डॉ. सौरभ मालवीय
मनुष्य जन्म से लेकर मृत्य तक कुछ न कुछ सीखता रहता है। उसके जन्म के साथ ही सीखने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। प्रकृति सबसे बड़ी शिक्षक होती है। बालक को कोई कष्ट होता है, तो वह रोने लगता है। उसके रोने की आवाज सुनकर उसकी माता उसके पास आती है और उसका कष्ट दूर करती है। बालक भूखा होता है, तब भी वह रोने लगता है और उसकी माता उसे दुग्धपान करवाती है। बालक भली भांति समझ जाता है कि उसे कुछ चाहिए तो उसे क्या करना है। सर्वविदित है कि बालक अपनी मांग मनवाने के लिए पहले जिद करते हैं और जब कभी जिद पूर्ण नहीं हो पाती है, तो वे रोने लगते हैं। जन्म से ही उनमें समझ का विकास होने लगता है और यह प्राकृतिक एवं नैसर्गिक है।
माता बालक की प्रथम गुरु होती है और उसकी गोद बालक का प्रथम गुरुकुल होता है। इसके पश्चात बालक अपने परिवारजनों को देखकर सीखते हैं। उनसे ही उन्हें ज्ञात होता है कि किस व्यक्ति के साथ उनका कैसा संबंध है। कौन संबंधी है और कौन अपरिचित है। अपने संबंधियों के साथ उन्हें किस प्रकार का व्यवहार करना है। किस प्रकार उनका आदर-सत्कार करना है। सभी बालक अपने परिवार से ही सीखते हैं। उन्हें परिवार से जैसी शिक्षा एवं संस्कार मिलते हैं, वे उसी के अनुरूप व्यवहार करते हैं। कहा जाता है कि बालक कच्ची मिट्टी के समान होते हैं। उन्हें जिस आकार में ढालो, वे ढल जाते हैं। बालकों के मन एवं मस्तिष्क पर उनके आसपास के परिवेश एवं वातावरण का गहरा प्रभाव पड़ता है।
अमेरिकी लेखक डोरोथी नाल्ट के अनुसार बच्चे वही समझते हैं, जो वे जीते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि सिद्धांत एवं विवेक दोनों इस पर सहमत हैं। बालकों के बाल्यकाल के अनुभवों से उनके सीखने, समझने और विकास का क्रम प्रभावित होता है।
विगत कुछ समय से अनुभव आधारित शिक्षा की चर्चा हो रही है। अनुभव आधारित शिक्षण क्या है? सर्वप्रथम यह समझना अति आवश्यक है। अनुभव के आधार पर जो ज्ञान अर्जित किया जाता है, उसे ही अनुभव आधारित शिक्षण कहा जाता है। यदि कोई बालक किसी चीज को देखकर, सुनकर या स्वयं के अभ्यास के द्वारा सीखता है तो उसे अनुभव के आधार पर सीखना कहा जाएगा। उदाहरण के लिए कोई बालक किसी को साईकिल चलाते हुए देखता है और फिर स्वयं भी उसे चलाने का प्रयास करता है। इस अभ्यास के दौरान वह कई बार गिर जाता है, परन्तु वह अपना अभ्यास निरंतर जारी रखता है। परिणाम स्वरूप एक दिन वह साईकिल चलाना सीख जाता है। जीवन का सबसे बड़ा ज्ञान व्यक्ति को अनुभव के आधार पर ही प्राप्त होता है। बालिकाएं अपनी माता को भोजन बनाते हुए देखती हैं। फिर वे भी भोजन बनाने का प्रयास करती हैं। आरम्भ में वे स्वादिष्ट भोजन नहीं बना पाती हैं। कई बार नमक या मिर्च कम या अधिक हो जाती है। इसी प्रकार रोटी भी टेढ़ी-मेढ़ी बनती हैं, परन्तु अभ्यास से वे स्वादिष्ट भोजन और गोल रोटी बनाना सीख जाती हैं। इस भोजन बनाने के अभ्यास के दौरान बालिकाओं के परिवारजन उनका उत्साहवर्द्धन करते हैं तथा उनका मनोबल बढ़ाते हैं। भोजन स्वादिष्ट न होने के पश्चात भी वे उसे प्रसन्नता पूर्वक ग्रहण करते हैं तथा बालिका की प्रशंसा भी करते हैं। इस प्रशंसा से प्रसन्न होकर बालिका पहले से भी अधिल परिश्रम करती है। ऐसे बहुत से कार्य हैं, जो बालक अपने परिवारजनों से सीखते हैं।
अक्षर ज्ञान आवश्यक एवं उत्तम है, परन्तु व्यवहारिक ज्ञान सर्वोत्तम है। इसमें कोई दो मत नहीं है कि मनुष्य शनै- शनै सीखता है। सीखने की गति समय एवं परिस्थितियों पर निर्भर करती है। उसके अनुभव उसके जीवन की दशा एवं दिशा प्रशस्त करते हैं। अनुभव उसे वह पाठ पढ़ा जाते हैं, जो वह कभी नहीं भूलता।
विद्वान मानते हैं कि अनुभवों से लाभान्वित होना ही अधिगम है। इसलिए छात्रों को अनुभव आधारित शिक्षा प्रदान करने को अधिक से अधिक महत्व देना चाहिए। इसके लिए ऐसे पाठ्यक्रम की आवश्यकता है, जो विद्यार्थियों को विभिन्न क्षेत्रों से संबंधित व्यापक अनुभव प्रदान करने में सक्षम हो।
अमेरिकी शिक्षक गैलेन सायलर एवं विलियम अलेक्जेंडर के अनुसार- “अनुभव आधारित पाठ्यक्रम वह है, जिसमें अधिगम अनुभव की इकाइयां विद्यार्थियों के द्वारा शिक्षक के निर्देशन में स्वयं चुनी तथा योजनाबद्ध की जाती हैं।“
संयुक्त राज्य अमेरिका के शिक्षाशास्त्री जॉन डीवी के अनुसार- “अनुभव एवं ज्ञान क्रिया के परिणाम हैं।“ वह ज्ञान एवं अनुभव में कोई भेद नहीं मानते हैं। उनके अनुसार- “ज्ञान अनुभव से प्राप्त होता है और अनुभव स्वयं करके प्राप्त होता है। इसलिए पाठ्यक्रम अनुभव प्रधान होना चाहिए। मनुष्य किसी भी परिस्थिति में रहे, परिस्थितियों में क्रिया करते हुए ही मनुष्य अनुभव प्राप्त करता है और यह भी सत्य है कि एक अनुभव से दूसरा तथा दूसरे से तीसरा और इसी प्रकार आगे के अनुभव हमें प्राप्त होते रहते हैं। प्रत्येक अनुभव हमें आगे के अनुभव प्राप्त करने में सहायक होता है। अतः पाठ्यक्रम का उद्देश्य विद्यार्थियों को अधिक से अधिक अनुभव प्रदान करना होना चाहिए।“
आज हम विदेशों से बहुत सी चीजें ग्रहण कर रहे हैं। यद्यपि हमारी प्राचीन शिक्षा पद्धति अत्यधिक प्रभावशाली एवं उत्तम थी। प्राचीन काल से ही हमारा देश शिक्षा के क्षेत्र में विख्यात रहा है। भारत शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी रहा है। इस पवित्र भूमि पर पवित्र ग्रन्थों की रचना हुई। यहां वेद-पुराणों की रचना हुई। ये महान ग्रन्थ यहां की उच्च कोटि की पद्धति के प्रमाण हैं। यह सब व्यवहारिक शिक्षा के कारण ही संभव हो सका। इसे सर्वोत्तम कहना भी कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। भारतीय संस्कृति में शिक्षा को अत्यधिक महत्त्व प्रदान किया गया है। मनुष्य के भौतिक एवं आध्यात्मिक उत्थान के लिए शिक्षा को अति आवश्यक माना गया है। शिक्षित व्यक्ति के लिए विश्व का कोई भी कार्य असंभव नहीं होता।
विद्या वितर्का विज्ञानं स्मति: तत्परता किया।
यस्यैते षड्गुणास्तस्य नासाध्यमतिवर्तते।।
अर्थात विद्या, तर्क, विज्ञान, स्मृति, तत्परता एवं दक्षता, जिसके पास ये छह गुण हैं, उसके लिए कोई भी कार्य असंभव नहीं है। विद्या अथवा शिक्षा प्रकाश का वह स्त्रोत है, जो जीवन को प्रकाशमान करता है। प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति श्रेष्ठ शिक्षा पद्धति थी, किन्तु कालांतर में शिक्षा पद्धति में परिवर्तन आया। आज फिर ऐसी शिक्षा पद्धति की आवश्यकता अनुभव की जा रही है, जिससे बच्चों का सर्वांगीण विकास हो सके।
दादी और नानी बालकों को भिन्न-भिन्न प्रकार की कहानियां सुनाती हैं। इन कथा- कहानियों के माध्यम से वे बालकों में संस्कार पोषित करती हैं। ये संस्कार उनके चरित्र का निर्माण करने में सहायक सिद्ध होते हैं। यही संस्कार संकट के समय दीपक बनकर उनके जीवन में प्रकाश का कार्य करते हैं तथा उनका मार्गदर्शन करते हैं। अपने पैतृक गांव अथवा पैतृक नगरों में जाते हैं तो वे वहां की संस्कृति से जुड़ते हैं। उनके वहां की बहुत सी चीजों को जानने और समझने का अवसर प्राप्त होता है। ऐतिहासिक धरोहरों से वे इतिहास से परिचित होते हैं। तीज-त्यौहारों से वे अपनी धार्मिक संस्कृति से परिचित होते हैं। अक्षर ज्ञान से बच्चे इतनी शीघ्रता से नहीं सीख पाते, जितने शीघ्रता से वे अनुभव के आधार पर सीख जाते हैं। उदाहरण के लिए जिस बालक ने कभी दीपावली का त्यौहार मनाते हुए नहीं देखा, उसे पुस्तक के माध्यम से दीपावली के बारे में बताया जाए और फिर उससे दीपावली के बारे में लिखने के लिए कहा जाए, तो वह इतना अच्छा नहीं लिख पाएगा, जितना अच्छा वह बालक लिख पाएगा, जिसने दीपावली मनाई है या मनाते हुए देखा है। इसका कारण यह है कि पहले बालक ने केवल शब्दों के माध्यम से दीपावली के बारे में ज्ञान अर्जित किया है, जबकि दूसरे बालक ने दीवापली मनाकर या देखकर व्यवहारिक ज्ञान प्राप्त किया है। इस व्यवहारिक ज्ञान में उसका अनुभव एवं अनुभूति भी सम्मिलत है। इसलिए दूसरे बालक ने दीपावली के बारे में वह ज्ञान प्राप्त किया, जो उसे सदैव स्मरण रहेगा।
विश्व की शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी सरोकारों के लिए गठित संगठन यूनेस्को के अनुसार समझने की प्रक्रिया के चार स्तंभ हैं। प्रथम स्तंभ है जानने के लिए सीखना एवं समझना- अपने आसपास के परिवेश और विश्व में जो कुछ भी है उसे सीखना एवं समझना, उसे भावना और तर्क के साथ समझना। यह जानना कि जो कुछ सीखा एवं देखा उसका भावनाओं के उदात्तीकरण और उन्नयन की दृष्टि से क्या महत्त्व है और यह कितना व्यवहारिक है।
द्वितीय है करने के लिए सीखना एवं समझना- जो परिस्थितियों, परिवेश और वातावरण में मिले उसे स्वीकार करना और उन परिस्थितियों को समाज और स्वयं के लिए उपयोगी कैसे बनाया जाए- यह सुनिश्चित करना है।
तृतीय है होने के लिए सीखना एवं समझना- होने का यहां अर्थ अपने अस्तित्व को सिद्ध करना है अर्थात एक मनुष्य, एक नागरिक के रूप में मेरा कहां क्या दायित्व है और उस व्यक्ति के रूप में मेरा उपस्थित होना कितना प्रभावी है- यह निर्धारण करना है। क्या समाज और परिस्थितियों में मेरे व्यक्तित्व के लिए कोई स्थान है या मैं यहां अनुपयुक्त हूं। इस संबंध में सचेत रहना है।
चतुर्थ है साथ रहने के लिए सीखना एवं समझना- सभी धर्मों, जातियों, आयु वर्ग के लोगों, लिंग संबंधी भिन्नता रखने वाले लोगों के साथ सहिष्णुता पूर्वक रह सकना। संपूर्ण विश्व की विविधताओं, संस्कृतियों, भाषाओं एवं भौगोलिकताओं को आदर देना। उनके साथ सहिष्णुता पूर्वक रह सकने की क्षमता और आदत विकसित करना।
वास्तव में जिस व्यक्ति में प्रेम और सद्भाव आदि गुण होते हैं, वह विश्व के किसी भी क्षेत्र में आराम से रह सकता है। ये गुण बालकों में बाल्यकाल से ही रोपित करने होते हैं। महामना मदनमोहन मालवीय का मानना था कि शिक्षा का उद्देश्य छात्र के व्यक्तित्व के बौद्धिक, भावनात्मक और सामाजिक पहलुओं को विकसित करना होना चाहिए। शिक्षा को न केवल सैद्धांतिक ज्ञान पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, अपितु व्यावहारिक प्रशिक्षण और कौशल विकास भी प्रदान करना चाहिए।
इसी प्रकार स्वामी विवेकानन्द भी व्यावहारिक शिक्षा के प्रबल समर्थक थे। उनके अनुसार- “जिस शिक्षा से हम अपना जीवन निर्माण कर सकें, मनुष्य बन सकें, चरित्र गठन कर सके और विचारों का सामंजस्य कर सकें वहीं वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है।”
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