डॉ. सौरभ मालवीय
पंडित मदनमोहन मालवीय महान स्वतंत्रता सेनानी होने के साथ-साथ एक कुशल राजनीतिज्ञ, सफल शिक्षाविद एवं महान समाज सुधारक भी थे। उन्होंने जातिवाद और दलितों की स्थिति सुधारने के लिए भरसक प्रयत्न किए। उनके अनुसार- “यदि आप मानव आत्मा की आंतरिक शुद्धता को स्वीकार करते हैं, तो आप या आपका धर्म किसी भी व्यक्ति के स्पर्श या संगति से कभी भी अशुद्ध या अपवित्र नहीं हो सकता है। हम मानते हैं कि धर्म चरित्र का आधार है और मानव सुख का सबसे बड़ा स्त्रोत है। धार्मिकता और धर्म कायम रहने दें, और सभी समुदाय और समाज प्रगति करें। हमारी प्यारी मातृभूमि को अपना खोया हुआ गौरव वापस दिलाएं। भारत के पुत्र विजयी हों। जो इंसान अपने स्वयं की निंदा सुन लेता है वह सारे विश्व पर विजय प्राप्त कर लेता है।“
पंडित मदनमोहन मालवीय का जन्म 25 दिसम्बर, 1861 को उत्तर प्रदेश के इलाहबाद में हुआ था। उनके पिता का नाम ब्रजनाथ और माता का नाम भूनादेवी था। वह मालवा के मूल निवासी थे, इसलिए उन्हें मालवीय कहा जाता है। उनकी प्राथमिक शिक्षा इलाहाबाद के श्री धर्मज्ञानोपदेश पाठशाला में हुई। यहां सनातन धर्म की शिक्षा दी जाती थी। इसके पश्चात उन्होंने वर्ष 1879 में इलाहाबाद जिला स्कूल से प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण की तथा उन्होंने म्योर सेंट्रल कॉलेज से एफए की परिक्षा उत्तीर्ण की। उन्होंने कलकत्ता विश्विद्यालय से बीए की परीक्षा उत्तीर्ण की। आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण पढ़ाई के दौरान उन्हें अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा। उन्होंने वर्ष 1884 में इलाहाबाद के एक सरकारी स्कूल में अध्यापन का कार्य आरंभ कर दिया। यहां उन्हें 40 रुपये मासिक वेतन मिलता था। इससे उनकी आर्थिक समस्या का कुछ समाधान हुआ। उन्होंने वर्ष 1891 में एलएलबी की परीक्षा उत्तीर्ण की। उन्होंने पहले जिला न्यायालय और उसके पश्चात वर्ष 1893 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अधिवक्ता के रूप में अपना कार्य प्रारम्भ किया।
राजनीति में भी पंडित मदनमोहन मालवीय की गहरी रुचि थी। वह वर्ष 1909 में लाहौर, 1918 और 1930 में दिल्ली और 1932 में कोलकाता में कांग्रेस के अधिवेशन के अध्यक्ष रहे। वह वर्ष 1903-18 के दौरान प्रांतीय विधायी परिषद और 1910-20 तक केंद्रीय परिषद के सदस्य रहे। वह 1916-18 के दौरान भारतीय विधायी सभा के निर्वाचित सदस्य रहे। वर्ष 1930 में जब महात्मा गांधी ने नमक सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा आंदोलन आरम्भ किया, तो उन्होंने उसमें भाग लिया और जेल गए। वह 50 वर्षों तक कांग्रेस में सक्रिय रहे। उन्होंने वर्ष 1937 में राजनीति से संन्यास ले लिया तथा अपना सारा ध्यान सामाजिक कार्यों पर केंद्रित कर दिया। उन्होंने महिलाओं की शिक्षा पर बल दिया। उन्होंने बाल विवाह का विरोध किया तथा विधवा पुनर्विवाह का समर्थन किया।
वह भारतीय संस्कृति के कट्टर समर्थक थे। वह समस्त कर्मकांड, रीति रिवाज, मूर्तिपूजन आदि को हिन्दू धर्म का मौलिक अंग मानते थे। इसलिए धार्मिक मंच पर आर्यसमाज की विचार धारा का विरोध करने के लिए उन्होंने जनमत संगठित करना आरम्भ किया। उनके प्रयासों के कारण ही पहले 'भारतधर्म महामंडल तथा उसके पश्चात 'अखिल भारतीय सनातन धर्म' सभा की स्थापना हुई। वह हिन्दी को बहुत महत्त्व देते थे। वह कहते थे- “भाषा की उन्नति करने में हमारा सर्वप्रथम कर्तव्य यह है कि हम स्वच्छ भाषा लिखें। पुस्तकें भी ऐसी ही भाषा में लिखी जाएं। ऐसा यत्न हो कि जिससे जो कुछ लिखा जाए, वह हिन्दी भाषा में लिखा जाए। जब भाषा में शब्द न मिलें तब संस्कृत से लीजिए या बनाइए।”
वह विद्यार्थियों को देश का भावी कर्णधार मानते थे. उनके अनुसार- "भारतीय विद्यार्थियों के मार्ग में आने वाली वर्तमान कठिनाइयों का कोई अंत नहीं है। सबसे बड़ी कठिनता यह है कि शिक्षा का माध्यम हमारी मातृभाषा न होकर एक अत्यंत दुरुह विदेशी भाषा है। सभ्य संसार के किसी भी अन्य भाग में जन-समुदाय की शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा नहीं है। अंग्रेजी माध्यम भारतीय शिक्षा में सबसे बड़ा विघ्न है।“ वह मानते थे कि केवल हिन्दी में ही राष्ट्रभाषा बनने की क्षमता है। वह हिन्दी एवं संस्कृत भाषा के प्रबल समर्थक थे। हिन्दी के बारे में उनका कहना था- “हिंदुस्तान की उन्नति हिन्दी को अपनाने से ही हो सकती है।” उनके अनुसार- “बिजली की रोशनी से रात्रि का कुछ अंधकार दूर हो सकता है, किंतु सूर्य का काम बिजली नहीं कर सकती। इसी भांति हम विदेशी भाषा से सूर्य का प्रकाश नहीं कर सकते। साहित्य और देश की उन्नति अपने देश की भाषा द्वारा ही हो सकती है।”
उन्होंने उत्तर प्रदेश के न्यायालयों और कार्यालयों में हिन्दी को व्यवहार योग्य भाषा के रूप में स्वीकृत कराया। इससे पूर्व केवल उर्दू ही न्यायालयों और सरकारी कार्यालयों की भाषा थी। उन्होंने वर्ष 1890 में हिन्दी के प्रचार व प्रसार के लिए जन आंदोलन आरम्भ किया था। उनके प्रयासों का ही परिणाम है कि सरकारी कार्यालयों में हिन्दी में कामकाज होने लगा। उनकी सहायता से वर्ष 1910 में इलाहाबाद में 'अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन' की स्थापना की गई। वह शिक्षा को अत्यंत महत्त्व देते थे। उनके अनुसार- “शिक्षा से ही देश और समाज में नवीन उदय होता है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना में पंडित मदनमोहन मालवीय का योगदान था। उनकी पत्रकारिता में भी गहरी रुचि थी। उन्होंने अनेक पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा अनेक वर्षों तक कई पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादक के रूप में कार्य किया।
वह कहते थे- “भारत की एकता का मुख्य आधार है एक संस्कृति, जिसका उत्साह कभी नहीं टूटा। यही इसकी विशेषता है।“ उन्होंने वर्ष 1906 में इलाहाबाद के कुम्भ के अवसर पर सनातन धर्म के विराट अधिवेशन का आयोजन कराया। इस अवसर पर उन्होंने 'सनातन धर्म-संग्रह' नामक एक बृहत ग्रंथ तैयार करवाकर महासभा में उपस्थित किया। उन्होंने कई वर्ष तक उस सनातन धर्म सभा के अनेक विशाल अधिवेशन आयोजित करवाए। उन्होंने सनातन धर्म सभा के सिद्धांतों के प्रचार के लिए 'सनातन धर्म' नामक साप्ताहिक पत्र आरंभ किया।
उनमें देशभक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी। वह युवाओं को देश के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करने की सीख देते हुए कहते हैं- “नागरिक का सर्वश्रेष्ठ कर्तव्य यह है कि वह मातृभूमि के सम्मान की रक्षा के लिए अपने जीवन का बालिदन कर दे। इसके साथ- साथ मैं आपको यह भी बता देना चाहता हूं कि वही कर्त्तव्य आपको यही भी सिखलाता है, इसी सेवा के लिए जीवन सुरक्षित रखा जाए और मूर्खतापूर्ण जोश में आकर शीघ्र ही समाप्त न कर दिया जाए। अतएव मैं आपसे यही चाहता हूं कि आप अपने उत्तरदायित्व को समझते हुए शुद्ध भाव से उपयुक्त संरक्षकता में रहकर देश की स्वतंत्रता के लिए अपना कार्य करें।“ वह मानते थे कि देशभक्ति सदैव राष्ट्रहित का चिंतन करने की प्रेरणा देती है। उनके अनुसार- “‘स्वराज्य का सबसे बड़ा साधन यह है कि देश में जहां तक संभव हो, प्राणी-प्राणी में देश की भक्ति का भाव बढ़ाया जाय। इससे लोगों में परस्पर प्रीति और परस्पर विश्वास बढ़ेंगे तथा बैर और फूट घटेगी। इससे और अनंत उत्तम गुण मनुष्य में उत्पन्न होंगे, जो उनको देश की सेवा करने के योग्य बनावेंगे और अनेक प्रकार के पाप तथा लज्जा के कामों से उनको बचावेंगे।“
वह कहते थे- “राष्ट्रीयता उस भाव का नाम है जो कि देश के सम्पूर्ण निवासियों के हृदयों में देश-हित की लालसा के साथ व्याप रहा हो, जिसके आगे अन्य भावों की श्रेणी नीची ही रहती हो। भारत में राष्ट्रीय भाव कैसे पैदा हो? प्रत्येक भाव में भक्ति और प्रेम होते हैं और प्रत्येक प्रेम और भक्ति के आधार भी होते हैं। यह प्रकृति का नियम है कि मनुष्य जिस वस्तु से प्रेम रखता है उसका दास बन जाता है और उसके आगे अन्य समस्त वस्तुओं को तुच्छ मानता है। धन ही से प्रेम रखने वाले धर्म और यश की कुछ भी अपेक्षा नही करते; और जिनको धर्म और यश प्यारा है, उनके आगे धन मिट्टी जैसा ही है। देशभक्ति का संचार हमारे ह्रदय से स्वार्थ को निकाल कर फेंक देगा। हम अदूरदर्शी, स्वार्थी और खुशामदियों की तरह ऐसे कार्य कदापि नही करेंगे जिनसे कि देशवासियों को हानि पहुंचे; बल्कि दूरदर्शी, परमार्थी, सत्यशील और दृढ़ताप्रिय आत्माओं की भांति, असंख्यों कष्ट उठाते हुए भी वही करेंगे, जिसमें देश का भला हो। निर्धन धनवान, निर्बल बलवान और मुर्ख बुद्धिमान हो जाएं, प्रत्येक प्रकार के सामाजिक दुःख मिटें और दुर्भिक्ष आदि विपत्तियां दूर होकर लाखों बिलबिलाती हुई आत्माओं को सुख पहुंचे। देश-भक्ति द्वारा इतने धर्मों का संपादन होता हुआ देख कर भी यदि कोई धर्म के आगे देशभक्ति को कुछ नही समझता, उस पुरुष को जान लीजिये कि वह धर्म के तत्व ही को नही पहचानता। इसमें संदेह नहीं कि जो देशवासी अपनी मातृ-भूमि की गुरुता को भली भांति समझ लेंगे, उनमें धर्म-भेद और वर्ण-भेद रहते हुए भी एकता का अभाव नहीं पाया जाएगा। यदि आप विद्वान है, बलवान् है और धनवान हैं तो आपका धर्म यह है कि अपनी विद्या, धन और बल को देश की सेवा में लगाओ। उनकी सहायता करो जो कि तुम्हारी सहायता के भूखे है। उनको योग्य बनाओ जो कि अन्यथा अयोग्य ही बने रहेंगे।“
सामाजिक कार्यों में भी उन्होंने अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने वर्ष 1919 में कुम्भ मेले के अवसर पर प्रयाग में 'प्रयाग सेवा समिति' का गठन किया. इसका उद्देश्य कुम्भ मेले में बाहर से आने वाले तीर्थयात्रियों को मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराना था। पंडित मदनमोहन मालवीय ने वर्ष 1913 में हरिद्वार में गंगा तट पर बांध बनाने की ब्रिटिश सरकार की योजना का जमकर विरोध किया तथा उन्हें सफलता भी प्राप्त हुई।
वह कट्टर हिन्दू थे और हिन्दू धर्म छोड़कर जाने वाले लोगों को पुनः हिन्दू धर्म में वापस ले आते थे। उन्होंने दलितों के मंदिरों में प्रवेश निषेध की बुराई के विरुद्ध देशभर में आंदोलन चलाया। वह तीन बार हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गए। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जाती है। उन्होंने 'सत्यमेव जयते' के नारे का प्रचार-प्रसार करके इसे लोकप्रिय बनाया। बाद में यह राष्ट्रीय आदर्श वाक्य बन गया और इसे राष्ट्रीय प्रतीक के नीचे अंकित किया गया।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने उन्हें ‘महामना’ की संज्ञा दी थी। देश के द्वितीय राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने उन्हें 'कर्मयोगी' कहा था। पंडित मदनमोहन मालवीय के उल्लेखनीय कार्यों के दृष्टिगत विगत 24 दिसम्बर, 2014 को देश के तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने मरणोपरांत उन्हें भारत के सबसे बड़े नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' से सम्मानित किया। 12 नवम्बर, 1946 को इलाहाबाद में उनका निधन हो गया। उन्होंने अपना जीवन राष्ट्र को समर्पित कर दिया था। उन्होंने अपनी अंतिम सांस तक जन साधारण के लिए तक संघर्ष किया। राष्ट्र उनके योगदान को कभी भूल नहीं सकता।
वर्तमान में उनकी शिक्षाएं अत्यंत प्रासंगिक हैं। आशा है कि यह स्मारिका उनकी शिक्षाओं के प्रचार-प्रसार में महत्ती भूमिका निभाएगी।

No comments:
Post a Comment