Saturday, March 16, 2013

भारतीय समाज, विविधता, अनेकता एवं एकात्मता


डॉ. सौरभ मालवीय
भारत का समाज अत्यंत प्रारम्भिक काल से ही अपने अपने स्थान भेद, वातावरण भेद, आशा भेद वस्त्र भेद, भोजन भेद आदि विभिन्न कारणों से बहुलवादी रहा है। यह तो लगभग वैदिक काल में भी ऐसा ही रहा है अथर्ववेद के 12वें मण्डल के प्रथम अध्याय में इस पर बड़ी विस्तृत चर्चा हुई है एक प्रश्न के उत्तर में ऋषि यह घोषणा करते हैं कि
जनं विभ्रति बहुधा, विवाचसम्, नाना धर्माणंम् पृथ्वी यथौकसम्।
सहस्र धारा द्रवीणस्यमेदूहाम, ध्रिवेन धेनुंरनप्रस्फरत्नी।।
अर्थात विभिन्न भाषा, धर्म, मत आदि जनों को परिवार के समान धारण करने वली यह हमारी मातृभूमि कामधेनु के समान धन की हजारों धारायें हमें प्रदान करें।
विभिन्नता का यह स्तर इतना गहरा रहा कि केवल मनुष्य ही नहीं अपितु प्रकृति में इसके प्रवाह में चलती रही तभी तो हमारे यहां यह लोक मान्यता बन गयी कि कोस-कोस पर बदले पानी चार कोस पर वाणी।
यहां वाणी दो अर्थों में प्रयोग होता है। वाणी एक बोली के अर्थ में और पहनावे के अर्थ पानी भी दो अर्थी प्रयोग एक सामाजिक प्रतिष्ठा के अर्थ में दूसरा जल के।
इस विविधता में वैचारिक विविधता तो और भी महत्वपूर्ण है। संसार में पढ़ाये जाने वाले छः प्रकार के दर्षन का विकास भारत में ही हुआ कपिल, कणाद, जैमिनी, गौतम, प्रभाकर, वैशेषिक आदि अनेक प्रकार की परस्पर विरोधी विचार तरणियां (शृंखला) इसी पवित्र भूमि पर पली बढ़ी और फली फूली वैदिक मान्यताओं का अद्वैत जब कर्मकाण्डो के आडम्बर से घिर गया तो साक्य मूनि गौतम अपने बौद्ध दर्शन से समाज को एक नयी दिशा देने का प्रयास किया।
उनके कुछ वर्षों बाद केरल एक विचारक और दार्शनिक जगत्गुरु शंकराचार्य ने अपने अद्वैत दर्शन के प्रबल वेग में बुद्धवाद को भी बहा दिया। और इतना ही नहीं वरन पूरे भारत में वैदिक मत की पुर्नप्रतिष्ठा कर दी। लेकिन जगत गुरु शंकर का यह अद्वैत की विभिन्न रूपों में खण्डित होता रहा। इस अद्वैत दर्शन को आचार्य रामानुज ने विशिष्ट अद्वैत के रूप में खण्डित कर दिया महावाचार्य ने द्वैत वाद के रूप में खण्डित कर दिया, वल्लभाचार्य ने द्वैत अद्वैत के रूप में खण्डित कर दिया तिम्वाकाचार्य ने द्वैतवाद के रूप में खण्डित कर दिया और अन्त में चैतन्य महाप्रभु ने अचिन्त्य भेदा भेद के रूप में खण्डित कर दिया। इस खण्डन-मण्डन और प्रतिष्ठापन की परम्परा को पूरा देश सम्मान के साथ स्वीकारता रहा। यहां तक कि हमने चार्वाक को भी दार्शनिको की श्रेणी में खड़ा कर लिया लेकिन वैदिकता के विरोध में कोई फतवा नहीं जारी किया गया।
यहां तो संसार ने अभी-अभी देखा है कि शैटनिक वरसेज के साथ क्या हुआ बलासफेमी की लेखिका डॉ. तहमीना दुरार्ती को देश छोड़ कर भागना पड़ा, तसलीमा नसरीन की पुस्तक लज्जा से उन लोगों को लज्जा भी नहीं आती और नसरीन के लिए उसकी मातृभूमि दूर हो गयी है। लेकिन भारत की विविधता हरदम आदरणीय रही है। इसी का परिणाम रहा है कि यहां 33 करोड़ देवी-देवता बने सच में इससे बड़ा लोकतांत्रिक अभियान और क्या हो सकता है हर स्थिति का इसके स्वभाव के अनुरूप उसे पूजा करने के लिए उसका एक आदर्श देवता तो होना ही चाहिए। यही तो लोकतंत्र है।
लेकिन इस विविधता में भी चिरन्तन सत्य के प्रति समर्पण सबके चित्त में सदैव बना रहा। तभी तो भारत जैसे देश में जहां छः हजार से ज्यादा बोलियां बोली जाती हैं वहां गंगा, गीता, गायत्री, गाय और गोविन्द के प्रति श्रद्धा समान रूप से बनी हुई है। केरल में पैदा होने वाला नारियल जब तक वैष्णो देवी के चरण में चढ़ नहीं जाता है तब तक पूजा अधूरी मानी जाती है। आखिर काशी के गंगाजल से रामेश्वरम् महादेव का अभिषेक करने पर ही भगवान शिव प्रसन्न होते हैं। भारत के अन्तिम छोर कन्याकुमारी अन्तद्वीप में तपस्या कर रही भगवती तृप सुंदरी का लक्ष्य उत्त में कैलाश पर विराजमान भगवान चन्द्रमौलीस्वर तो ही है।
भारत में जो भी आया, वह उसके भौगोलिक सौन्दर्य और भौतिक सम्पन्न्ता से तो अभिभूत हुआ ही, बौद्धिक दृष्टि से वह भारत का गुलाम होकर रह गया। वह भारत को क्या दे सकता था? भौतिक भारत को उसने लूटा लेकिन वैचारिक भारत के आगे उसने आत्म-समर्पण कर दिया। ह्वेन-सांग, फाह्यान, इब्न-बतूता, अल-बेरूनी, बर्नियर जैसे असंख्य प्रत्यक्षदर्शियों के विवरण इस सत्य को प्रमाणित करते हैं। जिस देश के हाथों में वेद हों, सांख्य और वैशेषिक दर्शन हो, उपनिषदें हों, त्रिपिटक हो, अर्थशास्त्र हो, अभिज्ञानशाकुंतलम् हो, रामायण और महाभारत हो, उसके आगे बाइबिल और कुरान, मेकबेथ और प्रिन्स, ओरिजिन आॅफ स्पेसीज या दास कैपिटल आदि की क्या बिसात है? दूसरे शब्दों में भारत की बौद्धिक क्षमता ने उसकी हस्ती को कायम रखा।
भारत के इस अखंड बौद्धिक आत्मविश्वास ने उसके जठरानल को अत्यंत प्रबल बना दिया। उसकी पाचन शक्ति इतनी प्रबल हो गई कि इस्लाम और ईसाइयत जैसे एकचालकानुवर्तित्ववाले मजहबों को भी भारत आकर उदारमना बनना पड़ा। भारत ने इन अभारतीय धाराओं को आत्मसात कर लिया और इन धाराओं का भी भारतीयकरण हो गया। मैं तो यहां तक कहता हूं कि इस्लाम और ईसाइयत भारत आकर उच्चतर इस्लाम और उच्चतर ईसाइयत में परिणत हो गए। धर्मध्वजाओं और धर्मग्रंथों पर आधारित इन मजहबों में कर्मफल और पुनर्जन्म का प्रावधान कहीं नहीं है लेकिन इनके भारतीय संस्करण इन बद्धमूल भारतीय धारणाओं से मुक्त नहीं हैं। भक्ति रस में डूबे भारतीयों के मुकाबले इन मजहबों के अभारतीय अनुयायी काफी फीके दिखाई पड़ते हैं। भारतीय मुसलमान और भारतीय ईसाई दुनिया के किसी भी मुसलमान और ईसाई से बेहतर क्यों दिखाई पड़ता है? इसीलिए कि वह पहले से उत्कृष्ट आध्यात्मिक और उन्नत सांस्कृतिक भूमि पर खड़ा है। यह धरोहर उसके लिए अयत्नसिद्ध है। उसे सेत-मेंत में मिली है। यही भारत का रिक्थ है।
सनातन संस्कृति के कारण इस पावन धरा पर एक अत्यंत दिव्य विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र निर्मित हुआ। प्राकृतिक पर्यावरण कठिन तप, ज्ञान, योग, ध्यान, सत्संग, यज्ञ, भजन, कीर्तन, कुम्भ तीर्थ, देवालय और विश्व मंगल के शुभ मानवीय कर्म एवं भावों से निर्मित इस दिव्य इलेक्ट्रो-मैगनेटिक फील्ड से अत्यंत प्रभावकारी विद्युत चुम्बकीय तरंगों का विकिरण जारी है, इसी से समग्र भू-मण्डल भारत की ओर आकर्षित होता रहा है और होता रहेगा। भारतीय संस्कृति की यही विकिरण ऊर्जा ही हमारी चिरंतन परम्परा की थाती है। भूगोल, इतिहास और राज्य व्यवस्थाओं की क्षुद्र संकीर्णताओं के इतर प्रत्येक मानव का अभ्युदय और निःश्रेयस ही भारत का अभीष्ट है। साम्राज्य भारत का साध्य नहीं वरन् साधन है।यहां तो सृष्टि का कण-कण अपनी पूर्णता और दिव्यता के साथ खिले, इसका सतत् प्रयत्न किया जाता है।
विश्व सभ्यता और विचार-चिन्तन का इतिहास काफी पुराना है। लेकिन इस समूची पृथ्वी पर पहली बार भारत में ही मनुष्य की विराट रहस्यमयता पर जिज्ञासा का जन्म हुआ। सृष्टि अनन्त रहस्य वाली है ही। भारत ने दोनों चुनौतियों को निकट नजदीक से देखा। छोटा-सा मनुष्य विराट सम्भावनाआंे से युक्त है। विराट सृष्टि में अनंत सम्भावनाएं और अनंत रहस्य हैं। जितना भी जाना जाता है उससे भी ज्यादा बिना जाने रह जाता है। सो भारत के मनुष्य ने सम्पूर्ण मनुष्य के अध्ययन के लिए स्वयं (मैं) को प्रयोगशाला बनाया। भारत ने समूची सृष्टि को भी अध्ययन का विषय बनाया। यहां बुद्धि के विकास से ‘ज्ञान’ आया। हृदय के विकास से भक्ति। भक्त और ज्ञानी अन्ततः एक ही निष्कर्ष पर पहुंचे। भक्त अंत में ज्ञानी बना। भक्त को अन्ततः व्यक्ति और समष्टि का एकात्म मिला। द्वैत मिटा। अद्वैत का ज्ञान हो गया। ज्ञानी को अंत में बूंद और समुद्र के एक होने का साक्षात्कार हुआ। व्यक्ति और परमात्मा, व्यष्टि और समष्टि की एक एकात्मक प्रतीति मिली। ज्ञानी आखिरकार भक्त बना।
हजारों वर्षों से यह परम्परा रही है कि बद्रीधाम और काठमाण्डू के पशुपतिनाथ का प्रधान पुजारी केरल का होगा और रामेश्वरम् और श्रृंगेरीमठ का प्रधान पुजारी काशी का होगा यही तो विविधता में एकता का वह जीवन्त सूत्र है जो पूरे भारत को अपने में जोड़े हुए है। पाकिस्तान स्थित स्वातघाटी के हिंगलाज शक्तिपीठ के प्रति पूरे भारत में समान रूप आस्था और आदर है। तो समग्र हिमालय को पूरा भारत देवताओं की आत्मा कहता है इसी कारण हमारे ऋषियों ने पूरे भारत के पहाड़ों, नदियों और वनों को सम्मान में वेदों में गीत गाये। कैसे कोई भारतीय भूल सकता है उस सिन्धु नदी को जिसके तट पर वेदों की रचना हुई।
विविधता और अनेकता भारतीय समाज की पहचान है। विविधता के कारण ही भारत देष में बहुरूपता के दर्षन होते हैं। लेकिन यही गुण भारतीय समाज को समृ़द्ध कर एक सूत्र में बांधने का कार्य करता है। हो भी क्यों न? क्योंकि हम उस सम्पन्न परपंरा के वाहक हैं जिसमें वसुधैव कुटुम्बकम की भावना निहित है।

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी


डॉ. सौरभ मालवीय
भगवान श्री कृष्ण ने अपने आप्तवचन श्रीमद्भगवद् गीता में साधिकार घोषणा की है कि
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युध्र्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि
- गीता 2.27
अर्थात् जन्म लिये हुए का मरना सुनिश्चित है। इसी क्रम में नचिकेता ने भी कठोपनिषद में ऐसा ही कहा यह बातें केवल मनुष्यों पर ही नहीं अपितु राष्ट्रों पर भी समान रूपेण प्रभावी है, राष्ट्रांे के जीवन में भी अवसानाविर्भाव आते रहते है अन्यथा पिछली शताब्दी के इस जगतीतल के श्रेष्ठतम प्रतिभा वालों में से एक प्रो. अर्नाल्डटायनवी ने अपने गहन शोधो उपरांत यह घोषणा की है कि समय-समय पर विश्व का सांस्कृतिक नेतृत्व करने वाली 49 सभ्यतायें कठिन काल के कराल गाल में समा गयी है। कई सभ्यताओं की तो अवशेष भी धराधाम पर शेष नहीं है।

सच तो ये है कि अनेक सभ्यताओं के खण्डहर भी अब केवल विलुप्त जन श्रूतियों के माध्यम से पुस्तकागारों के खण्डहर बने हुए हैं। और कई सभ्यताओं के भगना अवशेषों पर तो कई-कई बार नये-नये भगनाअवशेष बन चुके आज कहां पता है इन्का और एजेटेक सभ्यताओं के उत्स। खालडियन, सुनेरियन समेत अनेक सभ्यताएं जिस भूमि पर पली, बढ़ीं अब उस भूमि पर अब उस भूमि के वासियों में उन सभ्यताओं के स्वपनावशेष भी नहीं हैं। उनके परिकथाओं में भी अब वे पुरानी बातें नहीं बची है।

ऐसा इसलिए हुआ कि उस भू-भाग के मानवों ने एकात्म भाव जीवन से पुष्पित पल्लवित उस संस्कृति का परित्याग कर दिया। यह कोई अल्प समय में घटित होने वाली बात नहीं है अपितु प्रदीर्घ समयान्तराल एवं तज्जन्य सांस्कृतिक विस्मरण का कुफल होता है।

कभी-कभी इस प्रक्रिया में कई शताब्दियां लग जाती हैं, यही नहीं वह भू-भाग तो वैसे ही रहता है परन्तु उस भू-भाग के मनुष्य जब भिन्न प्रकार की जीवन प्रणाली व्यवहृत करने लगते है तो शनैः शनैः उसी भूमि पर नये राष्ट्र का जन्म होता है। यह भी प्रक्रिया सदियों-सदियांे तक चलती रहती है। अधिकांश संस्कृतियों के संदर्भ में तो यह दृष्टिगोचर हुआ है कि नया राष्ट्र पुराने से अधिक जाज्वल्यमान, प्राणवान, महिमावान एवं समर्थवान रहता है। अनेक संस्कृतियों के संदर्भ में यह भी हुआ है कि परवर्ती परम्परायें पूर्ववर्तियों की अपेक्षा अल्पजीवी रही है।

आर्ष और आप्त प्रमाणानुसार भारत मृत्युंजय है, विश्व के अनेक विद्याविदों, रहस्यदर्शी, दार्शनिकांे, वैज्ञानिकों और प्रतिभावानों ने भारत की अमरता को सिद्ध किया है। किसी ने इसे ज्ञान की भूमि कहा है तो किसी ने मोक्ष की किसी ने इसे सभ्यताओं का मूल कहा है तो किसी ने इसे भाषाओं की जननी किसी ने यहां आत्मिक पीपासा बुझाई है तो कोई यहां के वैभव से चमत्कृत हुआ है, कोई इसे मानवता का पालना मानता है तो किसी ने इसे संस्कृतियों का संगीत कहा है।

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी यह अपने आप में एक रहस्य है, पहेली है, यक्ष-प्रश्न है। सिर्फ भारत ही नहीं है, जो नहीं मिटा है। नहीं मिटने वाले याने कायम रहने वाले और देश भी हैं। चीन है, यूनान है, रोम है, बेबीलोन है, ईरान है। ये देश कायम तो हैं लेकिन क्या भारत की तरह कायम हैं? क्या ये हिंदोस्तां की तरह कायम हैं? शायद नहीं है। इसीलिए इकबाल ने कहा है कि अगर वे कायम हैं तो भी सिर्फ नाम के लिए कायम हैं। उनकी हस्ती तो मिट चुकी है। उनकी मूल पहचान नष्ट हो चुकी है। इन पुरानी सभ्यताओं को समय ने इतने थपेड़े मारे हैं कि उनका सातत्य भंग हो चुका है।

जिसे कहते है, परंपरा, वह धागा टूट चुका है। परिवर्तन ने परंपरा को परास्त कर दिया है। कुछ देशों ने अपना धर्म बदल लिया कुछ ने अपनी भाषा बदल ली, कुछ ने अपना नाम बदल लिया और कुछ ने अपनी जीवन-पद्धति ही बदल ली। परिवर्तन की आंधी ने परंपरा के परखचे उड़ा दिए। यह ठीक हुआ या गलत, यह एक अलग प्रश्न है लेकिन भारत में ऐसी क्या खूबी है कि परंपरा और परिवर्तन यहां कंधे से कंधे मिलाकर आगे बढ़े जा रहे हैं। उनकी द्वंद्वात्मकता उनके विनाश का पर्याय नहीं बन रही है बल्कि नित्य नूतन सृजन की गर्भ-स्थली बन गई है।

द्वंद्व में से सृजन की निष्पत्ति भारत में लगभग उसी तरह हो रही है, जैसा कि जर्मन दार्शनिक हीगल ने कभी सोचा था। थीसिस और एंटी-थीसिस के टकराव में से सिन्थेसिस निकलता चला जाता है। वाद, प्रतिवाद और संवाद। संवाद याने सम्यक् वाद, समन्वय वाद! यह समन्वय ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें मूल सदा वर्तमान रहता है। कभी नष्ट नहीं होता। बीज रूप में रहता है। सूक्ष्म रूप मे रहता है। यदि मूल अशक्त है तो उसे निर्मूल होने में देर नहीं लगती। भारत की मूल पहचान इतनी सशक्त है कि सैकड़ों हमलों के बावजूद वह कायम है। हमलावर यों तो सोने की चिडि़या को लूटने के लिए आते रहे लेकिन उनमें से कुछ को यह बुखार भी चढ़ा कि वे भारत को सभ्य बनाएंगे। उसके धर्म, संस्कृति, भाषा और संपूर्ण जीवन-पद्धति को नए रूप में ढालेंगे। लेकिन हुआ क्या? जो भी भारत में रहे गए, वे भारत के रूप में ढल गए। इकबाल ने गलत नहीं कहा कि भारत के किनारे पर सभ्यताओं के अनेक जहाज आए और डूब गए। आखिर यह हुआ कैसे?

इसका पहला कारण तो मुझे यह सूझता है कि दुनिया की दूसरी सभ्यताएं अभी जब अपने शैशव में भी नहीं पहुंची थी, भारतीय सभ्यता अपने चीर-यौवन में गमक रही थी। यह वही सभ्यता है, जिसे हमलावर हिंदू सभ्यता कहते रहे। जरा हम पीछे मुड़कर देखें तो पाएंगे कि भारत उस समय बेजोड़ था। जब सिकंदर, हूण, अरब, मंगोल, मुगल आदि भारत आए तो जिन देशों से वे आए थे, वे देश वहां थे और उस समय भारत काहं था। यदि सिकंदर के यूनान मे ंचलें तो वह युग प्लेटो और अरस्तू का था। प्लेटो और अरस्तू की रचनाओं- रिपब्लिक और पाॅलिटिक्स- की तुलना जरा करें हमारी उपनिषदों से रामायण और महाभारत से, कालिदास और कौटिल्य की रचनाओं से तो हम किस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे? ये तो बहुत बाद की रचनाएं हैं।

ऋग्वेद, षड्दर्शन, जैन और बौद्ध धर्म आदि के मुकाबले की कोई चीज क्या हमें पश्चिम मे दिखाई पड़ती हैं? ये सभ्यताएं, ये समाज, ये राष्ट्र जब विकास की पहली सीढ़ी पर पांव रख रहे थे, तब तक भारत में वर्ण-व्यवस्थामूलक समाज स्थापित हो चुका था, राज्य-व्यवस्थाएं परिपक्व हो चुकी थीं, अर्थ-व्यवस्थाएं अपने चरमोत्कर्ष पर थीं। राज्य, परिवार, व्यक्ति और व्यक्तिगत सम्पदा की संस्थाएं न केवल स्वस्थ रूप से काम कर रही थीं बल्कि उनके पारस्परिक संबंध भी सुपरिभाषित हो चुके थे। जहां तक पहुंचने में पश्चिम को शताब्दियां लग गई, पुनर्जागरण और औद्योगिक क्रांति के दौर से गुजरना पड़ा, हजार साल के अंधकार युग मंे भटकना पड़ा, फ्रांस और रूस की खूनी क्रांतियों के अग्निकुंड में कूदना पड़ा, साम्राज्यवाद के राक्षस को अपने कंधे पर बिठाना पड़ा और विश्व युद्ध की विभिषिकाओं को सहना पड़ा, वहां तक भारत कई हजार साल पहले ही पहुंच चुका था। अब से ढाई-तीन हजार साल पहले के भारत ने जिन विचारों को उछाला था, क्या उनसे बेहतर विचार अभी तक किसी अन्य सभ्यता ने मानवता के सामने प्रस्तुत किए हैं?

भारत में जो भी आया, वह उसके भौगोलिक सौन्दर्य और भौतिक सम्पन्न्ता से तो अभिभूत हुआ ही, बौद्धिक दृष्टि से वह भारत का गुलाम होकर रह गया। वह भारत को क्या दे सकता था? भौतिक भारत को उसने लूटा लेकिन वैचारिक भारत के आगे उसने आत्म-समर्पण कर दिया। ह्वेन-सांग, फाह्यान, इब्न-बतूता, अल-बेरूनी, बर्नियर जैसे असंख्य प्रत्यक्षदर्शियों के विवरण इस सत्य को प्रमाणित करते हैं। जिस देश के हाथों में वेद हों, सांख्य और वैशेषिक दर्शन हो, उपनिषदें हों, त्रिपिटक हो, अर्थशास्त्र हो, अभिज्ञानशाकुंतलम् हो, रामायण और महाभारत हो, उसके आगे बाइबिल और कुरान, मेकबेथ और प्रिन्स, ओरिजिन आॅफ स्पेसीज या दास केपिटल आदि की क्या बिसात है? दूसरे शब्दों में भारत की बौद्धिक क्षमता ने उसकी हस्ती को कायम रखा।

भारत के इस अखंड बौद्धिक आत्मविश्वास ने उसके जठरानल को अत्यंत प्रबल बना दिया। उसकी पाचन शक्ति इतनी प्रबल हो गई कि इस्लाम और ईसाइयत जैसे एकचालकानुवर्तित्ववाले मजहबों को भी भारत आकर उदारमना बनना पड़ा। भारत ने इन अभारतीय धाराओं को आत्मसात कर लिया और इन धाराओं का भी भारतीयकरण हो गया। मैं तो यहां तक कहता हूं कि इस्लाम और ईसाइयत भारत आकर उच्चतर इस्लाम और उच्चतर ईसाइयत में परिणत हो गए। धर्मध्वजियों और धर्मग्रंथों पर आधारित इन मजहबों में कर्मफल और पुनर्जन्म का प्रावधान कहीं नहीं है लेकिन इनके भारतीय संस्करण इन बद्धमूल भारतीय धारणाओं से मुक्त नहीं हैं। भक्ति रस में डूबे भारतीयों के मुकाबले इन मजहबों के अभारतीय अनुयायी काफी फीके दिखाई पड़ते हैं। भारतीय मुसलमान और भारतीय ईसाई दुनिया के किसी भी मुसलमान और ईसाई से बेहतर क्यों दिखाई पड़ता है? इसीलिए कि वह पहले से उत्कृष्ट आध्यात्मिक और उन्नत सांस्कृतिक भूमि पर खड़ा है। यह धरोहर उसके लिए अयत्नसिद्ध है। उसे सेत-मेंत में मिली है। यही भारत का रिक्थ है।


सनातन संस्कृति के कारण इस पावन धरा पर एक अत्यंत दिव्य विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र निर्मित हुआ। प्राकृतिक पर्यावरण कठिन तप, ज्ञान, योग, ध्यान, सत्संग, यज्ञ, भजन, कीर्तन, कुम्भ तीर्थ, देवालय और विश्व मंगल के शुभ मानवीय कर्म एवं भावों से निर्मित इस दिव्य इलेक्ट्रो-मैगनेटिक फील्ड से अत्यंत प्रभावकारी विद्युत चुम्बकीय तरंगों का विकिरण जारी है इसी से समग्र भू-मण्डल भारत की ओर आकर्षित होता रहा है और होता रहेगा। भारतीय संस्कृति की यही विकिरण ऊर्जा ही हमारी चिरंतन परम्परा की थाती है। भूगोल, इतिहास और राज्य व्यवस्थाओं की क्षुद्र संकीर्णताओं के इतर प्रत्येक मानव का अभ्युदय और निःश्रेयस ही भारत का अभीष्ट है। साम्राज्य भारत का साध्य नहीं वरन् साधन है। परिणामतः हिन्दू साम्राज्य किसी समाज, देश और पूजा पद्धति को त्रस्त करने में कभी उत्सुक नहीं रहे। यहां तो सृष्टि का कण-कण अपनी पूर्णता और दिव्यता के साथ खिले इसका सतत प्रयत्न किया जाता है। आवश्यकतानुरूप त्यागमय भोग ही अभीष्ट है तभी तो दातुन हेतु भी वृक्ष की एक टहनी तोड़ने के पूर्व हम वृक्ष की प्रार्थना करते हैं और कहते हैं कि-
आयुर्बलं यशो वर्चः
प्रजा
पशु वसूनिच।
ब्रह्म प्रज्ञां च मेधां च
त्ंवनो
देहि वनस्पति।।
(वाधूलस्मृति 35, कात्यायन स्मृति 10-4, विश्वामित्र स्मृति 1-58, नारद पुराण 27-25, देवी भागवत 11-2-38, पद्म पुराण 92-12)

दरअसल भारत का राष्ट्रजीवन सत्यकामी है। उसने पाया कि मनुष्य एक रहस्य है। तमाम आधुनिक वैज्ञानिक खोजों और विचार तथा दर्शन की हजारों व्याख्याओं के बावजूद मनुष्य एक पहेली है। एक अचरज है। एक अचम्भा है।

भारत सत्य का सनातन खोजी बना। सत्य की खोज भारत का स्वभाव बना। इसलिए भारत सिर्फ एक भूखंड ही नहीं है। यह सिर्फ एक सम्प्रभु राज्य भी नहीं है। भारत समूची सृष्टि के रहस्यों को जान लेने की सनातन अभीप्सा है। भारत और सत्य अभीप्सा पर्यायवाची है। भारत और अमृत-प्यास समानार्थी हैं। भारत सनातन यात्रा है। यह यात्रा कब प्रारम्भ हुई? किस जगह प्रारम्भ हुई? कब समाप्त होगी? इन प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं दिया जा सकता। इसीलिए भारत के पास आधुनिक शैली वाला इतिहास नहीं है। ‘सनातन’ का कोई इतिहास होता भी नहीं ऐसे प्रश्नों का उत्तर देना जरूरी ही हो तो कह सकते हैं भारत की सनातन यात्रा अनन्त से अनन्त की दिव्ययात्रा है।

भारत विश्व मनुष्यता का स्वर्णिम अतीत है और भारत ही विश्व मनुष्यता का इन्द्रधनुषी सपना भी। भारत उदास होता है तो विश्व मनुष्यता का कोई भविष्य नहीं है। भारत के भाग्य के साथ समूची विश्व मानवता का भाग्य नत्थी है। समूची पृथ्वी पर र्सिु भारत ने अपनी समूची जीवन ऊर्जा को सत्य की खोज से जोड़ा। भारत ने पूरी विनम्रता और आत्यंतिक निरंहकारिता के साथ विश्व कल्याण की खातिर ही अपना सर्वस्व लुटाया। हमारे पूर्वजों ने भौतिक समृद्धि की परवाह नहीं की। उन्हांेंने भूख और नींद जैसी अतिआवश्यक जैविक जरूरतों को भी नजरंदाज करते हुए ज्ञान, भक्ति, योग, तंत्र और ध्यान जैसे आंतरिक संसाधनों का विकास किया। इस देश ने विश्वमानवता के ज्ञात इतिहास में कोई 10-12 हजार वर्ष की सत्यखोजी तप साधना चलाई है।

भारत एक देश है और सभी भारतीय जन एक है, परन्तु हमारा यह विश्वास है कि भारत के एकत्व का आधार उसकी युगों पुरानी अपनी संस्कृति में निहित है।

अनादिकाल से भारत में वैचारिक स्वतंत्रता प्रत्येक मनुष्य को प्राप्त रही है। प्राचीनकाल से ऋषियों, मनीषियों द्वारा समग्र जीवन दाव पर लगाकर भी अप्रतिम जीवन रहस्य खोजे गये। आत्मा और परमात्मा के गूढ़तर सम्बंध के इस सत्य साधकों ने कभी भी अंतिम सत्य प्राप्त कर लेने का दावा नहीं किया। अपना अंतिम अभुभव बताने के पश्चात् भी वे ऋषिगण ‘नेति-नेति’ कहकर अपने आगत पीढि़यों को पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराते थे। ‘‘नेति- (ऩइति, यह अंतिम नहीं है) नेति’’ वालों ने यह उद्घोष कर दिया था कि ‘‘आत्म दीपोभव’’ (उपनिषद वाक्य) अर्थात् स्वयम् का ज्ञानदीप प्रज्जवलित करो। इसी मौलिक विचार सूत्र से अनुप्राणित होकर महात्मा बुद्ध ने भी कहा था कि ‘‘किसी सत्य को इसलिए मत मान लो कि किसी बड़ी पुस्तक में लिखा है या इसलिए भी मत मान लो कि किसी अत्यंत प्रभावशाली व्यक्ति ने कहा है अपितु, उस विचार को अपनी प्रज्ञा की कसौटी पर देखो और यदि सत्य लगे तो ही स्वीकार करना। उपर्युक्त श्रुति को ही उन्होंने पालि भाषा में ‘‘अप्प दीपो भव’’ कहा था। इस प्रकार प्रत्येक मनुष्य के आत्मविकास की अन्यतम सम्भावनाओं के खिलने का अवसर उपलब्ध कराना भारतीय धर्म का वैचारिक पद्धति रही है।

Tuesday, March 12, 2013

राष्ट्रवाद को जन-जन तक पहुंचाएं


जागरण संवाददाता, धनबाद : नेताजी की जयंती एवं दृष्टि 2013 के युवा महोत्सव के अंतर्गत बुधवार को दिल्ली पब्लिक स्कूल के स्वामी विवेकानंद सभागार में परिसंवाद हुआ। इसका विषय स्वामी विवेकानंद और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद था। इसमें बतौर मुख्य वक्ता माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विवि के प्रकाशन पदाधिकारी डा.सौरभ मालवीय उपस्थित हुए। डॉ. मालवीय ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर अपने शोध श्रोताओं के समक्ष प्रस्तुत किया। इस दौरान विश्र्वनाथ बागी, कंसारी मंडल, इंद्रजीत सिंह, श्रीकांत मिश्र, शशि तिवारी, पीके भट्टाचार्य, सत्यप्रकाश मानव ने भी इस गंभीर विषय पर अपने-अपने विचार रखे। सभी ने राष्ट्रवाद की भावना जन-जन तक पहुंचाने का संकल्प लिया। कार्यक्रम का सफल बनाने में बृजेश, केशव झा, संतोष झा, रमेश कुमार, रविंद्र, आईएसएम के छात्र और दृष्टि 2013 के अन्य राष्ट्रीय संगठनों का महत्वपूर्ण योगदान रहा। दृष्टि 2013 की ओर से 12 जनवरी से 23 मार्च तक युवा महोत्सव मनाया जा रहा है। यह कार्यक्रम उसी की एक कड़ी है।

Saturday, March 9, 2013

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और मीडिया


डॉ. सौरभ मालवीय
हिन्दी समाचार पत्रों के आलोक में भारतीय पत्रकारिता विशेषकर हिन्दी समाचार पत्र-पत्रिकाओं में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की प्रस्तुति को लेकर किये गये अध्ययन में अेनक महत्वपूर्ण तथ्य उभरकर सामने आये हैं। सामान्यतः राष्ट्र, राष्ट्रवाद, संस्कृति और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद जैसे अस्थुल व गुढ़ विषय के बारे में लोगों की अवधारणाएं काफी गड़मड़ है। आधुनिक षिक्षा पद्धति यानि षिक्षा के मौजूदा सरोकार और तौर-तरीके तथा अध्ययन सामाग्री और विधि इसमें दिखाई दे रहे हैं। मीडिया के प्रचलन और इसके विकास के बाद जो आस जागी थी कि यह भारतीय जनमानस में विषयों को भारतीय दृष्टि से एक समग्र दृष्टिकोण (भारतीय दृष्टिकोण) विकसित करने में उपयोगी भूमिका निभायेगी। दुर्भाग्य से जनमाध्यम भी इस संदर्भ में विभ्रम की स्थिति में है। चंूकि इन माध्यमों पर धारा विषेष के लोगों में से अधिकांष की षिक्षा पद्धति और सोच के सरोकार पष्चिमी है या भारतीय होते हुए भी इनकी सोच पर पष्चिम की श्रेष्ठता का आधिपत्य है। ऐसी स्थिति में इनसे वृहद परिवर्तन कामी दृष्टिकोण की दिषा-दषा में आमूल-चूक परिवर्तन की उम्मीद करना ही वेमानी है।
अध्ययन में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के संबंध में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह प्रकाष आया है कि राष्ट्र के संबंध में कथित बौद्धिक सभ्रान्त लोगों की अवधारणा ही भ्रामक और अस्पष्ट है। प्राकारान्तर से हम यूं कहें कि इनकी सोच पर पष्चिमी षिक्षा का या षिक्षा के यूरोपीकरण का प्रभुत्व है। अतिरेक न होगा। अधिकांष बुद्धिजीवी राष्ट्र का अर्थ सांस्कृतिक सरोकारों से युक्त नहीं मानते। उनकी सोच के भ्रामक स्थिति के चलते राष्ट्रवाद जैसे व्यापक और वृहद अर्थ ग्रहण वाले शब्द का अर्थ संकुचित अर्थों में आकार पाता है। इन लोगों का मनना है कि राष्ट्र का अभिप्राय क्षेत्र विषेष में रहने वाली विषेष या कुछ जातियों से है। प्रायः जिनमें सांस्कृतिक तौर पर सभ्यता पायी जाती है।
 राष्ट्र की इनकी परिभाषा को स्व्ीकार करने पर भारत बहु-सांस्कृतियों वाला राष्ट्र न होकर एक ऐसा क्षेत्र विषेष होगा जिनको बहुराष्ट्रीय संस्कृति वाला देष कहेंगे। जो देष की सांस्कृतिक और राष्ट्रीय विरासत की दृष्टि से ठीक नहीं होगा। इसको स्व्ीकार करने का अर्थ होगा कि हम यूरोप और अमेरिका के भारत को खण्ड-खण्ड करने वाले दृष्टि के पक्ष में खड़े होंगो जिनका एक मात्र ध्येय भारत को एक राष्ट्र नहीं, राष्ट्रों के समूह के (उप महाद्वीप) रूप में अधिस्थापित करना है। वे भारत को एक राष्ट्र न मानकर भारतीय उप महाद्वीप जैसे नामों से संबोधित करते हैं, जो इनकी अखण्ड भारती की एकता के प्रति संकुचित दृष्टिकोण को परिलक्षित करता है।

       ’आधुनिक बुद्धिजीवी’ राष्ट्र और देष को प्रायः समानार्थी रूप में न सिर्फ प्रयोग करते हैं बल्कि स्वीकार भी करते हैं। कुछ कथित बुद्धिजीवी देष को राष्ट्र से व्यापक इकाई के रूप में परिभाषित करते हैं। राष्ट्र के ऊपर देष के व्यापकता स्वीकार करने का अर्थ होगा कि राष्ट्र को सिर्फ भू-स्थैतिक व्यापकत्व को स्वीकार करना। ये राष्ट्र और राज्य और देष किसी भी रूप में एक नहीं है। दुनिया के अधिकांष विद्वान वेद को प्राचीनतम ज्ञान कोष मानते हैं ऋषि परम्परा के अनुसार राष्ट्र शब्द का प्रयोग भारत में राष्ट्रवाद का इतिहास चार सौ वर्ष से ज्यादा पुराना नहीं है। यह अलग विषय है कि छिट-पुट रूप की अवधारणा प्रचलन में थी। राष्ट्र राज्य के संबंध में आधुनिक, राजनैतिक विदों का मानना है कि यह परिस्थितिजन्य प्रतिक्रिया का परिणाम नहीं है। बल्कि वस्तु स्थिति यह है कि दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों में प्रभुत्व में अभी राष्ट्रवादी चेतना का केन्द्रीय स्रोत भारत ही था।
 भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का मूल उसकी संस्कृति में है। जो कि शेष दुनिया में प्रचलित राष्ट्र राज्य की अवधारणा में सर्वथा अनुपस्थित है। संस्कृतिमूलक राष्ट्र भाव का जिक्र वेदों में कई जगह आया है। यजुर्वेद में एक राष्ट्रीय गीत का उल्लेख भी मिलता है जिसमें ऋषि ने राष्ट्र में तेज्स्वी विद्वानों, पराक्रमी योद्धाओं, दुधारू पषुओं, तिब्रगामी अष्वों, गुणवती नारीयों, विजय कामी सभ्य जनों, समयानुकूल वर्षा और हरी-भरी कृषि की कामना की है, साथ ही इस गीत में राष्ट्र के योग क्षेम की कामना चाही गई है। प्राकारान्तर से आधुनिक लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को इसके षिषु के रूप में उल्लेखित किया जा सकता है।

       अध्ययन से एक ओर जो महत्वपूर्ण तथ्य उजागर हुआ है -राजनैतिक सत्ता के अतिरिक्त भी राष्ट्र का अपना कुछ अलग अस्तित्व होता है जो इसकी संस्कृति और जीवन पद्धति से न सिर्फ पुष्ट होता है बल्कि अघोषित तौर पर सत्ता जनीत शक्ति का केन्द्र होता है। यह दुनिया के प्रत्येक देष में सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदि अन्यान्य दबाव समूहों के रूप में मौजूद रहता है। कल्पना करें अगर सांस्कृतिक टकराव नहीं होता तो क्या भारत-पाकिस्तान दो देष बनते और भारत का विभाजन होता ? यह राष्ट्रों के इसी सत्य की ओर इंगित करता है।

      कोई माने या न माने दुनिया के प्रत्येक देष की सत्ता उसके सांस्कृतिक सरोकारों से प्रभावित व आप्लावित होती है। अन्तर सिर्फ इतना है दुनिया के राष्ट्रों के सांस्कृतिक सरोकार आपस में कई बार चुनौति या प्रतिद्वन्दी के रूप में खड़े नजर आते हैं। वहीं सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की भारतीय अवधारणा सिर्फ स्वहित पोषण या संरक्षण की बात नहीं करते बल्कि दुनिया के हितों में ही खुद के हितों को संरक्षित मानते हैं। यहां बनस्पतियैं शान्ति की अवधारणा न सिर्फ अभिसिंचित बल्कि जीवन्त है।

      सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की धारणा राष्ट्रीय हितों को सिर्फ आर्थिक सरोकारों से समतुल्य करके नहीं देखती। अपेक्षात्मक तौर पर मानवीय सरोकार और हित इसके लिए अधिक मायने रखते हैं। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद राष्ट्र के लिए सिर्फ राजनैतिक व भू स्थैतिक एकता और संप्रभुता को आधार नहीं मानती बल्कि सांस्कृतिक एकता को उसका प्रमुख आधार मानती है। इसके अनुसार सांस्कृतिक भिन्नता राष्ट्र के स्तित्व के लिए कोई खतरा नहीं है जबकि भिन्न-भिन्न सांस्कृतिक मूल्यों के बीच स्तित्व की भावना के आधार पर यह राष्ट्र मूल्य की बात करता है। बहुत सारे विद्वान भारत को एक राष्ट्र के रूप में मौजूदा स्तित्व के पीछे उसकी द्धैवि शक्ति को मानते है - यह दैविषक्ति कुछ और नहीं बल्कि इसके सांस्कृतिक मूल्य ही हैं  जो इसे अखण्ड राष्ट्र के तौर पर पूरब से लेकर पष्चिम तक और उत्तर से लेकर दक्षिण तक बनाये हुए हैं।

        हिन्दी पत्रों के प्रकाष मंें भारतीय पत्रकारिता विषेषकर हिन्दी समाचार पत्र -पत्रिकाओं में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद मीडिया के परिपेक्ष्य में जो अध्ययन किया गया उसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य प्रथम दृष्टया यह उजागर हुआ कि मीडिया और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के बीच  अन्योन्याश्रीत सम्बन्ध रहे हैं अभिप्रायतः स्वतंत्रता पूर्ण भारतीय पत्रकारिता के पत्रकारिय सरोकार मूलतः राष्ट्रवादी है इसे हम यू भी कह सकते हैं कि भारती की मूल्य परख राष्ट्रवादी पत्रकारिता और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के मूल्यों में कोई विषेष विभेद नहीं है। दोनों समग्र राष्ट्रीय और सांस्कृतिक हितों की वकालत करते है। समप्रति नेहरू युगीन पत्रकारिता के सरोकार भी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के मूल्यों से उद्देष्यगत विभेद नहीं रखते इनके विभेद तौर-तरीकों और अपनाये गये संसाधनों को लेकर है।
 इस अध्याय में निर्णायक निष्कर्ष यह उभर कर आया कि राष्ट्रीय स्तर पर पत्रकारिय मूल्यों और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के मूल्यों में बिभेद उस काल में विषेष तौर पर उभर कर आया। जब भारतीय सकारात्मक अधिष्ठान में वामपंथी हस्तक्षेप शक्तिवत वढ़ गया यह दौर राष्ट्रीय परिदृष्य में स्वतंत्रता के बाद प्रभावी हुआ।

      वस्तु स्थिति यह है कि जैसे-जैसे केन्द्र और राज्य स्तर पर समाजवादी और वामपंथी विचारधारा सत्ता के करीब आती गई या इनका सीधे या परोक्ष हस्तक्षेप बढ़ने लगा उसी अनुपात में सिर्फ सत्तात्मक अधिष्ठान से बल्कि पत्रकारिय जगत से भी सांस्कृतिक राष्ट्रवादी विचारधारा का लोप होना या उनका नकारात्मक प्रचार बढ़ गया।

       अध्ययन के अनुसार मीडिया जगत में सांस्कृतिक मूल्यों से जुड़े पत्रकारों का कभी कोई अभाव नहीं रहा है लेकिन सौभाग्य या दुर्भाग्य से इनका नेतृत्व सांस्कृतिक राष्ट्रवाद विरोधी विचारधारा के लोगों के हाथों में रहा है। इसके पीछे सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण सत्ता में इस विचारधारा के लोगों का अधिक मूखर और शक्तिषाली होना रहा है। निष्कर्षतः सांस्कृतिक राष्ट्रवादी विचारधारा से संबंधित समाचारों का कवरेज नकारात्मक तौर पर अधिक किया जाता है और इसी रूप में वे पत्रों में स्थान भी पा रहे हैं इसे संबंधित नकरात्मक तथ्यों और मूल्यों को सर्वाधिक तौर पर उभारा जाता है।
 अध्ययन के अनुसार जो सर्वाधिक तथ्य यह उभर कर सामने आया कि मांग या रूचि आधारित न होकर अधिरोपित अधिक है। जो इस बात के गवाह है कि मीडिया सत्ता में किन लोगों का आधिपत्य है जबकि सामाजिक अभिरूचि इस मामले में मीडिया से मेल नहीं खाते शोध में किये गये सर्वेयात्मक अध्ययन के अनुसार 80 प्रतिषत पाठक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के बारे में रूचि रखते हैं और वे इसके बारे में वस्तुनिष्ठ जानकारी चाहते हैं।

       उपरोक्त सर्वेक्षण से कई भ्रंतियां समाप्त हो जाती हैं। पहली भ्रांति तो यह निर्मूल होती है कि आज का पाठक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के बारे में पढ़ना व जानना नहीं चाहता है। सर्वेक्षण के परिणामों से स्पष्ट होता है कि 80 प्रतिशत पाठक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के बारे में पढ़ने में रूचि रखते हैं (सारणी 39) और 60 प्रतिशत पाठकों का मानना है कि मीडिया में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को उचित महत्व नहीं दिया जाता है। यह आंकड़ा उन संपादकों और मीडिया घरानों के लिए चैंकाने वाला हो सकता है जो अभी तक यह मानते रहे हैं कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद एक कालबाह्य विचार है और आज का पाठक उसमें रूची नहीं रखता।

यह आंकड़ा और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जब हम यह देखते हैं कि सर्वेक्षण के प्रतिभागियों में सबसे अधिक संख्या युवाओं (40 प्रतिशत; सारणी 21) और स्नातक या उससे अधिक शिक्षितों (44 प्रतिशत; सारणी 26) की है। यानी शिक्षित युवा भी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के बारे में पढ़ने और जानकारी रखने में पर्याप्त रूचि रखते हैं। सर्वेक्षण से यह भी स्पष्ट होता है कि पाठक मीडिया में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को दिए जाने वाले महत्व व स्थान से संतुष्ट नहीं हैं और 60 प्रतिशत पाठकों का मानना है कि मीडिया में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को उचित महत्व नहीं दिया जा रहा है।
 रोचक बात यह भी है कि 41 प्रतिशत प्रतिभागियों ने इसका कारण मीडिया का अपना पूर्वाग्रह बताया जबकि 23 प्रतिशत पाठकों का मानना था कि देश में ऐसी गतिविधियों के कम होने के कारण मीडिया में इसे कम स्थान मिलता है।
 
     बहरहाल इस सर्वेक्षण से यह स्पष्ट हो जाता है कि देश का पाठक वर्ग मीडिया में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को दिए जा रहे महत्व व स्थान से असंतुष्ट है और वह इस पर और सामग्री पढ़ना चाहता है।
(मेरे शोध का अंश)
संपर्क
डॉ. सौरभ मालवीय
सहायक प्राध्यापक
माखनलाल चतुर्वेदी
राष्‍ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल (मध्य प्रदेश)
मो. +919907890614
ईमेल : drsourabhmalviya@gmail.com

भारतीय समाज और मीडिया


डॉ. सौरभ मालवीय
आज संपूर्ण विश्व विज्ञान की प्रगति और संचार माध्यमों के कारण ऐसे दौर में पहुंच चुका है कि मीडिया अपरिहार्य बन गई है. बड़ी-बड़ी और निरंकुश राज सत्ताएं भी मीडिया के प्रभाव के कारण धूल चाट रही है, वरना किसको अनुमान था कि लीबिया के कर्नल मुहम्मद अल गद्दाफी भी धूल चाट लेंगे. मिस्र, यमन और सूडान में जो जन विद्रोह हुए वह कल्पनातीत ही था. सर्व शक्ति संपन्न अमेरिका के ग्वांतानामो और अबू गरीब जेल में जो अमानुषिक यंत्रणा दी जाती है, वह मीडिया के द्वारा ही तो जाना गया. ऒस्ट्रेलिया के जूलियस असांत्जे की विकीलीक्स में विश्व राजनीतिक संबंधों पर पुर्नविचार के लिए बाध्य हो गया. कुल मिलाकर यह अघोषित सत्य हो गया है कि मीडिया को दरकिनार करके जी पाना अब असंभव है. लोकतांत्रिक देशों में तो मीडिया चतुर्थ स्तंभ के रूप में ही जाने जाता है. इस खबर पालिका को कार्यपालिका, विधायिका, न्यायापालिका के समकक्ष ही रखा जाता है. खबर पालिका के अभाव में वह लोकतंत्र लंगड़ा व तानाशाह भी हो जाता है. बहुत पहले प्रयाग के एक शायर अकबर इलाहाबादी ने खबर पालिका की ताकत को राज सत्ता की तोपों से भी ज्यादा शक्तिशाली माना था. उनका यह शेर खबर पालिका में ब्रम्ह बाक्य बन गया-
खींचों न कमाने व न तलवार निकालो
जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो
इन सारी बुलंदियों के बीच खबर पालिका को एक मिशन बनकर उभरना चाहिए. खबर पालिका से जुड़े लोग स्वयं निर्मित एवं स्वयं चयनित होते हैं. ऐसे में राष्ट्र और समाज के प्रति उनका उत्तरदायित्व और गहरा हो जाता है. यदि वह अपने इस कर्तव्य बोध को ठीक से न समझे तो उनके पतीत होने की संभावना पग-पग बनी रहती है. भारत के दुर्भाग्य से भारत में दो प्रकार की खबर पालिका है, जो समानांतर जी रही हैं. एक भारत का प्रतिनिधित्व करता है जिसकी पहुंच भारत की भाषा और बोली में 90 प्रतिशत जनता तक है, लेकिन 90 प्रतिशत यह लोग कम शिक्षित और चकाचौंध से दूर रहने वाले ही हैं. दूसरी मीडिया जो इंडिया का प्रतिनिधित्व करती है वह 3 प्रतिशत से भी कम लोगों की है लेकिन वह तीसरे पेज पर छाये रहने वाले लोगों के बूम से चर्चित रहती है. यह तीसरे पेज वाले लोग स्वयंभू शासक है और उन्होंने मान लिया है कि भारत पर शासन करने, इसकी दशा और दिशा तय करने और भारतीयों को हांकने की मोरूसी लाठी उन्हीं के पास है और यह लोग खबरों को मनमाने ढंग से तोड़ते-मरोड़ते और प्लाटिंग करते रहते हैं. पिछले साल संपन्न हुए कामनवेल्थ खेलों के दौरान और 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की अनियमित्ता में नीरा राड़िया के सामने इस इंडिया के अनेक मीडियाकर नंगे पाए गए. कहां पत्रकारिता का आदर्श गणेश शंकर विद्यार्थी, बाबू विष्णु पराडकर, पूर्णचन्द्र गुप्त, महावीर प्रसाद आदि और कहां आज सर्व सुविधायुक्त जमाने में नीरा राडिया का आदर्श. यह तो होना ही था. जब पत्रकार अपने आदर्शों से चूकता है तो वह पूरी व्यवस्थाओं को लेकर डूबता है. पहले ऐसे पत्रकार ‘पीत पत्रकार’ की सूची में जाति भ्रष्ट होते थे. अब तो इन कुजातियों को एक अवसर ही ‘पेड न्यूज’ में दे दिया गया है, लेकिन बात सबसे अधिक तब अखरती है जब पत्रकार दलाल पत्रकारिता और सुपारी पत्रकारिता के स्तर पर पतित होता है.
आज हिन्दी पत्रकारिता में दैनिक जागरण और दैनिक भास्कर समूह की यह स्थिति है कि इनमें से किसी एक के बराबर भी पूरे भारत की सारी प्रिंट मीडिया मिलकर भी नहीं है. लेकिन दुर्भाग्य है भारत का कि 2 प्रतिशत लोगों के लिए छपने वाले अंग्रेजी समाचार पत्र भारत का नेतृत्व संभालने का दावा करते हैं. दृश्य पत्रकारिता में अनेक ऐसे ग्रुप आ गए हैं, जो अपने राजनैतिक आका की जी-हजूरी को अपना धर्म मानते हैं. अन्यथा सन टीवी और मलयालम मनोरमा का उदय भी कैसे होता? यह तो भला हो 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले का कि इन लोगों का कुकर्म सामने आ गया. उत्तर भारत के समाचारपत्रों में भी एक-दो छोड़कर ऐसा कोई समाचार समूह नहीं है, जो अपने राजनीतिक देवताओं की जी-हजूरी न बजाता हो. सहारा समूह, नेशनल हेराल्ड, ऐशियन ऐज, नई दुनिया, टाईम्स ग्रुप आदि की स्वामी भक्ति के आगे तो शर्म भी शर्मशार होने लगी है. ‘इंडिया एक्सप्रेस’ ने जब-जब सहास किया, तब-तब सत्ताधारियों ने उसकी कमर तोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी. वह तो रामनाथ गोयनका और अरूण शौरी की इतनी प्रभुत्य तपस्या थी कि उनका कुछ भी नहीं बिगड़ा. आज भी सत्ता समर्थक मीडिया को सरकारी विज्ञापनों से मालामाल कर दिया जाता है और सत्य समर्थक मीडिया पर सरकारी पुलिसिया रौब के डंडे फटकारे जाते हैं, उनका जीना दुभर कर दिया जाता है. उन्हें संसदीय या विधानसभाई कार्यवाहियों के प्रवेश पत्र भी नहीं दिये जाते हैं, जबकि सरकारी भौपूओं को देश-विदेश की असमिति यात्राओं सहित फ्लैट्स और अनन्यान्य प्रकार की सभी सुविधाओं से सजाकर दामाद जी जैसी आवभगत की जाती है.

अल्पसंख्यकवाद से मुक्ति पर विचार हो

  - डॉ. सौरभ मालवीय      भारत एक विशाल देश है। यहां विभिन्न समुदाय के लोग निवास करते हैं। उनकी भिन्न-भिन्न संस्कृतियां हैं , परन्तु सबकी...