Wednesday, November 23, 2022

अल्पसंख्यकवाद से मुक्ति पर विचार हो


 


-डॉ. सौरभ मालवीय    

भारत एक विशाल देश है। यहां विभिन्न समुदाय के लोग निवास करते हैं। उनकी भिन्न-भिन्न संस्कृतियां हैं, परन्तु सबकी नागरिकता एक ही है। सब भारतीय हैं। कोई भी देश तभी उन्नति के शिखर पर पहुंचता है जब उसके निवासी उन्नति करते हैं। यदि कोई समुदाय मुख्यधारा के अन्य समुदायों से पिछड़ जाए, तो वह देश संपूर्ण रूप से उन्नति नहीं कर सकता। इसलिए आवश्यक है कि देश के सभी समुदाय उन्नति करें। आज देश में एक बार फिर से अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक का विषय चर्चा में है।          

 

उल्लेखनीय है कि ‘अल्पसंख्यक’ का तात्पर्य केवल मुस्लिम समुदाय से नहीं है। देश के संविधान में ‘अल्पसंख्यक’ शब्द की परिकल्पना धार्मिक, भाषाई एवं सांस्कृतिक रूप से भिन्न वर्गों के लिए की गई है। यह दुखद है कि कांग्रेस द्वारा इसका उपयोग अपने स्वार्थ के लिए किया गया, ताकि उसका वोट बैंक बना रहे। कांग्रेस द्वारा राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम -1992 बनाया गया। इसमें देश की मुख्यधारा से पृथक वंचित धार्मिक समुदायों की स्थिति के कारणों के मूल्यांकन की आवश्यकता पर बल दिया गया। इस अधिनियम के आधार पर मई 1993 में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग का गठन किया गया। किन्तु राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम-1992 में ‘धार्मिक अल्पसंख्यक’ की परिभाषा नहीं दी गई है। कौन सा समुदाय अल्पसंख्यक है, इसका निर्णय करने का सारा दायित्व केंद्र सरकार को सौंप दिया गया। इसके पश्चात कांग्रेस सरकार ने अक्टूबर 1993 में पांच धार्मिक समुदायों को अल्पसंख्यकों के रूप में अधिसूचित किया, जिसमें मुसलमान, ईसाई, सिख, बौद्ध एवं पारसी सम्मिलित हैं। इसके पश्चात जैन समुदाय द्वारा उसे भी अल्पसंख्यक का दर्जा दिए जाने की मांग की जाने लगी। तब सरकार ने राष्ट्रीय धार्मिक अधिनियम- 2014 में एक संशोधन करके जैन समुदाय को भी अल्पसंख्यकों की सूची में सम्मिलित कर दिया। 

 

भारतीय जनता पार्टी का सदैव से यह कहना रहा है कि कांग्रेस अल्पसंख्यकों के नाम पर ‘मुस्लिम तुष्टिकरण’ की राजनीति करती आई है। भाजपा ने अपने घोषणा पत्रों में भी यह प्रश्न उठाते हुए संकल्प लिया था कि वह ‘अल्पसंख्यक आयोग को समाप्त करके इसका दायित्व राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को सौंपेगी। अब चूंकि केंद्र में भाजपा की सरकार है, तो यह विषय चर्चा में आ गया। उल्लेखनीय है कि वर्ष 1998 में भाजपा सत्ता में आई, उस समय  इस संबंध में कुछ नहीं हुआ। कांग्रेस द्वारा गठित द्वितीय राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग को भी समाप्त करने की दिशा में कोई कार्य नहीं किया गया। वास्तव में वर्ष 2004 के पश्चात से भाजपा ने इस विषय पर ध्यान नहीं दिया, अपितु भाजपा ने 2014 के अपने घोषणा पत्र में कहा कि ‘स्वतंत्रता के इतने दशकों के पश्चात भी अल्पसंख्यकों का एक बड़ा वर्ग, विशेषकर मुस्लिम समुदाय निर्धनता में जकड़ा हुआ है। भाजपा की इस बात के कई अर्थ निकाले जा सकते हैं। प्रथम यह कि भाजपा स्वीकार करती है कि देश की स्वतंत्रता के इतने वर्षों पश्चात भी मुसलमानों की स्थिति दयनीय है, जैसा कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट कहती है। द्वितीय यह है कि स्वतंत्रता के पश्चात देश में कांग्रेस का ही शासन रहा है तथा उसने मुसलमानों की दशा सुधारने के लिए कुछ नहीं किया तथा मुसलमान इस दयनीय स्थिति में पहुंच गए। इसका एक अर्थ यह भी है कि मुसलमानों की इस दयनीय स्थिति के लिए कांग्रेस उत्तरदायी है।

 

देश और राज्यों में अल्पसंख्यकों को लेकर बड़ी विडंबना की स्थिति है। कोई समुदाय राष्ट्रीय स्तर पर बहुसंख्यक है, तो किसी राज्य में अल्पसंख्यक है। इसी प्रकार कोई समुदाय राष्ट्रीय स्तर पर अल्पसंख्यक है, तो किसी राज्य में  बहुसंख्यक है। इसी प्रकार कोई समुदाय एक राज्य में अल्पसंख्यक है तो किसी दूसरे राज्य में बहुसंख्यक है। उल्लेखनीय बात यह भी है कि सुप्रीम कोर्ट में राज्य स्तर पर हिंदुओं को अल्पसंख्यक घोषित करने की मांग वाली याचिकाएं भी दायर की गई हैं। इस संदर्भ में केंद्र सरकार ने अपनी राय देने के लिए समय मांगा है। इस संबंध में 14 राज्यों ने अपनी राय दे दी है, जबकि 19 राज्यों और केंद्र सरकार ने अभी तक अपनी राय नहीं दी है। इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट का क्या निर्णय आता है, यह तो समय के गर्भ में छिपा है, किन्तु इतना निश्चित है कि यह एक ज्वलंत विषय है। इससे देश का सामाजिक वातावरण प्रभावित होगा। इससे निपटने का एक सरल उपाय यह है कि देश को अल्पसंख्यक एवं बहुसंख्यक की राजनीति से मुक्ति दिलाई जाए। संविधान की दृष्टि में देश के सब नागरिक एक समान हैं। संविधान ने सबको समान रूप से अधिकार दिए हैं। संविधान ने किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं किया है। इसलिए देश में समान नागरिक संहिता लगाई जाए। इससे बहुत से झगड़े स्वयं समाप्त हो जाएंगे। यदि देश के सभी वर्गों की एक समान उन्नति करनी है, तो उनके धर्म, पंथ या जाति के आधार पर नहीं, अपितु उनकी आर्थिक स्थिति के आधार पर नीतियां बनाने की आवश्यकता है। आर्थिक आधार पर बने नीतियों से उनका समग्र विकास हो पाएगा। ऐसा न होने पर देश अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की राजनीति में उलझ कर रह जाएगा। ऐसी परिस्थियों में मूल समस्याओं से ध्यान भटक जाएगा, जिससे विकास कार्य प्रभावित होंगे।  

 

प्रश्न है कि जब संविधान ने सबको समान अधिकार दिए हैं, तो धार्मिक आधार पर अल्पसंख्यक निर्धारित करने का क्या औचित्य है? वास्तव में निर्धनता का संबंध किसी धर्म, पंथ अथवा जाति से नहीं होता। इसका संबंध व्यक्ति की आर्थिक स्थिति से होता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में देश निरंतर उन्नति के पथ पर अग्रसर है। मोदी सरकार द्वारा ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास‘ अभियान चलाया जा रहा है। सरकार ने कमजोर आय वर्ग के लोगों की आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए अनेक योजनाएं बनाई हैं, जिनका लाभ देश के निर्धन परिवारों को मिल रहा है। इन योजनाओं का यही उद्देश्य है कि देश के सभी निर्धन परिवारों की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हो। इस संबंध में किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जा रहा है। 

 

यह कहना अनुचित नहीं है कि अल्पसंख्यकवाद से देश में सांप्रदायिकता को बढ़ावा मिलता है। अल्पसंख्यकों को प्राथमिकता देने से बहुसंख्यकों को लगता है कि उनके साथ भेदभाव किया जा रहा है। इसी भांति अल्पसंख्यक भी स्वयं को विशेष मानकर मुख्यधारा से पृथक हो जाते हैं। वे स्वयं को पृथक रखना चाहते हैं तथा वही पृथकता उनकी पहचान बन जाती है। इस मनोवृत्ति से उन्हें हानि होती है। वे देश की मुख्यधारा से पृथक होकर पिछड़ जाते हैं तथा उनका समान रूप से विकास नहीं हो पाता। अल्पसंख्यकवाद से भाईचारा भी प्रभावित होता है। सांप्रदायिकता देश के समग्र विकास के लिए बहुत बड़ी बाधा है। इसलिए देश को अल्पसंख्यकवाद बनाम  बहुसंख्यकवाद की राजनीति से निकलना होगा। एक देश में एक ही विधान होना चाहिए। जब संविधान की दृष्टि में सब नागरिक समान हैं, तो उनके लिए सुविधाएं भी एक समान होनी चाहिए।

 

(लेखक-मीडिया शिक्षक एवं राजनीतिक विश्लेषक है )

 

 



 

भारतीय संविधान भारतीय जीवन दर्शन का ग्रंथ है


 

 



किसी भी देश के लिए एक विधान की आवश्यकता होती है। देश के विधान को संविधान कहा जाता है। यह अधिनियमों का संग्रह है। भारत के संविधान को विश्व का सबसे लम्बा लिखित विधान होने का गौरव प्राप्त है। भारतीय संविधान हमारे देश की आत्मा है। इसका देश से वही संबंध है, जो आत्मा का शरीर से होता है।

 

संविधान दिवस का इतिहास

भारत का संविधान 26 नवम्बर 1949 को बनकर पूर्ण हुआ था। चूंकि डॉ. भीमराव आम्बेडकर संविधान सभा के प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे, इसलिए भारत सरकार द्वारा उनकी 125वीं जयंती वर्ष के रूप में 26 नवम्बर 2015 को प्रथम बार संविधान दिवस संपूर्ण देश में मनाया गया। उसके पश्चात 26 नवम्बर को प्रत्येक वर्ष संविधान दिवस मनाया जाने लगा। इससे पूर्व इसे राष्ट्रीय विधि दिवस के रूप में मनाया जाता था। संविधान सभा द्वारा देश के संविधान को 2 वर्ष 11 माह 18 दिन में पूर्ण किया गया था। इस पर 114 दिन तक चर्चा हुई तथा 12 अधिवेशन आयोजित किए गए। भारतीय संविधान को बनाने में लगभग एक करोड़ की लागत आई थी। भारतीय संविधान में डॉ. राजेंद्र प्रसाद को 11 दिसंबर 1946 में स्थाई अध्यक्ष मनोनीत किया गया था। भारतीय संविधान पर 284 लोगों ने हस्ताक्षर किए थे। यह 26 नवम्बर 1949 को पूर्ण कर राष्ट्र को समर्पित किया गया। इसके पश्चात 26 जनवरी 1950 से देश में संविधान लागू किया गया। इससे पूर्व देश में भारत सरकार अधिनियम-1935 का कानून लागू था। कोई भी वस्तु पूर्ण नहीं होती है। समय के अनुसार उसमें परिवर्तन होते रहते हैं। भारतीय संविधान लागू होने के पश्चात इसमें 100 से अधिक संशोधन किए जा चुके हैं। ऐसा भविष्य में भी होने की पूर्ण संभावना है।

 

भारतीय संविधान में सरकार के अधिकारियों के कर्तव्य एवं नागरिकों के अधिकारों के बारे में विस्तार से बताया गया है। संविधान सभा के कुल सदस्यों की संख्या 389 थी। इनमें 292 ब्रिटिश प्रांतों के 4 चीफ कमिश्नर थे, जबकि 93 सदस्य देशी रियासतों के थे। विशेष बात यह है कि देश की स्वतंत्रता के पश्चात संविधान सभा के सदस्य ही देश की संसद के प्रथम सदस्य बने थे। देश की संविधान सभा का चुनाव भारतीय संविधान के निर्माण के लिए ही किया गया था। भारतीय संविधान के अनुसार केंद्रीय कार्यपालिका का संवैधानिक प्रमुख राष्ट्रपति होता है। भारतीय संविधान का निर्माण करने वाली संविधान सभा का गठन 19 जुलाई 1946 को किया गया था। संविधान के कुछ अनुच्छेदों को 26 नवंबर 1949 को पारित किया गया, जबकि शेष अनुच्छेदों को 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया।

 

 

संविधान की विशेषता

भारत एक विशाल देश है। इसमें विभिन्न संस्कृतियों के लोग निवास करते हैं। यहां विभिन्न संप्रदायों, पंथों, जातियों आदि के लोग हैं। उनकी, रीति-रिवाज, भाषाएं, रहन-सहन एवं खान-पान भी भिन्न-भिन्न हैं। इस सबके मध्य वे आपस में मिलजुल कर रहते हैं। वास्तव में यही भारत का स्वभाव है। भारतीय संविधान में भारत के नागरिकों को छह मौलिक अधिकार प्रदान किए गए हैं, जिनका वर्णन अनुच्छेद 12 से 35 को मध्य किया गया है। इनमें समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार,  धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, संस्कृति और शिक्षा से संबंधित अधिकार एवं संवैधानिक उपचारों का अधिकार सम्मिलित है। उल्लेखनीय है कि पहले संविधान में सात मौलिक अधिकार थे, जिसे ‘44वें संविधान संशोधन- 1978 के अंतर्गत हटा दिया गया। सातवां मौलिक अधिकार संपति का अधिकार था। मूल अधिकार का एक दृष्टांत है- "राज्य नागरिकों के बीच परस्पर विभेद नहीं करेगा।“ भारतीय संविधान में भी किसी के साथ किसी भी प्रकार का भेद नहीं किया जाता। यही इसकी विशेषता है।  

 

ऋषि परम्परा का धर्मशास्त्र

भारतीय संविधान "हम भारत के लोगों" के लिए हमारी अद्वितीय सांस्कृतिक विरासत जनित स्वतंत्रता एवं समानता के आदर्श मूल्यों के प्रति एक राष्ट्र के रूप में हमारी प्रतिबद्धता का परिचायक है। वर्तमान के आधुनिक भारत की संकल्पना के समय संविधान निर्माताओं ने इसी सांस्कृतिक विरासत को उसके मूल स्वरूप में अक्षुण्ण रखने के ध्येय से भारतीय संविधान की मूल प्रतिलिपि में सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक महत्व के रुचिकर चित्रों को स्थान दिया, जो मूलतः भारतीय संविधान के भारतीय चैतन्य को ही परिभाषित करते हैं। भारतीय ज्ञान परम्परा के अलोक में निर्मित भारतीय संविधान भारत की ऋषि परम्परा का धर्मशास्त्र है। भारतीय जीवन दर्शन का ग्रंथ है।

भारत एक लोकतांत्रिक देश है। यहां सबका सम्मान किया जाता है। वसुधैव कुटुम्बकम भारतीय संस्कृति का मूल आधार है। यह सनातन धर्म का मूल संस्कार है। यह एक विचारधारा है। महा उपनिषद सहित कई ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है।

अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम् ।

उदारचरितानां वसुधैव कुटुम्बकम् ।।

अर्थात यह मेरा अपना है और यह नहीं है, इस तरह की गणना छोटे चित्त वाले लोग करते हैं। उदार हृदय वाले लोगों की तो संपूर्ण धरती ही परिवार है। कहने का अभिप्राय है कि धरती ही परिवार है। यह वाक्य भारतीय संसद के प्रवेश कक्ष में भी अंकित है।

निसंदेह भारत के लोग विराट हृदय वाले हैं। वे सबको अपना लेते हैं। विभिन्न संस्कृतियों के पश्चात भी सब आपस में परस्पर सहयोग भाव बनाए रखते हैं। एक-दूसरे के साथ मिलजुल कर रहते हैं। यही हमारी भारतीय संस्कृति की महानता है।      

 

उल्लेखनीय है कि भारत का संविधान बहुत ही परिश्रम से तैयार किया गया है। इसके निर्माण से पूर्व विश्व के अनेक देशों के संविधानों का अध्ययन किया गया। तत्पश्चात उन पर गंभीर चिंतन किया गया। इन संविधानों में से उपयोगी संविधानों के शब्दों को भारतीय संविधान में सम्मिलित किया गया। आजादी के बाद भारत का वैचारिक दृष्टिकोण भारतीय ज्ञान परम्परा के आलोक में विकास के पाठ पर खड़ा करने का प्रयास होना चाहिए था।

भारतीय संविधान की उद्देशिका

हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को:

सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय,

विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता,

प्रतिष्ठा और अवसर की समता, प्राप्त कराने के लिए,

तथा उन सब में,

व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित कराने वाली, बंधुता बढ़ाने के लिए,

दृढ़ संकल्पित होकर अपनी संविधानसभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ई॰ (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।

 

भारतीय संविधान की इस उद्देशिका में भारत की आत्मा निवास करती है। इसका प्रत्यके शब्द एक मंत्र के समान है। हम भारत के लोग- से अभिप्राय है कि भारत एक प्रजातांत्रिक देश है तथा भारत के लोग ही सर्वोच्च संप्रभु है। इसी प्रकार संप्रभुता- से अभिप्राय है कि भारत किसी अन्य देश पर निर्भर नहीं है। समाजवादी- से अभिप्राय है कि संपूर्ण साधनों आदि पर सार्वजनिक स्वामित्व या नियंत्रण के साथ वितरण में समतुल्य सामंजस्य। ‘पंथनिरपेक्ष राज्य’ शब्द का स्पष्ट रूप से संविधान में कोई उल्लेख नहीं है। लोकतांत्रिक- से अभिप्राय है कि लोक का तंत्र अर्थात जनता का शासन। गणतंत्र- से अभिप्राय है कि एक ऐसा शासन जिसमें राज्य का मुखिया एक निर्वाचित प्रतिनिधि होता है। न्याय- से आशय है कि सबको न्याय प्राप्त हो। स्वतंत्रता- से अभिप्राय है कि सभी नागरिकों को स्वतंत्रता से जीवन यापन करने का अधिकार है। समता- से अभिप्राय है कि देश के सभी नागिरकों को समान अधिकार प्राप्त हैं। इसी प्रकार बंधुत्व- से अभिप्राय है कि देशवासियों के मध्य भाईचारे की भावना।

 

विचारणीय विषय यह है कि भारतीय संविधान ने देश के सभी नागरिकों को समान अधिकार प्रदान किए हैं तथा उनके साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं किया। किन्तु देश में आज भी ऊंच-नीच, अस्पृश्यता आदि जैसे बुराइयां व्याप्त हैं। इन बुराइयों को समाप्त करने के लिए कानून भी बनाए गए, परन्तु इनका विशेष लाभ देखने को नहीं मिला। ग्रामीण क्षेत्रों में यह समस्या अधिक देखने को मिलती है। सामाजिक समरसता भारतीय समाज की खूबसूरती है, अस्पृश्यता से संबंधित अप्रिय घटनाएं भी चर्चा में रहती हैं। इन बुराइयों को समाप्त करने के लिए जागरूक लोगों को ही आगे आना चाहिए तथा सभी लोगों को अपने देश के संविधान का पालन करना चाहिए।

-डॉ. सौरभ मालवीय

(लेखक-मीडिया शिक्षक एवं राजनीतिक विश्लेषक है )

 

 

अल्पसंख्यकवाद से मुक्ति पर विचार हो

  - डॉ. सौरभ मालवीय      भारत एक विशाल देश है। यहां विभिन्न समुदाय के लोग निवास करते हैं। उनकी भिन्न-भिन्न संस्कृतियां हैं , परन्तु सबकी...