Saturday, March 26, 2016

मुझे अपने गांव पर गर्व है

 
गांव की चौपाल, जहां बौद्धिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक स्वस्थ विमर्श जीवंत है.
होली के दिन मेरे गांव पटनेजी (जनपद देवरिया, उत्तर प्रदेश) के एक यादव परिवार का बालक जिसकी उम्र 20-21 वर्ष थी, का ब्लड कैंसर से मुम्बई में निधन हो गया. पूरे गांव ने इस दुख को स्वीकार किया और होली नहीं मनाने का निर्णय लिया गया. गांव की इस संवेदना का मैं साक्षी हूं. मुझे गर्व है कि मैं इस गांव का रहने वाला हूं. मेरा गांव मेरा तीर्थ है.

Thursday, March 17, 2016

उमंग का पर्व है होली


डॊ. सौरभ मालवीय
होली हर्षोल्लास, उमंग और रंगों का पर्व है. यह पर्व फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है. इससे एक दिन पूर्व होलिका जलाई जाती है, जिसे होलिका दहन कहा जाता है. दूसरे दिन रंग खेला जाता है, जिसे धुलेंडी, धुरखेल तथा धूलिवंदन कहा जाता है. लोग एक-दूसरे को रंग, अबीर-गुलाल लगाते हैं. रंग में भरे लोगों की टोलियां नाचती-गाती गांव-शहर में घूमती रहती हैं. ढोल बजाते और होली के गीत गाते लोग मार्ग में आते-जाते लोगों को रंग लगाते हुए होली को हर्षोल्लास से खेलते हैं.  सांध्य काल में लोग एक-दूसरे के घर जाते हैं और मिष्ठान बांटते हैं.

पुरातन धार्मिक पुस्तकों में होली का वर्णन अनेक मिलता है. नारद पुराण औऱ भविष्य पुराण जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों और ग्रंथों में भी इस पर्व का उल्लेख है. विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित ईसा से तीन सौ वर्ष पुराने एक अभिलेख में भी होली का उल्लेख किया गया है. होली के पर्व को लेकर अनेक कथाएं प्रचलित हैं. सबसे प्रसिद्ध कथा विष्णु भक्त प्रह्लाद की है. माना जाता है कि प्राचीन काल में हिरण्यकशिपु नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था. वह स्वयं को भगवान मानने लगा था.  उसने अपने राज्य में भगवान का नाम लेने पर प्रतिबंध लगा दिया था. जो कोई भगवान का नाम लेता, उसे दंडित किया जाता था. हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु का भक्त था. प्रह्लाद की प्रभु भक्ति से क्रुद्ध होकर हिरण्यकशिपु ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु उसने भक्ति के मार्ग का त्याग नहीं किया. हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह अग्नि में भस्म नहीं हो सकती. हिरण्यकशिपु ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि कुंड में बैठे. अग्नि कुंड में बैठने पर होलिका तो जल गई, परंतु प्रह्लाद बच गया. भक्त प्रह्लाद की स्मृति में इस दिन होली जलाई जाती है. इसके अतिरिक्त यह पर्व राक्षसी ढुंढी, राधा कृष्ण के रास और कामदेव के पुनर्जन्म से भी संबंधित है. कुछ लोगों का मानना है कि होली में रंग लगाकर, नाच-गाकर लोग शिव के गणों का वेश धारण करते हैं तथा शिव की बारात का दृश्य बनाते हैं. कुछ लोगों का यह भी मानना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना नामक राक्षसी का वध किया था. इससे प्रसन्न होकर गोपियों और ग्वालों ने रंग खेला था.

देश में होली का पर्व विभिन्न प्रकार से मनाया जाता है. ब्रज की होली मुख्य आकर्षण का केंद्र है. बरसाने की लठमार होली भी प्रसिद्ध है. इसमें पुरुष महिलाओं पर रंग डालते हैं और महिलाएं उन्हें लाठियों तथा कपड़े के बनाए गए कोड़ों से मारती हैं. मथुरा का प्रसिद्ध 40 दिवसीय होली उत्सव वसंत पंचमी से ही प्रारंभ हो जाता है. श्री राधा रानी को गुलाल अर्पित कर होली उत्सव शुरू करने की अनुमति मांगी जाती है. इसी के साथ ही पूरे ब्रज पर फाग का रंग छाने लगता है. वृंदावन के शाहजी मंदिर में प्रसिद्ध वसंती कमरे में श्रीजी के दर्शन किए जाते हैं. यह कमरा वर्ष में केवल दो दिन के लिए खुलता है. मथुरा के अलावा बरसाना, नंदगांव, वृंदावन आदि सभी मंदिरों में भगवान और भक्त पीले रंग में रंग जाते हैं. ब्रह्मर्षि दुर्वासा की पूजा की जाती है. हिमाचल प्रदेश के कुल्लू में भी वसंत पंचमी से ही लोग होली खेलना प्रारंभ कर देते हैं. कुल्लू के रघुनाथपुर मंदिर में सबसे पहले वसंत पंचमी के दिन भगवान रघुनाथ पर गुलाल चढ़ाया जाता है, फिर भक्तों की होली शुरू हो जाती है. लोगों का मानना है कि रामायण काल में हनुमान ने इसी स्थान पर भरत से भेंट की थी. कुमाऊं में शास्त्रीय संगीत की गोष्ठियां आयोजित की जाती हैं. बिहार का फगुआ प्रसिद्ध है. हरियाणा की धुलंडी में भाभी पल्लू में ईंटें बांधकर देवरों को मारती हैं. पश्चिम बंगाल में दोल जात्रा निकाली जाती है. यह पर्व चैतन्य महाप्रभु के जन्मदिवस के रूप में मनाया जाता है. शोभायात्रा निकाली जाती है. महाराष्ट्र की रंग पंचमी में सूखा गुलाल खेला जाता है. गोवा के शिमगो में शोभा यात्रा निकलती है और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है. पंजाब के होला मोहल्ला में सिक्ख शक्ति प्रदर्शन करते हैं. तमिलनाडु की कमन पोडिगई मुख्य रूप से कामदेव की कथा पर आधारित वसंत का उत्सव है. मणिपुर के याओसांग में योंगसांग उस नन्हीं झोंपड़ी का नाम है, जो पूर्णिमा के दिन प्रत्येक नगर-ग्राम में नदी अथवा सरोवर के तट पर बनाई जाती है. दक्षिण गुजरात के आदिवासी भी धूमधाम से होली मनाते हैं. छत्तीसगढ़ में लोक गीतों के साथ होली मनाई जाती है.  मध्यप्रदेश के मालवा अंचल के आदिवासी भगोरिया मनाते हैं. भारत के अतिरिक्त अन्य देशों में भी होली मनाई जाती है.

होली सदैव ही साहित्यकारों का प्रिय पर्व रहा है. प्राचीन काल के संस्कृत साहित्य में होली का उल्लेख मिलता है. श्रीमद्भागवत महापुराण में रास का वर्णन है. अन्य रचनाओं में 'रंग' नामक उत्सव का वर्णन है. इनमें हर्ष की प्रियदर्शिका एवं रत्नावली और कालिदास की कुमारसंभवम् तथा मालविकाग्निमित्रम् सम्मिलित हैं. भारवि एवं माघ सहित अन्य कई संस्कृत कवियों ने अपनी रचनाओं में वसंत एवं रंगों का वर्णन किया है. चंद बरदाई द्वारा रचित हिंदी के पहले महाकाव्य पृथ्वीराज रासो में होली का उल्लेख है. भक्तिकाल तथा रीतिकाल के हिन्दी साहित्य में होली विशिष्ट उल्लेख मिलता है. आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्तिकालीन सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर, जायसी, मीराबाई, कबीर और रीतिकालीन बिहारी, केशव, घनानंद आदि कवियों ने होली को विशेष मह्त्व दिया है. प्रसिद्ध कृष्ण भक्त महाकवि सूरदास ने वसंत एवं होली पर अनेक पद रचे हैं. भारतीय सिनेमा ने भी होली को मनोहारी रूप में पेश किया है. अनेक फिल्मों में होली के कर्णप्रिय गीत हैं.

होली आपसी ईर्ष्या-द्वेष भावना को बुलाकर संबंधों को मधुर बनाने का पर्व है, परंतु देखने में आता है कि इस दिन बहुत से लोग शराब पीते हैं, जुआ खेलते हैं, लड़ाई-झगड़े करते हैं. रंगों की जगह एक-दूसरे में कीचड़ डालते हैं. काले-नीले पक्के रंग एक-दूसरे पर फेंकते हैं. ये रंग कई दिन तक नहीं उतरते. रसायन युक्त इन रंगों के कारण अकसर लोगों को त्वचा संबंधी रोग भी हो जाते हैं. इससे आपसी कटुता बढ़ती है. होली प्रेम का पर्व है, इसे इस प्रेमभाव के साथ ही मनाना चाहिए. पर्व का अर्थ रंग लगाना या हुड़दंग करना नहीं है, बल्कि इसका अर्थ आपसी द्वेषभाव को भुलाकर भाईचारे को बढ़ावा देना है.

Saturday, March 12, 2016

भारतीय संस्कृति और पाश्चात्य दृष्टिकोण


सौरभ मालवीय
अनादिकाल से ही भारत में वैचारिक स्वतंत्रता प्रत्येक मनुष्य को प्राप्त रही है। प्राचीनकाल से ऋषियों, मनीषियों द्वारा समग्र जीवन दांव पर लगाकर भी अप्रतिम जीवन रहस्य खोजे गये। आत्मा ओर परमात्मा के गूढ़तर समबन्ध के इस सत्य शोधकों ने कभी भी अन्तिम सत्य प्राप्त कर लेने का दावा नहीं किया। अपना अन्तिम अनुभव बताने के पश्चात् भी वे ऋषिगण 'नेति-नेति' कहकर अपने आगत पीढ़ियों को पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराते थे। ''नेति-(न+इति, यह अन्तिम नहीं है) नेति'' कहने वालों ने यह उद्धोष ही कर दिया था कि ''आत्मा दीपो भव'' (उपनिषद वाक्य) अर्थात् स्वयं का ज्ञानदीप प्रज्जवलित करो। इसी मौलिक विचार सूत्र से अनुप्राणित होकर महात्मा बुध्द ने भी कहा था कि ''किसी सत्य को इसलिए मत मान लो कि किसी बड़ी पुस्तक में लिखा है या इसलिए भी मत मान लो कि किसी अत्यन्त प्रभावशाली व्यक्ति ने कहा है अपितु उस विचार को अपनी प्रज्ञा की कसौटी पर देखा और यदि सत्य लगे तो ही स्वीकार करना। उपर्युक्त श्रुति सूत्र को ही उन्होंने पालि भाषा में ''अप्प दीपो भव'' कहा था। इस प्रकार प्रत्येक मनुष्य के आत्मविकास की अन्यतम सम्भावनाओं के खिलने का अवसर उपलब्ध कराना ही भारतीय संस्कृति की वैचारिक पध्दति रही है।

सनातनकाल से ही ऋषियों, द्रष्टाओं और योगियों द्वारा परीक्षित सत्य ''अद्वैत सिध्दांत'' ही रहा है। वेद, उपनिषद, पुराण, आगम, निगम, शास्त्र, श्रुति, स्मृति, ब्राह्मण, आरण्यक इत्यादि ग्रन्थ अद्वैत दर्शन को ही प्रतिपादित निरूपित करते रह हैं एवं तदनुरूप ही सामाजिक जीवन, संचालित भी होता रहा है। ज्ञाता, ज्ञेय में इतना लीन हो जाय कि केवल ज्ञान ही बच जाय यही अद्वैत का लक्षण था। वैसे ही द्रष्टा, दृश्य और दर्शन, कर्ता, कर्म और कृत्य तथा सेवक सेव्य और सेवा आदि अवस्थाओं में द्वैधी भाव का विलोपन ही अद्वैतवाद है।
चिरकाल से चली आ रही इस -

ब्रह्म सत्य जगन्मिथात्येयोरूपो विनिश्चयम्।
सोऽयं नित्यानित्यवस्तु विवेक: समुदाहत:॥
विवेक चूडामणि
(ब्रह्म ही अन्तिम सत्य है और यह जग मिथ्या या झूठ का भ्रम है इस प्रकार का अविनाशी और नश्वर का विवेक ही उत्तम (अद्वैत) है)

जीवन शैली में अनापश्यक कुछ कर्मकाण्डों के जुड़ जाने पर कुछ रूढियां उत्पन्न हो गयीं और जन-जीवन उन्हीं रूढियों में उलझकर मूल उद्देश्य से भटक गया था। इन्हीं रूढियों के विरोध में कुछ शरीरवादियों ने एक लोकलुभावन विचार दिया, जिसे अल्पांश में ही सही पर जन-समर्थन भी मिला। यह चार्वाक मत था।

भाषा विज्ञानियों के अनुसार चार्वाक शब्द का मूल ''चारू+वाक्'' है, जिसका अर्थ है सुन्दर वाणी। कहां भारतीय जीवन का उद्देश्य परमात्म तत्त्व की प्राप्ति था और कहां चार्वा की चिन्तन It drink and be marry तक ही सीमित था। चार्वाकियों की मूल विचारधारा ही यह थी कि

''यावज्जीवेत् सुखंजीवेत ऋणंकृत्वा घृतं पिवेत।
भस्मीभूतसय देहस्य पुनरागमनं कुत:॥
(जब तक जीना है सुख से जियो, यदि अर्थाभाव है तो कर्ज लेकर भी भोग विलास करो क्योंकि इस नाशवान शरीर का आवागमन अर्थात् पुनजर्न्य कहां है ?) विशुध्द देहवादी चिन्तन।

परन्तु विराट हिन्दू समाज ने कभी भी चार्वाकियों के विरूध्द कोई ''फतवान्न जारी नहीं किया अपितु दर्शन के विचार से चार्वाक मत को भी अध्ययन अध्यापन और शोध का विषय मान लिया गया।
चूंकि सत्य सनातन अद्वैत मत ही मूल था अतएवं सभी अद्वैत से छिटककर ही अपना वैचारिक अभियान चला रहे थे। इन्हीं अभियानों में आज के 2500 वर्षों पूर्व महात्मा बुध्द ने एक अत्यंत सबल विचार बहाया। फलस्वरूप अद्वैत मत की जड़ें हिल गयी और जन-जन शून्यवाद स्थापित हो गया। कर्मकांडों और रूढियों से त्रस्त समाज बौध्द मत की खुली हवा में श्वासोच्छ्वास लेने लगा था। परन्तु भारतीययों के अन्तर्प्रज्ञा में अनुस्यूत वैचारिक स्वातन्त्र्य, बौध्दमत को भी सामी सोच वाला (Semitic) नहीं बनने दिया। बुध्दवाद में भी धर्म, विनय, मात्तिका, अभिधम्म, निकाय (अट्ठारह प्रकार के), वैभाषिक, भैरवी चक्र, स्थविरवाद, स्वस्तिवाद, महायान (नागार्जुन का), हीनयान, सौतांत्रिक, योगाचार, माध्यमिक, वज्रयान, वज्रयानों में भी कमरीपा, पनहीपा, ओखरीपा इत्यादि अनेक भेद उत्पन्न हो गये। अपने जीवन काल के अस्सी वर्षों तक बोलते रहे। भारत के सांस्कृतिक केन्द्र काशी (वाराणसी) के लगभग 400 किमी लम्बे और 150 किमी चौड़े भू-भाग में उस समय चालीस हजार लोग बौध्द मत के परिव्राजक बन चुके थे। अनुमान है कि उस समय उस क्षेत्र (अंग, बंग लिच्छवी, वैशाली, पाटलिपुत्र, कुशीनारा, काशी, श्रावस्ती, कोशल आदि) की जनसंख्या लगभग दो लाख थी।

अनेकानेक राजे, महाराजों द्वारा पालित-पोषित बौध्द धर्म (जन धर्म) को समूल उखाड़ने के लिए प्रख्यात दार्शनिक आचार्य कुमारिल भट्ट ने बौध्दिक दिग्विजय का दिव्य अभियान चलाया। एक वार्ता के दौरान आचार्य कुमारिल भट्ट काशी नरेश की कन्या को वचन दिया था कि -

''मा रोदिर्वरारोहे भट्टाचार्योडिस्म भूतले''
(एक बार काशी नरेश की पुत्री वैदकि धर्म के उध्दार के लिए रोते हुए आचार्य श्री से अपना दु:ख कहा था इसी पर आचार्य श्री कुमारिल भट्ट ने कहा कि मत रोओ! अभी कुमारिल भट्ट इस भूतल पर है)

आचार्य श्री कुमारिल भट्ट अद्वैत स्थापना का जो अखण्डदीप प्रज्ज्वलित किया था उसी के प्रकाश में आचार्य शंकर ने बौध्द मत के जड़ में मट्ठा डाल दिया। सुदूर दक्षिण (केरल प्रान्त के कांलडी ग्राम) से चलकर उस साधनहीन विचारक ने यान्धाता क्षेत्र में पूज्य आचार्य श्री गौड़पाद से दीक्षित होकर सम्पूर्ण सांस्कृतिक भारत को मंथ डाला। आनन्दगिरि और माध्वाचार्य प्रणीत ''शंकर दिग्विजय'' के अनुसार शंकराचार्य ने अवन्तिका से  द्वार का, पुरूषपुर (पेशावर), साकला (स्यालकोट, मिनांडर की राजधानी, कपिश क्षेत्र (कुभापार हिन्दुकुश भाग) खैबर दर्रा तक, अमरनाथ, शंकराचार्य पर्वत, मार्तण्ड, बदरीनाथ, केदारनाथ, गोमुख, नन्दनवन, हरिद्वार, प्रयाग, काशी, काण्ठमण्डपम (काठमाडू), मिथिला,परशुराम कुंड, कामरूप, उत्कल, कलिंग, पुरी, कन्याकुमारी, श्री शैलभ होकर समग्र भारतमाता की प्रदक्षिणा पूर्ण की। अपने बत्तीस वर्ष की अल्पायु में भगवत्पाद शंकर ने ''शरीरक भाष्य'' (ब्रह्मसूत्र) समेत लगभग अठहत्तर पुस्तकें गद्य और पद्य में लिखी। उनके ब्रह्मसूत्र भाष्य पर आचार्य वाचस्पति मिश्र (मिथिला, बिहार) ने अद्वितीय ग्रन्थ ''भामति'' लिखा।

पूज्य शंकराचार्य ने भारत की सांस्कृतिक रक्षा हेतु देश के चारों कोनों पर चार मठ (द्वारका पश्चिममाम्नाय, बदरी उत्तरामनाथ, पुरी पूर्वान्नाय और शगेरी दक्षिणाम्राय स्थापित किये। बावन (52) मणियों की स्थापना की। दशनामी समप्रदाय बनाए। बारह छावनियों का सृजन किया। समाज में व्याप्त अनेकानेक कुरीतियों को दूर करते हुए अपने प्रचंड बौध्दिक तेज से पुन: अद्वैत मत को प्रतिष्ठित किया। उनके ही जीवन काल में भारत से बौध्दमत उखड़ गया। लुम्बिनी, गया राजगृह वैशाली, काशी (सारनाथ) और कुशीनगर में एक भी व्यक्ति (स्थानीय) बौध्द नहीं बच गया। इन सबके बावजूद शंकराचार्य ने सवयं ही महात्मा बुध्द को भगवान् विष्णु के दशावतारों में एक ''सकृपावतंश'' (नौवां अवतार) घोषित किया और कहा

''वनजौ वनजौ खर्व: त्रिरामी सकृपोडकृप:।
अवतारा: दशैवैते कृष्णस्तु भगवान्स्वयम्॥

(जल के दो अवतार मत्स्य और कूर्म (कच्छप), वन के दो अवतार नृसिंह और वाराह) शूकर वामानावतार, तीन राम, परशुराम, श्रीराम, बलराम, सकृपावतार (बुध्द) और कल्कि अवतार ये ही दशावतार है। श्रीकृष्ण भगवान तो साक्षात् श्री मन्नारायण परमात्मा है।

परन्तु किसी भी बौध्द राजा या व्यक्ति ने उनके विपरीत कोई भी अशोभनीय टिप्पणी नहीं की, अपितु जनगण के द्वारा उन्हें जगदगुरू की उपाधि से सम्मानित किया गया। बत्तीस वर्षों में ही वे भारत के पांच हजार वर्षों का सांस्कृतिक जीवन जीये। एक-एक व्यक्ति के वे पूजनीय अर्चनीय महनीय बन गये।
जगद्गुरू शंकर का भी यह अद्वितीय अभियान कोई अन्तिम बिन्दु तो था नहीं। लगभग तीन शताब्दियों पश्चात् एक अन्य दार्शनिक श्री मध्वाचार्य ने उस परम प्रतिष्ठित शंकरमत (अद्वैतवाद) का खंडन कर दिया और एक नवीन विचार द्वैतवाद की स्थापना की। आचार्य श्री मध्व के इस गहन वैचारिक तत्व द्वैतवाद का भी खंडन काशी की एक श्रेष्ठतम विभूति आचार्य श्री मधुसूदन सरस्वती ने अपनी पुस्तक ''सिध्दांत बिन्दु'' में कर दिया और पुन: अद्वैतवाद को स्थापित किया। भक्ति तत्व के प्रेमी श्री मधुसूदन सरस्वती ने ही लिखा कि -

वंशी विभूषित करान्नवनीरदाभात्
पीताम्बरादरूण बिम्बाफलाधरोष्ठात्।
पूर्णेन्दु सुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात्
कृष्णात्परम किमपि तत्वमहं न जाने॥

हिन्दू संस्कृति के एक अन्यतम उध्दारक पूज्यवर्य श्रीमद गोस्वामी श्री तुलसीदास जी के सम्मान में उनहोंने लिखा कि -

''आनन्द कानने ह्यस्मिन जगमस्तुलसी तरू:।
कविता मंजरी भांति राम भ्रमर भूषिता:॥''

ऐसे सर्वसम्मानित सिध्दांत बिन्दु के तर्कों का भी खंडन एक दार्शनिक ने अपने दिव्य ग्रंथ ''न्यायामृत'' में कर दिया और पुन: द्वैतवाद का श्रेष्ठत्व सिध्द कर दिया। खंडन, मंडन और प्रतिस्थापन की यह अद्भुत शृंखला अनवरत चलती रही एवं भारतीय जन-मानस उन सबको पूजनीय भाव प्रदान करता रहा।

लगभग पांच दशकों में ही द्वैतवाद के न्यायामृत का खंडन ''अद्वैत सिध्दि'' नामक एक अन्य पुस्तिक में कर दिया गया और अद्वैत मत स्थापित हो गया। भगवान की रचना में एक से बढ़कर एक सिध्द महारथी पड़े हुए हैं और अद्वैतसिध्दि के तर्कों का खंडन ''न्यायामृत तरगिंणी'' नामक ग्रन्थ में कर दिया गया। कुछ ही वर्षों बाद द्वेतमत के इस समीचीन तर्कों का भी खंडन ''गौड़ ब्रह्मनंदी'' ग्रन्थ में करके अद्वैत मत का विजयध्वज लहराया गया। परन्तु इस अश्वमेद्य यज्ञ का घोड़ा भी ''न्याय भास्कर'' द्वारा रोक लिया गया और द्वैतमत के इन अद्यतन तर्कों ने बौध्दिक वर्ग को चमत्कृत कर दिया। अन्तत: विचारकों की अनंत शृंखला के एक महारथी ने ''न्यायेन्दु शेखर'' में न्यायभास्कर की अजेयता भी खंडित कर दी और अद्वैतवाद को शीर्षस्थ बना दिया। इस प्रकार द्वैत और अद्वैत के इस वैचारिक अभियान में हिन्दू समाज बौध्दिक उत्कर्ष और बहुआयामी सम्भावनाओं को आत्मसात करते हुए आनंदित होता रहा।

अद्वैत की मुख्यधारा के इतर भी अनेक विचार आये। द्वैताद्वैतवाद, त्रेतावाद, विशिष्टाद्वैतवाद, एकेश्वरवाद बहुदेववाद, ज्ञानाश्रयी, कर्माश्रयी, प्रेमाश्रयी, शक्तवाद, सौर्यवाद, शैववाद, वैष्णववाद, रामाश्रयी, कृष्णाश्रयी, सखीवाद, श्री वैष्णवी, वल्लभी इत्यादी अनेक विचार स्रो प्रस्फुटित हुए और सबके सब हिन्दुत्व की महागाथा में मिलकर भारतीय समाज को पवित्र करते रहे। किसी भी मतावलम्बी ने कभी भी अपने विपरीतवादियों को वैयक्तिक स्तर पर कुछ भी क्षुद्र टिप्पणी नहीं की। यही भारत का सर्वसमावेशक चित्त रहा है।
इसके विपरीत ईसाई मत में जिसने भी स्वतंत्र बौध्दिक प्रयास किया तो उसे मृत्योन्मुखी ही कर दिया गया। स्वयं जीसस क्राइस्ट को भी क्रास में बड़ी-बड़ी कीलें ठोककर फांसी इसीलिए दी गयी कि वे योरूसलम में तत्कालीन पुजारियों और पुरोहितों तथा रूढियों का विरोध कर रहे थे। उन्हीं पुरोहितों ने राजा पाइलेट पाण्टियस से मिलकर जीसस क्राइस्ट को क्रूरतम मृत्यु दण्ड दिलवाया। उसी परम्परा में कुछ ही शताब्दि बाद ''टालोमी'' नामक अत्यंत मेधावान खगोलविद को विषपान करने का आदेश दिया गया। टालोमी की केवल यही गलती थी कि उसने कह दिया था कि सूर्य स्थिर है और पृथ्वी उसकी प्रदक्षिणा करती है, जबकि बाइबिल में लिखा है कि धरती स्थिर है और सूर्य धरती का चक्कर लगाता है। केवल टालोमी ही नहीं अपितु ईसा के लगभग डेढ़ हजार वर्षों में गैलिली गैलिलियों तक शताधिक वैज्ञानिकों और विचारकों की ऐसी जघन्यतम हत्याएं की गयी कि समग्र समाज ही जड़वत हो गया। वैचारिक प्रतिबन्धों के कारण आत्म चिंतन का कोई द्वार हीं नहीं खुल सका। ईसाई मत के मानने वाले स्वयंघोषित ये सभ्य सोलहवी शताब्दी एक तो स्त्रियों को मानव मानते ही नहीं थे। क्योंकि बाइबिल में लिखा है कि स्त्रियों की उत्पत्ति पुरूष की पसली (वक्ष की अस्थि) से हुई है वह तो केवल पुरुषों के उपभोग की वस्तु है। और तो और महिलाओं में भी विचार क्षमता है यह बात उन आत्ममुग्ध ईसाईयों ने उन्नीसवीं शताब्दी में स्वीकार की और 1911 में उन्हें मताधिकार दिया गया। लगभग दो सौ वर्षों तक (1094 से 1292 तक) उनका धर्मयुध्द (क्रूसेड) चलता रहा, जिसमें लाखों अबोध बालकों की भी क्रूरतम हत्याएं की गयी।

रही बात इस्लाम की तो उसके सपने में भी वैचारिक स्वतंत्रता का सवाल ही नहीं उठता। लगभग 1400 वर्षों पुरानी मान्यता में भी युगानुकूल सोच के लिए कोई स्थान नहीं है। मिश्र के एक उपन्यासकार और नोबेल पुरस्कार विजेता ''नकीब महफूज'' को तेइस बार सजा-ए-मौत का फतवा जारी किया गया है। इस भय से उसकी जिन्दगी मौत से भी बदतर हो गई है वे अब एक जिन्दा लाख बन गए हैं। ईरान के एक विख्यात लेखक ''रहमान हतीफी'' के हाथ की नसों को परवर दीगार अल्लाह के सिपाहे-सयाबों ने चीर दिया और पैर बांधकर सड़क पर फेंक दिया। असहय पीड़ा झेलते हुए तड़प-तड़पकर अल्लाह के प्यारे हो गए। ''मेंहदी शेकरी'' को एक कविता लिखने के कारण जारी कत्ल के फतवे में उनकी दोनों आंखों में इस्लामी रहनुमाओं ने गोली मार दी और अपने को जन्नत-ए-हूर के काबिल घोषित किया। पिछले दस वर्षों में ही केवल इरान में 60 कवियों और लेखकों के क्रूरतम ढंग से दोजख रसीद कर दिया गया। ब्रिटिश मूल के मुस्लिम लेखक ''अनवर शेख'' एक महत्वपूर्ण शोधग्रन्थ लिखने के कारण अपमान और दहशतगर्दी के साये में जिन्दगी जी रहे हैं। उनकी रचना ''इटरनिटी'' पर जारी फतवे को कब कोई इस्लाम पर दीन-ओ-इमान रखने वाला जेहादी अमल में ला दे कहा नहीं जा सकता सैटनिक वर्सेज के लेखक सलमान रूशदी की कहानी तो प्रसिध्द ही है। रूशदी के माफीनामे के बावजूद भी फरमान-ए-मौत के फतवे अभी वापस नहीं हुए हैं और कोई भी अल्लाह का बन्दा उसे तामील कर सकता है। बंग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन की लज्जा से इस्लाम इतना लज्जित हुआ कि नसरीन की आजादी ही बन्धक बन गयी है। अपनी पुस्तक ''द्विखण्डित'' में उन्होंने इस्लामी इस्लामी अलिमो, फाजिलो, हाजियो, गाजियो की करतूत का जो वर्णन किया है उसे पढ़ने पर पाठकों को ही लज्जा आती है। पाकिस्तानी लेखिका ''तहमीना दुर्रानी'' ने अपनी पुस्तक ''ब्लासफेमी'' में पाकिस्तानी जमींदारों नजूलियो और मुल्लाओं के कुकृत्य का इतना लोमहर्षक वर्णन किया है कि इस सत्य को वे पचा नहीं पाए और तहमीना सजा-ए-मौत के खौफ में निर्वासित पड़ी हुई है। एक उदारवादी कानून मंत्री ''इकबाल हैदर'' ने एक विवादास्पद कानून ''शतिम-ए-रसूल'' में आंशिक तब्दीली की राय जाहिर की परन्तु सदन ने इंकार कर दिया। लेकिन पाकी परवर दीगार के पाक बन्दों ने खुदा के रसूल में अखलाक रखते हुए फरमाने मौत सुना दिया और एक दीनी इल्हाम वाले बन्दे ने उन्हें इनाम-ए-कत्ल से उनका जनाजा सजा दिया। एक अन्य पाकिस्तानी नागरिक जो तहे दिल से इस्लाम में यकीन रखता था लेकिन उसकी तहेदिली मुल्लाओं को नागवार लगी और उसके विरूध्द फतवा निकल गया। इखवान-उल-मुसलामीन वालों ने उनके हाथ और पैर की हव्यिों के सभी जोड़ तोड़ दिये उसके बाद सरेआम पत्थरों से मारकर बेहाल कर दिया। इतने पर भी उन्हें सब्र नहीं हुआ और उन्हें मोटर साइकिल में बांधकर दो घंटे तक गुजरावाला की गलियों में घसीटा गया। कुरान और इस्लाम पर एहतराम रखने वाले हजारों लोग इस वाकये के चश्मदीद थे पर यह घटना किसी को भी नागवार नहीं लगी। अन्त में ''हहफीज सज्जाद तारीक'' की लाख को जानवरों की दावत के लिए अधजला ही खुले मैदान कर दिया गया। अभी कुछ ही दिनों पूर्व की बात है विश्वविख्यात चित्रकार वान गाग के पुत्र ''थिपो'' को धर्मान्ध जाहिलों ने गोली मार दी। वे पश्चिमी सिने जगत के सम्मानित हस्ताखर थे। इन जाहिल जालिमों की नजर में वे अपनी फिल्मों से शातिम-ए-रसूल कर रहे थे।

लगभग आधे से अधिक विश्व पर ओर पौन शताब्दी से अधिक काल तक शासन करने वाली साम्यवादी पध्दति में भी वैचारिक स्वतंत्रता का कोई अस्तित्व ही नहीं है। संसार के सबसे बड़े भवनों वाले विश्वविद्यालय मास्कों विद्यापीठ (तैंतीस तल वाले) में भी अध्ययन अध्यापन की परिसीमा साम्यवादी ही है। कोई भी विषय साम्यवादी ढांचे में ही सोचना या बोलना होता है। राजनीतिक स्तर पर भ्ज्ञी केवल एक ही विचारधारा वाला संगठन रहेगा उसके इतर सोचने वाले जार निकोलाई की गति प्राप्त करेंगे। साम्याद से अलग सोच वाले के साथ इतना क्रूरतम दर्ुव्यवहार किया गया कि सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उन्हें संसार के सर्वाधिक ठंडे साइबेरिया के बर्फानी क्षेत्र में ले जाकर उन्हीं बन्दियों से उनकी कब्रें खुदवाकर और उनको निर्वस्त्र करके गोली मारी जाती थी। उन अभागे कैदियों के वस्त्र दूसरे अभागों के काम आते थे। उनकी कब्रों को भी अगले दल के कैदी ही भरते थे। इस प्रकार यह हत्याओं का चक्रीय क्रम चलता रहा। विश्व प्रसिध्द नोबेल पुरस्कार अस्वीकार करने वालों में सर्वाधिक रूसी नागरिक रहे हें क्योंकि साम्यवादी सोच उन्हें राजकीय स्तर पर ऐसा करने को बाध्य करती थी। ट्राट्सकी और बोरिस एल। पास्टरनाक जिस शरीरिक और मानसिक त्रासदी से गुजरे वह अत्यंत शर्मसार करता है। डा. जिवागो के लेखक के साथ अन्यतम दर्ुव्यवहार हुआ एक संगठन के तानाशाही आचरण ने समग्र समाज को कुंठित कर दिया। प्रत्येक व्यक्ति दूसरे को के.जी.बी. का एजेंट लगता था। आज की बौध्दिक यप से सुधारवादी कहना साम्यवाद और एजिल का अपमान उतनी बड़ी गाली नहीं जिना सुधारवादी होना। इतना ही नहीं ग्लासनोश्त और पेरेस्त्रोइका के जनक और रूसी राजनीति के शीर्षपुरूष डॉ. मिखइल गोर्वाचोव अपनी पत्नी डॉ. रईसा समेत न्यूयार्क के विश्वविद्यालय में अध्यापन करते है। उन्हें साम्यवादी शिक्षा संस्थानों में घुटन अनुभव हो रही थी। लगभग तीन करोड़ पुस्तकों वाले संसार के सबसे बड़े ग्रन्थागार में भी प्रतिगामी लेखकों के लिए स्थान नहीं है।

ये साम्यवादी विचारों वाले बुर्जुआ भी ''बाबा वाक्य प्रमाणम्'' के अनुसार मान लिये है कि घोर दरिद्रय और अहंकारी जिद्दी चित्त वाले कार्ल मार्क्स ने जो कुछ भी कहा है वह अन्तिम सत्य है। उसमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन परिवर्ध्दन अक्षम्य अपराध है।

जर्मनी में तत्कालीन राजनीतिक और सामाजिक वातावरण के कारण कार्ल मर्ाक्स को किसी विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य नहीं मिला क्योंकि उनके पिता एक यहूदी पुजारी थे और उन दिनों जर्मनी में यहूदियों के विरोध में सारा देश उग्र हो गया था। कार्ल मार्क्स ने इसे धार्मिक मामला माना और घोषित कर दिया कि धर्म अफीम से भी ज्यादा खतरनाक बात है। बस मार्क्स के इसी धार्मिक समझ पर साम्यवाद टिका है।

अनवर शेख, सलमान रूशदी और तहमीना दुर्रानी समेत अनेक लेखकों ने तो खुली चर्चा की मांग भी की थी परन्तु इस्लाम में इस प्रकार की कोई व्यवस्था नहीं है। चौदह सदी पूर्व अत्यन्त तपिश और रेतीले वातावरण में जो बात लिख दी गयी उसके औचित्यानौचित्य पर चर्चा की इस्लाम और अल्लाह की तौहीन माना जाता है। जो बातें कुरान या बाइबिल में भौगोलिक, स्थानीय जीवन व्यवहार और तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था के बारे में भी लिखी गयी उनमें देशकाल में परिवर्तन पर भी तदनुरूप बदलाव अधार्मिक माना जाता है। उच्चतापमान वनस्पति विहीन वातावरण औश्र अल्प जलीय क्षेत्र में जो नियम मुसिलम समाज के लिये बने थे वे ही नियम इस्लामवादियों को हजारों नदियों वाले एवं सदाबहारी वनाच्छादित भारत में या अतीव शीतकारी दक्षिणी रूस में भी मानने होंगे अन्यथा यह कुफ्र होगा और वे बन्दे अल्लाह की नियमत के हकदार नहीं होंगे।

आखिर सामी सोच वाले लोग विचार-विमर्श या शास्त्रार्थ से घबराते क्यों है ? इसका मूलकारण यही है कि इन्हें अपने विचारों की सत्यता पर जरा भी ेयकीन हीं है। वे जानते है। कि शास्त्रार्थ में उन पाखंडी विचारों की चूलें हिल जाएंगी और व ताश के महल जैसे भरभरा कर बिखर जाएंगे। यदि उन्हें लगता है कि वे ठीक हैं तो उनके अध्येता अराजकता और आतंकवादी फतवों को कूड़ेदान में फेंककर लज्जा, इटरनिटी, ब्लासफेमी, सैटनिक वर्सेज, द्विखण्डित, थियो वानगाग समेत सभी विषयों पर व्यापक प्रत्युत्तर लिखे, विभिन्न संचार माध्यमों पर खुला शास्त्रार्थ करें क्योंकि आज के इस वैज्ञानिक युग में -
''अब हवाएं ही करेंगी रोशनी का फसला।
जिस दिये में जान होगी वह दिया रह जाएगा।''

Friday, March 11, 2016

संवाद की ज्योति

 

इंदौर (मध्य प्रदेश). माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय-भोपाल और इंदौर प्रेस क्लब के संयुक्त तत्वावधान में राष्ट्रीय संविमर्श 'संवाद का स्वराज' का आयोजन इंदौर प्रेस क्लब स्थित सभागार में शुक्रवार, 11 मार्च 2016 को अपरान्ह 03.30 बजे किया गया. माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलाधिसचिव श्री लाजपत आहूजा ने विषय प्रवर्तन किया. इस राष्ट्रीय संविमर्श के मुख्य अतिथि केंद्रीय विश्वविद्यालय, धर्मशाला (हिमाचल प्रदेश) के कुलपति डॉ. कुलदीप चन्द्र अग्निहोत्री थे कार्यक्रम की अध्यक्षता माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृज किशोर कुठियाला ने की साथ ही वरिष्ठ पत्रकार श्री शशीन्द्र जलधारी ने काव्यपाठ किया एवं स्वागत तथा आभार प्रदर्शन इंदौर प्रेस क्लब के अध्यक्ष जाने-मानें पत्रकार श्री प्रवीण खारीवाल ने किया. वन्देमातरम गायन खंडवा से आयी सुश्री नेहा द्वारा किया गया और मंच संचालन डॉ. सौरभ मालवीय ने किया.

भारतीय बनाम सांस्कृतिक राष्ट्रवाद


डॉ. सौरभ मालवीय
भारतीय राजनीति में अनेक विचारधाराएं प्रचलित हैं। इसमें ''सांस्कृतिक राष्ट्रवाद'' प्रमुख है। ऐसी परिस्थितियां बन गईं है कि अब सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की उपेक्षा नहीं हो सकती। यह विचारधारा भारत की मूलचितंन से उपजी है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का अर्थ बहुत व्यापक है। सामान्य तौर पर देखा जाए तो राष्ट्रवाद की दुनिया में इसे ठीक से व्याख्यायित नहीं किया गया है। विभिन्न विचारकों के मत में राष्ट्रवाद के सम्बन्ध में जबरदस्त विरोधाभास है। प्रमुख तौर पर दुनियाभर में जिन विचारधाराओं ने अपनी प्रभावी छाप छोड़ी है उनमें से समाजवाद, पूंजीवाद, साम्यवाद उल्लेखनीय है।
पूंजीवाद जहां अमीरों की संख्या बढ़ाता है वहीं दूसरी तरफ गरीबों की संख्या में वृध्दि होती जाती है। यह समाज में खाईं पैदा करता है। वहीं समाजवाद कोई निश्चित विचारधारा नहीं है। ऐसा कहा जाता है कि समाजवाद वैसी टोपी है, जिसको सब पहनना चाहते हैं जिसके फलस्वरूप उसकी शक्ल बिगड़ गई। समाजवाद विचारधारा कहीं सफल नहीं हो सकी। यह समाज में समानता की बात जरूर करता, लेकिन जो परिणाम विभिन्न देशों और अपने देश में देखने को मिले वे बिल्कुल विपरीत हैं। इसी प्रकार समाज में समता की बात करने वाले साम्यवाद ने लोगों की आशाओं पर पानी फेरा। साम्यवाद एक शोषणविहीन समाज का सपना दिखाता है। उसका साध्य अवश्य पवित्र है, लेकिन साधन ठीक उसके उल्टे अत्यंत गलत हैं। वह हिंसा को सामाजिक क्रांति का जनक मानता है और दुनियाभर में साम्यवादी विचारधारा के नाम पर जितनी हत्याएं की गईं उसका विवरण दिल दहला देता है। इन सभी विचारधाराओं का प्रयोग भारत की धरती पर भी हुआ और इन सबसे जनता का मोह भंग भी हो गया। अपने देश में प्रमुख विचारधारा कांग्रेस के रूप में सामने आई। निश्चित रूप से देश को आजादी दिलाने में कांग्रेस ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। आजादी के पूर्व की कांग्रेस ने भारतीय समाज में चेतना जगाने का कार्य किया, जिससे लोगों को विश्वास और संबल प्राप्त हुआ। कांग्रेस ही एकमात्र अखिल भारतीय पार्टी थी, जिससे जनता को बहुत आशाएं थीं। देश आजाद हुआ और कांग्रेस की सरकार बनी मगर हमारे पहले प्रधानमंत्री भारत की मूल विचार को ठुकराते हुए पश्चिम की ओर ताकने लगे। समाजवाद, साम्यवाद और पूंजीवाद की तिकड़ी पकाकर इस देश में शासन चलाने का प्रयास किया गया। आखिर परिणाम ढाक के तीन पात ही निकले। क्योंकि भारतीय जनता सरकार से दूर होती गई और आजादी के कुछ ही वर्षों बाद सांस्कृतिक राष्ट्रवाद भारत के राजनीतिक क्षितिज पर चमकने लगा। प्रख्यात क्रांतिकारी व विचारक अरविंदो, युवा संयासी विवेकानंद, रामकृष्ण परहंस, आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद, महात्मा गांधी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आद्य सरसंघ चालक डॉ. केशवराम बलिराम हेडगेवार व भारतीय जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी के विचारों को प्रधानता मिली। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं भाजपा तथा उसके पर्वूवर्ती भारतीय जनसंघ ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के मंत्र को देशभर में गुंजाया। अब सवाल उठता है कि राष्ट्र क्या है ? क्या भारत एक राष्ट्र है ? क्या भारतीय राष्ट्र के संपूर्ण भूगोल पर किसी एक शासक का शासन रहा है। आखिर वो कौन सी ताकत है जो भारत को एक राष्ट्र के रूप में पहचान दिलाती है। यहां यह समझना आवश्यक होगा कि राष्ट्र व राज्य में अन्तर होता है। भारतीय राष्ट्र और पश्चिम के नेशन स्टेट में जमीन-आसमान का अन्तर है। वामपंथी और अंग्रेजी इतिहासकारों ने भारत को एक राष्ट्र मानने से इंकार कर दिया। उनका कहना था कि भारत सोलह राष्ट्रीयताओं वाला देश है। क्या यह उचित है ? अब हम यहां पर राष्ट्र शब्द के बारे में भारतीय परिप्रेक्ष्य में चर्चा करेंगे। राष्ट्र शब्द सबसे पहले हजारों वर्ष पूर्व लिखे गए भारत के ऐतिहासिक ग्रंथ ऋग्वेद में उल्लेखित है।
किसी राष्ट्र के लिए सबसे आवश्यक तत्व है- एक भूखंड, जो किसी प्राकृतिक सीमाओं से घिरा हुआ हो। दूसरा, प्रमुख तत्व है उस विशिष्ट भू-प्रदेश में रहने वाला समाज, जो उसके प्रति मातृभूमि के रूप में भाव रखता हो। इस प्रकार जब समाज मर्यादा, परम्पराओं एवं सब दुख, शत्रु-मित्र के समान अनुभूति वाला हो जाता है तब उसे राष्ट्र कहा जा सकता है।
राष्ट्र, राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद आदि अवधारणाओं का जन्म पश्चिम में अभी सवा दो सौ वर्ष पूर्व विशेषकर फ्रेंच क्रांति (1789) के पश्चात् हुआ है। वे मानते हैं कि राष्ट्र एक राजनीतिक संकल्पना है।
पाश्चात्य, कम्युनिस्ट और कांग्रेसी मानते हैं कि - "We are nation in he making and India has a multiple culture and pluralist society.'
अथर्ववेद कहता है 'सा नो भूमि: लिषिं बलं राष्ट्र
दयातत्वमें' यह हमारी मातृभूमि हमारे इस राष्ट्र में तेज तथा बल को धारण कर उसे बढ़ाए।
विष्णु पुराण उद्धोष कहता है -
'उत्तरं यत्समुप्रस्य' हिमाद्रेश्चैव दक्षिणाम्।
वर्ष तद् भारतं नाम भारती यस्य सन्तति:॥'
(समुद्र के उत्तर में और हिमालय' के दक्षिण में जो स्थित है उसका नाम भारत है और उसकी संतान भारतीय है)
राष्ट्र के बुनियादी तत्व :
मातृभूमि के प्रति श्रध्दा एवं निष्ठा,
साहचर्य अथवा भ्रातृत्व की भावना और
राष्ट्र जीवन की समानधारा की उत्कृष्ट चेतना।
राष्ट्र किसी भौगोलिक सीमा का नाम नहीं, बल्कि संस्कृति सूचक एक विशेष शब्द है। राष्ट्र की कोई भौगोलिक इकाई नहीं, बल्कि भूगोल पर आधारित भावनात्मक इकाई है, जिसे प्रत्येक व्यक्ति की प्रकृति, उसके आचार-विचार भिन्न होते हैं, उसी प्रकार प्रत्येक राष्ट्र की प्रकृति भी भिन्न होती है।
राष्ट्रीयता निर्माण होने के लिए तथा उसके स्थायित्व के लिए कुछ कारक तत्व होते हैं। समान इतिहास, परम्परा व संस्कृति के प्राण हैं, जिनके बिना राष्ट्रीयता उभर ही नहीं सकती। जिन मानव समूहों का वह राष्ट्र है उनको निवास के लिए स्थान चाहिए। अन्य घटक तत्व हो 19वीं और 20वीं शताब्दी में आवश्यक माने गये हैं, वह है भाषा, पंथ, वंश एवं राज्य। इनके अतिरिक्त कुछ सहायक तत्व और भी है, जैसे समान आर्थ्ािक हित सम्बन्ध, साहित्य और साहित्यिक सीमाएं तथा जलवायु।
भारत की आत्मा को समझना है तो उसे राजनीति अथवा अर्थनीति के चरम से न देखकर सांस्कृतिक दृष्टिकोण से ही देखना होगा। भारतीयता की अभिव्यक्ति राजनीति के माध्यम से न होकर उसकी संस्कृति के द्वारा ही होगी।
पं. दीनदयाल उपाध्याय ने कहा था, 'राष्ट्र केवल भौतिक निकाय नहीं हुआ करता। राष्ट्र में रहने वाले लोगों के अंत:करण में अपनी भूमि के प्रति श्रध्दा की भावना का होना राष्ट्रीयता की पहली आवश्यकता है। भारतीय संस्कृति की पहली विशेषता यह है कि वह सम्पूर्ण जीवन का, सम्पूर्ण सृष्टि का संकलित विचार करती है।
भारत देश मूलत: संस्कृति प्रधान है। यह इस संस्कृति का ही जादू है कि यूनान, मिस्र और रोम नक्शे से मिट गए पर भारत का अस्तित्व यूं कहे भारतीयता बनी रही। हर दौर में यहां की संस्कृति बार-बार अपने मूल स्वरूप की ओर लौटती रही। इसका कारण सिर्फ इतना है कि हम भारतीयों ने इस देश की मिट्टी, नदियों, पर्वतों, मैदानों, पठारों, परम्पराओं, देवी, देवताओं से ऐसा तारतम्य स्थापित कर लिया है कि कोई बाहरी ताकत इसको प्रभावित करने की जितनी भी चाहे, चेष्टा कर ले, हम अपनी जड़ों को विस्मृत नहीं करते।
भारतीय राष्ट्रीवाद का आधार हमारी युगों पुरानी संस्कृति है। भारत एक देश है और सभी भारतीय जन एक हैं। परंतु हमारा यह विश्वास है कि भारत के एकत्व का आधार उसकी युगों पुरानी संस्कृति में ही निहित है - इस बात को न्यायालय के अनेक निर्णयों में स्वीकार किया है। प्रदीप जैन बनाम भारत संघ (1984) मामले में निर्णय देते हुए उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायधीश जस्टिस पी.एन. भगवती और अमरेन्द्रनाथ सेन तथा जस्टिस रंगनाथ मिश्र ने कहा था - 'यह इतिहास का रोचक तथ्य है कि भारत का राष्ट्र के रूप में अस्तित्व बनाए रखने का कारण एक समान भाषा या इस क्षेत्र में एक ही राजनीतिक शासन का जारी रहना नहीं है। बल्कि सदियों पुरानी चली आ रही एक समान संस्कृति है यह सांस्कृतिक एकता है, जो किसी बंधन से अधिक मूलभूत और टिकाऊ है, जो किसी देश के लोगों को एकजुट करने में सक्षम है और जिसने इस देश को एक राष्ट्र के रूप में बांध रखा है।
पिछले अनेक युगों से तीर्थ स्थलों के देश भारत में बर्फीली हिमालय पर्वतमाला में स्थित बद्रीनाथ, केदारनाथ और अमरनाथ से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक लोगों के लिए श्रध्दा के केन्द्र हैं। इन महान् तीर्थों में कोई विशेष बात है जो लोगों को दक्षिण से उत्तर और उत्तर से दक्षिण की यात्रा करने के लिए प्रेरित करती है। यह एक देश और संस्कृति की भावना है और इस भावना ने हम सबको जोड़ रखा है।
हमारी राष्ट्रीयता का आधार भारत माता है, केवल भारत नहीं। माता शब्द हटा दीजिए तो भारत केवल जमीन का टुकड़ा मात्र रह जाएगा।
भारत वर्ष का भविष्य अभी बनना है और वह भविष्य सांस्कृतिक दृष्टि पर आधारित होगा भारतीयता पर आधारित होगा। वह सच्चे अर्थों में भारत होगा। संस्कृत में भारत का अर्थ है वह जो 'प्रवाह में रत है - प्रवाह के प्रति प्रतिबध्द है, वही भारत है।

Saturday, March 5, 2016

साम्यवाद और महात्मा गांधी


डॉ. सौरभ मालवीय
दुनिया भर के प्रमुख विचारकों ने भारतीय जीवन-दर्शन एवं जीवन-मूल्य, धर्म, साहित्य, संस्कृति एवं आध्यात्मिकता को मनुष्य के उत्कर्ष के लिए सर्वोत्कृष्ट बताया है, लेकिन इसे भारत का दुर्भाग्य कहेंगे कि यहां की माटी पर मुट्ठी भर लोग ऐसे हैं, जो पाश्चात्य विचारधारा का अनुगामी बनते हुए यहां की परंपरा और प्रतीकों का जमकर माखौल उड़ाने में अपने को धन्य समझते है.
इस विचारधारा के अनुयायी 'कम्युनिस्ट' कहलाते है. विदेशी चंदे पर पलने वाले और कांग्रेस की जूठन पर अपनी विचारधारा को पोषित करने वाले 'कम्युनिस्टों' की कारस्तानी भारत के लिए चिंता का विषय है. हमारे राष्ट्रीय नायकों ने बहुत पहले कम्युनिस्टों की विचारधारा के प्रति चिंता प्रकट की थी और देशवासियों को सावधान किया था. आज उनकी बात सच साबित होती दिखाई दे रही है. सच में, माक्र्सवाद की सड़ांध से भारत प्रदूषित हो रहा है.
आइए, इसे सदा के लिए भारत की माटी में दफन कर दें. कम्युनिस्टों के ऐतिहासिक अपराधों की लम्बी दास्तां है- सोवियत संघ और चीन को अपना पितृभूमि और पुण्यभूमि मानने की मानसिकता उन्हें कभी भारत को अपना न बना सकी. कम्युनिस्टों ने 1942 के 'भारत-छोड़ो आंदोलन के समय अंग्रेजों का साथ देते हुए देशवासियों के साथ विश्वासघात किया. 1962 में चीन के भारत पर आक्रमण के समय चीन की तरफदारी की. वे शीघ्र ही चीनी कम्युनिस्टों के स्वागत के लिए कलकत्ता में लाल सलाम देने को आतुर हो गए. चीन को उन्होंने हमलावर घोषित न किया तथा इसे सीमा विवाद कहकर टालने का प्रयास किया.
चीन का चेयरमैन-हमारा चेयरमैन का नारा लगाया.इतना ही नहीं, श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपने शासन को बनाए रखने के लिए 25 जून, 1975 को देश में आपातकाल की घोषणा कर दी और अपने विरोधियों को कुचलने के पूरे प्रयास किए तथा झूठे आरोप लगातार अनेक राष्ट्रभक्तों को जेल में डाल दिया. उस समय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी श्रीमती इंदिरा गांधी की पिछलग्गू बन गई. डांगे ने आपातकाल का समर्थन किया तथा सोवियत संघ ने आपातकाल को 'अवसर तथा समय अनुकूल' बताया. भारत के विभाजन के लिए कम्युनिस्टों ने मुस्लिम लीग का समर्थन किया. कम्युनिस्टों ने सुभाषचंद्र बोस को 'तोजो का कुत्ता', जवाहर लाल नेहरू को 'साम्राज्यवाद का दौड़ता कुत्ता' तथा सरदार पटेल को 'फासिस्ट' कहकर गालियां दी.ये कुछ बानगी भर है.
आगे हम और विस्तार से बताएंगे. भारतीय कम्युनिस्ट भारत में वर्ग-संघर्ष पैदा करने में विफल रहे, परंतु उन्होंने गांधीजी को एक वर्ग-विशेष का पक्षधर, अर्थात् पुजीपतियों का समर्थक बताने में एड़ी-चोटी का जोड़ लगा दिया. उन्हें कभी छोटे बुर्जुआ के संकीर्ण विचारोंवाला, धनवान वर्ग के हित का संरक्षण करने वाला व्यक्ति तथा जमींदार वर्ग का दर्शन देने वाला आदि अनेक गालियां दी. इतना ही नहीं, गांधीजी को 'क्रांति-विरोधी तथा ब्रिटीश उपनिवेशवाद का रक्षक' बतलाया. 1928 से 1956 तक सोवियत इंसाइक्लोपीडिया में उनका चित्र वीभत्स ढंग से रखता रहा. परंतु गांधीजी वर्ग-संषर्ष तथा अलगाव के इन कम्युनिस्ट हथकंडों से दुखी अवश्य हुए. साम्यवाद (Communism) पर महात्मा गांधी के विचार-महात्मा गांधी ने आजादी के पश्चात् अपनी मृत्यु से तीन मास पूर्व (25 अक्टूबर, 1947) को कहा- 'कम्युनिस्ट समझते हैं कि उनका सबसे बड़ा कर्तव्य, सबसे बड़ी सेवा-मनमुटाव पैदा करना, असंतोष को जन्म देना और हड़ताल कराना है.
वे यह नहीं देखते कि यह असंतोष, ये हड़तालें अंत में किसे हानि पहुंचाएगी. अधूरा ज्ञान सबसे बड़ी बुराइयों में से एक है. कुछ ज्ञान और निर्देश रूस से प्राप्त करते है. हमारे कम्युनिस्ट इसी दयनीय हालत में जान पड़ते है. मैं इसे शर्मनाक न कहकर दयनीय कहता हूं, क्योंकि मैं अनुभव करता हूं कि उन्हें दोष देने की बजाय उन पर तरस खाने की आवश्यकता है. ये लोग एकता को खंडित करने वाली उस आग को हवा दे रहे हैं, जिन्हें अंग्रेज लगा लगा गए थे.

भारतीय समाज और गाय


डॉ. सौरभ मालवीय
मानवता ने जब भी चेतना को प्राप्त किया तो उसने सर्व शक्ति सम्पन्न को मातृ रूपेण ही देखा है। इसी कारण भारत में ऋषियों ने गऊ माता, गंगा माता, गीता माता, गायत्री माता और धरती माता को समान रूपेण्ा प्रथम पूज्यनीय घोषित किया है। इन पंचमातृकाओं में गाय ही सर्वश्रेष्ठ है और सबकी केन्द्रीय भू-शक्ति है। पौराणिक कथानुसार जब-जब धरती पर विपत्ति आती है तो यह धरणी गाय का भी स्वरूप धारण करती है। परमपिता परमेश्वर के बाद अपनी विपत्ति के निवारण के लिए गाय माता की ही पूजन अर्चन किया जाता है। भारतीय समाज में यह विश्वास है कि गाय देवत्व और प्रकृति की प्रतिनिधि है इसलिये इसकी रक्षा और पूजन कार्य श्रेष्ठ माना जाता है। सर्व शक्तिमान परमात्मा अपने अन्यान्य शक्तियों के साथ इस धरती पर प्रकट होते हैं। परम पूज्यनीय गोस्वामी तुलसी दास जी महाराज लिखते हैं -
”बिप्र धेनु सूर संत हित, लिन्ह मनुज अवतार।
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गोपार॥
अर्थात ब्राम्हण (प्रबुध्द जन) धेनु (गाय) सूर(देवता) संत (सभ्य लोग) इनके लिए ही परमात्मा अवतरीत होते हैं। वह परमात्मा स्वयं के इच्छा से निर्मित होते हैं और मायातीत, गुणातीत एवम् इन्द्रीयातीत इसमें गाय तत्व इतना महत्वपूर्ण हैं कि वह सबका आश्रय है। गाय में 33 कोटि देवी देवताओं का वास रहता है। इस लिए गाय का प्रत्येक अंग पूज्यनीय माना जाता है। गो सेवा करने से एक साथ 33 करोड़ देवता प्रसन्न होते है। गाय सरलता शुध्दता और सात्विकता की मूर्ति है। गऊ माता की पीट में ब्रह्म, गले में विष्णु और मुख में रूद्र निवास करते है, मध्य भाग में सभी देवगण और रोम-रोम में सभी महार्षि बसते है। सभी दानों में गो दान सर्वधिक महत्वपूर्ण माना जाता है।
गाय को भारतीय मनीषा में माता केवल इसीलिए नहीं कहा कि हम उसका दूध पीते हैं। मां इसलिए भी नहीं कहा कि उसके बछड़े हमारे लिए कृषि कार्य में श्रेष्ठ रहते है। अपितु हमने माँ इस लिए कहा है कि गाय की ऑंख का वात्सल्य सृष्टि के सभी प्राणियों की आंखो से अधिक आकर्षक होता है अब तो मनोवैज्ञानिक भी इस गाय की आंखों और उसके वात्सल्य संवेदनाओं की महत्ता स्वीकारने लगे हैं। ऋषियों का ऐसा मनतव्य है कि गाय की आंखों में प्रीति पूर्ण ढंग से ऑंख डालकर देखने से सहज ध्यान फलित होता है। श्रीकृष्ण भगवान को भगवान बनाने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका गायों की ही थी। स्वयं ऋषियों का यह अनुभव है कि गाय की संगती में रहने से तितिक्षा की प्राप्ति होती है। गाय तितिक्षा की मूर्ति होती है। इसी कारण गाय को धर्म की जननी कहते हैं। उपयोगिता के आधार पर गाय से ज्यादा उपयोगी प्राणी घोड़ा रहा है और घोड़ों के ही कारण बड़ी-बड़ी राज सत्ताएं बनती या बिगड़ती रही है। ऐसा एक भी प्रमाण संसार में नहीं मिलेगा कि गायों के कारण कोई साम्राज्य बना है।
दूध के दृष्टि से भी भैंस, बकरी और ऊंट के महत्व को कम करके नहीं आंका जा सकता लेकिन इन सारी बातों के बावजूद घोड़ा, हाथी, खच्चर, ऊंट और बकरी एवं भैंस भारतीय चेतना में गाय के पासंग में भी नहीं टिकते और केवल भारत के ही नहीं अपितु पूरे विश्व में भी गाय की महत्ता स्वीकारी गई है। प्राचीनतम काल में निर्मित मिश्र के पीरामिडों पर बछड़ों को दूध पिलाते गाय का चित्र अंकित है। संसार में दूग्ध उत्पादन के लिए महत्वपूर्ण देश डेनमार्क समूल नाम धेनुमार्क था। भाषा विज्ञानियों के मतानुसार यह धेनुमार्क ही तद्भव होकर डेनमार्क बन गया।
अठारहवीं शताब्दी में प्रकाशित एक मानचित्र में डेनमार्क की राजधानी कोपेन हेगेन की स्पेलिंग ब्वूचमद भ्महमद लिखा गया है। बैलों के एक बड़े व्यापारी फोर्ड ने 12वीं शताब्दी ब्रिटेन में एक बड़ा मेला प्रारंभ किया उसी के नाम पर उस स्थान का नाम आस्फोर्ड हो गया। न्यूजीलैण्ड की एक वनवासी जाती मावरी भाषा बोलती है उन जनजातियों में गाय की पूजा की जाती है। गाय को मावरी में ”आक” कहते हैं। इसी आक के आधार पर न्यूजीलैण्ड की राजधानी का नाम आकलैण्ड पड़ा। इस प्रकार गाय की महिमा पूरे धरती पर गायी जाती है और गाय मानव जीवन में अत्यन्त उपयोगी है, गाय का दुध अमतृ के समान है इससे प्राप्त दूध, घी, मख्खन मनुष्य शरीर को पुष्ट (बलवान) बनाता है। गाय के मूत्र से विभिन्न प्रकार की दवाइयां बनाई जाती हैं, इसके मूत्र में कैंसर, टी.वी. जैसे गंभीर रोगो से लड़ने की क्षमता होती है और पेट के सभी विकार दूर होते हैं। गाय ही एक मात्र ऐसी प्राणी है जो ऑक्सीजन ग्रहण्ा करती है और ऑक्सीजन ही छोड़ती है। गाय के मूत्र में पोटेशियम, सोडियम, नाइट्रोजन, यूरिया और यूरिक एसिट होता है। दूध देते समय गाय के मूत्र में लेक्टोज की वृद्वि होती है जो हृदय रोगों के लिए लाभकारी है। गाय के समीप जाने से ही संक्रामक रोग कफ सर्दी, खांसी, जुकाम का नाश हो जाता है। गौमूत्र का एक पाव नित्य प्रात: खाली पेट सेवन करने से कैंसर जैसा रोग भी नष्ट हो जाता है। गाय की उपस्थिति का पर्यावरण के लिए एक महत्वपूर्ण योगदान है।
परन्तु दुर्भाग्य है हम लोंगों का भारत जैसे पवित्र देश में गोमांस अब एक महत्वपूर्ण व्यापार बन गया है। स्थिति की भयंकरता का अनुमान स्वयं लगा सकते है कि देश के 37 हजार आधुनिक कत्लखानों में 28 सौ गायें प्रति मिनट कटती है। जहाँ 1991 में प्रति दो भारतीय पर एक गोवंश था। अब वह 2001 में प्रति दस भारतीय पर एक गाय बची है। 1991 से 1996 तक 27 आधुनिक कत्तल खाने खोलने के लिए 75 प्रतिशत तक की सरकारी छूट दी गई। सन 1981 तक पूरे भारत का गोमांस निर्यात 39 हजार टन वार्षिक था। अब यह बढ़कर लगभग 5 लाख टन वार्षिक हो गया है। देश की सेकुलर नीति के कारण श्रीकृष्ण, नंदकिशोर गोपाल के इस देश में आज तक समग्र रूपेण्ा गोवध बन्दी का कानून नहीं बनाया जा सका और वोट बैंक की राजनीति के दुष्चक्र में राजस्थान और पश्चिम बंगाल की सीमा गायों की तस्करी का सबसे बड़ा केन्द्र बन गया। अब गो भक्त जनता का आग्रह इतना तीव्र होना चाहिए कि गाय की हत्या मनुष्य की हत्या जैसा मानकर के कानून बनाया जाय अन्यथा यह भारत विपत्ति के ऐसे जाल में फसता जा रहा है जहां से निकलने का कोई उपाय नहीं है। यदि भारत में गाय नहीं बची तो भारत का विनाश भी नहीं रोका जा सकता है।
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डॉ. सौरभ मालवीय
सहायक प्राध्यापक
माखनलाल चतुर्वेदी
राष्‍ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल (मध्य प्रदेश)
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ईमेल : drsourabhmalviya@gmail.com

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