंत्र हुआ तो देश के सामने उसके स्वरूप की महत्वपूर्ण चुनौती थी कि अंग्रेजों के जाने बाद देश का स्वरूप क्या होगा। कॉंग्रेसी नेता सहित उस समय के अधिकांश समकालीन विद्वानों का यही मानना था कि अंग्र्रेजों के जाने के बाद देश अपना स्वरूप स्वतः तय कर लेगा, अर्थात तत्कालीन नेताओं जेहन में देश के स्वरूप से अधिक चिंता अंग्र्रेजों के जाने को लेकर था, राष्ट्र के स्वरूप को लेकर गॉंधी जी के बाद अगर किसी ने सर्वाधिक चिंता या विचार प्रकट किये, उनमें श्यामाप्रसाद मखर्जी के अलावा पं. दीनदयाल उपध्याय का नाम उन चुनिन्दे चिंतकों में शामिल था, जो आजादी मिलने के साथ ही देश का स्वरूप भारतीय परिवेश, परिस्थिति और सांस्कृतिक, आर्थिक मान्यता के अनुरूप करना चाहते थे। वे इस कार्य में पश्चिम के दर्शन और विचार को प्रमुख मानने के वजाए सहयोगी भूमिका तक ही सीमित करना चाहते थे, जबकि तत्कालीन प्रमुख नेता और प्रथम प्रधानमंत्री पं.नेहरू पश्चिमी खाके में ही राष्ट्र का ताना-बाना बुनना चहते थे।
अगर हम गॉंधीजी और दीनदयाल जी के विचारों के निर्मेष भाव से विवेचना करें तो दोनों नेता राष्ट्र के अंतिम व्यक्ति के अभ्युदय और उत्थान में ही उसका वास्तविक विकास मानते थे। हालांकि दोनों के दृष्टिकोंण में या इसके लिए अपनाये जाने वाले साधनों और दर्शन तत्त्वों में मूलभूत विभेद भी था। दीनदयाल जी इस राष्ट्र नव-जागरण में युवाओं की भूमिका को भी महत्त्वपूर्ण मानते थे। उनका मानना था कि किसी राष्ट्र का स्वरूप उसके युवा ही तय करते हैं। किसी राष्ट्र को जानना हो तो सर्वप्रथम राष्ट्र के युवा को जानना चाहिए। पथभ्रष्ट और विचलित युवाओं का साम्राज्य खड़ा करके कभी कोई राष्ट्र अपना चिरकालिक सांस्कृतिक स्वरूप ग्रहण नहीं कर सकता। दीनदयाल जी की दृष्टि में युवा राष्ट्र की थाती है, एवं युवा-युवा के बीच भेद नहीं करता वह समग्र युवाओं को राष्ट्र की थाती मानता है। राष्ट्र जीवंत और प्राणवान सांस्कृतिक अवधारणा है। पण्डित जी राष्ट्र को जल, जंगल, जमीन का सिर्फ समन्वय नहीं मानते थे।
राष्ट्र और युवा के सम्बन्ध में दीनदयाल जी की मान्यता थी कि राष्ट्र का वास्तविक विकास सिर्फ उसके द्वारा ओद्योगिक जाना, और बड़े पैमाने पर किया गया पूॅंजी निवेश मात्र नहीं है। उनका स्पष्ट मानना था कि किसी राष्ट्र का सम्पूर्ण और समग्र विकास तब तक नहीं जब तक कि राष्ट्र का युवा सुशिक्षित और सुसंस्कृत नहीं होगा। सुसंस्कृत से पण्डित जी का आशय सिर्फ धार्मिक अनुष्ठान तक नहीं था, बल्कि वह ऐसी युवा शक्ति निर्माण की बात करते थे जो राष्ट्र की मिट्टी और सांस्कृतिक विरासत से जुड़ाव महसूस करता हो, उनके अनुसार यह तब तक सम्भव नहीं था, जब तक युवा, देश की संस्कृति और उसकी बहुलतावादी सोच मंे राष्ट्र की समग्रता का दर्शन न करता हो। अगर इसे हम भारत जैसे बहुलवादी राष्ट्र के संदर्भ में देखें तो ज्ञात होगा कि उसकी सांस्कृतिक बहुलता में भी एक समग्र संस्कृति का बोध होता है। जो उसे अनेकता में भी एकता के सूत्र में पिरोये रखने की ताकत रखता है। यही वह धागा है, जिसने सहस्त्रों विदेशी आक्रांताओं के आक्रमण के बाद भी राष्ट्र को कभी विखंडित नहीं होने दिया, और एक सूत्र में पिरोए रखा।
पश्चिमी दार्शनिक मनुष्य के सिर्फ शारीरिक और मानसिक विकास की बात करते हैं। वहीं अधिकांश भारतीय दार्शनिक व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक विकास के साथ ही धार्मिक विकास पर भी जोर देते हैं। पण्डित दीनदयाल उपाध्याय एकात्म मानव दर्शन की बाद करते हैं, तो उनका भी आशय यही होता है कि पूर्ण मानव बनना तभी सम्भव है, जब मनुष्य का शारीरिक और बौद्धिक विकास के साथ-साथ उसका अध्यात्मिक विकास भी हो। इस एकात्म मानव दर्शन में व्यष्टि से समष्टि तक सब एक ही सूत्र में गुंथित है युवा व्यक्तित्व का विकास होगा तो समाज विकसित होगा, समाज विकसित होगा तो राष्ट्र तो राष्ट्र की उन्नति होगी, और राष्ट्र की उन्नति होगी तो विश्व का कल्याण होगा। राष्ट्र के सम्बन्ध में दीनदयाल जी का विचार था कि जब एक मानव समुदाय के समक्ष, एक वृत्त-विचार आदर्श रहता है और वह समुदाय किसी भूमि विशेष को मातृ भाव से देखता है तो वह राष्ट्र कहलाता है, अर्थात पण्डित जी के अनुसार देश के युवा राष्ट्र के सच्चे सपूत तभी कहलायेंगे जब वे भारत मॉं को मातृ जमीन का टुकड़ा न समझें, बल्कि उसे सांस्कृतिक मॉं के रूप में स्वीकार करें। उनका विचार था कि राष्ट्र की भी एक आत्मा होती है जिसे चिती रूप में जाना जाता है।
प्रसिद्ध विद्वान मैक्डूगल के अनुसार किसी भी समूह की एक मूल प्रवृत्ति होती है, वैसे ही चिती किसी समाज की मूल प्रवृत्ति है जो जन्मजात है, और उसके होने का कारण ऐतिहासिक नहीं है। इसी क्रम में वर्तमान परिप्रेक्ष्य के भौतिकवादी स्वरूप को देखते हुए एवं युवाओंे के मौजूदा स्थिति और स्वभाव के बारे में चिंता प्रकट करते हुए एक बार अपने उद्बोधन में पण्डित दीनदयाल जी कहा था कि किसी भी राष्ट्र का युवा का इस कदर भौतिकवादी होना और राष्ट्र राज्य के प्रति उदासीन होना अत्यन्त घातक है। दीनदयाल जी का युवाओं के लिए चिंतन था कि भारत जैसा विशाल एवं सर्वसम्पन्न राष्ट्र जिसने अपनी ऐतिहासिक तथा सांस्कृति पृष्ठभूमि के आधार पर सम्पूर्ण विश्व को अपने ज्ञान पुंज के आलोकित कर मानवता का पाठ पढ़ाया तथा विश्व में जगत गुरू के पद पर प्रतिष्ठापित हुआ। ऐसे विशाल राष्ट्र के पराधीनता के कारणों पर दीनदयाल जी का विचार और स्वाधीनता पश्चात समर्थ सशक्त भारत बनाने में युवाओं के योगदान को महत्त्वपूर्ण माना है।
पं. दीनदयाल उपध्याय के मन में जो मानवता के प्रति विचार थेए उसे गति 1920 में प्रकाशित पण्डित बद्रीशाह कुलधारिया की पुस्तक ‘दैशिक शास्त्रश् से मिली। दैशिक शास्त्र की भावभूमि तो दीनदयाल जी के मन में पहले से ही थी और एक नया विचार उनके मन में उदित हुआ कि सम्पूर्ण विश्व का प्रतिनिधित्व युवा ही करते हैं द्य अतः युवाओं के विचारों का अध्ययन करके मानवता के लिए एक शास्वत जीवन प्रणाली दी जाएए जो कि युवाओं के लिए प्रेरक तो ही साथ ही साथ युवाओं के माध्यम से भारत एक वैश्विक शक्ति बन सके।

मानवता के कल्याण का विचार है एकात्म मानवदर्शन

डॉ. सौरभ मालवीय
मनुष्य विचारों का पुंज होता है और सर्व प्रथम मनुष्य के चित्त में विचार ही  उभरता है। वही विचार घनीभूत होकर संस्कार बनते है और मनुष्य के कर्म रूप में परिणीति हो कर व्यष्टि और समष्टि सबके हित का कारक बनते है।  यदि विचारों की परिपक्वता अपूर्ण रह गई तो परिणाम विपरीत होने लगतेहै।  भारतीय महर्षियों ने विचारों की अनन्त उचाई छूने का प्रयास किया और इस विचार यात्रा में पाया गया कि सबसे उत्तम धर्म वही होगा जिसमें मनुष्यों के खिलने की समग्र संभावनाओं के द्वार खुले हो जिसे जो होना है वह हो और दूसरे के होने में बाधक न हो वल्कि साधक हो।  इस प्रकार के सः अस्तित्व की विचार सारणी इस धरा-धाम पर सबकी संभावनाओं के द्वार खोलती है। और इस प्रक्रिया में टकराहट की कल्पना भी नही सः अस्तित्व सहज धर्म बन जाता है और सूत्रवद्धता सबके मूल में स्थापित हो जाती है।
ऋषियों की यह चिंतन शैली भारत के जन मन में घुल हुआ है,भारत की मानसिकता इसी प्रकार के समग्र सोच पर विकसित है।  परोपकार ,अहिंसा ,करुणा ,क्षमा,दया ,आर्जव ,मृदुता,प्रतिभा इत्यादि अनेको प्रकार के फल इसी चिंतन वृक्ष पर सदियों से सदाबहार रूप में लदे रहते है। लम्बे गुलामी के कारण हमारी चिंतन धारा में भी गतिरोध पैदा हुआ और उस जीवन वृक्ष से नवीन सपने ढहता गया।  इस दौरान एक अपूर्ण विचार भी हम पर थोपने का प्रयास हुआ. सामान्यतः ऐसा होता ही है बिजेता चाहे जितना भी पतित विचार या जीवन शैली का हो अपनी उन चिंजो को विजितों पर लादता ही है उसी में कुछ चाटुकार वृति के लोग विजेताओं के इस नए धर्म का गला फाडू स्वागत करने लगते है पश्चिम के चिंतको में एक अत्यंत ही प्रमुख नाम रेन्डेकार्ट ने यहाँ तक घोषणा कर दिया कि ईश्वर मर गया है विश्व में ईश्वर नाम को कोई चीज ही नहीं है।  फेडरिकमित्से,कारलायल आदि विचारकों ने खण्डसह सोच को प्राथमिकता दी उनके कारण यह चिंतन ही पैदा नहीं हो पाया कि प्रकृति में कही एक सूत्रता भी है इस विचार ने अपनी पूरी ऊर्जा यह बताने में लगा दिया की व्यक्ति और समाज दो है। साधन और साध्य दो है।  सृष्टि और परमेष्ठी दो है।  देश और राष्ट्र दो है।  राष्ट्र और विश्व दो है इत्यादि।  इन द्वंदों के बीच वो यह भी कहते गए कि इनके लक्ष्य पूर्ति में विरोधाभाष भी है।  इस तरह के अपूर्ण चिंतन शैली का भयंकर परिणाम यह हुआ की हीगेल नाम के विचारक ने यह विचार दिया की आगे बढे हुए लोग अनैतिक हो जाते है जो पीछे वालों की नैक्तिक्ता पर पलते है इसी प्रकार की अपूर्ण शैली पर कार्ल मार्क्स ने बुजुर्वा और सर्वहारा शब्द गढ़े। उन्मादी मानसिकता के इस सोच ने विश्व में राष्ट्र ,परिवार ,ग़ाँव ,देश इत्यादि संस्थाओ और भावनात्मक सम्वन्धों को मिटा कर एक नई रेखा खीचंनी शुरू की लगभग ६० वर्षो के भीतर अधिक से अधिक धरती को अपनी छतरी के नीचें ढका लेकिन क्या परिणाम हुआ ये सारे के सारे देश टूट गए वहा का समाज जीवन नष्ट भ्रस्ट हो गया वे लोग अब पेरोस्ट्राइका और ग्लासमोस्ट की छाँव खोज रहे है।

एक दूसरी विचार शैली ने पूंजीवाद का एक ऐसा नँगा रूप खड़ा कर दिया की वहा हर व्यक्ति एक दूसरे को ग्राहक समझने लगा हर आदमी अपने मॉल  बढ़िया बता कर हर दूसरे को बेचा रहा है भले ही उसकी कोई सार्थकता न हो।  इस भयंकर परिस्थिति में यह सोचने का विषय है कि मनुष्य केवल व्यापारिक सम्बन्धो के कारण जी रह है या मनुष्य का बल पूंजी है ? क्या मनुष्य केवल रोटी है ?  जब इसकी जड़ो की ओर हम जाते है तो दिखाई देता है कि यह ओरिजिन ऑफ़ स्पेसिज तथा स्पेंसर वे तीन जीवन दिखाई देते है जिसमे कहा गया है कि सर्वाइकल ऑफ फिटेस्ट ,एक्सपोलाइटेशन ऑफ़ नेचर और स्ट्रिगल फार एजिस्टेंस ही मूल है यह बितण्डावाद इतना गहरा हो गया है की पूरा विश्व ही त्राहिमाम कर रहा है।  युग पुरुष महामनीषी पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने सन १९६२ में श्री बद्रीशाह कुलधारिया की एक पुस्तक दैशिकशास्त्र पढ़ा पंडित जी ने दैशिकशास्त्र के जीवन मूल्यों के गुण सूत्र तो लाखो साल पुरानी परम्परा से चली आरहे श्री बद्रीशाह के अमृत वर्षा ने जीवन मूल्यों को फलने फूलने का अवसर दिया उसी शुभअवसर का अमृत फल एकात्म मानव दर्शन है।  जिसमे मनुष्य के परम स्वातंत्रय की घोषण है इस महामंत्र को पंडित जी ने सन १९६४ में मुंबई के भारतीय जनसंघ के अधिवेशन में प्रस्तुत किया था।  इस एकात्म मानव दर्शन में व्यष्टि से समष्टि तक सब एक ही सूत्र में गुंथित है व्यक्ति का विकास हो तो समाज विकसित होगा समाज विकसित होगा तो राष्ट्र की उन्नति होगी राष्ट्र के उन्नति से विश्व का कल्याण होगा।  इस सूत्र को पंडित दीनदयाल जी ने श्रीमदभागवत से ग्रहण किया था जिसकी मूल धारणा स्ट्रिगल फार एजिस्टेंस नहीं वल्कि अस्तित्व के लिए सहयोग है।  उपनिषदों से किये हुए अमृत ने पंडित जी ने कहा कि जीवन उपभोग नहीं वल्कि तेन भुञ्जितः है सम्पूर्ण विश्व सुखी होगा।  सर्वाइकल ऑफ़ फिटेस्ट यह जीवन मंत्र नहीं हो सकता अपितु सबका सहयोग और सबका विकास जीवन दृष्टि है। ,एक्सपोलाइटेशन ऑफ़ नेचर यह पूरी तरह से मानव जाती को डूबा देगा।  जब की एकात्म मानव दर्शन के प्रणेता दीनदयाल जी कहते है प्रकृति के सहयोग से अपना अस्तित्व बचाये रख सकते है प्रकृति गाय है गाय हमारी माता है हम उस माँ का दूध पिएंगे तो हम भी सुखी और स्वास्थ्य रहेंगे और प्रकृति माँ भी सुखी रहेंगी लेकिन यदि गाय का खून पिएंगे तो गाय भी मर जाएगी और हम भी मर जायेंगे।  यह उच्चतम मूल्य पूरी दृष्टि से हमें एकात्म हो जाने की प्रेरणा देती है यही एकात्म मानव दर्शन है जो इस धरती को एक नई दिशा देगा और सबका कल्याण होगा।

Saturday, July 29, 2017

वंदे मातरम का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद होगा


डॉ. सौरभ मालवीय
राष्ट्र गीत वंदे मातरम एक बार भी चर्चा में है. इस बार मद्रास उच्च न्यायालय की वजह से इसके गायन का मुद्दा गरमाया है. मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायधीश एमवी मुरलीधरन ने आदेश दिया है कि राष्ट्रगीत वंदे-मातरम को हर सरकारी/ग़ैर-सरकारी कार्यालयों/संस्थानों/उद्योगों में हर महीने कम से कम एक बार गाना होगा. यह गीत मूल रूप से बांग्ला और संस्कृत भाषा में है, इसलिए इसे तमिल और अंग्रेज़ी में अनुवाद करने के भी आदेश दिए गए हैं. उल्लेखनीय है कि एक ओर मुस्लिम समुदाय से ही वंदे मातरम के विरोध में स्वर उठ रहे हैं, वहीं दूसरी ओर एक मुस्लिम लड़की ने ही वंदे मातरम का पंजाबी में अनुवाद कर सराहनीय कार्य किया है.वंदे मातरम का पंजाबी अनुवाद करने वाली फ़िरदौस ख़ान शाइरा, लेखिका और पत्रकार हैं. अरबिंदो घोष ने इस गीत का अंग्रेज़ी में और आरिफ़ मोहम्मद ख़ान ने उर्दू में अनुवाद किया. उर्दू में ’वंदे मातरम’ का अर्थ है ’मां तुझे सलाम’. ऐसे में किसी को भी अपनी मां को सलाम करने में आपत्ति नहीं होनी चाहिए. आशा है कि आगे भी देश-विदेश की अन्य भाषाओं में इसका अनुवाद होगा.
उल्लेखनीय यह भी है कि जिस मामले में मद्रास उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया गया है, उसमें वंदे मातरम को गाने या न गाने से संबंधित किसी तरह की अपील नहीं की गई थी. यह गीत शिक्षा संस्थाओं में अनिवार्य रूप से गाया जाए या नहीं, इस बारे में सर्वोच्च न्यायालय में आगामी 25 अगस्त को सुनवाई होनी है.
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी अर्थात जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है. फिर अपनी मातृभूमि से प्रेम क्यों नहीं ? अपनी मातृभूमि की अस्मिता से संबद्ध प्रतीक चिन्हों से घृणा क्यों? प्रश्न अनेक हैं, परंतु उत्तर कोई नहीं. प्रश्न है राष्ट्रगीत वंदे मातरम का. क्यों कुछ लोग इसका इतना विरोध करते हैं कि वे यह भी भूल जाते हैं कि वे जिस भूमि पर रहते हैं, जिस राष्ट्र में निवास करते हैं, यह उसी राष्ट्र का गीत है, उस राष्ट्र की महिमा का गीत है?
वंदे मातरम को लेकर प्रारंभ से ही विवाद होते रहे हैं, परंतु इसकी लोकप्रियता में दिन-प्रतिदिन वृद्धि होती चली गई.  2003 में बीबीसी वर्ल्ड सर्विस द्वारा आयोजित एक अंतर्राष्ट्रीय सर्वेक्षण के अनुसार वंदे मातरम विश्व का दूसरा सर्वाधिक लोकप्रिय गीत है. इस सर्वेक्षण विश्व के लगभग सात हज़ार गीतों को चुना गया था. बीबीसी के अनुसार 155 देशों और द्वीप के लोगों ने इसमें मतदान किया था.  उल्लेखनीय है कि विगत दिनों कर्नाटक विधानसभा के इतिहास में पहली बार शीतकालीन सत्र की कार्यवाही राष्ट्रगीत वंदे मातरम के साथ शुरू हुई. अधिकारियों के अनुसार कई विधानसभा सदस्यों के सुझावों के बाद यह निर्णय लिया गया था. विधानसभा अध्यक्ष कागोदू थिमप्पा ने कहा था कि लोकसभा और राज्यसभा में वंदे मातरम गाया जाता है और सदस्य बसवराज रायारेड्डी ने इस मुद्दे पर एक प्रस्ताव दिया था, जिसे आम-सहमति से स्वीकार कर लिया गया.
वंदे मातरम भारत का राष्ट्रीय गीत है. वंदे मातरम बहुत लंबी रचना है, जिसमें मां दुर्गा की शक्ति की महिमा का वर्णन किया गया है. भारत में पहले अंतरे के साथ इसे सरकारी गीत के रूप में मान्यता मिली है. इसे राष्ट्रीय गीत का दर्जा कर इसकी धुन और गीत की अवधि तक संविधान सभा द्वारा तय की गई है, जो 52 सेकेंड है. उल्लेखनीय है कि 1870 के दौरान ब्रिटिश शासन ने 'गॉड सेव द क्वीन' गीत गाया जाना अनिवार्य कर दिया था. बंकिमचंद्र चटर्जी को इससे बहुत दुख पहुंचा. उस समय वह एक सरकारी अधिकारी थे. उन्होंने इसके विकल्प के तौर पर 7 नवंबर, 1876 को बंगाल के कांतल पाडा नामक गांव में वंदे मातरम की रचना की. गीत के प्रथम दो पद संस्कृत में तथा शेष पद बांग्ला में हैं. राष्ट्रकवि रबींद्रनाथ ठाकुर ने इस गीत को स्वरबद्ध किया और पहली बार 1896 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में यह गीत गाया गया. 1880 के दशक के मध्य में गीत को नया आयाम मिलना शुरू हो गया. वास्तव में बंकिमचंद्र ने 1881 में अपने उपन्यास 'आनंदमठ' में इस गीत को सम्मिलित कर लिया. उसके बाद कहानी की मांग को देखते हुए उन्होंने इस गीत को और लंबा किया, अर्थात बाद में जोड़े गए भाग में ही दशप्रहरणधारिणी, कमला और वाणी के उद्धरण दिए गए हैं. बाद में इस गीत को लेकर विवाद पैदा हो गया.
वंदे मातरम स्वतंत्रता संग्राम में लोगों के लिए प्ररेणा का स्रोत था. इसके बावजूद इसे राष्ट्रगान के रूप में नहीं चुना गया. वंदे मातरम के स्थान पर वर्ष 1911 में इंग्लैंड से भारत आए जॊर्ज पंचम के सम्मान में रबींद्रनाथ ठाकुर द्वारा लिखे और गाये गए गीत जन गण मन को वरीयता दी गई. इसका सबसे बड़ा कारण यही था कि कुछ मुसलमानों को वंदे मातरम गाने पर आपत्ति थी. उनका कहना था कि वंदे मातरम में मूर्ति पूजा का उल्लेख है, इसलिए इसे गाना उनके धर्म के विरुद्ध है. इसके अतिरिक्त यह गीत जिस आनंद मठ से लिया गया है, वह मुसलमानों के विरुद्ध लिखा गया है. इसमें मुसलमानों को विदेशी और देशद्रोही बताया गया है.  1923 में कांग्रेस अधिवेशन में वंदे मातरम के विरोध में स्वर उठे. कुछ मुसलमानों की आपत्तियों को ध्यान में रखते हुए कांग्रेस ने इस पर विचार-विमर्श किया. पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में समिति गठित की गई है, जिसमें मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, सुभाष चंद्र बोस और आचार्य नरेन्द्र देव भी शामिल थे. समिति का मानना था कि इस गीत के प्रथम दो पदों में मातृभूमि की प्रशंसा की गई है, जबकि बाद के पदों में हिन्दू देवी-देवताओं का उल्लेख किया गया है. समिति ने 28 अक्टूबर, 1937 को कलकत्ता अधिवेशन में पेश अपनी रिपोर्ट में कहा कि इस गीत के प्रारंभिक दो पदों को ही राष्ट्र-गीत के रूप में प्रयुक्त किया जाएगा. इस समिति का मार्गदर्शन रबींद्रनाथ ठाकुर ने किया था. मोहम्मद अल्लामा इक़बाल के क़ौमी तराने ’सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ के साथ बंकिमचंद्र चटर्जी द्वारा रचित प्रारंभिक दो पदों का गीत वंदे मातरम राष्ट्रगीत स्वीकृत हुआ. 14 अगस्त, 1947 की रात्रि में संविधान सभा की पहली बैठक का प्रारंभ वंदे मातरम के साथ हुआ. फिर 15 अगस्त, 1947 को प्रातः 6:30 बजे आकाशवाणी से पंडित ओंकारनाथ ठाकुर का राग-देश में निबद्ध वंदे मातरम के गायन का सजीव प्रसारण हुआ था. डॊ. राजेंद्र प्रसाद ने संविधान सभा में 24 जनवरी, 1950 को  वंदे मातरम को राष्ट्रगीत के रूप में अपनाने संबंधी वक्तव्य पढ़ा, जिसे स्वीकार कर लिया गया.  वंदे मातरम को राष्ट्रगान के समकक्ष मान्यता मिल जाने पर अनेक महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय अवसरों पर यह  गीत गाया जाता है. आज भी आकाशवाणी के सभी केंद्रों का प्रसारण वंदे मातरम से ही होता है. वर्ष 1882 में प्रकाशित इस गीत को सर्वप्रथम 7 सितंबर, 1905 के कांग्रेस अधिवेशन में राष्ट्रगीत का दर्जा दिया गया था. इसलिए वर्ष 2005 में इसके सौ वर्ष पूरे होने पर साल भर समारोह का आयोजन किया गया. 7 सितंबर, 2006 को इस समारोह के समापन के अवसर पर मानव संसाधन मंत्रालय ने इस गीत को स्कूलों में गाये जाने पर विशेष बल दिया था.  इसके बाद देशभर में वंदे मातरम का विरोध प्रारंभ हो गया. परिणामस्वरूप तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह को संसद में यह वक्तव्य देना पड़ा कि वंदे मातरम गाना अनिवार्य नहीं है. यह व्यक्ति की स्वेच्छा पर निर्भर करता है कि वह वंदे मातरम गाये अथवा न गाये. इस तरह कुछ दिन के लिए यह मामला थमा अवश्य, परंतु वंदे मातरम के गायन को लेकर उठा विवाद अब तक समाप्त नहीं हुआ है. जब भी वंदे मातरम के गायन की बात आती है, तभी इसके विरोध में स्वर सुनाई देने लगते हैं. इस गीत के पहले दो पदों में कोई भी मुस्लिम विरोधी बात नहीं है और न ही किसी देवी या दुर्गा की आराधना है. इसके बाद भी कुछ मुसलमानों का कहना है कि इस गीत में दुर्गा की वंदना की गई है, जबकि इस्लाम में किसी व्यक्ति या वस्तु की पूजा करने की मनाही है. इसके अतिरिक्त यह गीत ऐसे उपन्यास से लिया गया है, जो मुस्लिम विरोधी है. गीत के पहले दो पदों में मातृभूमि की सुंदरता का वर्णन किया गया है. इसके बाद के दो पदों में मां दुर्गा की अराधना है, लेकिन इसे कोई महत्व नहीं दिया गया है. ऐसा भी नहीं है कि भारत के सभी मुसलमानों को वंदे मातरम के गायन पर आपत्ति है या सब हिन्दू इसे गाने पर विशेष बल देते हैं. कुछ वर्ष पूर्व विख्यात संगीतकार एआर रहमान ने वंदे मातरम को लेकर एक संगीत एलबम तैयार किया था, जो बहुत लोकप्रिय हुआ. उल्लेखनीय बात यह भी है कि ईसाई समुदाय के लोग भी मूर्ति-पूजा नहीं करते, इसके बावजूद उन्होंने कभी वंदे मातरम के गायन का विरोध नहीं किया.  

Saturday, May 20, 2017

आखिर राष्ट्रवाद से भय क्यों





 पत्रकारिता के राष्ट्रवादी स्वरूप के इतने महत्वपूर्ण योगदान के बाद भी, दुर्भाग्यवश स्वाधीनता प्राप्ति के बाद पत्रकारिता जगत में राष्ट्रवाद की उपेक्षा होने लगी | आज स्थिति यह है कि पत्रकारिता के आधुनिक स्वरूप में राष्ट्रवाद को संकुचित विचार माना जाता है। इसलिए राष्ट्रवादी विचारों और मुद्दों पर की जाने वाली पत्रकारिता को मुख्यधरा की पत्रकारिता में शामिल नही किया जाता, परन्तु यदि हम राष्ट्रवाद की परिभाषा और व्यख्या पर नजर डालें तो यह स्थापित सत्य दीखता है कि पत्रकारिता का राष्ट्रवाद से सीधा सम्बन्ध है सामाजिक मान्यता है कि मीडिया संस्कृति का वाहक भी है, दर्पण भी है और निर्माता भी अतएव पत्रकारिता का मौलिक कार्य समाज की विकास के प्रक्रियाओं को मजबूत करना है जिसके लिए उसे निर्भीक ,सत्यवादी और सुचितापूर्ण अनुशासन की भूमिका मे अपने को रखना है।
भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली में वर्तमान परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रीय पत्रकारिता पर मीडिया स्कैन द्वारा आयोजित सेमिनार में।

Wednesday, April 26, 2017

राष्ट्र सर्वोपरि

डॉ. सौरभ मालवीय
भारत यह एक ऐसा अद्भुत शब्द है जिसका उच्चारण ही मन को झंकृत कर देता है। जिस शब्द की कल्पना से ही संगीत निकलने लगे वह भारत है। ‘भारत’ में ‘भा’ का अर्थ होता है उजाला, सत्य, प्रकाश, आभा, ज्ञान, मोक्ष, परिपूर्ण, पोषण, जीवन आनन्द आदि आदि...। कहां तक कहें यहां तो सहस्र नाम की परम्परा ही है। विष्णु सहस्र नाम, शिव सहस्र नाम श्रीराम सहस्र नाम, गोपाल सहस्र नाम...। तो भारत के अनन्त नाम हैं अनन्त अर्थ हैं और यह संस्कृत का शब्द है संस्कृत इतनी तरल भाषा ;सपुनपपिकि संदहनंहद्ध है कि इसके अर्थ की अनन्तता सहज ही हो जाती है। भारत में ‘रत’ का अर्थ है लीन तल्लीन, लवलीन विलीन आदि। भारत का अर्थ हुआ ज्ञान में तल्लीन, भरणपोषण करने वाला, परम प्रकाशक अतएव इस धरा पर जहां भी ज्ञान की सत्य की साधना हो वह भारत भूमि है। प्रख्यात दार्शनिक ओशो की रचना ‘भारत एक सनातन यात्रा’ की प्रस्तावना में विख्यात साहित्यकर्तृ श्रीमती अमृता प्रीतम कहती हैं- ‘‘भारत एक भाव दशा है और इस जगत में जहां भी ज्ञान के अनन्त ऊंचाइयों को छूने का परम्परागत प्रयास चलता है वह भारत है।’’ इन विशिष्टताओं के बिना भारत अधूरा है। भारतीय संस्कृति के महानायक श्रीराम इस पावन भारत को माता कहते हैं वे इसे स्वर्ग से भी महनीय बताते हैं।
‘‘अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपिगरीयसी।।’’
(श्री बालमीकि रामायण, लंका काण्ड)

हे लक्ष्मण यद्यपि यह लंका सुवर्ण की है फिर भी मुझे रूचिकर नहीं लग रही है क्योंकि माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी महान् है।
ऋग्वेद के ऋषि तन्मय भाव से भारत की वन्दना में अपनी ऋचाओं को चढ़ाकर अपने को निष्क्रय कर रहे हैं कि-
यस्य इमे हिमवन्तो महित्वा यस्य समुद्रंरसया सह आहुः।
यस्येंमे प्रदिशो यस्य तस्मै देवा हविषा विधेम।।  (ऋग्वेद)

महिमावान हिमालय जिसका गुण गा रहा है। नदियों समेत समुद्र जिसके यशोगान में निरत है, बाहु सदृश दिशाएं जिसकी वन्दना कर रही हैं उस परम राष्ट्र देव को हम हविष्य दें।
श्रीमद् भागवत् में भगवान् वेदव्यास जी कहते है कि-
अहो अमीषां किमकारिशोभनं
प्रसन्न एषां स्विदुत स्वयं हरिः।
यैर्जन्म लब्धं नृषु भारताजिरे
मुकुन्द सेवौपयिकं स्पृहा हि नः।।
(श्रीमद् भागवत् 3.19.21)
देवतागण आपस में बात करते हुए कह रहे हैं कि-
अहो वे लोग ऐसा कौन सा पुण्य किये हैं कि उनका जन्म भगवत्सेवार्थ पवित्र भारतवर्ष के आंगन में हुआ है। इन लोगों पर श्री हरि स्वयं प्रसन्न हैं। इस सौभाग्य पर तो हम भी तरसते हैं।
पुराण तो भारत की वन्दना से आपूरित हैं-
गायन्ति देवाः किल गीतकानि
धन्यास्तुते भारत भूमि भागे।
स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते
भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात्।।
(श्री विष्णु पुराण 2.3.24)

देवतागण भी अहर्निश यही गाते रहते हैं कि वे लोग धन्य हैं जो भारतवर्ष में जन्मे है क्योंकि यह भूमि मोक्ष भूमि है।
भारत शब्द का जो अर्थ होता है वही अर्थ ‘काशी’ शब्द का भी होता है।
काश्यां काशते काशी
काशी सर्वप्रकाशिका।
और काशी में मरना मोक्षकारी माना जाता है।
काश्यां मरणान्मुक्तिः
(काशी में मरना मोक्षकर है)

परमपूज्य गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि-
मुक्ति जन्म महि जानि ज्ञान खानि अघ हानिकर।
जहं बस सम्भु भवानि सो कासी सेइय कस न।।
(श्रीरामचरित मानस उत्तर काण्ड)

‘‘यह पवित्र भूमि मोक्ष भू है ज्ञान की खान है, पापनाशी है, यहां भगवान शिव और मां पार्वती सदा विराजते रहते हैं। इस काशी का सेवन क्यों नहीं किया जाय।’’
राष्ट्रकवि श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी ने इसी भारत के भावभूमि की वन्दना में लिखा है कि-
मानचित्र में जो मिलता है नहीं देश भारत है।
भूपर नहीं मनों में ही बस कहीं शेष भारत है।।
भारत एक स्वप्नभू को ऊपर ले जाने वाला।
भारत एक विचार स्वर्ग को भू पर लाने वाला।।
भारत एक भाव जिसको पाकर मनुष्य जगता है,
भारत एक जलज जिस पर जल का न दाग लगता है।।
भारत है संज्ञा विराग के उज्जवल आत्म उदय की,
भारत है आभा मनुष्य की सबसे बड़ी विजय की।
भारत है भावना दाह जगजीवन का हरने की,
भारत है कल्पना मनुज को राग मुक्त करने की।।
जहां कहीं एकता अखण्डित जहां प्रेम का स्वर है,
देश-देश में खड़ा वहां भारत जीवित भास्वर है।
भारत वहां जहां जीवन साधना नहीं है भ्रम में,
धाराओं का समाधान है मिला हुआ संगम में।।
जहां त्याग माधुर्यपूर्ण हो जहां भोग निष्काम।
समरस हो कामना वहीं भारत को करो प्रणाम।।
वृथा मत लो भारत का नाम।।

भारत के भाव भूमि का वन्दन करते हुए भारत के पूर्व प्रधानमन्त्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी कहते हैं-
यह राष्ट्र केवल एक भूमि का टुकड़ा नहीं है, यह जीता जागता राष्ट्र पुरुष है। हिमालय इसका मस्तक है, गौरीशंकर शिखा है। कश्मीर इसका किरीट है। पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे हैं। दिल्ली इसका हृदय है, नर्मदा करधनी है। पूर्वी और पश्चिमी घाट दो विशाल जंघाएं हैं। इसका सागर चरण धुलाता है, मलयानिल विजन डुलाता है। सावन के काले-काले मेघ इसकी कुन्तल केश राशि हैं। चांद और सूरज इसकी आरती उतारते हैं। यह देवताओं की भूमि है। यह संन्यासियों की भूमि है। यह ऋषि की भूमि है, यह कृषि की भूमि है। यह सम्राटों की भूमि है, यह सेनानियों की भूमि है। यह सन्तों की भूमि है, यह तीर्थकरों की भूमि है। यह अर्पण की भूमि है, यह तर्पण की भूमि है, यह वन्दन की भूमि है, यह अभिनन्दन की भूमि है। इसका कंकर-कंकर शंकर है, इसका बिन्दु-बिन्दु गंगाजल है। इसका कण-कण हमें प्यारा है इसका जन-जन हमारा दुलारा है। हम जियेंगे तो इसके लिये और यदि मृत्यु ने बुलाया तो मरेंगे भी इसके लिये। अगर मृत्यु के बाद हमारी हड्डियां गंगाजी में फंेक दी गयी और कोई कान लगाकर सुने तो एक ही आवाज सुनायी देगी वन्दे मातरम्। वन्दे मातरम्।।
(श्री अटल बिहारी वाजपेयी)

युग पुरुष स्वामी विवेकानन्द इस पवित्र भारत माता के प्रति कुछ ऐसा विचार रखते थे-
यदि इस पृथ्वीतल पर कोई एक ऐसा देश है, जो मंगलमयी पुण्यभूमि कहलाने का अधिकारी है, ऐसा देश जहां संसार के समस्त जीवों को अपना कर्मफल भोगने के लिये आना ही है, ऐसा देश जहां ईश्वरोन्मुख प्रत्येक आत्मा को अन्तिम लक्ष्य प्राप्त करने के लिये पहुंचना अनिवार्य है, ऐसा देश जहां मानवता ने ऋजुजा उदारता, शुचिता एवं शान्ति का चरम शिखर स्पर्श किया हो तथा इन सबसे आगे बढक़र भी जो देश अन्तदृष्टि एवं आध्यात्मिकता का घर हो तो वह देश भारत है।
-स्वामी विवेकानन्द, बौद्धिक पुस्तिका 1979 का आमुख
इसी भारत के गुणानुवाद में कवि समाधिस्थ सा होकर गा उठता है कि-
ऊंचा ललाट जिसका हिमगिरि चमक रहा है,
स्वर्णिम किरीट जिस पर आदित्य रख रहा है।
साक्षात् शिव की प्रतिमा जो सब प्रकार उज्जवल,
बहता है जिसके सिर पर गंगा का नीर निर्मल।
वह पुण्य भूमि मेरी यह जन्मभूमि मेरी
यह मातृ भूमि मेरी यह पितृ मेरी।।
अमर साहित्यकार श्री जयशंकर प्रसाद जी कहते हैं कि
अरुण यह मधुमय देश हमारा।
जहां पहुंच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।।
सरस तामरस गर्भ विभा पर नाच रही तरु शिखा मनोहर।
छिटका जीवन हरियाली पर मंगल कुंकुाम सारा।। (‘चंद्रगुप्त’ नाटक)
भारत की संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति होने के बावजूद आज भी जीवंत है और मानवता के विकास में सहायक-इससे संभवतः कोई इनकार न कर सकेगा। प्राचीनतम संस्कृति होने के कारण इसका इतिहास मानवता के हर पग से जुडा़ हुआ है। विश्व के इतिहास का कोई भी प्रमुख पृष्ठ ऐसा नहीं है जो भारतीय संस्कृति से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित न रहा हो। मेसोपोटामिया, मिस्र, रोम, यूनान तथा और, ‘इन्का’ और ‘एजटेक’ सरीखी लुप्त संस्कृतियां भी भारतीय संस्कृति से प्रभावित रही हैं तथा इनके प्रणाम भी हैं। यह एक पृथक बात है कि विश्व के सभी इतिहासकारों से उसे मान्यता न मिली हो; पर जो भी इतिहासकार भारतीय संस्कृति के प्रभाव को खोजने मैक्सिको या दक्षिणी अमेरीका के सुदूर क्षेत्रों में गए हैं, वे वहां की लुप्त संस्कृतियों पर भारतीयता की छाप को जान सकने में समर्थ रहे हैं।

भारत, जो ऋग्वेद काल से एक राष्ट्र है, जिसके अभिनंदन में वैदिक ऋचाएं रची गईं और जिसकी समृद्धि के लिए भारतीय ऋषियों ने बार-बार प्रार्थनाएं कीं, उन सबको जाने-अनजाने हमारे संविधान निर्माताओं ने भुला दिया-यह एक ऐसी वास्तविकता है जिसका स्मरण आज भी दुःखदायी है।
‘इदं राष्ट्रं पिपृहि सौभगाय’
-अथर्व.,7-35-1
‘इस राष्ट्र की श्रीवृद्धि हो।
‘बृहद् राष्ट्रं संवेश्यं दधातु’
-अथर्व-3-8-1
हमें एक महान् राष्ट्र प्राप्त हो।

जीवन की विश्वात्म धारणा को प्रतिदिन करनेवाला भारत, जिसका कभी विश्वास रहा ‘वसुधैव कुटंुबकम्’; पर वह दुष्प्रचार का शिकार होकर स्वयं ही अपने मूल्य छोड़ बैठा और सांस्कृतिक रूप से बिखर गया। यह सांस्कृतिक बिखराव आज भी राजनीति में स्तर पर दिखाई दे रहा है। लेकिन फिर भी न तो इस राष्ट्र के कर्णधारों को इसकी चिंता है और न भूल का एहसास है जो कि जाने-अनजाने संविधान निर्माताओं से हो गई। भारत एक सांस्कृतिक इकाई है- भले ही यह बात इस राष्ट्र के अनेक महान् नेतााओं ने बार-बार विभिन्न संदर्भाें में तथा विभिन्न स्तरों पर कही हो; पर उनकी इस अवधारणा की छाया तक भारतीय संविधान में नहीं है। यह सब इसलिए हुआ, क्यांेकि संविधान सतत् उपलब्ध थी, उसका कहीं भी प्रयोग न करके सारी सामग्री योरोप और अमेरिका में खोजी गई। पश्चिम का राजनैतिक व सांस्कृतिक चिंतन तथा दर्शन भारत से मौलिक रूप से भिन्न है, यह सब जानते हुए भी संविधान निर्माण में अनुच्छेदों के लेखन के समय विदेशी मूल्यों, आदर्शांे, परिपाटियों एवं व्यवस्थाओं का ही प्रयोग किया गया।

‘‘प्रत्येक समाज की अपनी एक मूल प्रकृति होती है और भारत की मूल प्रकृति सहिष्णुता प्रधान व समन्वयात्मक है, इसीलिए उसका उद्देश्य है- ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’। सभी सुखी हों, सभी का कल्याण हो-इसी भाव को लेकर भारत में जीवन-मूल्यों को विकसित किया गया। ये जीवन-मूल्य जितने उदार व उच्च होंगे, उनसे जुडी़ संस्कृति भी उतनी ही उदार व उच्च होगी। अतः हमें अपने श्रेय प्रधान जीवन-मूल्यों को उन भोगवादी मूल्यों तथा रूढ़िवादिता के प्रहार से बचाना होगा, जो इधर समाज में बढे़ हैं।’’

जे. रैम्जे मैक्डोनाल्ड नामक एक अंग्रेज ने, जो कभी ब्रिटेन के प्रधानमंत्री थे, लिखा था, ‘‘जो भी हो, हिन्दू अपनी परम्परा और धर्म के अनुसार भारत को न केवल एक प्रभुसŸाा के अधीन एक राजनीतिक इकाई मानता है, बल्कि अपनी आध्यात्मिक संस्कृति को साकार मन्दिर और उससे भी बढक़र देवी मां का रूप मानता है। भारत और हिन्दुत्व एक दूसरे से ऐसे जुडे़ है, जैसे शरीर से आत्मा। राष्ट्रीयता की व्याख्या करना, उसकी परख करना और उसेे सिद्ध करना एक कठिन काम है, किन्तु जहां तक भारत और आर्यपुत्र का सम्बन्ध है, निश्चय ही उसने उसे अपनी आत्मा में प्रतिष्ठित किया है ‘‘
जार्ज ओटो ट्रेविलयनः द लाइफ एण्ड लेटर्स आफ लार्ड मैकाले, पृ.421

भारत उपासना-पंथों की भूमि, मानव-जाति का पालन, भाषा की जन्मभूमि, इतिहास की माता, पुराणों की दादी एवं परंपरा की परदादी है। मनुष्य के इतिहास में जो भी मूल्यवान एवं सर्जनशील सामग्री है, उसका भंडार अकेले भारत में है। यह ऐसी भूमि है जिसके दर्शन के लिए सब लालायित ही रहते है और एक बार इसकी झलक मिल जाय तो दुनिया के अन्य सारे दृश्यों के बदले में भी वे उसे छोड़ने के लिए तैयार नहीं होंगे।

मार्क ट्वेन मानव ने आदिकाल से जो सपने देखने शुरू किये, उनके साकार होने का इस धरती पर कोई स्थान है तो वह है भारत।
रोमां रोला (फ्रांस के विद्वान)

हिन्दुत्व धार्मिक एकरूपता पर जोर नहीं देता, वरन् आध्यात्मिक दृष्टिकोण अपनाता है। यह जीवन-पद्धति है, न कि कोई विचारधारा।

स्वामी विवेकानन्द का ‘‘राष्ट्रदेव की पूजा’’ का आह्वान
‘‘आगामी पचास वर्ष के लिए यह जननी जन्म भूमि भारतमाता ही हमारी आराध्य देवी बन जाए। तब तक के लिए हमारे मस्तिष्क से व्यर्थ के देवी-देवताओं के हट जाने में कुछ भी हानि नहीं है। सर्वत्र उसके हाथ हैं, सर्वत्र उसके पैर हैं, और सर्वत्र उसके कान हैं। समझ लो कि दूसरे देवी-देवता सो रहे हैं जिन व्यर्थ के देवी-देवताओं को हम देख नहीं पाते, उनके पीछे तो हम इस प्रत्यक्ष देवता की पूजा कर लेंगे तभी हम दूसरे देव-देवियों की पूजा करने ‘‘योग्य होंगे, अन्यथा नहीं’’
(भारत का भविष्य पृ.19)।

हिन्दुओं को प्रेरणा देते हुए स्वामी जी कहते हैं, ‘‘उŸिाष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत’’ (कठोप.1.3.4) यानी उठो, जागो और लक्ष्य प्राप्ति से पहले रूको नहीं। यानी पूर्ण हिन्दूराज स्थापित करो। हिन्दू के अस्तित्व की सुरक्षा का यही एकमेव मार्ग रह गया है।

योगी श्री अरविन्द ने 1918 में युवकों का कहाः
‘‘मैं केवल इतना ही कह सकता हूं कि ऐसी सभी बातों को मेरा पूर्ण समर्थन मिलेगा जो एक शक्तिशाली समाज के ढाचे में व्यक्ति के जीवन को मुक्त करने और सशक्त बनाने में सहायक हों तथा उस स्वाधीनता और ऊर्जा को फिर से वापस दिलायें जो भारत के पास उसकी महानता और विस्तार के वीरत्वपूर्ण काल में थी। हमारे अनेक वर्तमान सामाजिक ढांचे जब गढे़ गये थे, हमारी अनेक रीति-नीति व परम्पराएं जब उत्पन्न हुए थे, वह समय सिकुड़न और अवनति का था। आत्मरक्षा और टिके रहने के लिए संकीर्ण सीमाओं में उनकी उपादेयता थी, पर वर्तमान घड़ी में, जब हमसे एक बार फिर एक स्वतंत्र और साहसपूर्ण आत्म रुपांतरण और विस्तार में प्रविष्ट होने की अपेक्षा की जा रही है, वे हमारी प्रगति में रुकावट बन रही है। मैं एक आक्रामक और विस्तारशील हिन्दुत्व में विश्वास करता हूं, संकीर्णता के साथ रक्षात्मक और आत्मसंकोचशील हिन्दुत्व में नहीं।’’
‘‘सर्व साधारण लोगों को सम्मिलित व राष्ट्र के नवजागरण में करना, भविष्य की महानता पर आधारित करना, भारतीय राजनीति को भारतीय धार्मिक भाव-प्रवणता और आध्यात्मिक में भिगोना-ये भारत में एक महान और शक्तिशाली राजनैतिक जागृति की अपरिहार्य शर्तें है।’’
(1918, भारत का पुनर्जन्म पृ.140.)

‘‘हम प्रकृति के जंगल में से चीरकर अपनी राह निकालने वाले अग्रदूत हैं। कायर चोर कामचोर बनने तथा भार उठाने से मना करने और सब कुछ हमारे लिए शीघ्र और सरल बनाये जाने हेतु शोर मचाने से काम नहीं चलेगा। सबसे ऊपर मैं तुमसे सहनशीलता, दृढ़ता, वीरता-सच्ची आध्यात्मिक वीरता की मांग करता हूं। मुझे शक्तिशाली मनुष्य चाहिए। भावुक बच्चे मुझे नहीं चाहिए। (1919 वहीं. पृ. 154)। ‘‘एक अकेले वीर का संकल्प हजारों कायरों के हृदय में साहस फूंक सकता है।’’
(1920 वहीं. पृ. 157)।

हमने अपने सामने जो काम रखा है वह यांत्रिक नहीं है, किन्तु नैतिक और आध्यात्मिक है। हमारे लक्ष्य किसी एक प्रकार की सरकार को बदल डालना नहीं है, प्रत्युत एक राष्ट्र का निर्माण करना है। उस काम का राजनीति भी एक भाग है, परन्तु एक भाग मात्र है। हम अपनी सारी शक्ति राजनीति पर ही नहीं लगाएंगे, ना ही केवल सामाजिक प्रश्नों पर या ब्रह्मविद्या का दर्शन या साहित्य या विज्ञान के विषयों पर, परन्तु इन सबको हम उस एक ही वस्तु के अर्न्तगत समझते हैं जिसे हम सबसे आवश्यक मानते है। वह वस्तु है धर्म, राष्ट्रीय धर्म, जो हमारा विश्वास है, सार्वभौम भी है।’’

श्री अरविन्द का राष्ट्र को आह्वान
महाभारत की एक आख्या के अनुसार-
अभगच्छत राजेन्द्र देविकां लोक विश्रुताम्।
प्रसूर्तियत्र विप्राणां श्रूयते भरतर्षभ।।

अर्थात् ‘‘सप्तचरुतीर्थ के पास वितस्ता नदी की शाखा देविका नदी के तट पर मनुष्य जाति की उत्पत्ति हुई। प्रमाण यही बताते हैं कि यदि सृष्टि की उत्पत्ति भारत के उत्तराखण्ड अर्थात् ब्रह्मावर्त क्षेत्र में ही हुई।

संसार भर में गोरे, पीले, लाल और श्याम (काले) ये चार रंगों के लोग विभिन्न क्षेत्रों में पाए जाते हैं। एक भारत ही ऐसा देश है, जहां इन चार रंगों का भरपूर मिश्रण एक साथ देखने को मिलता है। वस्तुतः श्वेत-काकेशस, पीले-मंगोलियन, काले-नीग्रो तथा लाल रेड इंडियन इन चार प्रकार के रंगविभाजनों के बाद पांचवी मूल एवं मुख्य नस्ल है, जो भारतीय कहलाती है। इस जाति में उपर्युक्त चारों का सम्मिश्रण है। ऐसा कहीं सिद्ध नहीं हेाता कि भारतीय मानव जाति उपर्युक्त चारों जातियों की वर्ण संकरता से उत्पन्न हुई। उलटे नेतृत्व विज्ञानी यह कहते हैं कि भारतीय सम्मिश्रिण वर्ण ही यहां से विस्तरित होकर दीर्घकाल में जलवायु आदि के भेद से चार मुख्य रूप लेता चला गया।

न केवल रंग यहां चारों के सम्मिश्रित पाए जाते हैं, वरन् भारतीयों का शारीरिक गठन भी एक विलक्षणता लिए है। ऊंची दबी, गोल-लम्बी मस्तकाकृति उठी या चपटी नाक, लम्बी-ठिगनी, पतली-मोटी शरीराकृति, एक्जो व एण्डोमॉर्फिक (एकहरी या दुहरी गठन वाली) आकृतियां भारत में पाई जाती हैं। यहां से अन्यत्र बस जाने पर इनके जो गुण सूत्र उस जलवायु में प्रभावी रहे, वे काकेशस, मंगोलियन, नीग्रॉइड व रेडइंडियंस के रूप में विकसित होते चले गए। अतः मूल आर्य जाति की उत्पत्ति स्थली भारत ही है, बाहर कहीं नहीं, यह स्पष्ट तथ्य एक हाथ लगता है। पाश्चात्य विद्वानों ने एक प्रचार किया कि आर्य भारत से कहीं बाहर विदेश से आकर यहां बसे थे। संभवतः इसके साथ दूसरी निम्न जातियों को जनजाति-आदिवासी वर्ग का बताकर, वे उन्हें उच्च वर्ग के विरूद्ध उभारना चाहते थे। द्रविड़ तथा कोल, ये जो दो जातियां भारत में बाहर से आईं बतायी जाती हैं, वस्तुतः आर्य जाति से ही उत्पन्न हुई थीं, इनकी एक शाखा जो बाहर गयी थी पुनः भारत वापस आकर यहां बस गयी।

भारतीय जातियों पर शोध करने वाले नेतृत्व विज्ञानी श्रनैसफील्ड लिखते हैं कि ‘‘भारत में बाहर से आए आर्य विजेता और मूल आदिम मानव (बरबोरिजिन) जैसे कोई विभाजन नहीं है। ये विभाग सर्वथा आधुनिक है। यहां तो समस्त भारतीयेां में एक विलक्षण स्तर की एकता है। ब्राह्मणों से लेकर सड़क साफ करने वाले भंगियों तक की आकृति और रक्त समान हैं।’’
मनुसंहिता (10/43-44) का एक उदाहरण है
शनकैस्तु क्रियालोपदिनाः क्षत्रिय जातयः।
वृषलत्वं गता लोके ब्राह्मणा दर्शनेन च।।

पौण्ड्राकाशचौण्ड्रद्रविडाः काम्बोजाः शकाः।
पादराः पहल्वाश्चीनाः काम्बोजाः दरदाः खशाः।।

अर्थात् ‘‘ब्राह्मणत्व की उपलब्धि को प्राप्त न हानेे के कारण उस क्रिया का लोप होने से पौण्ड्र, चौण्ड्र, द्रविड़ काम्बोज, भवन, शक पादर, पहल्व, चीनी किरात, दरद व खश ये क्षत्रिय जातियां धीरे-धीरे शूद्रत्व को प्राप्त हो गयीं।’’ स्मरण रहे यहां ब्राह्मणत्व से तात्पर्य है श्रेष्ठ चिन्तन, ज्ञान का उपार्जन व श्रेष्ठ कर्म तथा शूद्रत्व से अर्थ है निकृष्ट चिंतन व निकृष्ट कर्म। क्षत्रिय वे जो पुरूषार्थी थे व बाहुबल से क्षेत्रों की विजय करके राज्य स्थापना हेतु बाहर जाते रहे।

मूल आर्य जाति ने उत्तराखण्ड से नीचे की भूमि में वनों को काटकर, जलाकर उन्हें


भारत में भारतीयता विषय पर सब पहलुओं से विचार किया गया है। इस शरीर के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है, अतएव-
यावज्जीवं सुखं जीवेद् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।।

भारत की आत्मा को समझना है तो उसे राजनीति अथवा अर्थ-नीति के चश्मे से न देखकर सांस्कृतिक दृष्टिकोण से ही देखना होगा भारतीयता की अभिव्यक्ति राजनीति के द्वारा न होकर उसकी संस्कृति के द्वारा ही होगी तभी हम पुनः भारत को विश्व में प्रतिष्ठापित कर पायेंगे। इसी भावना और विचार में भारत की एकता तथा अखण्डता बनी रह सकती है। तभी भारत परम वैभव को प्राप्त कर सकता है।
विश्व के अनेक विद्याविदों, दार्शनिकांे, वैज्ञानिकों और प्रतिभावानों ने भारत के समर्थ को सिद्ध किया है। किसी ने इसे ज्ञान की भूमि कहा है तो किसी ने मोक्ष की, किसी ने इसे सभ्यताओं का मूल कहा है तो किसी ने इसे भाषाओं की जननी, किसी ने यहां आत्मिक पीपासा बुझाई है तो कोई यहां के वैभव से चमत्कृत हुआ है, कोई इसे मानवता का पालना मानता है तो किसी ने इसे संस्कृतियों का संगीत कहा है। तप, ज्ञान, योग, ध्यान, सत्संग, यज्ञ, भजन, कीर्तन, कुम्भ तीर्थ, देवालय और विश्व मंगल के शुभ मानवीय कर्म एवं भावों से निर्मित भारतीय समाज अपने में समेटे खड़ा है इसी से पूरा  भू-मण्डल भारत की ओर आकर्षित होता रहा है और होता रहेगा। भारतीय संस्कृति की यही विकिरण ऊर्जा ही हमारी चिरंतन परम्परा की थाती है।
विश्व सभ्यता और विचार-चिन्तन का इतिहास काफी पुराना है। लेकिन इस समूची पृथ्वी पर पहली बार भारत में ही मनुष्य की संवेदनाओं चिंतन प्रारंभ किया भारतीय चिंतन का आधार हमारी युगों पुरानी संस्कृति है। भारत एक देश है और सभी भारतीय जन एक है, परन्तु हमारा यह विश्वास है कि भारत के एकत्व का आधार उसकी युगों पुरानी अपनी संस्कृति में निहित है- इस बात को न्यायालयों ने उनके निर्णयों में स्वीकार किया है। सांस्कृतिक चिंतन  एक आध्यात्मिक अवधारणा है और यही है भारतीय का वैशिष्ट्य। राष्ट्र का आधार हमारी संस्कृति और विरासत है। हमारे लिए ऐसे राष्ट्रवाद का कोई अर्थ नहीं जो हमे वेदांे, पुराणों, रामायण, महाभारत, गौतमबुद्ध, भगवान महावीर स्वामी, शंकराचार्य, गुरूनानक, महाराणा प्रताप, शिवाजी महाराज, स्वामी दयानन्द, लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, पण्डित दीनदयाल उपाध्याय और असंख्य अन्य राष्ट्रीय अधिनायकों से अलग करता हो। यह राष्ट्रवाद ही हमारा धर्म है।

संप्रति
सहायक प्राध्यापक
माखनलाल चतुर्वेदी
राष्ट्री य पत्रकारिता एवं संचार विश्वेविद्यालयए नोएडा
मोबाइल 8750820740





Monday, April 3, 2017

गाय की रक्षा पर बहस क्यों ?

डॉ. सौरभ मालवीय
वैदिक काल से ही भारतीय संस्कृति में गाय का विशेष महत्व है. दुख की बात है कि भारतीय संस्कृति में जिस गाय को पूजनीय कहा गया है, आज उसी गाय को भूखा-प्यासा सड़कों पर भटकने के लिए छोड़ दिया गया है. लोग अपने घरों में कुत्ते तो पाल लेते हैं, लेकिन उनके पास गाय के नाम की एक रोटी तक नहीं है. छोटे गांव-कस्बों की बात तो दूर देश की राजधानी दिल्ली में गाय को कूड़ा-कर्कट खाते हुए देखा जा सकता है. प्लास्टिक और पॊलिथीन खा लेने के कारण उनकी मृत्यु तक हो जाती है. भारतीय राजनीति में जाति, पंथ और धर्म से ऊपर होकर लोकतंत्र और पर्यावरण की भी चिंता होनी चाहिए. गाय की रक्षा, सुरक्षा बहस का मुद्दा आख़िर क्यों बनाया जा रहा है?

धार्मिक ग्रंथों में गाय को पूजनीय माना गया है. श्रीकृष्ण को गाय से विशेष लगाव था. उनकी प्रतिमाओं के साथ गाय देखी जा सकती है.
बिप्र धेनु सूर संत हित, लिन्ह मनुज अवतार।
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गोपार॥
अर्थात ब्राह्मण (प्रबुद्ध जन) धेनु (गाय) सूर (देवता) संत (सभ्य लोग) इनके लिए ही परमात्मा अवतरित होते हैं. परमात्मा स्वयं के इच्छा से निर्मित होते हैं और मायातीत, गुणातीत एवम् इन्द्रीयातीत इसमें गाय तत्व इतना महत्वपूर्ण है कि वह सबका आश्रय है. गाय में 33 कोटि देवी-देवताओं का वास रहता है. इसलिए गाय का प्रत्येक अंग पूज्यनीय माना जाता है. गो सेवा करने से एक साथ 33 करोड़ देवता प्रसन्न होते हैं. गाय सरलता शुद्धता और सात्विकता की मूर्ति है. गऊ माता की पीठ में ब्रह्म, गले में विष्णु और मुख में रूद्र निवास करते हैं, मध्य भाग में सभी देवगण और रोम-रोम में सभी महार्षि बसते हैं. सभी दानों में गो दान सर्वधिक महत्वपूर्ण माना जाता है.

गाय को भारतीय मनीषा में माता केवल इसीलिए नहीं कहा कि हम उसका दूध पीते हैं. मां इसलिए भी नहीं कहा कि उसके बछड़े हमारे लिए कृषि कार्य में श्रेष्ठ रहते हैं, अपितु हमने मां इसलिए कहा है कि गाय की आंख का वात्सल्य सृष्टि के सभी प्राणियों की आंखों से अधिक आकर्षक होता है. अब तो मनोवैज्ञानिक भी इस गाय की आंखों और उसके वात्सल्य संवेदनाओं की महत्ता स्वीकारने लगे हैं. ऋषियों का ऐसा मंतव्य है कि गाय की आंखों में प्रीति पूर्ण ढंग से आंख डालकर देखने से सहज ध्यान फलित होता है. श्रीकृष्ण भगवान को भगवान बनाने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका गायों की ही थी. स्वयं ऋषियों का यह अनुभव है कि गाय की संगति में रहने से तितिक्षा की प्राप्ति होती है. गाय तितिक्षा की मूर्ति होती है. इसी कारण गाय को धर्म की जननी कहते हैं. धर्मग्रंथों में सभी गाय की पूजा को महत्वपूर्ण बताया गया है. धार्मिक कार्यों में सर्वप्रथम पूज्य गणेश और देवी पार्वती को गाय के गोबर से बने पूजा स्थल में रखा जाता है.

परोपकारय दुहन्ति गाव:
अर्थात यह परोपकारिणी है. गाय की सेवा करने से से परम पुण्य की प्राप्ति होती है. मानव मन की कामनाओं को पूर्ण करने के कारण इसे कामधेनु कहा जाता है.
ॐ माता रुद्राणां दुहिता वसूनां स्वसादित्यानाममृतस्य नाभि:।
प्र नु वोचं चिकितुषे जनाय मा गामनागामदितिं वधिष्ट नमो नम: स्वाहा।।
ॐ सर्वदेवमये देवि लोकानां शुभनन्दिनि।
मातर्ममाभिषितं सफलं कुरु नन्दिनि।।

उल्लेखनीय यह भी है कि ज्योतिष शास्त्र में नव ग्रहों के अशुभ फल से मुक्ति पाने के लिए गाय से संबंधित उपाय ही बताए जाते हैं. हिन्दू मान्यता के अनुसार गाय ईश्वर का श्रेष्ठ उपहार है. भारतीय परम्परा के पूज्य पशुओं में गाय को सर्वोपरि माना जाता है. गाय से संबंधित गोपाष्‍टमी भारतीय संस्‍कृति का एक महत्‍वपूर्ण पर्व है. यह कार्तिक शुक्ल की अष्टमी को मनाया जाता है, इस कारण इसका नाम गोपाष्टमी पड़ा. इस पावन पर्व पर गौ-माता का पूजन किया जाता है. गाय की परिक्रमा कर सुख-समृद्धि की कामना की जाती है. गोवर्धन के दिन गोबर को जलाकर उसकी पूजा और परिक्रमा की जाती है. धार्मिक प्रवृत्ति के बहुत लोग प्रतिदिन गाय की पूजा करते हैं. भोजन के समय पहली रोटी गाय के लिए निकालने की भी परंपरा है.

भारत में प्राचीन काल से ही गाय का विशेष महत्व रहा है. मानव जाति की समृद्धि को गौ-वंश की समृद्धि की दृष्टि से जोड़ा जाता है. जिसके पास जितनी अधिक गायें होती थीं, उसे समाज में उतना ही समृद्ध माना जाता था. प्राचीन काल में राजा-महाराजाओं की अपनी गौशालाएं होती थीं, जिनकी व्यवस्था वे स्वयं देखते थे. विजय प्राप्त होने, कन्याओं के विवाह तथा अन्य मंगल उत्सवों पर गाय उपहार स्वरूप या दान स्वरूप दी जाती थीं.

गोहत्या को पापा माना जाता है, जिनका उल्लेख धार्मिक ग्रंथों में भी मिलता है.
गोहत्यां ब्रह्महत्यां च करोति ह्यतिदेशिकीम्।
यो हि गच्छत्यगम्यां च यः स्त्रीहत्यां करोति च ॥

भिक्षुहत्यां महापापी भ्रूणहत्यां च भारते।
कुम्भीपाके वसेत्सोऽपि यावदिन्द्राश्चतुर्दश ॥

गाय संसार में प्राय: सर्वत्र पाई जाती है. एक अनुमान के अनुसार विश्व में कुल गायों की संख्या 13 खरब है. गाय से उत्तम प्रकार का दूध प्राप्त होता है, जो मां के दूध के समान ही माना जाता है. जिन बच्चों को किसी कारण वश उनकी माता का दूध नहीं मिलता, उन्हें गाय का दूध पिलाया जाता है.
उल्लेखनीय है कि हमारे देश में गाय की 30 प्रकार की प्रजातियां पाई जाती हैं. इनमें सायवाल जाति, सिंधी, कांकरेज, मालवी, नागौरी, थरपारकर, पवांर, भगनाड़ी, दज्जल, गावलाव, हरियाना, अंगोल या नीलोर और राठ, गीर, देवनी, नीमाड़ी, अमृतमहल, हल्लीकर, बरगूर, बालमबादी, वत्सप्रधान, कंगायम, कृष्णवल्ली आदि प्रजातियों की गाय सम्मिलित हैं. गाय के शरीर में सूर्य की गो-किरण शोषित करने की अद्भुत शक्ति होती है. इसीलिए गाय का दूध अमृत के समान माना जाता है. गाय के दूध से बने घी-मक्खन से मानव शरीर पुष्ट बनता है. गाय का गोबर उपले बनाने के काम आता है, जो अच्छा ईंधन है. गोबर से जैविक खाद भी बनाई जाती है. इसके मूत्र से भी कई रोगों का उपचार किया जा रहा है. यह अच्छा कीटनाशक भी है.

वास्तव में गाय को पर्यावरण संरक्षण से जोड़ने की बजाय राजनीति से जोड़ दिया गया है, जिसके कारण इसे जबरन बहस का विषय बना दिया गया. गाय सबके लिए उपयोगी है. इसलिए गाय पर बहस करने की बजाय इसके संरक्षण पर ध्यान देना चाहिए. सरकार को चाहिए कि वह सड़कों पर विचरती गायों के लिए गौशालाओं का निर्माण कराए.