Friday, September 6, 2019
Monday, September 2, 2019
Thursday, July 25, 2019
Thursday, May 30, 2019
Wednesday, May 29, 2019
"न्यू मीडिया के आगे नतमस्तक मुख्यधारा की मीडिया"
प्रवक्ता डॉट कॉम के 10 वर्ष पूर्ण होने के अवसर पर, "न्यू मीडिया के आगे नतमस्तक मुख्यधारा की मीडिया" विषय पर 16 अक्टूबर 2018 को शायं 5 बजे कॉन्स्टिट्यूशन क्लब ऑफ इंडिया के स्पीकर हॉल में संगोष्ठी का आयोजन किया जा रहा है।
वक्ता के रूप में :
अमर उजाला के समूह सम्पादक, श्री उदय सिन्हा
माइक्रोसॉफ्ट के भाषा स्थानीयकरण के निदेशक और सोशल मीडिया विशेषज्ञ, बालेंदु शर्मा दधीचि,
ज़ी मीडिया समूह के राजनीतिक मामलों के समूह सम्पादक, बृजेश कुमार सिंह
न्यूज़ नेशन में संपादक, विनीता यादव
कार्यक्रम की अध्यक्षता IGNCA के सदस्य सचिव सचिदानंद जोशी करेंगे।
कार्यक्रम का संचालन माखनलाल में सहायक प्राध्यापक डॉ सौरभ मालवीय
कार्यक्रम में स्वागत भाषण प्रवक्ता डॉट कॉम के संस्थापक भारत भूषण एवं धन्यवाद ज्ञापन संस्थापक संपादक संजीव सिन्हा करेंगें।
वक्ता के रूप में :
अमर उजाला के समूह सम्पादक, श्री उदय सिन्हा
माइक्रोसॉफ्ट के भाषा स्थानीयकरण के निदेशक और सोशल मीडिया विशेषज्ञ, बालेंदु शर्मा दधीचि,
ज़ी मीडिया समूह के राजनीतिक मामलों के समूह सम्पादक, बृजेश कुमार सिंह
न्यूज़ नेशन में संपादक, विनीता यादव
कार्यक्रम की अध्यक्षता IGNCA के सदस्य सचिव सचिदानंद जोशी करेंगे।
कार्यक्रम का संचालन माखनलाल में सहायक प्राध्यापक डॉ सौरभ मालवीय
कार्यक्रम में स्वागत भाषण प्रवक्ता डॉट कॉम के संस्थापक भारत भूषण एवं धन्यवाद ज्ञापन संस्थापक संपादक संजीव सिन्हा करेंगें।
सामाजिक क्रांति के अग्रदूत : बाबासाहेब आंबेडकर
-डॊ. सौरभ मालवीय
सामाजिक समता, सामाजिक न्याय, सामाजिक अभिसरण जैसे समाज परिवर्तन के मुद्दों को प्रमुखता से स्वर देने और परिणाम तक लाने वाले प्रमुख लोगों में डॊ. भीमराव आंबेडकर का नाम अग्रणीय है। उन्हें बाबा साहेब के नाम से जाना जाता है। एकात्म समाज निर्माण, सामाजिक समस्याओं, अस्पृश्यता जैसे सामजिक मसले पर उनका मन संवेदनशील एवं व्यापक था। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन ऊंच-नीच, भेदभाव, छुआछूत के उन्मूलन के कार्यों के लिए समर्पित कर दिया। वे कहा करते थे- एक महान आदमी एक आम आदमी से इस तरह से अलग है कि वह समाज का सेवक बनने को तैयार रहता है। 4 अप्रैल, 1891 को मध्य प्रदेश के महू में जन्मे भीमराव आंबेडकर रामजी मालोजी सकपाल और भीमाबाई की चौदहवीं संतान थे। वह हिंदू महार जाति से संबंध रखते थे, जो अछूत कहे जाते थे। इसके कारण उनके साथ समाज में भेदभाव किया जाता था। उनके पिता भारतीय सेना में सेवारत थे। पहले भीमराव का उपनाम सकपाल था, लेकिन उनके पिता ने अपने मूल गांव अंबाडवे के नाम पर उनका उपनाम अंबावडेकर लिखवाया, जो बाद में आंबेडकर हो गया। पिता की स्वानिवृत्ति के बाद उनका परिवार महाराष्ट्र के सतारा में चला गया। उनकी मां की मृत्यु के बाद उनके पिता ने दूसरा विवाह कर लिया और बॉम्बे में जाकर बस गए। यहीं उन्होंने शिक्षा ग्रहण की। वर्ष 1906 में मात्र 15 वर्ष की आयु में उनका विवाह नौ वर्षीय रमाबाई से कर दिया गया। वर्ष 1908 में उन्होंने बारहवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की। विद्यालय की शिक्षा पूर्ण करने के बाद उन्होंने बॉम्बे के एल्फिनस्टोन कॉलेज में दाखिला लिया। उन्हें गायकवाड़ के राजा सहयाजी से 25 रुपये मासिक की स्कॉलरशिप मिलने लगी थी। वर्ष 1912 में उन्होंने राजनीति विज्ञान व अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि ली। इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए वह अमेरिका चले गए। वर्ष 1916 में उन्हें उनके एक शोध के लिए पीएचडी से सम्मानित किया गया। इसके बाद वह लंदन चले गए, किन्तु उन्हें बीच में ही लौटना पड़ा। आजीविका के लिए इस समयावधि में उन्होंने कई कार्य किए। वह मुंबई के सिडनेम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनोमिक्स में राजनीतिक अर्थव्यवस्था के प्राध्यापक भी रहे। इसके पश्चात एक बार फिर वह इंग्लैंड चले गए। वर्ष 1923 में उन्होंने अपना शोध ’रुपये की समस्याएं’ पूरा कर लिया। उन्हें लंदन विश्वविद्यालय द्वारा ’डॉक्टर ऑफ साईंस’ की उपाधि प्रदान की गई। उन्हें ब्रिटिश बार में बैरिस्टर के रूप में प्रवेश मिल गया। स्वदेश वापस लौटते हुए भीमराव आंबेडकर तीन महीने जर्मनी में रुके और बॉन विश्वविद्यालय में उन्होंने अपना अर्थशास्त्र का अध्ययन जारी रखा। उन्हें 8 जून, 1927 कोलंबिया विश्वविद्यालय द्वारा पीएचडी प्रदान की गई।
भीमराव आंबेडकर को बचपन से ही अस्पृश्यता से जूझना पड़ा। विद्यालय से लेकर नौकरी करने तक उनके साथ भेदभाव किया जाता रहा। इस भेदभाव और निरादर ने उनके मन को बहुत ठेस पहुंचाई। उन्होंने छूआछूत के समूल नाश के लिए कार्य करने का प्रण लिया। उन्होंने कहा कि नीची जाति व जनजाति एवं दलित के लिए देश में एक भिन्न चुनाव प्रणाली होनी चाहिए। उन्होंने देशभर में घूम-घूम कर दलितों के अधिकारों के लिए आवाज उठाई और लोगों को जागरूक करने का कार्य किया। उन्होंने एक समाचार-पत्र ‘मूक्नायका’ (लीडर ऑफ़ साइलेंट) प्रारंभ किया। एक बार उनके भाषण से प्रभावित होकर कोल्हापुर के शासक शाहूकर ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया, जिसकी देशभर में चर्चा हुई। इस घटना ने भारतीय राजनीति को एक नया आयाम दिया। वर्ष 1936 में भीमराव आंबेडकर ने स्वतंत्र मजदूर पार्टी की स्थापना की। अगले वर्ष 1937 के केन्द्रीय विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी ने 15 सीटों पर विजय प्राप्त की। उन्होंने इस दल को ऒल इंडिया शिड्यूल कास्ट पार्टी में परिवर्तित कर दिया। वह वर्ष 1946 में संविधान सभा के चुनाव में खड़े हुए, किन्तु उन्हें असफलता मिली। वह रक्षा सलाहकार समिति और वाइसराय की कार्यकारी परिषद के लिए श्रम मंत्री के रूप में सेवारत रहे। वह देश के पहले कानून मंत्री बने। उन्हें संविधान गठन समिति का अध्यक्ष बनाया गया। भीमराव आंबेडकर समानता पर विशेष बल देते थे। वह कहते थे- अगर देश की अलग अलग जाति एक दुसरे से अपनी लड़ाई समाप्त नहीं करेंगी, तो देश एकजुट कभी नहीं हो सकता। यदि हम एक संयुक्त एकीकृत आधुनिक भारत चाहते हैं तो सभी धर्म-शास्त्रों की संप्रभुता का अंत होना चाहिए। हमारे पास यह आजादी इसलिए है ताकि हम उन चीजों को सुधार सकें, जो सामाजिक व्यवस्था, असमानता, भेदभाव और अन्य चीजों से भरी है जो हमारे मौलिक अधिकारों के विरोधी हैं। एक सफल क्रांति के लिए केवल असंतोष का होना ही काफी नहीं है बल्कि इसके लिए न्याय, राजनीतिक और सामाजिक अधिकारों में गहरी आस्था का होना भी बहुत आवश्यक है।
राजनीतिक अत्याचार सामाजिक अत्याचार की तुलना में कुछ भी नहीं है और जो सुधारक समाज की अवज्ञा करता है, वह सरकार की अवज्ञा करने वाले राजनीतिज्ञ से ज्यादा साहसी हैं। जब तक आप सामाजिक स्वतंत्रता हासिल नहीं कर लेते तब तक आपको कानून चाहे जो भी स्वतंत्रता देता है वह आपके किसी काम की नहीं।यदि हम एक संयुक्त एकीकृत आधुनिक भारत चाहते हैं तो सभी धर्म-शास्त्रों की संप्रभुता का अंत होना चाहिए। भीमराव आंबेडकर का बचपन परिवार के अत्यंत संस्कारी एवं धार्मिक वातावरण में बीता था। उनके घर में रामायण, पाण्डव प्रताप, ज्ञानेश्वरी व अन्य संत वांग्मय के नित्य पाठन होते थे, जिसके कारण उन्हें श्रेष्ठ संस्कार मिले। वह कहते थे- मैं एक ऐसे धर्म को मानता हूं जो स्वतंत्रता, समानता और भाई-चारा सिखाये। वर्ष 1950 में वह एक बौद्धिक सम्मेलन में भाग लेने के लिए श्रीलंका गए, जहां वह बौद्ध धर्म से अत्यधिक प्रभावित हुए। स्वदेश वापसी पर उन्होंने बौद्ध व उनके धर्म के बारे में पुस्तक लिखी। उन्होंने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया। उन्होंने वर्ष 1955 में भारतीय बौध्या महासभा की स्थापना की। उन्होंने 14 अक्टूबर, 1956 को एक आम सभा का आयोजन किया, जिसमें उनके पांच लाख समर्थकों ने बौद्ध धर्म अपनाया। इसके कुछ समय पश्चात 6 दिसम्बर, 1956 को दिल्ली में उनका निधन हो गया। उनका अंतिम संस्कार बौद्ध धर्म की रीति के अनुसार किया गया। वर्ष 1990 में मरणोपरांत उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया। कई भाषाओं के ज्ञाता बाबासाहब ने अनेक पुस्तकें भी लिखी हैं। बाबासाहब ने अंग्रेजी में ‘वेटिंग फॉर वीजा’ नाम से अपनी आत्मकथा लिखी थी। वह लिखते हैं- " यह घटना भी आंखें खोलने वाली है। यह घटना काठियावाड़ में एक गांव की अछूत विद्यालय में पढ़ाने वाले शिक्षक की है। मिस्टर गांधी द्वारा प्रकाशित जनरल ‘यंग इंडिया’ में यह घटना एक पत्र के माध्यम से 12 दिसंबर 1929 को सामने आई। इसमें लेखक ने अपने निजी अनुभव से बताया कि कैसे उसकी पत्नी की जिसने अभी बच्चे को जन्म दिया था, हिंदू चिकित्सक के ठीक से उपचार नहीं करने के कारण मत्यु हो गई। पत्र के अनुसार इस महीने की पांच तिथि को मेरा बच्चा हुआ था और सात तिथि को मेरी पत्नी बीमार हो गई। उसकी नब्ज धीमी हो गई और छाती फूलने लगी। उसको श्वास लेने में कष्ट होने लगा और पसलियों में तेज दर्द होने लगा। मैं एक चिकित्सक को बुलाने गया, लेकिन उसने कहा कि वह एक हरिजन के घर नहीं जाएगा और न ही वह बच्चे को देखने के लिए तैयार हुआ। तब मैं वहां से नगर सेठ और गारिसाय दरबार गया और उनसे मदद की भीख मांगी। नगर सेठ ने आश्वासन दिया कि मैं चिकित्सक को दो रुपये दे दूंगा। तब जाकर चिकित्सक आया। लेकिन उसने इस शर्त पर रोगी को देखा कि वह हरिजन बस्ती के बाहर रोगी को देखेगा। मैं अपनी पत्नी और नन्हे बच्चे को लेकर बस्ती के बाहर आया। तब चिकित्सक ने अपना थर्मामीटर एक मुसलमान को दिया और उसने मुझे दिया और मैंने अपनी पत्नी को। फिर उसी प्रक्रिया में थर्मामीटर वापस किया। यह लगभग रात के आठ बजे की बात है। बत्ती की प्रकाश में थर्मामीटर को देखते हुए चिकित्सक ने कहा कि रोगी को निमोनिया हो गया है। उसके बाद चिकित्सक चला गया और दवाइयां भेजीं। मैं हाट से कुछ लिनसीड खरीद कर ले आया और रोगी को लगाया। बाद में चिकित्सक ने रोगी को देखने से इंकार कर दिया, जबकि मैंने उसको दो रुपये दिये थे। रोग घातक था। अब केवल भगवान ही हमारी सहायता कर सकता था। मेरे जीवन की लौ बुझ गई। आज दोपहर दो बजे उसकी मत्यु हो गई। उस अछूत शिक्षक का नाम नहीं दिया हुआ है और इसी तरह से चिकित्सक का भी नाम नहीं लिखा हुआ है। अछूत शिक्षक ने बदले की कार्यवाही के डर के कारण नाम नहीं दिया, लेकिन तथ्य एकदम सही हैं। उसके लिए किसी स्पष्टीकरण की आवश्यकता नहीं है। शिक्षित होने के बाद भी चिकित्सक ने गंभीर रोगग्रस्त महिला को स्वयं थर्मामीटर लगाने से मना कर दिया और उसके मना करने के कारण ही महिला की मृत्यु हुई। उसके मन में बिलकुल भी उथल-पुथल नहीं हुई कि वह जिस कार्य से बंधा हुआ है उसके कुछ नियम हैं।" बाबासाहब ने जीवनपर्यंत छूआछूत का विरोध किया। उन्होंने दलित समाज के सामाजिक और आर्थिक उत्थान के लिए सरहानीय कार्य किए। वह कहते है कि आप स्वयं को अस्पृस्य न मानें, अपना घर साफ रखें। पुराने और घिनौने रीति-रिवाजों को छोड़ देना चाहिए। हमारे पास यह आज़ादी इसलिए है ताकि हम उन चीजों को सुधार सकें जो सामाजिक व्यवस्था, असमानता, भेद-भाव और अन्य चीजों से भरी हैं जो हमारे मौलिक अधिकारों की विरोधी हैं। राष्ट्रवाद तभी औचित्य ग्रहण कर सकता है, जब लोगों के बीच जाति, नस्ल या रंग का अन्तर भुलाकर उसमें सामाजिक भ्रातृत्व को सर्वोच्च स्थान दिया जाए। वह सामाजिक समानता का बहुत महत्व देते थे। वह कहते थे-जब तक आप सामाजिक स्वतंत्रता हासिल नहीं कर लेते, तब तक आपको कानून चाहे जो भी स्वतंत्रता देता है, वह आपके किसी काम की नहीं होती। एक सफल क्रांति के लिए सिर्फ असंतोष का होना ही काफी नहीं है बल्कि इसके लिए न्याय, राजनीतिक और सामाजिक अधिकारों में गहरी आस्था का होना भी बहुत आवश्यक है। राजनीतिक अत्याचार सामाजिक अत्याचार की तुलना में कुछ भी नहीं हैं। और जो सुधारक समाज की अवज्ञा करता है वह सरकार की अवज्ञा करने वाले राजनीतिज्ञ से ज्यादा साहसी है।
वह राजनीति को जनकल्याण का माध्यम मानते थे। वह स्वयं के बारे में कहते थे-मैं राजनीति में सुख भोगने नहीं बल्कि अपने सभी दबे-कुचले भाईयों को उनके अधिकार दिलाने आया हूं। मेरे नाम की जय-जयकार करने से अच्छा है, मेरे बताए हुए रास्ते पर चलें। वह कहते थे-न्याय हमेशा समानता के विचार को पैदा करता है। संविधान, यह एक मात्र वकीलों का दस्तावेज नहीं, यह जीवन का एक माध्यम है। यदि मुझे लगा कि संविधान का दुरूपयोग किया जा रहा है, तो मैं इसे सबसे पहले जलाऊंगा। निसंदेह, देश उनके योगदान को कभी भुला नहीं पाएगा।
सामाजिक समता, सामाजिक न्याय, सामाजिक अभिसरण जैसे समाज परिवर्तन के मुद्दों को प्रमुखता से स्वर देने और परिणाम तक लाने वाले प्रमुख लोगों में डॊ. भीमराव आंबेडकर का नाम अग्रणीय है। उन्हें बाबा साहेब के नाम से जाना जाता है। एकात्म समाज निर्माण, सामाजिक समस्याओं, अस्पृश्यता जैसे सामजिक मसले पर उनका मन संवेदनशील एवं व्यापक था। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन ऊंच-नीच, भेदभाव, छुआछूत के उन्मूलन के कार्यों के लिए समर्पित कर दिया। वे कहा करते थे- एक महान आदमी एक आम आदमी से इस तरह से अलग है कि वह समाज का सेवक बनने को तैयार रहता है। 4 अप्रैल, 1891 को मध्य प्रदेश के महू में जन्मे भीमराव आंबेडकर रामजी मालोजी सकपाल और भीमाबाई की चौदहवीं संतान थे। वह हिंदू महार जाति से संबंध रखते थे, जो अछूत कहे जाते थे। इसके कारण उनके साथ समाज में भेदभाव किया जाता था। उनके पिता भारतीय सेना में सेवारत थे। पहले भीमराव का उपनाम सकपाल था, लेकिन उनके पिता ने अपने मूल गांव अंबाडवे के नाम पर उनका उपनाम अंबावडेकर लिखवाया, जो बाद में आंबेडकर हो गया। पिता की स्वानिवृत्ति के बाद उनका परिवार महाराष्ट्र के सतारा में चला गया। उनकी मां की मृत्यु के बाद उनके पिता ने दूसरा विवाह कर लिया और बॉम्बे में जाकर बस गए। यहीं उन्होंने शिक्षा ग्रहण की। वर्ष 1906 में मात्र 15 वर्ष की आयु में उनका विवाह नौ वर्षीय रमाबाई से कर दिया गया। वर्ष 1908 में उन्होंने बारहवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की। विद्यालय की शिक्षा पूर्ण करने के बाद उन्होंने बॉम्बे के एल्फिनस्टोन कॉलेज में दाखिला लिया। उन्हें गायकवाड़ के राजा सहयाजी से 25 रुपये मासिक की स्कॉलरशिप मिलने लगी थी। वर्ष 1912 में उन्होंने राजनीति विज्ञान व अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि ली। इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए वह अमेरिका चले गए। वर्ष 1916 में उन्हें उनके एक शोध के लिए पीएचडी से सम्मानित किया गया। इसके बाद वह लंदन चले गए, किन्तु उन्हें बीच में ही लौटना पड़ा। आजीविका के लिए इस समयावधि में उन्होंने कई कार्य किए। वह मुंबई के सिडनेम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनोमिक्स में राजनीतिक अर्थव्यवस्था के प्राध्यापक भी रहे। इसके पश्चात एक बार फिर वह इंग्लैंड चले गए। वर्ष 1923 में उन्होंने अपना शोध ’रुपये की समस्याएं’ पूरा कर लिया। उन्हें लंदन विश्वविद्यालय द्वारा ’डॉक्टर ऑफ साईंस’ की उपाधि प्रदान की गई। उन्हें ब्रिटिश बार में बैरिस्टर के रूप में प्रवेश मिल गया। स्वदेश वापस लौटते हुए भीमराव आंबेडकर तीन महीने जर्मनी में रुके और बॉन विश्वविद्यालय में उन्होंने अपना अर्थशास्त्र का अध्ययन जारी रखा। उन्हें 8 जून, 1927 कोलंबिया विश्वविद्यालय द्वारा पीएचडी प्रदान की गई।
भीमराव आंबेडकर को बचपन से ही अस्पृश्यता से जूझना पड़ा। विद्यालय से लेकर नौकरी करने तक उनके साथ भेदभाव किया जाता रहा। इस भेदभाव और निरादर ने उनके मन को बहुत ठेस पहुंचाई। उन्होंने छूआछूत के समूल नाश के लिए कार्य करने का प्रण लिया। उन्होंने कहा कि नीची जाति व जनजाति एवं दलित के लिए देश में एक भिन्न चुनाव प्रणाली होनी चाहिए। उन्होंने देशभर में घूम-घूम कर दलितों के अधिकारों के लिए आवाज उठाई और लोगों को जागरूक करने का कार्य किया। उन्होंने एक समाचार-पत्र ‘मूक्नायका’ (लीडर ऑफ़ साइलेंट) प्रारंभ किया। एक बार उनके भाषण से प्रभावित होकर कोल्हापुर के शासक शाहूकर ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया, जिसकी देशभर में चर्चा हुई। इस घटना ने भारतीय राजनीति को एक नया आयाम दिया। वर्ष 1936 में भीमराव आंबेडकर ने स्वतंत्र मजदूर पार्टी की स्थापना की। अगले वर्ष 1937 के केन्द्रीय विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी ने 15 सीटों पर विजय प्राप्त की। उन्होंने इस दल को ऒल इंडिया शिड्यूल कास्ट पार्टी में परिवर्तित कर दिया। वह वर्ष 1946 में संविधान सभा के चुनाव में खड़े हुए, किन्तु उन्हें असफलता मिली। वह रक्षा सलाहकार समिति और वाइसराय की कार्यकारी परिषद के लिए श्रम मंत्री के रूप में सेवारत रहे। वह देश के पहले कानून मंत्री बने। उन्हें संविधान गठन समिति का अध्यक्ष बनाया गया। भीमराव आंबेडकर समानता पर विशेष बल देते थे। वह कहते थे- अगर देश की अलग अलग जाति एक दुसरे से अपनी लड़ाई समाप्त नहीं करेंगी, तो देश एकजुट कभी नहीं हो सकता। यदि हम एक संयुक्त एकीकृत आधुनिक भारत चाहते हैं तो सभी धर्म-शास्त्रों की संप्रभुता का अंत होना चाहिए। हमारे पास यह आजादी इसलिए है ताकि हम उन चीजों को सुधार सकें, जो सामाजिक व्यवस्था, असमानता, भेदभाव और अन्य चीजों से भरी है जो हमारे मौलिक अधिकारों के विरोधी हैं। एक सफल क्रांति के लिए केवल असंतोष का होना ही काफी नहीं है बल्कि इसके लिए न्याय, राजनीतिक और सामाजिक अधिकारों में गहरी आस्था का होना भी बहुत आवश्यक है।
राजनीतिक अत्याचार सामाजिक अत्याचार की तुलना में कुछ भी नहीं है और जो सुधारक समाज की अवज्ञा करता है, वह सरकार की अवज्ञा करने वाले राजनीतिज्ञ से ज्यादा साहसी हैं। जब तक आप सामाजिक स्वतंत्रता हासिल नहीं कर लेते तब तक आपको कानून चाहे जो भी स्वतंत्रता देता है वह आपके किसी काम की नहीं।यदि हम एक संयुक्त एकीकृत आधुनिक भारत चाहते हैं तो सभी धर्म-शास्त्रों की संप्रभुता का अंत होना चाहिए। भीमराव आंबेडकर का बचपन परिवार के अत्यंत संस्कारी एवं धार्मिक वातावरण में बीता था। उनके घर में रामायण, पाण्डव प्रताप, ज्ञानेश्वरी व अन्य संत वांग्मय के नित्य पाठन होते थे, जिसके कारण उन्हें श्रेष्ठ संस्कार मिले। वह कहते थे- मैं एक ऐसे धर्म को मानता हूं जो स्वतंत्रता, समानता और भाई-चारा सिखाये। वर्ष 1950 में वह एक बौद्धिक सम्मेलन में भाग लेने के लिए श्रीलंका गए, जहां वह बौद्ध धर्म से अत्यधिक प्रभावित हुए। स्वदेश वापसी पर उन्होंने बौद्ध व उनके धर्म के बारे में पुस्तक लिखी। उन्होंने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया। उन्होंने वर्ष 1955 में भारतीय बौध्या महासभा की स्थापना की। उन्होंने 14 अक्टूबर, 1956 को एक आम सभा का आयोजन किया, जिसमें उनके पांच लाख समर्थकों ने बौद्ध धर्म अपनाया। इसके कुछ समय पश्चात 6 दिसम्बर, 1956 को दिल्ली में उनका निधन हो गया। उनका अंतिम संस्कार बौद्ध धर्म की रीति के अनुसार किया गया। वर्ष 1990 में मरणोपरांत उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया। कई भाषाओं के ज्ञाता बाबासाहब ने अनेक पुस्तकें भी लिखी हैं। बाबासाहब ने अंग्रेजी में ‘वेटिंग फॉर वीजा’ नाम से अपनी आत्मकथा लिखी थी। वह लिखते हैं- " यह घटना भी आंखें खोलने वाली है। यह घटना काठियावाड़ में एक गांव की अछूत विद्यालय में पढ़ाने वाले शिक्षक की है। मिस्टर गांधी द्वारा प्रकाशित जनरल ‘यंग इंडिया’ में यह घटना एक पत्र के माध्यम से 12 दिसंबर 1929 को सामने आई। इसमें लेखक ने अपने निजी अनुभव से बताया कि कैसे उसकी पत्नी की जिसने अभी बच्चे को जन्म दिया था, हिंदू चिकित्सक के ठीक से उपचार नहीं करने के कारण मत्यु हो गई। पत्र के अनुसार इस महीने की पांच तिथि को मेरा बच्चा हुआ था और सात तिथि को मेरी पत्नी बीमार हो गई। उसकी नब्ज धीमी हो गई और छाती फूलने लगी। उसको श्वास लेने में कष्ट होने लगा और पसलियों में तेज दर्द होने लगा। मैं एक चिकित्सक को बुलाने गया, लेकिन उसने कहा कि वह एक हरिजन के घर नहीं जाएगा और न ही वह बच्चे को देखने के लिए तैयार हुआ। तब मैं वहां से नगर सेठ और गारिसाय दरबार गया और उनसे मदद की भीख मांगी। नगर सेठ ने आश्वासन दिया कि मैं चिकित्सक को दो रुपये दे दूंगा। तब जाकर चिकित्सक आया। लेकिन उसने इस शर्त पर रोगी को देखा कि वह हरिजन बस्ती के बाहर रोगी को देखेगा। मैं अपनी पत्नी और नन्हे बच्चे को लेकर बस्ती के बाहर आया। तब चिकित्सक ने अपना थर्मामीटर एक मुसलमान को दिया और उसने मुझे दिया और मैंने अपनी पत्नी को। फिर उसी प्रक्रिया में थर्मामीटर वापस किया। यह लगभग रात के आठ बजे की बात है। बत्ती की प्रकाश में थर्मामीटर को देखते हुए चिकित्सक ने कहा कि रोगी को निमोनिया हो गया है। उसके बाद चिकित्सक चला गया और दवाइयां भेजीं। मैं हाट से कुछ लिनसीड खरीद कर ले आया और रोगी को लगाया। बाद में चिकित्सक ने रोगी को देखने से इंकार कर दिया, जबकि मैंने उसको दो रुपये दिये थे। रोग घातक था। अब केवल भगवान ही हमारी सहायता कर सकता था। मेरे जीवन की लौ बुझ गई। आज दोपहर दो बजे उसकी मत्यु हो गई। उस अछूत शिक्षक का नाम नहीं दिया हुआ है और इसी तरह से चिकित्सक का भी नाम नहीं लिखा हुआ है। अछूत शिक्षक ने बदले की कार्यवाही के डर के कारण नाम नहीं दिया, लेकिन तथ्य एकदम सही हैं। उसके लिए किसी स्पष्टीकरण की आवश्यकता नहीं है। शिक्षित होने के बाद भी चिकित्सक ने गंभीर रोगग्रस्त महिला को स्वयं थर्मामीटर लगाने से मना कर दिया और उसके मना करने के कारण ही महिला की मृत्यु हुई। उसके मन में बिलकुल भी उथल-पुथल नहीं हुई कि वह जिस कार्य से बंधा हुआ है उसके कुछ नियम हैं।" बाबासाहब ने जीवनपर्यंत छूआछूत का विरोध किया। उन्होंने दलित समाज के सामाजिक और आर्थिक उत्थान के लिए सरहानीय कार्य किए। वह कहते है कि आप स्वयं को अस्पृस्य न मानें, अपना घर साफ रखें। पुराने और घिनौने रीति-रिवाजों को छोड़ देना चाहिए। हमारे पास यह आज़ादी इसलिए है ताकि हम उन चीजों को सुधार सकें जो सामाजिक व्यवस्था, असमानता, भेद-भाव और अन्य चीजों से भरी हैं जो हमारे मौलिक अधिकारों की विरोधी हैं। राष्ट्रवाद तभी औचित्य ग्रहण कर सकता है, जब लोगों के बीच जाति, नस्ल या रंग का अन्तर भुलाकर उसमें सामाजिक भ्रातृत्व को सर्वोच्च स्थान दिया जाए। वह सामाजिक समानता का बहुत महत्व देते थे। वह कहते थे-जब तक आप सामाजिक स्वतंत्रता हासिल नहीं कर लेते, तब तक आपको कानून चाहे जो भी स्वतंत्रता देता है, वह आपके किसी काम की नहीं होती। एक सफल क्रांति के लिए सिर्फ असंतोष का होना ही काफी नहीं है बल्कि इसके लिए न्याय, राजनीतिक और सामाजिक अधिकारों में गहरी आस्था का होना भी बहुत आवश्यक है। राजनीतिक अत्याचार सामाजिक अत्याचार की तुलना में कुछ भी नहीं हैं। और जो सुधारक समाज की अवज्ञा करता है वह सरकार की अवज्ञा करने वाले राजनीतिज्ञ से ज्यादा साहसी है।
वह राजनीति को जनकल्याण का माध्यम मानते थे। वह स्वयं के बारे में कहते थे-मैं राजनीति में सुख भोगने नहीं बल्कि अपने सभी दबे-कुचले भाईयों को उनके अधिकार दिलाने आया हूं। मेरे नाम की जय-जयकार करने से अच्छा है, मेरे बताए हुए रास्ते पर चलें। वह कहते थे-न्याय हमेशा समानता के विचार को पैदा करता है। संविधान, यह एक मात्र वकीलों का दस्तावेज नहीं, यह जीवन का एक माध्यम है। यदि मुझे लगा कि संविधान का दुरूपयोग किया जा रहा है, तो मैं इसे सबसे पहले जलाऊंगा। निसंदेह, देश उनके योगदान को कभी भुला नहीं पाएगा।
Wednesday, February 13, 2019
Thursday, January 10, 2019
भारतीय पत्रकारिता का पिंड है राष्ट्रवाद, फिर इससे गुरेज क्यों?
सौरभ मालवीय ने कहा अटल बिहारी वाजपेयी जन्मजात वक्ता थे, जन्मजात कवि हृदय थे, पत्रकार थे, प्रखर राष्ट्रवादी थे. उनके बारे में कहा जाता था कि यदि वह पाकिस्तान से चुनाव लड़ते तो वहां से भी जीत जाते और पाकिस्तान का नेता कहे जाते.
जय प्रकाश पाण्डेय
राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के सहयोग से प्रगति मैदान में लगे विश्व पुस्तक मेला 2019 में लेखक मंच पर 'साहित्य आजतक' का अगला सत्र था डॉ. सौरभ मालवीय की पुस्तक 'राष्ट्रवादी पत्रकारिता के शिखर पुरुष- अटल बिहारी वाजपेयी' पर चर्चा का. जहां सईद अंसारी से बातचीत के लिए मौजूद रहे पं माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय के प्राध्यापक और इस किताब के लेखक डॉ. सौरभ मालवीय. सत्र के शुरू में सईद ने मालवीय की राजनीतिक और सामाजिक समझ की तारीफ करते हुए पूछा कि किस तरह वह अटल बिहारी वाजपेयी को एक पत्रकार और वह भी एक राष्ट्रवादी पत्रकारिता के शिखर पुरुष के रूप में देखते हैं.
डॉ. सौरभ मालवीय ने 'साहित्य आजतक' का आभार जताते हुए, 'तेरा तुझको अर्पण' की बात कही और कहा कि देश और समाज ने हमको जो दिया हमने उसे वही लौटाया. अटल बिहारी वाजपेयी इस सोच के महान नायक थे. मेरा मानना है कि राजनीति एक ऐसी विधा है, एक ऐसा क्षेत्र है, जो किसी भी समाज के विकास की प्रक्रिया के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है. परंतु दुर्भाग्य यह है कि आजादी के बाद राजनीति को देखने की दृष्टि संकुचित कर दी गई. राजनीति में काम करने वाला व्यक्ति, नेता बनने वाला व्यक्ति समाज में उस तरह से नहीं स्वीकार किया गया, जैसे कि हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे पढ़ कर डॉक्टर बने, वकील बने, इंजीनियर बने पर कोई व्यक्ति यह नहीं कहना चाहता कि मैं राजनेता हूं. ऐसे सवालों के जवाब में जिस व्यक्ति ने अपनी पूरी उम्र दी उस व्यक्ति का नाम अटल बिहारी वाजपेयी था.
अटल बिहारी वाजपेयी जन्मजात वक्ता थे, जन्मजात कवि हृदय थे, पत्रकार थे, प्रखर राष्ट्रवादी थे. उनके बारे में कहा जाता था कि यदि वह पाकिस्तान से चुनाव लड़ते तो वहां से भी जीत जाते और पाकिस्तान का नेता कहे जाते. राजनीति को जब प्रश्नों के दायरे में खड़ा किया जा रहा है तब अटल जी की स्वीकार्यता जन-जन में थी. राम मनोहर लोहिया, जय प्रकाश नारायण, नंबूदरीपाद, अटल बिहारी वाजपेयी, दीन दयाल उपाध्याय, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, पं जवाहरलाल नेहरू तमाम ऐसे नेता थे, जिन्होंने पहले यह तय किया कि हमें आजादी, राष्ट्र का विकास चाहिए. इन सबने राष्ट्र को सर्वोपरि रखा.
राष्ट्रवादी पत्रकारिता की व्याख्या करते हुए डॉ. सौरभ मालवीय ने कहा कि इसका अर्थ है समाज के सभी वर्गों को, समाज में निचले स्तर पर जीने वाले हर व्यक्ति को सभी संसाधन उपलब्ध कराने में अपना सर्वस्व जीवन निछावर कर देना. अटल बिहारी वाजपेयी ने अपना जीवन इसीलिए निछावर कर दिया. इसीलिए इस किताब को लिखने की जरूरत पड़ी. अटल बिहारी वाजपेयी केवल नेता भर नहीं थे. उनकी सभाएं देश भर में होती थीं, तो दूसरे दलों के नेता भी उनका भाषण एक नेता के तौर पर सुनने जाते थे, किसी दल के नेता विशेष के तौर पर नहीं.
अटल बिहारी वाजपेयी की पत्रकारिता की उम्र बहुत कम थी. वह आज की पत्रकारिता से अलग थी. उस समय के समाचारपत्रों में वैचारिक पत्रकारिता होती थी. अटल जी जितने भी पत्रपत्रिकाओं से जुड़े रहे उन्होंने अपने छोटे वैचारिक लेखों, संपादकीय से भी अपनी विशिष्ट छाप छोड़ी. उन्हें पढ़ने के बाद मन झंकृत हो जाता है. मेला, राष्ट्रीय एकता, भाषा, हिंदी भाषा पर उनके अद्भुत लेख हैं.
आज के दौर की पत्रकारिता पर डॉ. सौरभ मालवीय का कहना था कि पहले की पत्रकारिता में राष्ट्र सर्वोपरि है. गुलामी से आजादी पाने के बाद कोई भी देश टूटा हुआ ही होता है. भारत की स्थिति भी उससे अलग नहीं थी. पर आज की पत्रकारिता जनोन्मुख है. आज की पत्रकारिता जनजागृति की पत्रकारिता है. अब आप चीजों को छुपा नहीं सकते. आज एक चीज बड़े संकट में है कि पत्रकार पक्षकार बन गया है. और जब पत्रकार पक्षकार बनेगा तो देश और मीडिया के सामने चुनौतियां रहेंगी ही. इसका समाधान जनता और मीडिया को खुद करना होगा. अटल बिहारी वाजपेयी ने वैचारिक प्रतिबद्धता होते हुए भी उसे अपनी पत्रकारिता पर हावी नहीं होने दिया. हर मीडिया घराने में न सही पर हर पत्रकार अपने विंडो टाइम में कहीं न कहीं अपने विचारों को ले ही आता है.
लोहिया, गांधी, नेहरू और अटल का जिक्र करते हुए उन्होंने प्राइम टाइम पत्रकारों पर आरोप लगाया कि वे पक्षकार हो गए हैं. इसीलिए पत्रकारिता को राष्ट्रवाद से जोड़ने की बात इस किताब में की गई. जिन्हें राष्ट्रवाद शब्द से दिक्कत है उन्हें पत्रकार कैसे कह सकते हैं, जबकि सच्चाई यही है कि जब कहीं किसी की बात नहीं सुनी जाती तो वह मीडिया के दरवाजे पर आता है. आपको कहीं न्याय न मिल रहा हो तो आप पत्रकार के पास जाइए वहां न्याय मिलेगा, क्योंकि पत्रकार दर्द से जीता है, लेकिन दूसरे के दर्द को पीता है. पत्रकार की जिंदगी मोमबत्ती के समान है, तिल तिल जलना और दूसरों को रोशनी देना. जहां यह मनोभाव है वहां, राष्ट्रवाद और राष्ट्रवादिता से विरोध क्यों. बाल गंगाधर तिलक, गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी को देखिए. हमारी पत्रकारिता का पिंड है राष्ट्रवाद.
जय प्रकाश पाण्डेय
राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के सहयोग से प्रगति मैदान में लगे विश्व पुस्तक मेला 2019 में लेखक मंच पर 'साहित्य आजतक' का अगला सत्र था डॉ. सौरभ मालवीय की पुस्तक 'राष्ट्रवादी पत्रकारिता के शिखर पुरुष- अटल बिहारी वाजपेयी' पर चर्चा का. जहां सईद अंसारी से बातचीत के लिए मौजूद रहे पं माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय के प्राध्यापक और इस किताब के लेखक डॉ. सौरभ मालवीय. सत्र के शुरू में सईद ने मालवीय की राजनीतिक और सामाजिक समझ की तारीफ करते हुए पूछा कि किस तरह वह अटल बिहारी वाजपेयी को एक पत्रकार और वह भी एक राष्ट्रवादी पत्रकारिता के शिखर पुरुष के रूप में देखते हैं.
डॉ. सौरभ मालवीय ने 'साहित्य आजतक' का आभार जताते हुए, 'तेरा तुझको अर्पण' की बात कही और कहा कि देश और समाज ने हमको जो दिया हमने उसे वही लौटाया. अटल बिहारी वाजपेयी इस सोच के महान नायक थे. मेरा मानना है कि राजनीति एक ऐसी विधा है, एक ऐसा क्षेत्र है, जो किसी भी समाज के विकास की प्रक्रिया के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है. परंतु दुर्भाग्य यह है कि आजादी के बाद राजनीति को देखने की दृष्टि संकुचित कर दी गई. राजनीति में काम करने वाला व्यक्ति, नेता बनने वाला व्यक्ति समाज में उस तरह से नहीं स्वीकार किया गया, जैसे कि हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे पढ़ कर डॉक्टर बने, वकील बने, इंजीनियर बने पर कोई व्यक्ति यह नहीं कहना चाहता कि मैं राजनेता हूं. ऐसे सवालों के जवाब में जिस व्यक्ति ने अपनी पूरी उम्र दी उस व्यक्ति का नाम अटल बिहारी वाजपेयी था.
अटल बिहारी वाजपेयी जन्मजात वक्ता थे, जन्मजात कवि हृदय थे, पत्रकार थे, प्रखर राष्ट्रवादी थे. उनके बारे में कहा जाता था कि यदि वह पाकिस्तान से चुनाव लड़ते तो वहां से भी जीत जाते और पाकिस्तान का नेता कहे जाते. राजनीति को जब प्रश्नों के दायरे में खड़ा किया जा रहा है तब अटल जी की स्वीकार्यता जन-जन में थी. राम मनोहर लोहिया, जय प्रकाश नारायण, नंबूदरीपाद, अटल बिहारी वाजपेयी, दीन दयाल उपाध्याय, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, पं जवाहरलाल नेहरू तमाम ऐसे नेता थे, जिन्होंने पहले यह तय किया कि हमें आजादी, राष्ट्र का विकास चाहिए. इन सबने राष्ट्र को सर्वोपरि रखा.
राष्ट्रवादी पत्रकारिता की व्याख्या करते हुए डॉ. सौरभ मालवीय ने कहा कि इसका अर्थ है समाज के सभी वर्गों को, समाज में निचले स्तर पर जीने वाले हर व्यक्ति को सभी संसाधन उपलब्ध कराने में अपना सर्वस्व जीवन निछावर कर देना. अटल बिहारी वाजपेयी ने अपना जीवन इसीलिए निछावर कर दिया. इसीलिए इस किताब को लिखने की जरूरत पड़ी. अटल बिहारी वाजपेयी केवल नेता भर नहीं थे. उनकी सभाएं देश भर में होती थीं, तो दूसरे दलों के नेता भी उनका भाषण एक नेता के तौर पर सुनने जाते थे, किसी दल के नेता विशेष के तौर पर नहीं.
अटल बिहारी वाजपेयी की पत्रकारिता की उम्र बहुत कम थी. वह आज की पत्रकारिता से अलग थी. उस समय के समाचारपत्रों में वैचारिक पत्रकारिता होती थी. अटल जी जितने भी पत्रपत्रिकाओं से जुड़े रहे उन्होंने अपने छोटे वैचारिक लेखों, संपादकीय से भी अपनी विशिष्ट छाप छोड़ी. उन्हें पढ़ने के बाद मन झंकृत हो जाता है. मेला, राष्ट्रीय एकता, भाषा, हिंदी भाषा पर उनके अद्भुत लेख हैं.
आज के दौर की पत्रकारिता पर डॉ. सौरभ मालवीय का कहना था कि पहले की पत्रकारिता में राष्ट्र सर्वोपरि है. गुलामी से आजादी पाने के बाद कोई भी देश टूटा हुआ ही होता है. भारत की स्थिति भी उससे अलग नहीं थी. पर आज की पत्रकारिता जनोन्मुख है. आज की पत्रकारिता जनजागृति की पत्रकारिता है. अब आप चीजों को छुपा नहीं सकते. आज एक चीज बड़े संकट में है कि पत्रकार पक्षकार बन गया है. और जब पत्रकार पक्षकार बनेगा तो देश और मीडिया के सामने चुनौतियां रहेंगी ही. इसका समाधान जनता और मीडिया को खुद करना होगा. अटल बिहारी वाजपेयी ने वैचारिक प्रतिबद्धता होते हुए भी उसे अपनी पत्रकारिता पर हावी नहीं होने दिया. हर मीडिया घराने में न सही पर हर पत्रकार अपने विंडो टाइम में कहीं न कहीं अपने विचारों को ले ही आता है.
लोहिया, गांधी, नेहरू और अटल का जिक्र करते हुए उन्होंने प्राइम टाइम पत्रकारों पर आरोप लगाया कि वे पक्षकार हो गए हैं. इसीलिए पत्रकारिता को राष्ट्रवाद से जोड़ने की बात इस किताब में की गई. जिन्हें राष्ट्रवाद शब्द से दिक्कत है उन्हें पत्रकार कैसे कह सकते हैं, जबकि सच्चाई यही है कि जब कहीं किसी की बात नहीं सुनी जाती तो वह मीडिया के दरवाजे पर आता है. आपको कहीं न्याय न मिल रहा हो तो आप पत्रकार के पास जाइए वहां न्याय मिलेगा, क्योंकि पत्रकार दर्द से जीता है, लेकिन दूसरे के दर्द को पीता है. पत्रकार की जिंदगी मोमबत्ती के समान है, तिल तिल जलना और दूसरों को रोशनी देना. जहां यह मनोभाव है वहां, राष्ट्रवाद और राष्ट्रवादिता से विरोध क्यों. बाल गंगाधर तिलक, गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी को देखिए. हमारी पत्रकारिता का पिंड है राष्ट्रवाद.
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