Tuesday, October 21, 2025

पंडित दीनदयाल उपाध्याय – व्यक्ति नहीं विचार दर्शन है


डॉ. सौरभ मालवीय
“भारत में रहने वाला और इसके प्रति ममत्व की भावना रखने वाला मानव समूह एक जन हैं। उनकी जीवन प्रणाली, कला, साहित्य, दर्शन सब भारतीय संस्कृति है। इसलिए भारतीय राष्ट्रवाद का आधार यह संस्कृति है। इस संस्कृति में निष्ठा रहे तभी भारत एकात्म रहेगा।” ये शब्द पंडित दीनदयाल उपाध्याय के हैं, जिन्हें जनसंघ के राष्ट्र जीवन दर्शन का निर्माता माना जाता है। वे मानते थे कि राजनीतिक जीवन दर्शन का पहला सूत्र संस्कृति निष्ठा है।
वास्तव में भारतीय ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ में विश्वास रखते हैं। यह हमारा मूल मंत्र है। इसके अनुसार भारत में सभी धर्मों को समान अधिकार प्राप्त है। इसी कारण भारत विश्व गुरु माना जाता है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय एक राष्ट्रवादी चिंतक के रूप में जाने जाते हैं। एकात्म मानववाद के रूप में उन्होंने अपने विचारों की व्याख्या की तथा एक राष्ट्रवादी दर्शन के रूप में इसे स्थापित करने का प्रयास किया। उन्होंने एकात्म मानववाद दर्शन को जन-जन तक पहुंचाने का प्रयास किया। वे न केवल वैचारिक चुनौतियों के प्रति सजग थे, परन्तु उन चुनौतियों का सामना राष्ट्रवाद के माध्यम से करने को दृष्ट संकल्प भी प्रतीत होते हैं। भारत जैसे विशाल एवं सर्वसाधन सम्पन्न राष्ट्र जिसने अपनी ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के आधार पर सम्पूर्ण विश्व को अपने ज्ञान पुंज से आलोकित कर मानवता का पाठ पढ़ाया तथा विश्व में जगतगुरु के पद पर प्रतिस्थापित हुआ, ऐसे विशाल राष्ट्र के पराधीनता के कारणों पर दीनदयाल जी का विचार और स्वाधीनता पश्चात् समर्थ और सशक्त भारत बनाने में उनके विचार प्रेरणास्पद हैं।
प्रसिद्ध विचारक और प्रख्यात पत्रकार पंडित दीनदयाल उपाध्याय अपने व्यस्त राजनीतिक जीवन में से अनेक वर्षों तक ऒर्गेनाइजर, राष्ट्रधर्म, पांचजन्य में तत्कालीन राजनीतिक-आर्थिक घटनाक्रम पर गम्भीर विवेचनात्मक टिप्पणियां लिखते रहे। यद्यपि विषय तत्कालीन होता या, तो भी उस पर दीनदयाल जी की टिप्पणी सामयिक के साथ-साथ बहुधा दीर्घकालीन या स्थायी महत्व की भी होती थी।
भारत को एक नई शुरुआत करनी पड़ेगी, इस बात को मानते हुए लेख में वे स्पष्टता के साथ लिखते कि फिर से वापस नहीं लौटा जा सकता। अतः दुनिया के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलना ही होगा, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि दासता के काल में आगामी विकृतियों को हम दूर करने का प्रयास न करें। वे लिखते हैं- अतः हमको सावधानी रखनी होगी कि हम अपने जर्जर शरीर को रोगमुक्त करके जब तक स्वस्थ होकर खड़े हों, तब तक बीच में ही कोई हमारे ऊपर हावी न हो जाएं। साथ ही संसार के अनेक देशों के साथ हमारे संबंध रहे हैं। हमें अनेक पुराने अप्राकृतिक संबंध तोड़ने पड़ेंगे, नवीन निर्माण करने होंगे।
अपने एकात्म मानववाद दर्शन के अंतर्गत उन्होंने राष्ट्र की चित्ति की अवधारणा को व्याख्यायित करने का निरंतर प्रयास किया। दीनदयाल जी चित्ति को राष्ट्र के अस्तित्व का मुख्य आधार मानते थे। उनका मानना था कि भारत को बलशाली और वैभवशाली तभी बनाया जा सकता है, जब भारत की चित्ति को समझा जा सके। चित्ति को बिना समझे राष्ट्र को समझना दुष्कर है तथा बिना राष्ट्र को समझे इसे बलशाली और वैभवशाली बनना असम्भव है। इस प्रश्न को रेखांकित करते हुए वे लिखते हैं-
हमारे राष्ट्र जीवन की चित्ति क्या है? हमारी आत्मा का क्या स्वरूप है? इस स्वरूप की व्याख्या करना कठिन है उसका तो साक्षात्कार ही संभव है, किंतु जिन महापुरूषों ने राष्ट्रात्मा का पूर्ण साक्षात्कार किया, जिनके जीवन में चित्ति का प्रकाश उज्ज्वलतम रहा है। उनके जीवन की ओर देखने से, उनके जीवन की क्रियाओं और घटनाओं का विश्लेषण करने से, हम अपनी चित्ति के स्वरूप की कुछ झलक पा सकते हैं। प्राचीन काल से लेकर आज तक चली आने वाली राष्ट्र पुरुषों की परंपरा के भीतर छिपे हुए सूत्र को यदि हम ढूंढें, तो संभवतया चित्ति के व्यक्त परिणाम की मीमांसा से उसके अव्यक्त कारण की भी हमको अनुभूति हो सके। जिन महान् विभूतियों के नाम स्मरण मात्र से हम अपने जीवन में दुर्बलता के क्षणों में शक्ति का अनुभव करते हैं, कायरता की कृति का स्थान वीर व्रत ले लेता है, उनके जीवन में कौन सी बात है, जो हममें इतना सामर्थ्य भर देती है? कौन सी चीज है जिसके लिए हम मर मिटने के लिए तैयार हो जाते हैं? हमारा मस्तक श्रद्धा से किसके सामने नत होता है और क्यों? वह कौन सा लक्ष्य है, जिसके चारों ओर हमारा राष्ट्र जीवन घूमता आया है? अपने राष्ट्र के किस तत्व को बचाने के लिए हमने बड़े-बड़े युद्ध किए? किसके लिए लाखों का बलिदान हुआ? उत्तर हो सकता है भारत की भूमि के लिए। किंतु भारत से तात्पर्य क्या जड़ भूमि से है? क्या हमने हिमालय के पत्थर और गंगा के जल की रक्षा की है? हमारे अवतारों ने किस हेतु जन्म लिया था? उनको हम भगवान् का अवतार क्यों कहते हैं? इस लेख में इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढते हुए वे अनेक वैचारिक प्रश्नों का साक्षात्कार पाठकों को कराते हैं।
हमारा धर्म हमारे राष्ट्र की आत्मा है। बिना धर्म के राष्ट्र जीवन का कोई अर्थ नहीं रहता। भारतीय राष्ट्र न तो हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक फैले हुए भू-खंड से बन सकता है और न तीस करोड़ मनुष्यों के झुंड से। एक ऐसा सूत्र चाहिए, जो तीस करोड़ को एक-दूसरे से बांध सके, जो तीस कोटि को इस भूमि में बांध सके। वह सूत्र हमारा धर्म ही है। बिना धर्म के भारतीय जीवन का चैतन्य ही नष्ट हो जाएगा, उसकी प्रेरक शक्ति ही जाती रहेगी। अपनी धार्मिक विशेषता के कारण ही संसार के भिन्न-भिन्न जन समूहों में हम भी राष्ट्र के नाते खड़े हो सकते हैं। धर्म के पैमाने से ही हमने सबको नापा है। धर्म की कसौटी पर ही कसकर हमने खरे-खोटे की जांच की है। हमने किसी को महापुरुष मानकर पूजा है तो इसलिए कि उनके जीवन में पग-पग हमको धार्मिकता दृष्टिगोचर होती है। राम हमारे आराध्य देव बनकर रहे हैं और रावण सदा से घृणा का पात्र बना है। क्यों? राम धर्म के रक्षक थे और रावण धर्म का विनाश करना चाहता था। युधिष्ठिर और दुर्योधन दोनों भाई-भाई थे, दोनों राज्य चाहते थे, एक के प्रति हमारे मन में श्रद्धा है, तो दूसरे के प्रति घृणा।
दीनदयालजी राष्ट्र के समक्ष उपस्थित विभिन्न वैचारिक चुनौतियों के अंतर्गत द्विसंस्कृतिवाद तथा बहुसंस्कृतिवाद भी मानते हैं अपने लेख में वे भारत को एक संस्कृति वाला राष्ट्र मानते हैं। अपने लेख ‘राष्ट्रजीवन की समस्याएं’ राष्ट्रधर्म में लिखते हैं-
भारत में एक ही संस्कृति रह सकती है। एक से अधिक संस्कृतियों का नारा देश के टुकड़े-टुकड़े करके हमारे जीवन का विनाश कर देगा। अतः आज लीग का द्विसंस्कृतिवाद, कांग्रेस का प्रच्छन्न द्विसंस्कृतिवाद तथा साम्यवादियों का बहुसंस्कृतिवाद नहीं चल सकता। आज तक एक-संस्कृतिवाद को संप्रदायवाद कहकर ठुकराया गया, किंतु अब कांग्रेस के विद्वान भी अपनी गलती समझकर इस एक-संस्कृतिवाद को अपना रहे हैं। इसी भावना और विचार से भारत की एकता तथा अखंडता बनी रह सकती है तथा तभी हम अपनी संपूर्ण समस्याओं को सुलझा सकते हैं।
उनके अनुसार भारत में चार प्रधान वर्ग दिखाई पड़ते हैं, जिसकी व्याख्या उन्होंने निम्नवत् की है-
अर्थवादी पहला वर्ग, अर्थवादी संपत्ति को ही सर्वस्व समझता है तथा उसके स्वामित्व एवं वितरण में ही सब प्रकार की दुरवस्था की जड़ मानकर उसमें सुधार करना ही अपना एकमेव कर्तव्य समझता है। उसका एकमेव लक्ष्य ‘अर्थ’ है। साम्यवादी एवं समाजवादी इस वर्ग के लोग हैं। इनके अनुसार भारत की राजनीति का निर्धारण अर्थनीति के आधार पर होना चाहिए तथा संस्कृति एवं मत को वे गौण समझकर अधिक महत्व देने को तैयार नहीं हैं।
राजनीतिवादी दूसरा वर्ग है। यह जीवन का संपूर्ण महत्व राजनीतिक प्रमुख प्राप्त करने में ही समझता है तथा राजनीतिक दृष्टि से ही संस्कृति, मजहब तथा अर्थनीति की व्याख्या करता है। अर्थवादी यदि एकदम उद्योगों का राष्ट्रीयकरण अथवा बिना मुआविजा दिए जमींदारी उन्मूलन चाहता है, तो राजनीतिवादी अपने राजनीतिक कारणों से ऐसा करने में असमर्थ है। उसके लिए इस प्रकार संस्कृति एवं मजहब का भी मूल्य अपनी राजनीति के लिए ही है, अन्यथा नहीं। इस वर्ग के अधिकांश लोग कांग्रेस में हैं, जो आज भारत की राजनीतिक बागडोर संभाले हुए हैं।
मतवादी तीसरा वर्ग, मजहब परस्त या मतवादी है। इसे धर्मनिष्ठ कहना ठीक नहीं होगा, क्योंकि धर्म मजहब या मत से बड़ा तथा विशाल है। यह वर्ग अपने-अपने मजहब के सिद्धांतों के अनुसार ही देश की राजनीति अथवा अर्थनीति को चलाना चाहता है। इस प्रकार का वर्ग मुल्ला-मौलवियों अथवा रूढ़िवादी कट्टरपंथियों के रूप में अब भी थोड़ा बहुत विद्यमान है, यद्यपि आजकल उसका बहुत प्रभाव नहीं रह गया है।
संस्कृतिवादी चौथा वर्ग है। इसका विश्वास है कि भारत की आत्मा का स्वरूप प्रमुखतया संस्कृति ही है। अतः अपनी संस्कृति की रक्षा एवं विकास ही हमारा कर्तव्य होना चाहिए। यदि हमारा सांस्कृतिक ह्रास हो गया तथा हमने पश्चिम के अर्थ प्रधान अथवा भोग प्रधान जीवन को अपना लिया, तो हम निश्चित ही समाप्त हो जाएंगे। यह वर्ग भारत में बहुत बड़ा है। इसके लोग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में तथा कुछ अंशों में कांग्रेस में भी हैं। कांग्रेस के ऐसे लोग राजनीति को केवल संस्कृति का पोषक मात्र ही मानते हैं, संस्कृति का निर्णायक नहीं। हिंदीवादी सब लोग इसी वर्ग के हैं।
जहां संस्कृतिवाद के दृष्टिकोण को सार्थक मानते हैं, वहीं इसके विभिन्न स्वरूपों एवं समस्याओं के प्रति भी सचेत हैं। संस्कृति का स्वरूप कैसा हो इसमें कौन सा तत्व हो आदि विषयों पर हो रहे विवाद को भी वे एक समस्या ही मानते हैं, वे कहते हैं-
आज भी भारत में प्रमुख समस्या सांस्कृतिक ही है। वह भी आज दो प्रकार से उपस्थित है, प्रथम तो संस्कृति को ही भारतीय जीवन का प्रथम तत्व मानना तथा दूसरे यदि इसे मान लें, तो उस संस्कृति का रूप कौन सा हो? विचार के लिए यद्यपि यह समस्या दो प्रकार की मालूम होती है, किंतु वास्तव में है एक ही। क्योंकि एक बार संस्कृति का जीवन को प्रमुख एवं आवश्यक तत्व मान लेने पर उसके स्वरूप के संबंध में झगड़ा नहीं रहता, न उसके संबंध में किसी प्रकार का मतभेद ही उत्पन्न होता है। यह मतभेद तो तब उत्पन्न होता है, जब अन्य तत्वों को प्रधानता देकर संस्कृति को उसके अनुरूप उन ढांचों में ढकने का प्रयत्न किया जाता है।
अंततः वे एक संस्कृतिवाद को ही उत्तम मार्ग मानते हैं तथा राष्ट्र के लिए आवश्यक तत्व बताते हैं वे लिखते हैं-
केवल एक-संस्कृतिवादी लोग ही ऐसे हैं, जिनके समक्ष और कोई ध्येय नहीं है तथा जैसा कि हमने देखा, संस्कृति ही भारत की आत्मा होने के कारण वे भारतीयता की रक्षा एवं विकास कर सकते हैं। शेष सब तो पश्चिम का अनुकरण करके या तो पूंजीवाद अथवा रूस की तरह आर्थिक प्रजातंत्र तथा राजनीतिक पूंजीवादी का निर्माण करना चाहते हैं। अतः उनमें सब प्रकार की संभावना होते हुए भी इस बात की संभावना कम नहीं है कि उनके द्वारा भी भारतीय आत्मा का तथा भारतीयत्व का विनाश हो जाए। अतः आज की प्रमुख आवश्यकता तो यह है कि एक-संस्कृतिवादियों के साथ पूर्ण सहयोग किया जाए। तभी हम गौरव और वैभव से खड़े हो सकेंगे तथा भारत-विभाजन जैसी भावी दुर्घटनाओं को रोक सकेंगे।
15 अगस्त, 1947 को हमने एक मोर्चा जीत लिया। हमारे देश से अंग्रेजी राज्य विदा हो गया। उस राज्य के कारण हमारी प्रतिभा के विकास में जो बाधाएं उपस्थित की जा रही थीं, उनका कारण हट गया, हम अपना विकास करने के लिए स्वतंत्र हो गए। अपनी आत्मानुभूति का मार्ग खुल गया। किंतु अभी भी मानव की प्रगति में हमको सहायता करनी है। मानव द्वारा छेड़े गए युद्ध में जिन-जिन शस्त्रों का प्रयोग हमने अब तक किया है, जिनके चलाने में हम निपुण हैं तथा जिन पर पिछली सहस्राब्दियों में जंग लग गई थी, उन्हें पुनः तीक्ष्ण करना है तथा अपने युद्ध कौशल का परिचय देकर मानव को विजय बनाना है। आज यदि हमारे मन में उन पद्धतियों के विषय में ही मोह पैदा हो जाए, जिनके पुरस्कर्ताओं से हम अब तक लड़ते रहे हैं, तो यही कहना होगा कि हम न तो स्वतंत्रता का सच्चा स्वरूप समझ पाए हैं और न अपने जीवन के ध्येय को ही पहचान पाए हैं। हमारी आत्मा ने अंग्रेजी राज्य के प्रति विद्रोह केवल इसलिए नहीं किया कि दिल्ली में बैठकर राज्य करने वाला एक अंग्रेज था, अपितु इसलिए भी कि हमारे दिन-प्रतिदिन के जीवन में हमारे जीवन की गति में विदेशी पद्धतियां, रीति-रिवाज विदेशी दृष्टिकोण और आदर्श अडंगा लगा रहे थे, हमारे संपूर्ण वातावरण को दूषित कर रहे थे, हमारे लिए सांस लेना भी दूभर हो गया था। आज यदि दिल्ली का शासनकर्ता अंग्रेज के स्थान पर हममें से ही एक, हमारे ही रक्त और मांस का एक अंश हो गया है, तो हमको इसका हर्ष है, संतोष है किंतु हम चाहते हैं कि उनकी भावनाएं और कामनाएं भी हमारी भावनाएं और कामनाएं हों। जिस देश की मिट्टी से उसका शरीर बना है, उसके प्रत्येक रंजकण का इतिहास उसके शरीर के कण-कण से प्रति ध्वनित होना चाहिए तीस कोटि के हृदयों को समष्टिगत भावनाओं से उसका हृदय उद्वेलित होना चाहिए तथा उनके जीवन के विकास के अनुकूल, उनकी प्रकृति और स्वभाव अनुसार तथा उनकी भावनाओं और कामनाओं के अनुरूप पद्धतियों की सृष्टि उसके द्वारा होनी चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता तो हमको कहना होगा कि अभी भी स्वतंत्रता की लड़ाई बाकी है। अभी हम अपनी आत्मानुभूति में आनेवाली बाधाओं को दूर नहीं कर पाए हैं।
आर्थिक स्वाधीनता के साथ-साथ सामाजिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता की भी आवश्यकता है। आत्मानुभूति के प्रयत्नों में जिन सामाजिक व्यवस्थाओं एवं पद्धतियों की राष्ट्र अपनी सहायता के लिए सृष्टि करता है अथवा जिन रीति-रिवाजों में उसकी आत्मा की अभिव्यक्ति होती है, वे ही यदि कालावपात से उसके मार्ग में बाधक होकर उसके ऊपर भार रूप हो जाएं तो उनसे मुक्ति पाना भी प्रत्येक राष्ट्र के लिए आवश्यक है। यात्रा की एक मंजिल में जो साधन उपयोगी सिद्ध हुए हैं वे दूसरी मंजिल में भी उपयोगी सिद्ध होंगे यह आवश्यक नहीं। साधन तो प्रत्येक मंजिल के अनुरूप ही चाहिए तथा इस प्रकार प्रयाण करते हुए प्राचीन साधनों का मोह परतंत्रता का ही कारण हो सकता है, क्योंकि स्वतंत्रता केवल उन तंत्रों का समष्टिगत नाम है जो स्वानुभूति में सहायक होते हैं।
राष्ट्र की सांस्कृतिक स्वतंत्रता तो अत्यंत महत्व की है, क्योंकि संस्कृति ही राष्ट्र के संपूर्ण शरीर में प्राणों के समान संचार करती है। प्रकृति के तत्वों पर विलय पाने के प्रयत्न में तथा मानवानुभूति की कल्पना में मानव जिस जीवन दृष्टि की रचना करता है वह उसकी संस्कृति है। संस्कृति कभी गतिहीन नहीं होती अपितु वह निरंतर गतिशील फिर भी उसका अपना एक अस्तित्व है। नदी के प्रवाह की भांति निरंतर गतिशील होते हुए भी वह अपनी निजी विशेषताएं रखती हैं, जो उस सांस्कृतिक दृष्टिकोण को उत्पन्न करने वाले समाज के संस्कारों में तथा उस सांस्कृतिक भावना से जन्य राष्ट्र के साहित्य, कलाए दर्शन, स्मृति शास्त्र, समाज रचना इतिहास एवं सभ्यता के विभिन्न अंग अंगों में व्यक्त होती हैं। परतंत्रता के काल में इन सब पर प्रभाव पड़ जाता है तथा स्वाभाविक प्रवाह अवरुद्ध हो जाता है। आज स्वतंत्र होने पर आवश्यक है कि हमारे प्रवाह की संपूर्ण बाधाएं दूर हों तथा हम अपनी प्रतिभा अनुरूप राष्ट्र के संपूर्ण क्षेत्रों में विकास कर सकें। राष्ट्र भक्ति की भावना को निर्माण करने और उसको साकार स्वरूप देने का श्रेय भी राष्ट्र की संस्कृति को ही है तथा वही राष्ट्र की संकुचित सीमाओं को तोड़कर मानव की एकात्मता का अनुभव कराती है। अतः संस्कृति की स्वतंत्रता परमावश्यक है। बिना उसके राष्ट्र की स्वतंत्रता निरर्थक ही नहीं, टिकाऊ भी नहीं रह सकेगी।
(लेखक लखनऊ विश्वविद्यालय में पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष है।)

Saturday, October 18, 2025

टीवी पर लाइव

 


"सबका साथ, सबका विकास" श्री नरेंद्र मोदी सरकार का संकल्प है.
1. जन-धन योजना – गरीबों के बैंक खाते खोलने के लिए।
2. उज्ज्वला योजना – गरीब परिवारों को मुफ्त गैस कनेक्शन देना।
3. आवास योजना – सभी को पक्का घर देने की योजना।
4. स्वच्छ भारत अभियान – पूरे देश में सफाई और शौचालय निर्माण।
5. हर घर जल – हर घर में नल से जल पहुंचाना।
6. प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि – किसानों को सालाना आर्थिक सहायता।
7. स्टार्टअप इंडिया / डिजिटल इंडिया – युवाओं और टेक्नोलॉजी को बढ़ावा देना। आदि योजनाएं है.

अंधेरे पर प्रकाश की जीत का पर्व है दीपावली

डॊ. सौरभ मालवीय
असतो मा सद्गमय।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्मा अमृतं गमय।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
अर्थात्
असत्य से सत्य की ओर।
अंधकार से प्रकाश की ओर।
मृत्यु से अमरता की ओर।
ॐ शांति शांति शांति।।
अर्थात् इस प्रार्थना में अंधकार से प्रकाश की ओर जाने की कामना की गई है. दीपों का पावन पर्व दीपावली भी यही संदेश देता है. यह अंधकार पर प्रकाश की जीत का पर्व है. दीपावली का अर्थ है दीपों की श्रृंखला. दीपावली शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के दो शब्दों 'दीप' एवं 'आवली' अर्थात 'श्रृंखला' के मिश्रण से हुई है. दीपावली का पर्व कार्तिक अमावस्या को मनाया जाता है. वास्तव में दीपावली एक दिवसीय पर्व नहीं है, अपितु यह कई त्यौहारों का समूह है, जिनमें धन त्रयोदशी अर्थात धनतेरस, नरक चतुर्दशी, दीपावली, गोवर्धन पूजा और भैया दूज सम्मिलित हैं. दीपावली महोत्सव कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से शुक्ल पक्ष की दूज तक हर्षोल्लास से मनाया जाता है. धनतेरस के दिन बर्तन खरीदना शुभ माना जाता है. तुलसी या घर के द्वार पर दीप जलाया जाता है. नरक चतुर्दशी के दिन यम की पूजा के लिए दीप जलाए जाते हैं.  गोवर्धन पूजा के दिन लोग गाय-बैलों को सजाते हैं तथा गोबर का पर्वत बनाकर उसकी पूजा करते हैं. भैया दूज पर बहन अपने भाई के माथे पर तिलक लगाकर उसके लिए मंगल कामना करती है. इस दिन यमुना नदी में स्नान करने की भी परंपरा है.

प्राचीन हिंदू ग्रंथ रामायण के अनुसार दीपावली के दिन श्रीरामचंद्र अपने चौदह वर्ष के वनवास के पश्चात अयोध्या लौटे थे. अयोध्यावासियों ने श्रीराम के स्वागत में घी के दीप जलाए थे. प्राचीन हिन्दू महाकाव्य महाभारत के अनुसार दीपावली के दिन ही 12 वर्षों के वनवास एवं एक वर्ष के अज्ञातवास के बाद पांडवों की वापसी हुई थी. मान्यता यह भी है कि दीपावली का पर्व भगवान विष्णु की पत्नी देवी लक्ष्मी से संबंधित है. दीपावली का पांच दिवसीय महोत्सव देवताओं और राक्षसों द्वारा दूध के लौकिक सागर के मंथन से पैदा हुई लक्ष्मी के जन्म दिवस से प्रारंभ होता है. समुद्र मंथन से प्राप्त चौदह रत्नों में लक्ष्मी भी एक थीं, जिनका प्रादुर्भाव कार्तिक मास की अमावस्या को हुआ था. उस दिन से कार्तिक की अमावस्या लक्ष्मी-पूजन का त्यौहार बन गया. दीपावली की रात को लक्ष्मी ने अपने पति के रूप में विष्णु को चुना और फिर उनसे विवाह किया था. मान्यता है कि दीपावली के दिन विष्णु की बैकुंठ धाम में वापसी हुई थी.
कृष्ण भक्तों के अनुसार इस दिन भगवान श्रीकृष्ण ने अत्याचारी राजा नरकासुर का वध किया था. एक पौराणिक कथा के अनुसार भगवान विष्णु ने नरसिंह रूप धारणकर हिरण्यकश्यप का वध किया था. यह भी कहा जाता है कि इसी दिन समुद्र मंथन के पश्चात धन्वंतरि प्रकट हुए. मान्यता है कि इस दिन देवी लक्ष्मी प्रसन्न रहती हैं. जो लोग इस दिन देवी लक्ष्मी की पूजा करते हैं, उन पर देवी की विशेष कृपा होती है. लोग लक्ष्मी के साथ-साथ संकट विमोचक गणेश, विद्या की देवी सरस्वती और धन के देवता कुबेर की भी पूजा-अर्चना करते हैं.

अन्य हिन्दू त्यौहारों की भांति दीपावली भी देश के अन्य राज्यों में विभिन्न रूपों में मनाई जाती है. बंगाल और ओडिशा में दीपावली काली पूजा के रूप में मनाई जाती है. इस दिन यहां के हिन्दू देवी लक्ष्मी के स्थान पर काली की पूजा-अर्चना करते हैं. उत्तर प्रदेश के मथुरा और उत्तर मध्य क्षेत्रों में इसे भगवान श्री कृष्ण से जुड़ा पर्व माना जाता है. गोवर्धन पूजा या अन्नकूट पर श्रीकृष्ण के लिए 56 या 108 विभिन्न व्यंजनों का भोग लगाया जाता है.

दीपावली का ऐतिहासिक महत्व भी है. हिन्दू राजाओं की भांति मुगल सम्राट भी दीपावली का पर्व बड़ी धूमधाम से मनाया करते थे. सम्राट अकबर के शासनकाल में दीपावली के दिन दौलतखाने के सामने ऊंचे बांस पर एक बड़ा आकाशदीप लटकाया जाता था. बादशाह जहांगीर और मुगल वंश के अंतिम सम्राट बहादुर शाह जफर ने भी इस परंपरा को बनाए रखा. दीपावली के अवसर पर वे कई समारोह आयोजित किया करते थे. शाह आलम द्वितीय के समय में भी पूरे महल को दीपों से सुसज्जित किया जाता था. कई महापुरुषों से भी दीपावली का संबंध है. स्वामी रामतीर्थ का जन्म एवं महाप्रयाण दोनों दीपावली के दिन ही हुआ था. उन्होंने दीपावली के दिन गंगातट पर स्नान करते समय समाधि ले ली थी. आर्य समाज के संस्थापाक महर्षि दयानंद ने दीपावली के दिन अवसान लिया था.

जैन और सिख समुदाय के लोगों के लिए भी दीपावली महत्वपूर्ण है. जैन समाज के लोग दीपावली को महावीर स्वामी के निर्वाण दिवस के रूप में मनाते हैं. जैन मतावलंबियों के अनुसार चौबीसवें तीर्थकर महावीर स्वामी को इस दिन मोक्ष की प्राप्ति हुई थी.  इसी दिन संध्याकाल में उनके प्रथम शिष्य गौतम गणधर को केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई थी. जैन धर्म के मतानुसार लक्ष्मी का अर्थ है निर्वाण और सरस्वती का अर्थ है ज्ञान. इसलिए प्रातःकाल जैन मंदिरों में भगवान महावीर स्वामी का निर्वाण उत्सव मनाया जाता है और लड्डू का भोग लगाया जाता है. सिख समुदाय के लिए दीपावली का दिन इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसी दिन अमृतसर में वर्ष 1577 में स्वर्ण मंदिर का शिलान्यास हुआ था. वर्ष 1619 में दीपावली के दिन ही सिखों के छठे गुरु हरगोबिन्द सिंह जी को जेल से रिहा किया गया था.

दीपावली से पूर्व लोग अपने घरों, दुकानों आदि की सफाई करते हैं. घरों में मरम्मत, रंग-रोगन, सफ़ेदी आदि का कार्य कराते हैं. दीपावली पर लोग नये वस्त्र पहनते हैं. एक-दूसरे को मिष्ठान और उपहार देकर उनकी सुख-समृद्धि की कामना करते हैं. घरों में रंगोली बनाई जाती है, दीप जलाए जाते हैं. मोमबत्तियां जलाई जाती हैं. घरों व अन्य इमारतों को बिजली के रंग-बिरंगे बल्बों की झालरों से सजाया जाता है. रात में चहुंओर प्रकाश ही प्रकाश दिखाई देता है. आतिशबाज़ी भी की जाती है. अमावस की रात में आकाश में आतिशबाज़ी का प्रकाश बहुत ही मनोहारी दृश्य बनाता है.

दीपावली का धार्मिक ही नहीं, सांस्कृतिक और सामाजिक महत्व भी है. दीपावली पर खेतों में खड़ी खरीफ़ की फसल पकने लगती है, जिसे देखकर किसान फूला नहीं समाता. इस दिन व्यापारी अपना पुराना हिसाब-किताब निपटाकर नये बही-खाते तैयार करते हैं.

दीपावली बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है, लेकिन कुछ लोग इस दिन दुआ खेलते हैं और शराब पीते हैं. अत्यधिक आतिशबाज़ी के कारण ध्वनि और वायु प्रदूषण भी बढ़ता है. इसलिए इस बात की आवश्यकता है कि दीपों के इस पावन पर्व के संदेश को समझते हुए इसे पूरी श्रद्धा और आस्था के साथ मनाया जाए.

Meeting



Had a warm and insightful meeting with Prof. Sourabh Malviya Sir, Head of the Department of Media Studies at the University of Lucknow. The conversation on the evolving landscape of media and journalism was truly engaging and meaningful. His thoughts were inspiring and enriched with experience. He shared deep insights in a simple and practical way, offering valuable guidance for future work and ideas. The meeting was memorable — filled with learning, inspiration, and genuine warmth.
Gaurav Lalit Sharma

Friday, October 17, 2025

कार्यकर्ता बैठक








विद्या भारती जन शिक्षा समिति अवध प्रान्त द्वारा आयोजित समयदानी कार्यकर्ता बैठक का आयोजन सरदार गनपत राय सरस्वती विद्या मंदिर रानोपाली श्रीअयोध्या धाम में किया गया। 
 प्रदेश निरीक्षक श्री मिथिलेश जी, जन शिक्षा समिति अवध प्रांत के अध्यक्ष डॉ सत्येंद्र बहादुर सिंह जी, सहमंत्री श्री कौशल किशोर वर्मा जी, क्षेत्रीय सेवा शिक्षा संयोजक श्रीमान योगेश जी भाई साहब तथा 35 अन्य कार्यकर्ता बंधु उपस्थित रहे 

Sunday, October 12, 2025

भारतीय संस्कृति आधारित शिक्षा से राष्ट्र निर्माण की दिशा में अग्रसर : श्रीराम आरावकर













बलिया।  नागाजी सरस्वती विद्या मंदिर वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय, माल्देपुर (बलिया) में विद्या भारती पूर्वी उत्तर प्रदेश क्षेत्र द्वारा आयोजित स्तरानुसार शैक्षिक परिषदों की क्षेत्रीय कार्यशाला अत्यंत गरिमामय एवं प्रेरणादायी वातावरण में सम्पन्न हुई। इस दो दिवसीय कार्यशाला में शिक्षण कार्य से जुड़े विभिन्न स्तरों के शिक्षक परिषदों के प्रतिनिधि, पदाधिकारी एवं शिक्षाविद् बड़ी संख्या में उपस्थित रहे।
मुख्य अतिथि अखिल भारतीय सह संगठन मंत्री श्रीराम आरावकर जी ने अपने प्रेरणास्पद उद्बोधन में कहा कि विद्या भारती शैक्षिक परिषद का उद्देश्य केवल ज्ञानार्जन तक सीमित नहीं है, बल्कि समाज के वंचित एवं साधनहीन वर्गों को शिक्षित कर उन्हें आत्मनिर्भर बनाना तथा राष्ट्र के प्रति उत्तरदायी नागरिक तैयार करना है। उन्होंने कहा कि शिक्षा भारतीय संस्कृति का मूलाधार है, जो केवल बुद्धि का नहीं, अपितु मन, वचन और कर्म — तीनों का परिष्कार करती है। विद्या भारती की कार्यपद्धति भारतीय जीवन मूल्यों पर आधारित है, जो शिक्षा को चरित्र निर्माण, राष्ट्र निर्माण एवं समाज निर्माण का सशक्त माध्यम मानती है।
क्षेत्रीय मंत्री डॉ. सौरभ मालवीय जी ने अपने सारगर्भित वक्तव्य में कहा कि विद्या भारती का ध्येय वाक्य — “सर्वे भवन्तु सुखिनः” — मात्र एक श्लोक नहीं, बल्कि जीवन दृष्टि है। उन्होंने बताया कि विद्या भारती का प्रयास है कि समाज के दीन-दुखी, वंचित एवं आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के बच्चों तक शिक्षा का उजाला पहुँचे, जिससे वे आत्मनिर्भर और स्वाभिमानी नागरिक बन सकें। संस्था छात्रों के सर्वांगीण विकास — शैक्षणिक, शारीरिक, भावनात्मक, बौद्धिक एवं नैतिक — पर बल देती है, जिससे वे अपने जीवन में आदर्श एवं प्रेरणास्रोत बनें।
इस अवसर पर सभी वक्ताओं ने भारतीय संस्कृति-आधारित शिक्षा की आवश्यकता, समाज में शिक्षा के माध्यम से परिवर्तन की भूमिका तथा शिक्षक के रूप में अपनी उत्तरदायित्वपूर्ण भूमिका पर विस्तृत विचार रखे। कार्यशाला के दौरान शिक्षण पद्धतियों के नवाचार, मूल्यनिष्ठ शिक्षा के संवर्धन और छात्र केंद्रित शिक्षण की रूपरेखा पर भी विमर्श हुआ।
कार्यशाला के मुख्य अतिथि अखिल भारतीय सह संगठन मंत्री आदरणीय श्रीराम आरावकर जी थे। उनके साथ मंचासीन रहे पूर्वी उत्तर प्रदेश क्षेत्र के क्षेत्रीय संगठन मंत्री श्रीमान हेमचंद्र जी, लखनऊ विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के विभागाध्यक्ष एवं क्षेत्रीय मंत्री डॉ. सौरभ मालवीय जी, दिनेश जी, कमलेश सिंह जी, गोरक्ष प्रांत के प्रदेश निरीक्षक श्री राम सिंह जी, कानपुर प्रांत के प्रदेश निरीक्षक श्री अयोध्या प्रसाद मिश्र जी तथा संभाग निरीक्षक श्री कन्हैया चौबे जी।
कार्यक्रम की अध्यक्षता विद्यालय के अध्यक्ष श्री रामकुमार तिवारी जी ने किया ।
इस अवसर पर प्राथमिक वर्ग क्षेत्र के शैक्षिक परिषद संयोजक श्री मुनेन्द्र जी, सह संयोजक श्री इन्द्रजीत जी, पूर्व माध्यमिक वर्ग के क्षेत्रीय संयोजक श्री अयोध्या प्रसाद मिश्र जी, माध्यमिक वर्ग के क्षेत्रीय संयोजक श्री गजेन्द्र सिंह जी तथा सह संयोजक श्री शैलेंद्र त्रिपाठी जी सहित अनेक शिक्षाविद् उपस्थित रहे।
कार्यक्रम में अतिथियों का परिचय विद्यालय के प्रधानाचार्य श्री शैलेंद्र त्रिपाठी जी ने कराया, जबकि आभार ज्ञापन गोरक्ष प्रांत के प्रदेश निरीक्षक श्री राम सिंह जी द्वारा किया गया।
दो दिवसीय यह कार्यशाला विद्या भारती की भारतीय संस्कृति-आधारित शिक्षा पद्धति की सार्थकता, प्रासंगिकता और सामाजिक परिवर्तन के संकल्प को और अधिक दृढ़ करने वाली सिद्ध हुई।

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