Monday, December 22, 2025

संस्कारयुक्त शिक्षा आज की सबसे बड़ी आवश्यकता : माननीय राज्यपाल













दिनांक 22 दिसंबर 2025 को सरस्वती विद्या मन्दिर इण्टर कॉलेज, वी.आई.पी. रोड, फतेहपुर में भव्य नवीन भवन का लोकार्पण माननीय राज्यपाल उत्तर प्रदेश श्रीमती आनंदीबेन पटेल जी के कर-कमलों द्वारा संपन्न हुआ।

इस गरिमामयी अवसर पर डॉ. सौरभ मालवीय जी (क्षेत्रीय मंत्री, विद्या भारती पूर्वी उत्तर प्रदेश), डॉ. राकेश निरंजन जी (मंत्री, भारतीय शिक्षा समिति कानपुर प्रांत), श्री राम प्रकाश पोरवाल जी (मंत्री, भारतीय शिक्षा समिति), श्री अयोध्या प्रसाद मिश्र जी (प्रदेश निरीक्षक, कानपुर प्रांत), विद्यालय अध्यक्ष श्री आनंद स्वरूप रस्तोगी जी, प्रबंधक एवं लोक सेवा आयोग के सदस्य डॉ. हरेश प्रताप सिंह जी, प्रधानाचार्य श्री नरेंद्र सिंह जी, जिलाधिकारी श्री रविंद्र सिंह जी एवं पुलिस अधीक्षक श्री अनूप कुमार सिंह जी सहित अनेक गणमान्य अतिथि उपस्थित रहे।

मुख्य अतिथि महोदया ने अपने उद्बोधन में बालिका शिक्षा, संस्कार एवं सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन पर विशेष बल दिया। कार्यक्रम सप्त शक्ति संगम, छात्र-छात्राओं एवं भवन निर्माण समिति के सम्मान के साथ प्रेरणादायी रूप से सम्पन्न हुआ।

राष्ट्र को समर्पित रहा अटलजी का जीवन


डॉ. सौरभ मालवीय  
भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता एवं पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी एक कुशल राजनीतिज्ञ, प्रखर चिंतक, गंभीर पत्रकार, सहृदय कवि एवं लेखक थे। साहित्य उन्हें विरासत में प्राप्त हुआ था। उन्होंने पत्रकारिता से जीवन प्रारंभ किया तथा साहित्य एवं राजनीति में अपार ख्याति अर्जित की। उनका संपूर्ण जीवन राष्ट्र को समर्पित रहा। वह कहते थे- “मैं चाहता हूं भारत एक महान राष्ट्र बने, शक्तिशाली बने, संसार के राष्ट्रों में प्रथम पंक्ति में आए।”
 
प्रारंभिक जीवन 
अटल बिहारी वाजपेयी का जन्म 25 दिसंबर 1924 को मध्य प्रदेश के ग्वालियर में हुआ था। उनके पिता पंडित कृष्ण बिहारी वाजपेयी अध्यापक थे और माता कृष्णा देवी गृहिणी थीं। वह बचपन से ही अंतर्मुखी एवं प्रतिभाशाली थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा बड़नगर के गोरखी विद्यालय में हुई। यहां से उन्होंने आठवीं कक्षा तक की शिक्षा प्राप्त की। जब वह पांचवीं कक्षा में थे तब उन्होंने प्रथम बार भाषण दिया था। बड़नगर में उच्च शिक्षा की व्यवस्था न होने के कारण उन्हें ग्वालियर जाना पड़ा। वहां के विक्टोरिया कॉलेजियट स्कूल से उन्होंने इंटरमीडिएट तक की पढ़ाई की। इस विद्यालय में रहते हुए उन्होंने वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में भाग लिया तथा प्रथम पुरस्कार भी जीता। उन्होंने विक्टोरिया कॉलेज से स्नातक स्तर की शिक्षा ग्रहण की। कॉलेज जीवन में ही उन्होंने राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेना आरंभ कर दिया था। आरंभ में वह छात्र संगठन से जुड़े। इसके पश्चात वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ गए। ग्वालियर से स्नातक उपाधि प्राप्त करने के पश्चात् वह कानपुर चले गए। यहां उन्होंने डीएवी महाविद्यालय से कला में स्नातकोत्तर उपाधि प्रथम श्रेणी में प्राप्त की। तदुपरांत वह पीएचडी करने के लिए लखनऊ गए, परंतु वह सफल नहीं हो सके, क्योंकि पत्रकारिता से जुड़ने के कारण उन्हें अध्ययन के लिए समय नहीं मिल रहा था। 

पत्रकार के रूप में अटलजी 
अटलजी लखनऊ आकर समाचार-पत्र राष्ट्रधर्म के सह सम्पादक के रूप में कार्य करने लगे। वह मासिक पत्रिका राष्ट्रधर्म के प्रथम संपादक भी रहे हैं। अटलजी कहते थे- “छात्र जीवन से ही मेरी इच्छा संपादक बनने की थी। लिखने-पढ़ने का शौक और छपा हुआ नाम देखने का मोह भी। इसलिए जब एमए की पढ़ाई पूरी की और कानून की पढ़ाई अधूरी छोड़ने के पश्चात् सरकारी नौकरी न करने का पक्का इरादा बना लिया और साथ ही अपना पूरा समय समाज की सेवा में लगाने का मन भी। उस समय पूज्य भाऊ राव देवरस जी के इस प्रस्ताव को तुरंत स्वीकार कर लिया कि संघ द्वारा प्रकाशित होने वाले राष्ट्रधर्म के संपादन में कार्य करूंगा, श्री राजीवलोचन जी भी साथ होंगे। अगस्त 1947 में पहला अंक निकला और इसने उस समय के प्रमुख साहित्यकार सर सीताराम, डॉ. भगवान दास, अमृतलाल नागर, श्री नारायण चतुर्वेदी, आचार्य वृहस्पति व प्रोफेसर धर्मवीर को जोड़कर धूम मचा दी।“
कुछ समय के पश्चात 14 जनवरी 1948 को भारत प्रेस से मुद्रित होने वाला दूसरा समाचार पत्र पांचजन्य भी प्रकाशित होने लगा। अटलजी इसके प्रथम संपादक बनाए गए। 15 अगस्त 1947 को देश स्वतंत्र हो गया था। कुछ समय के पश्चात 30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या हुई। इसके पश्चात् भारत सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को प्रतिबंधित कर दिया। इसके साथ ही भारत प्रेस को बंद कर दिया गया, क्योंकि भारत प्रेस भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रभाव क्षेत्र में थी। भारत प्रेस के बंद होने के पश्चात अटलजी इलाहाबाद चले गए। यहां उन्होंने क्राइसिस टाइम्स नामक अंग्रेजी साप्ताहिक के लिए कार्य करना आरंभ कर दिया। परंतु जैसे ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर लगा प्रतिबंध हटा, वह पुन: लखनऊ आ गए और उनके संपादन में स्वदेश नामक दैनिक समाचार-पत्र प्रकाशित होने लगा, परंतु हानि के कारण स्वदेश को बंद कर दिया गया। वर्ष 1949 में काशी से सप्ताहिक ’चेतना’ का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इसके संपादक का कार्यभार अटलजी को सौंपा गया। उन्होंने इसे सफलता के शिखर तक पहुंचा दिया। 

कवि एवं लेखक   
अटलजी ने बचपन से ही कविताएं लिखनी प्रारंभ कर दी थीं। स्वदेश-प्रेम, जीवन-दर्शन, प्रकृति तथा मधुर भाव की कविताएं उन्हें बाल्यावस्था से ही आकर्षित करती रहीं। उनकी कविताओं में प्रेम, करुणा एवं वेदना है। एक पत्रकार के रूप में वह बहुत गंभीर दिखाई देते थे। उनके लेखों में ज्वलंत प्रश्न हैं, समस्याओं का उल्लेख है तो उनका समाधान भी है। वह सामाजिक विषयों को उठाते एवं अतीत की भूलों से शिक्षा लेते हुए सुधार की बात करते थे। एक राजनेता के रूप में जब वह भाषण देते हैं, तो उसमें क्रांति के स्वर सुनाई देते थे। वह कहते थे- “मेरे भाषणों में मेरा लेखक ही बोलता है, पर ऐसा नहीं कि राजनेता मौन रहता है। मेरे लेखक और राजनेता का परस्पर समन्वय ही मेरे भाषणों में उतरता है। यह जरूर है कि राजनेता ने लेखक से बहुत कुछ पाया है। साहित्यकार को अपने प्रति सच्चा होना चाहिए। उसे समाज के लिए अपने दायित्व का सही अर्थों में निर्वाह करना चाहिए। उसके तर्क प्रामाणिक हो। उसकी दृष्टि रचनात्मक होनी चाहिए। वह समसामयिकता को साथ लेकर चले, पर आने वाले कल की चिंता जरूर करे। वे भारत को विश्वशक्ति के रूप में देखना चाहते हैं।“ 

अटलजी ने कई पुस्तकें लिखी थीं, जिनमें अमर बलिदान, अमर आग है, बिंदु-बिंदु विचार, सेक्युलरवाद, 
कैदी कविराय की कुंडलियां, मृत्यु या हत्या, जनसंघ और मुसलमान, मेरी इक्यावन कविताएं, न दैन्यं न पलायनम, मेरी संसदीय यात्रा (चार खंड), संकल्प-काल एवं गठबंधन की राजनीति सम्मिलित हैं। इनके अतिरिक्त उनकी कई और पुस्तकें भी हैं। फोर डिकेड्स इन पार्लियामेंट, जो 1957 से 1995 तक के उनके भाषणों का संग्रह है। इसी तरह न्यू डाइमेंशन ऒफ इंडियाज फ़ॊरेन पॊलिसी, जिसमें विदेश मंत्री रहते हुए उनके 1977 से 1979 तक के भाषण संकलित हैं। संसद में तीन दशक (तीन खंड), जो 1957 से 1992 तक संसद में दिए गए भाषणों का संग्रह है। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी (तीन खंड), जिसमें 1996 से 2004 उनके भाषण सम्मिलित हैं। राजनीति की रपटीली राहें, जो उनके साक्षात्कार और भाषणों का संग्रह है। शक्ति से शांति तक, जिसमें उनके प्रधानमंत्री कार्यकाल के भाषण संकलित हैं। कुछ लिख कुछ भाषण, जो पत्रकारिता के समय के लेख और भाषण सम्मिलित हैं। राजनीति के उस पार, जिसमें उनके भाषण संकलित हैं। इसके अलावा उनके लेख, उनकी कविताएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं, जिनमें राष्ट्रधर्म, पांचजन्य, धर्मयुग, नई कमल ज्योति, साप्ताहिक हिंदुस्तान, कादिम्बनी और नवनीत आदि सम्मिलित हैं। 

प्रधानमंत्री के रूप में विशेष कार्य  
अटलजी 16 मई 1996 को देश के प्रधानमंत्री बने तथा 28 मई को उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। इस कारण वह मात्र 13 दिनों तक ही प्रधानमंत्री रहे। इसके पश्चात 9 मार्च 1998 को वह द्वितीय बार प्रधानमंत्री बने। वर्ष 1999 के लोकसभा चुनाव में एनडीए को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ। वह 13 अक्टूबर 1999 को तृतीय बार प्रधानमंत्री बने तथा 22 मई 2004 तक अपना कार्यकाल पूर्ण किया। उन्होंने अपने कार्यकाल में अनेक उत्कृष्ट कार्य किए। उन्होंने वर्ष 1998 में पोखरण में हुए परमाणु परीक्षण के पश्चात् संसद को संबोधत किया। उन्होंने कहा- “यह कोई आत्मश्लाघा के लिए नहीं था। ये हमारी नीति है और मैं समझता हूं कि देश की नीति है यह कि न्यूनतम अवरोध होना चाहिए। वह विश्वसनीय भी होना चाहिए। इसीलिए परीक्षण का निर्णय लिया गया।“

उन्होंने वर्ष 1999 में भारतीय संचार निगम लिमिटेड अर्थात बीएसएनएल का एकाधिकार समाप्त करने के लिए नई टेलिकॉम नीति लागू की। इसके कारण लोगों को सस्ती दरों पर दूरभाष सेवा उपलब्ध हो सकी। उन्होंने भारत एवं पाकिस्तान के आपसी संबंधों को सुधारने के प्रयास को गति प्रदान की। उन्होंने फरवरी 1999 में दिल्ली-लाहौर बस सेवा प्रारंभ की। प्रथम बस सेवा से वह स्वयं लाहौर गए। उन्होंने सर्व शिक्षा अभियान को बढ़ावा दिया। उन्होंने 6 से 14 वर्ष के बच्चों को नि:शुल्क शिक्षा प्रदान करने का अभियान प्रारंभ किया। उन्होंने अपनी लिखी पंक्तियों ‘स्कूल चले हम’ से इसे प्रचारित किया। इससे निर्धनता के कारण पढ़ाई छोड़ने वाले बच्चों को अत्यंत लाभ हुआ। वह कहते थे- “शिक्षा के द्वारा व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास होता है, व्यक्तित्व के उत्तम विकास के लिए शिक्षा का स्वरूप आदर्शों से युक्त होना चाहिए। हमारी माटी में आदर्शों की कमी नहीं है। शिक्षा द्वारा ही हम नवयुवकों में राष्ट्र प्रेम की भावना जाग्रत कर सकते हैं।“

उन्होंने संविधान में संशोधन की आवश्यकता पर विचार करने के लिए एक फरवरी 2000 को संविधान समीक्षा का राष्ट्रीय आयोग गठित किया। उन्होंने वर्ष 2001 में होने वाली जातिगत जनगणना पर रोक लगाई। 
उन्होंने 13 दिसंबर 2001 को संसद पर हुए हमले को गंभीरता से लिया तथा आतंकवाद निरोधी पोटा कानून बनाया। यह पूर्व के टाडा कानून की तुलना में अत्यधिक कठोर था। उन्होंने 32 संगठनों पर पोटा के अंतर्गत प्रतिबंध लगाया। उन्होंने दिल्ली, मुंबई, चेन्नई एवं कोलकाता को जोड़ने के लिए चतुर्भुज सड़क परियोजना लागू की। इसके साथ ही उन्होंने ग्रामीण क्षेत्रों के लिए प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना लागू की। इससे आर्थिक विकास को गति मिली। उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर नदियों को जोड़ने की योजना का ढांचा भी बनवाया, परंतु इस पर कार्य नहीं हो पाया।

सम्मान 
अटलजी ने एक पत्रकार, साहित्यकार, कवि एवं देश के प्रधानमंत्री, संसद की विभिन्न महत्वपूर्ण स्थायी समितियों के अध्यक्ष एवं विपक्ष के नेता के रूप में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके उत्कृष्ट कार्यों के लिए उन्हें कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। राष्ट्र के प्रति उनकी समर्पित सेवाओं के लिए 25 जनवरी 1992 में राष्ट्रपति ने उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने 28 सितंबर 1992 को उन्हें ’हिंदी गौरव’ से सम्मानित किया। अगले वर्ष 20 अप्रैल 1993 को कानपुर विश्वविद्यालय ने उन्हें डी लिट की उपाधि प्रदान की। उनके सेवाभावी और स्वार्थ त्यागी जीवन के लिए उन्हें 1 अगस्त 1994 में लोकमान्य तिलक पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके पश्चात 17 अगस्त 1994 को संसद ने उन्हें श्रेष्ठ सासंद चुना गया तथा पंडित गोविंद वल्लभ पंत पुरस्कार से सम्मानित किया। इसके पश्चात् 27 मार्च 2015 भारत रत्न पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इतने महत्वपूर्ण सम्मान पाने वाली अटलजी कहते थे- “मैं अपनी सीमाओं से परिचित हूं। मुझे अपनी कमियों का अहसास है। निर्णायकों ने अवश्य ही मेरी न्यूनताओं को नजर अंदाज करके मुझे निर्वाचित किया है। सद्भाव में अभाव दिखाई नहीं देता है। यह देश बड़ा है अद्भुत है, बड़ा अनूठा है। किसी भी पत्थर को सिंदूर लगाकर अभिवादन किया जा सकता है।“ 

Sunday, December 21, 2025

टीवी पर लाइव



जिन लोगों की आंख में विकसित भारत रच-बस नहीं रहा, जिन लोगों को आम आदमी के सपनों को साकार करतीं योजनाएं दिख नहीं रही हैं...जिनके लिए परिवार ही पार्टी है और सत्ता में बने रहना ही मकसद है.
विपक्ष को सदन में सार्थक संवाद करना चाहिए.

समाज सुधारक पंडित मदनमोहन मालवीय


डॉ. सौरभ मालवीय 

पंडित मदनमोहन मालवीय महान स्वतंत्रता सेनानी होने के साथ-साथ एक कुशल राजनीतिज्ञ, सफल शिक्षाविद एवं महान समाज सुधारक भी थे। उन्होंने जातिवाद और दलितों की स्थिति सुधारने के लिए भरसक प्रयत्न किए। उनके अनुसार- “यदि आप मानव आत्मा की आंतरिक शुद्धता को स्वीकार करते हैं, तो आप या आपका धर्म किसी भी व्यक्ति के स्पर्श या संगति से कभी भी अशुद्ध या अपवित्र नहीं हो सकता है। हम मानते हैं कि धर्म चरित्र का आधार है और मानव सुख का सबसे बड़ा स्त्रोत है। धार्मिकता और धर्म कायम रहने दें, और सभी समुदाय और समाज प्रगति करें। हमारी प्यारी मातृभूमि को अपना खोया हुआ गौरव वापस दिलाएं। भारत के पुत्र विजयी हों। जो इंसान अपने स्वयं की निंदा सुन लेता है वह सारे विश्व पर विजय प्राप्त कर लेता है।“ 

पंडित मदनमोहन मालवीय का जन्म 25 दिसम्बर, 1861 को उत्तर प्रदेश के इलाहबाद में हुआ था। उनके पिता का नाम ब्रजनाथ और माता का नाम भूनादेवी था। वह मालवा के मूल निवासी थे, इसलिए उन्हें मालवीय कहा जाता है। उनकी प्राथमिक शिक्षा इलाहाबाद के श्री धर्मज्ञानोपदेश पाठशाला में हुई। यहां सनातन धर्म की शिक्षा दी जाती थी। इसके पश्चात उन्होंने वर्ष 1879 में इलाहाबाद जिला स्कूल से प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण की तथा उन्होंने म्योर सेंट्रल कॉलेज से एफए की परिक्षा उत्तीर्ण की। उन्होंने कलकत्ता विश्विद्यालय से बीए की परीक्षा उत्तीर्ण की। आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण पढ़ाई के दौरान उन्हें अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा। उन्होंने वर्ष 1884 में इलाहाबाद के एक सरकारी स्कूल में अध्यापन का कार्य आरंभ कर दिया। यहां उन्हें 40 रुपये मासिक वेतन मिलता था। इससे उनकी आर्थिक समस्या का कुछ समाधान हुआ। उन्होंने वर्ष 1891 में एलएलबी की परीक्षा उत्तीर्ण की। उन्होंने पहले जिला न्यायालय और उसके पश्चात वर्ष 1893 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अधिवक्ता के रूप में अपना कार्य प्रारम्भ किया।

राजनीति में भी पंडित मदनमोहन मालवीय की गहरी रुचि थी। वह वर्ष 1909 में लाहौर, 1918 और 1930 में दिल्ली और 1932 में कोलकाता में कांग्रेस के अधिवेशन के अध्यक्ष रहे। वह वर्ष 1903-18 के दौरान प्रांतीय विधायी परिषद और 1910-20 तक केंद्रीय परिषद के सदस्य रहे। वह 1916-18 के दौरान भारतीय विधायी सभा के निर्वाचित सदस्य रहे। वर्ष 1930 में जब महात्मा गांधी ने नमक सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा आंदोलन आरम्भ किया, तो उन्होंने उसमें भाग लिया और जेल गए। वह 50 वर्षों तक कांग्रेस में सक्रिय रहे। उन्होंने वर्ष 1937 में राजनीति से संन्यास ले लिया तथा अपना सारा ध्यान सामाजिक कार्यों पर केंद्रित कर दिया। उन्होंने महिलाओं की शिक्षा पर बल दिया। उन्होंने बाल विवाह का विरोध किया तथा विधवा पुनर्विवाह का समर्थन किया।  

वह भारतीय संस्कृति के कट्टर समर्थक थे। वह समस्त कर्मकांड, रीति रिवाज, मूर्तिपूजन आदि को हिन्दू धर्म का मौलिक अंग मानते थे। इसलिए धार्मिक मंच पर आर्यसमाज की विचार धारा का विरोध करने के लिए उन्होंने जनमत संगठित करना आरम्भ किया। उनके प्रयासों के कारण ही पहले 'भारतधर्म महामंडल तथा उसके पश्चात 'अखिल भारतीय सनातन धर्म' सभा की स्थापना हुई। वह हिन्दी को बहुत महत्त्व देते थे। वह कहते थे- “भाषा की उन्नति करने में हमारा सर्वप्रथम कर्तव्य यह है कि हम स्वच्छ भाषा लिखें। पुस्तकें भी ऐसी ही भाषा में लिखी जाएं। ऐसा यत्न हो कि जिससे जो कुछ लिखा जाए, वह हिन्दी भाषा में लिखा जाए। जब भाषा में शब्द न मिलें तब संस्कृत से लीजिए या बनाइए।”

वह विद्यार्थियों को देश का भावी कर्णधार मानते थे. उनके अनुसार- "भारतीय विद्यार्थियों के मार्ग में आने वाली वर्तमान कठिनाइयों का कोई अंत नहीं है। सबसे बड़ी कठिनता यह है कि शिक्षा का माध्यम हमारी मातृभाषा न होकर एक अत्यंत दुरुह विदेशी भाषा है। सभ्य संसार के किसी भी अन्य भाग में जन-समुदाय की शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा नहीं है। अंग्रेजी माध्यम भारतीय शिक्षा में सबसे बड़ा विघ्न है।“ वह मानते थे कि केवल हिन्दी में ही राष्ट्रभाषा बनने की क्षमता है। वह हिन्दी एवं संस्कृत भाषा के प्रबल समर्थक थे। हिन्दी के बारे में उनका कहना था- “हिंदुस्तान की उन्नति हिन्दी को अपनाने से ही हो सकती है।” उनके अनुसार- “बिजली की रोशनी से रात्रि का कुछ अंधकार दूर हो सकता है, किंतु सूर्य का काम बिजली नहीं कर सकती। इसी भांति हम विदेशी भाषा से सूर्य का प्रकाश नहीं कर सकते। साहित्य और देश की उन्नति अपने देश की भाषा द्वारा ही हो सकती है।”

उन्होंने उत्तर प्रदेश के न्यायालयों और कार्यालयों में हिन्दी को व्यवहार योग्य भाषा के रूप में स्वीकृत कराया। इससे पूर्व केवल उर्दू ही न्यायालयों और सरकारी कार्यालयों की भाषा थी। उन्होंने वर्ष 1890 में हिन्दी के प्रचार व प्रसार के लिए जन आंदोलन आरम्भ किया था। उनके प्रयासों का ही परिणाम है कि सरकारी कार्यालयों में हिन्दी में कामकाज होने लगा। उनकी सहायता से वर्ष 1910 में इलाहाबाद में 'अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन' की स्थापना की गई। वह शिक्षा को अत्यंत महत्त्व देते थे। उनके अनुसार- “शिक्षा से ही देश और समाज में नवीन उदय होता है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना में पंडित मदनमोहन मालवीय का योगदान था। उनकी पत्रकारिता में भी गहरी रुचि थी। उन्होंने अनेक पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा अनेक वर्षों तक कई पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादक के रूप में कार्य किया। 
 
वह कहते थे- “भारत की एकता का मुख्य आधार है एक संस्कृति, जिसका उत्साह कभी नहीं टूटा। यही इसकी विशेषता है।“ उन्होंने वर्ष 1906 में इलाहाबाद के कुम्भ के अवसर पर सनातन धर्म के विराट अधिवेशन का आयोजन कराया। इस अवसर पर उन्होंने 'सनातन धर्म-संग्रह' नामक एक बृहत ग्रंथ तैयार करवाकर महासभा में उपस्थित किया। उन्होंने कई वर्ष तक उस सनातन धर्म सभा के अनेक विशाल अधिवेशन आयोजित करवाए। उन्होंने सनातन धर्म सभा के सिद्धांतों के प्रचार के लिए 'सनातन धर्म' नामक साप्ताहिक पत्र आरंभ किया। 

उनमें देशभक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी। वह युवाओं को देश के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करने की सीख देते हुए कहते हैं- “नागरिक का सर्वश्रेष्ठ कर्तव्य यह है कि वह मातृभूमि के सम्मान की रक्षा के लिए अपने जीवन का बालिदन कर दे। इसके साथ- साथ मैं आपको यह भी बता देना चाहता हूं कि वही कर्त्तव्य आपको यही भी सिखलाता है, इसी सेवा के लिए जीवन सुरक्षित रखा जाए और मूर्खतापूर्ण जोश में आकर शीघ्र ही समाप्त न कर दिया जाए। अतएव मैं आपसे यही चाहता हूं कि आप अपने उत्तरदायित्व को समझते हुए शुद्ध भाव से उपयुक्त संरक्षकता में रहकर देश की स्वतंत्रता के लिए अपना कार्य करें।“ वह मानते थे कि देशभक्ति सदैव राष्ट्रहित का चिंतन करने की प्रेरणा देती है। उनके अनुसार- “‘स्वराज्य का सबसे बड़ा साधन यह है कि देश में जहां तक संभव हो, प्राणी-प्राणी में देश की भक्ति का भाव बढ़ाया जाय। इससे लोगों में परस्पर प्रीति और परस्पर विश्वास बढ़ेंगे तथा बैर और फूट घटेगी। इससे और अनंत उत्तम गुण मनुष्य में उत्पन्न होंगे, जो उनको देश की सेवा करने के योग्य बनावेंगे और अनेक प्रकार के पाप तथा लज्जा के कामों से उनको बचावेंगे।“  
     
वह कहते थे- “राष्ट्रीयता उस भाव का नाम है जो कि देश के सम्पूर्ण निवासियों के हृदयों में देश-हित की लालसा के साथ व्याप रहा हो, जिसके आगे अन्य भावों की श्रेणी नीची ही रहती हो। भारत में राष्ट्रीय भाव कैसे पैदा हो? प्रत्येक भाव में भक्ति और प्रेम होते हैं और प्रत्येक प्रेम और भक्ति के आधार भी होते हैं। यह प्रकृति का नियम है कि मनुष्य जिस वस्तु से प्रेम रखता है उसका दास बन जाता है और उसके आगे अन्य समस्त वस्तुओं को तुच्छ मानता है। धन ही से प्रेम रखने वाले धर्म और यश की कुछ भी अपेक्षा नही करते; और जिनको धर्म और यश प्यारा है, उनके आगे धन मिट्टी जैसा ही है। देशभक्ति का संचार हमारे ह्रदय से स्वार्थ को निकाल कर फेंक देगा। हम अदूरदर्शी, स्वार्थी और खुशामदियों की तरह ऐसे कार्य कदापि नही करेंगे जिनसे कि देशवासियों को हानि पहुंचे; बल्कि दूरदर्शी, परमार्थी, सत्यशील और दृढ़ताप्रिय आत्माओं की भांति, असंख्यों कष्ट उठाते हुए भी वही करेंगे, जिसमें देश का भला हो। निर्धन धनवान, निर्बल बलवान और मुर्ख बुद्धिमान हो जाएं, प्रत्येक प्रकार के सामाजिक दुःख मिटें और दुर्भिक्ष आदि विपत्तियां दूर होकर लाखों बिलबिलाती हुई आत्माओं को सुख पहुंचे। देश-भक्ति द्वारा इतने धर्मों का संपादन होता हुआ देख कर भी यदि कोई धर्म के आगे देशभक्ति को कुछ नही समझता, उस पुरुष को जान लीजिये कि वह धर्म के तत्व ही को नही पहचानता। इसमें संदेह नहीं कि जो देशवासी अपनी मातृ-भूमि की गुरुता को भली भांति समझ लेंगे, उनमें धर्म-भेद और वर्ण-भेद रहते हुए भी एकता का अभाव नहीं पाया जाएगा। यदि आप विद्वान है, बलवान् है और धनवान हैं तो आपका धर्म यह है कि अपनी विद्या, धन और बल को देश की सेवा में लगाओ। उनकी सहायता करो जो कि तुम्हारी सहायता के भूखे है। उनको योग्य बनाओ जो कि अन्यथा अयोग्य ही बने रहेंगे।“
सामाजिक कार्यों में भी उन्होंने अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने वर्ष 1919 में कुम्भ मेले के अवसर पर प्रयाग में 'प्रयाग सेवा समिति' का गठन किया. इसका उद्देश्य कुम्भ मेले में बाहर से आने वाले तीर्थयात्रियों को मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराना था। पंडित मदनमोहन मालवीय ने वर्ष 1913 में हरिद्वार में गंगा तट पर बांध बनाने की ब्रिटिश सरकार की योजना का जमकर विरोध किया तथा उन्हें सफलता भी प्राप्त हुई।  

वह कट्टर हिन्दू थे और हिन्दू धर्म छोड़कर जाने वाले लोगों को पुनः हिन्दू धर्म में वापस ले आते थे। उन्होंने दलितों के मंदिरों में प्रवेश निषेध की बुराई के विरुद्ध देशभर में आंदोलन चलाया। वह तीन बार हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गए। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जाती है। उन्होंने 'सत्यमेव जयते' के नारे का प्रचार-प्रसार करके इसे लोकप्रिय बनाया। बाद में यह राष्ट्रीय आदर्श वाक्य बन गया और इसे राष्ट्रीय प्रतीक के नीचे अंकित किया गया। 

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने उन्हें ‘महामना’ की संज्ञा दी थी। देश के द्वितीय राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने उन्हें 'कर्मयोगी' कहा था। पंडित मदनमोहन मालवीय के उल्लेखनीय कार्यों के दृष्टिगत विगत 24 दिसम्बर, 2014 को देश के तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने मरणोपरांत उन्हें भारत के सबसे बड़े नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' से सम्मानित किया। 12 नवम्बर, 1946 को इलाहाबाद में उनका निधन हो गया। उन्होंने अपना जीवन राष्ट्र को समर्पित कर दिया था। उन्होंने अपनी अंतिम सांस तक जन साधारण के लिए तक संघर्ष किया। राष्ट्र उनके योगदान को कभी भूल नहीं सकता।

वर्तमान में उनकी शिक्षाएं अत्यंत प्रासंगिक हैं। आशा है कि यह स्मारिका उनकी शिक्षाओं के प्रचार-प्रसार में महत्ती भूमिका निभाएगी।  

मदन मोहन मालवीय जी की जयंती

 



लखनऊ के महामना शिक्षण संस्थान द्वारा  मदन मोहन मालवीय जी की जयंती कार्यक्रम का आयोजन.

Wednesday, December 17, 2025

उत्तर प्रदेश में डिजिटल क्रांति


उत्तर प्रदेश के ग्रामीण युवाओं को आधुनिक शिक्षा और प्रतियोगी परीक्षाओं की बेहतर तैयारी का अवसर देने के लिए योगी सरकार ने बड़ी पहल की है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के निर्देश पर पहले चरण में प्रदेश की 11,350 ग्राम पंचायतों में डिजिटल लाइब्रेरी स्थापित की जा रही है, जिससे गांव के छात्र अब शहरों पर निर्भर हुए बिना सिविल सर्विसेज सहित अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर सकेंगे।

हर डिजिटल लाइब्रेरी पर चार लाख रुपये खर्च किए जाएंगे। इसमें दो लाख रुपये की पुस्तकों की व्यवस्था होगी, जबकि 1.30 लाख रुपये के आईटी इक्यूपमेंट और 70 हजार रुपये के आधुनिक फर्नीचर लिए जाएंगे। लाइब्रेरी में ई-बुक्स, वीडियो लेक्चर, ऑडियो कंटेंट, क्विज और लगभग  20 हजार डिजिटल शैक्षणिक सामग्री उपलब्ध रहेगी।

योगी सरकार की इस महत्वाकांक्षी योजना के अंतर्गत 35 जिलों में पुस्तकों का चयन पूरा कर लिया गया है। राजधानी लखनऊ समेत इन जिलों की पंचायतों में शीघ्र ही डिजिटल लाइब्रेरी शुरू होंगी। योगी सरकार की यह पहल ‘विकसित भारत 2047’ के लक्ष्य की दिशा में ग्रामीण प्रतिभाओं को डिजिटल शक्ति देने का मजबूत कदम मानी जा रही है। 

पंचायती राजमंत्री ओपी राजभर ने कहा कि डिजिटल लाइब्रेरी की स्थापना से ग्रामीण युवाओं को अपने गांव में ही गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी का अवसर मिलेगा। यह योजना गांव और शहर के बीच शिक्षा के अंतर को कम करने की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम है। पंचायतों को शिक्षा का केंद्र बनाकर हम ग्रामीण प्रतिभाओं को आगे बढ़ने का कार्य  कर रहे हैं।

पंचायती राज निदेशक अमित कुमार सिंह ने बताया कि मुख्यमंत्री योगी एवं पंचायती राजमंत्री ओम प्रकाश राजभर के निर्देश पर प्रदेश के सभी जिलों की पंचायतों में चरणबद्ध तरीके से डिजिटल लाइब्रेरी खोली जाएंगी। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा का स्तर सुधरेगा और युवा रोजगार के लिए अधिक सक्षम बन सकेंगे। डिजिटल लाइब्रेरी का प्रबंधन ग्राम प्रधान और सचिव करेंगे, जबकि सहायक अधिकारी इसकी नियमित देखरेख करेंगे। इन जिलों में अमरोहा, आजमगढ़, बांदा, बलिया, बागपत, बदायूं, बरेली, बिजनौर, चित्रकूट, एटा, फतेहपुर, फर्रूखाबाद, फिरोजाबाद, गाजियाबाद, गाजीपुर, हरदोई, हापुड़, जालौन, कानपुर देहात, कन्नौज, कौशाम्बी, कासगंज, लखनऊ, मऊ, मुरादाबाद, मुजफ्फरनगर, प्रतापगढ़, प्रयागराज, रायबरेली, सम्भल, शामली, सिद्धार्थनगर, श्रावस्ती, सुल्तानपुर और सीतापुर सम्मिलित हैं।
लखनऊ: 17 दिसम्बर 2025

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