Friday, December 5, 2025

आम्बेडकर, समरसता और संघ


डॉ. सौरभ मालवीय  
देश में सामाजिक समता एवं सामाजिक न्याय के लिए प्रमुखता से स्वर मुखर करने वालों में डॉक्टर भीमराव आम्बेडकर का नाम अग्रणीय है। उन्होंने बाल्यकाल से ही अस्पृश्यता का सामना किया था। विद्यालय से लेकर नौकरी तक उन्होंने भेदभाव का दंश झेला। इससे उनकी आत्मा चीत्कार उठी। उन्होंने अस्पृश्यता के उन्मूलन के लिए कार्य करने का संकल्प लिया। उन्होंने देशभर की यात्रा की तथा दलितों के अधिकारों के लिए स्वर मुखर किया। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन अस्पृश्यता के उन्मूलन के कार्यों के लिए समर्पित कर दिया। उनका मानना था कि सेवक बनकर ही कोई बड़ा कार्य किया जा सकता है। इसलिए वह कहते थे- “एक महान आदमी एक आम आदमी से इस तरह से अलग है कि वह समाज का सेवक बनने को तैयार रहता है।“

डॉक्टर भीमराव आम्बेडकर ने सामाजिक समरसता का जो स्वप्न देखा था, उसे साकार करने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अभियान चला रहा है। वास्तव में संघ अपने स्थापना काल से ही सामाजिक समरसता के लिए कार्य कर रहा है। डॉक्टर केशव बलिराम हेडगवार ने सामाजिक समरसता, एकता, अखंडता एवं सशक्त समाज के निर्माण के उद्देश से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी। उनका कहना था कि हमारा निश्चय और स्पष्ट ध्येय ही हमारी प्रगति का मूल कारण है। हम लोगों को हमेशा सोचना चाहिए कि जिस कार्य को करने का हमने प्रण किया है, और जो उद्देश्य हमारे सामने है, उसे प्राप्त करने के लिए हम कितना कार्य कर रहे हैं। प्रत्येक अधिकारी एवं शिक्षक को प्रत्येक के मन में यह विचार भर देना चाहिए कि मैं स्वयं ही संघ हूं। प्रत्येक व्यक्ति को अपने चरित्र पर विचार करना चाहिए। अपने चरित्र को कभी भी कमजोर व क्षीण न होने दें। आप इस भ्रम में न रहें कि लोग हमारी ओर नहीं देखते। वे हमारे कार्य तथा हमारे व्यक्तिगत आचरण की ओर आलोचनात्मक दृष्टि से देखते हैं। हमें केवल अपने कार्य में व्यक्तिगत चाल-चलन की दृष्टि से सावधानी नहीं बरतनी चाहिए, अपितु सामूहिक एवं सार्वजनिक जीवन में भी इसका ध्यान रखना चाहिए‌। 

वह कहते थे कि बिना कष्ट उठाए और बिना स्वार्थ त्याग किए, हमें कुछ भी फल मिलना असंभव है। अपने समाज में संगठन निर्माण कर उसे बलवान तथा अजेय बनाने के अतिरिक्त हमें और कुछ नहीं करना है। इतना कर देने पर सारा कार्य स्वयं ही हो जाएगा। हमें आज सताने वाली सारी राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक समस्याएं आसानी से हल हो जाएंगी। अनुशासन अपने संगठन की नींव है, इसी पर हमें विशाल इमारत को खड़ा करना है। किसी भी भूल से यदि नींव जरा सी भी कच्ची रह गई, तो इमारत का उस ओर का भाग ढल जाएगा। इमारत में दरार पड़ जाएगी और आखिर में वह संपूर्ण इमारत ढह जाएगी। जीवन में निस्वार्थ भावना आए बिना खरा अनुशासन निर्माण नहीं होता। 

सामाजिक समरसता के बारे में उनका कहना था कि संघ का लक्ष्य भारत राष्ट्र को पुनः परम वैभव तक ले जाना है। समरसता के बिना, समता स्थायी नहीं हो सकती, और दोनों के अभाव में राष्ट्रीयता की कल्पना भी नहीं की जा सकती। हमारा कार्य अखिल हिंदू समाज के लिए होने के कारण, उसके किसी भी अंग की उपेक्षा करने से काम नहीं चलेगा। सभी हिंदू भाइयों के साथ फिर वह किसी भी उच्च या नीच श्रेणी के समझे जाते हों, हमारा व्यवहार हर एक से प्रेम का होना चाहिए। किसी भी हिंदू भाई को नीच समझकर उसे दुत्कारना पाप है।

वह कहते थे कि संघ का कार्य सुचारू रूप से चलाने के लिए हमें लोक संग्रह के तत्वों को भली भांति समझ लेना होगा। संघ केवल स्वयंसेवकों के लिए नहीं, अपितु संघ के बाहर जो लोग हैं, उनके लिए भी है। हमारा यह कर्तव्य हो जाता है कि उन लोगों को हम राष्ट्र के उद्धार का सच्चा मार्ग बताएं। वयोवृद्ध लोगों का संघ कार्य में काफी महत्वपूर्ण स्थान है। वे संघ के महत्वपूर्ण कार्यों का दायित्व उठा सकते हैं। यदि प्रौढ़ लोग अपने प्रतिष्ठा और व्यवहार कुशलता का उपयोग संघ कार्य किए तो करें, तो युवा अधिक उत्साह से कार्य कर सकेंगे। प्रत्येक व्यक्ति को उत्साह और हिम्मत से आगे आना चाहिए, और संघ कार्यों में जुट जाना चाहिए। इस समाज को जागृत एवं संगठित करना ही राष्ट्र का जागरण एवं संगठन है। यही राष्ट्र धर्म है। ध्येय पर अविचल दृष्टि रखकर, मार्ग में मखमली बिछौने हो या कांटे बिखरे हों, उनकी चिंता न करते हुए निरंतर आगे ही बढ़ने को दृढ़ निश्चय वाले क्रियाशील तरुण खड़े करने पड़ेंगे। पूर्ण संस्कार दिए बिना, देशभक्ति का स्थाई स्वरूप निर्माण होना संभव नहीं है तथा इस प्रकार की स्थिति का निर्माण होने तक सामाजिक व्यवहार में प्रमाणिकता भी संभव नहीं।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर ने सामाजिक समरसता पर विचार व्यक्त करते हुए कहा था कि समरसता के लिए आत्मग्लानि दूर करने के लिए आत्मबोध को जगाना पड़ेगा, स्वार्थ के स्थान पर निस्वार्थ भाव का निर्माण करना पड़ेगा। सभी भेदों को भुलाकर एकात्मकता का भाव जागृत करना पड़ेगा।   

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाता। महात्मा गांधी भी संघ के कार्यों से प्रभावित हुए थे। उन्होंने वर्ष 1934 में वर्धा में आयोजित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का शिविर देखा था, जिसमें सभी जातियों के लोग सम्मिलित हुए थे। इसमें दलित समाज के लोग भी थे। उस समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए महात्मा गांधी ने कहा था कि आपके संगठन में अस्पृश्यता का अभाव देखकर मैं बहुत संतुष्ट हूं।     

इसी प्रकार डॉक्टर भीमराव आम्बेडकर भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यों से प्रभावित हुए थे। उन्हें वर्ष 1939 में पुणे में आयोजित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रशिक्षण शिविर को देखने का अवसर प्राप्त हुआ। उन्होंने अनुभव किया कि शिविर में सभी जातियों के लोग प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं। इसमें दलित समाज के लोग भी सम्मिलित थे। शिविर में सबके साथ समान व्यवहार किया जा रहा था। 

उल्लेखनीय है कि हमारे पवित्र धार्मिक ग्रंथों में समरसता का प्रमुखता से उल्लेख किया गया है। भगवदगीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है- “पंडिता: समादर्शिन:” अर्थात विद्वान सबको समान दृष्टि से देखते हैं। कहने का अभिप्राय है कि विद्वान सबको समान मानते हैं तथा वे किसी के साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं करते।          
भीमराव आम्बेडकर समानता पर सर्वाधिक बल देते थे। वह कहते थे कि अगर देश की अलग-अलग जातियां एक दूसरे से अपनी लड़ाई समाप्त नहीं करेंगी, तो देश एकजुट कभी नहीं हो सकता। यदि हम एक संयुक्त एकीकृत आधुनिक भारत चाहते हैं तो सभी धर्म-शास्त्रों की संप्रभुता का अंत होना चाहिए। हमारे पास यह आजादी इसलिए है ताकि हम उन चीजों को सुधार सकें, जो सामाजिक व्यवस्था, असमानता, भेदभाव और अन्य चीजों से भरी है जो हमारे मौलिक अधिकारों के विरोधी हैं। एक सफल क्रांति के लिए केवल असंतोष का होना ही काफी नहीं है अपितु इसके लिए न्याय, राजनीतिक और सामाजिक अधिकारों में गहरी आस्था का होना भी बहुत आवश्यक है। राजनीतिक अत्याचार सामाजिक अत्याचार की तुलना में कुछ भी नहीं है और जो सुधारक समाज की अवज्ञा करता है, वह सरकार की अवज्ञा करने वाले राजनीतिज्ञ से ज्यादा साहसी हैं। जब तक आप सामाजिक स्वतंत्रता हासिल नहीं कर लेते तब तक आपको कानून चाहे जो भी स्वतंत्रता देता है वह आपके किसी काम की नहीं। यदि हम एक संयुक्त एकीकृत आधुनिक भारत चाहते हैं तो सभी धर्म-शास्त्रों की संप्रभुता का अंत होना चाहिए।

भीमराव आम्बेडकर ने दलित समाज के सामाजिक एवं आर्थिक उत्थान के लिए अनेक महत्वपूर्ण कार्य किए। उनका कहना था कि आप स्वयं को अस्पृस्य न मानें, अपना घर साफ रखें। पुराने और घिनौने रीति-रिवाजों को छोड़ देना चाहिए। हमारे पास यह आजादी इसलिए है ताकि हम उन चीजों को सुधार सकें जो सामाजिक व्यवस्था, असमानता, भेद-भाव और अन्य चीजों से भरी हैं जो हमारे मौलिक अधिकारों की विरोधी हैं। राष्ट्रवाद तभी औचित्य ग्रहण कर सकता है, जब लोगों के बीच जाति, नस्ल या रंग का अंतर भुलाकर उसमें सामाजिक भ्रातृत्व को सर्वोच्च स्थान दिया जाए। 

वह कहते थे कि आदि से अंत तक हम सिर्फ एक भारतीय है। हम जो स्वतंत्रता मिली हैं उसके लिए क्या कर रहे हैं? यह स्वतंत्रता हमें अपनी सामाजिक व्यवस्था को सुधारने के लिए मिली हैं। जो असमानता, भेदभाव और अन्य चीजों से भरी हुई है, जो हमारे मौलिक अधिकारों के साथ संघर्ष करती है। स्वेतंत्रता का अर्थ साहस है, और साहस एक पार्टी में व्याक्तियों के संयोजन से पैदा होता है। वह यह भी कहते थे कि देश के विकास के लिए नौजवानों को आगे आना चाहिए। पानी की बूद जब सागर में मिलती है तो अपनी पहचान खो देती है। इसके विपरीत व्यक्ति समाज में रहता है पर अपनी पहचान नहीं  खोता। इंसान का  वन  स्वतंत्र है। वह सिर्फ समाज के विकास के लिए  पैदा  नहीं हुआ, अपितु स्वयं के विकास के  लिए भी पैदा हुआ है। 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मानना है कि हम लोगों को समझना चाहिए कि लौकिक दृष्टि से समाज को समर्थ, सुप्रतिष्ठित, सद्धर्माघिष्ठित बनाने में तभी सफल हो सकेंगे, जब उस प्राचीन परंपरा को हम लोग युगानुकूल बना, फिर से पुनरुज्जीवित कर पाएंगे। युगानुकूल कहने का यह कारण है कि प्रत्येक युग में वह परंपरा उचित रूप धारण करके खड़ी हुर्इ है। कभी केवल गिरि-कंदराओं में, अरण्यों में रहने वाले तपस्वी हुए तो कभी योगी निकले, कभी यज्ञ-यागादि द्वारा और कभी भगवद्-भजन करने वाले भक्तों और संतों द्वारा यह परंपरा अपने यहां चली है।

Thursday, December 4, 2025

भारतीय संत परंपरा : धर्मदीप से राष्ट्रदीप

 

अभी हाल ही में लखनऊ विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष डॉ. सौरभ मालवीय जी का भोपाल आगमन हुआ। इस अवसर पर मुलाकात में उन्होंने अपनी दो नवीन पुस्तकें भेंट की। 
1. भारतीय राजनीति के महानायक 'नरेंद्र मोदी' 
2. भारतीय संत परंपरा : धर्मदीप से राष्ट्रदीप
लोकेन्द्र सिंह 

पुस्तक भारतीय राजनीति के महानायक नरेंद्र मोदी


अभी हाल ही में लखनऊ विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष डॉ. सौरभ मालवीय जी का भोपाल आगमन हुआ। इस अवसर पर मुलाकात में उन्होंने अपनी दो नवीन पुस्तकें भेंट की। 
1. भारतीय राजनीति के महानायक 'नरेंद्र मोदी' 
2. भारतीय संत परंपरा : धर्मदीप से राष्ट्रदीप
लोकेन्द्र सिंह 

Monday, December 1, 2025

समेकित रिपोर्ट










शोध विषय की अखिल भारतीय बैठक 
दिनांक : 29  नवम्बर से 30 नवम्बर 2025
तिथि : मार्गशीर्ष शुक्ल की नवमी से मार्गशीर्ष की दशमी तक
स्थान : भारतीय शिक्षा शोध संस्थान, सरस्वती कुंज, निराला नगर, लखनऊ
(विद्या भारती में शोध की अनिवार्यता, गुणवत्ता-उन्नयन और संगठनात्मक समन्वय पर केंद्रित)

प्रस्तावना 
विद्या भारती द्वारा आयोजित यह दो दिवसीय “शोध विषय की अखिल भारतीय बैठक” भारतीय शिक्षा शोध संस्थान, लखनऊ में अत्यंत प्रेरक, सार्थक और उद्देश्यपूर्ण वातावरण में सम्पन्न हुई। इस बैठक का मुख्य उद्देश्य था—विद्या भारती के विशाल शैक्षिक तंत्र में शोध को एक संगठित, प्रमाण-आधारित और भविष्यदर्शी आधार प्रदान करना, ताकि भारतीय शिक्षा की मूलभूत दृष्टि, उसके मूल्य और सिद्धांत दृढ़ता के साथ स्थापित हो सकें, तथा वर्तमान शैक्षिक चुनौतियों को शोध के माध्यम से समग्रता में समझकर उनके प्रभावी समाधान भी विकसित किए जा सकें।   
                                                                                                                     प्रथम दिन 
उद्घाटन सत्र 
प्रथम दिन का प्रारंभ सरस्वती वंदना और दीप-प्रज्वलन से हुआ। उद्घाटन सत्र में अखिल भारतीय संगठन मंत्री, विद्या भारती—आदरणीय गोविंदजी महंत; अखिल भारतीय शोध प्रमुख—आदरणीया नंदिनी दीदी;  क्षेत्रीय संगठन मंत्री आदरणीय हेमचंद्र जी की विशेष उपस्थिति रही साथ ही क्षेत्रीय मंत्री—पूर्वी उत्तर प्रदेश प्रो. सौरभ मालवीय जी भी रहे। 

सत्र ने शोध-केंद्रित इस बैठक की औपचारिक शुरुआत को गरिमा और गंभीरता प्रदान की।
इसके बाद प्रो. सौरभ मालवीय जी ने बैठक की प्रस्तावना प्रस्तुत की। उन्होंने शोध की दिशा, उसकी आवश्यकता और विद्या भारती की शैक्षिक दृष्टि में उसकी भूमिका पर प्रकाश डाला। तत्पश्चात देश के 11 क्षेत्रों से आए *42* प्रतिभागियों का परिचय कराया गया, जो इस बैठक के अखिल भारतीय स्वरूप को स्पष्ट रूप से रेखांकित करता है।

उद्घाटन संबोधन: अखिल भारतीय संगठन मंत्री, विद्या भारती आदरणीय गोविंदजी महंत
आदरणीय गोविंदजी महंत ने शोध की वर्तमान स्थिति, उसकी संगठनात्मक भूमिका और आने वाले वर्षों की दिशा पर गहन विचार व्यक्त किए। उन्होंने भावपूर्वक उल्लेख किया कि भोपाल में माननीय सुरेश सोनी जी के मार्गदर्शन में ‘शोध, विद्वत परिषद, मानक परिषद और प्रशिक्षण’—इन चारों के संयुक्त स्वरूप, परस्पर संवाद और समन्वय पर विस्तृत मनन-विमर्श सम्पन्न हुआ था। तथापि, शोध-विषयों पर केंद्रित इस प्रकार की अखिल भारतीय बैठक पहली बार सुव्यवस्थित रूप से आयोजित हो रही है, जो संगठन की शोध-दृष्टि को एक नई दिशा प्रदान करती है। उन्होंने यह भी बताया कि विद्या भारती ने शोध के लिए ‘भारतीय शोध संस्थान’ के रूप में एक स्वतंत्र और समर्पित विभाग की स्थापना की है, जो विविध विषयों पर पूरे वर्ष सतत् कार्य करता है और संगठन के शोध-चिंतन को निरंतर ऊर्जा प्रदान करता है। अब आवश्यकता इस बात की है कि प्रत्येक प्रांत अपने-अपने संदर्भों में शोध की दिशा तय करे, शोध के विषय पहचाने और इस प्रक्रिया को सतत प्रवाह में लाए। शोध निरंतरता का विषय है; उसके अभाव में नवाचार रुक जाता है। उन्होंने कहा—“There is stagnation without innovation”, और शोध के माध्यम से ही नवाचार को सतत बनाया जा सकता है।
प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के राममंदिर ध्वजारोहण के उद्बोधन का संदर्भ देते हुए कहा कि पिछले लगभग दो सौ वर्षों से चली आ रही 1835 की मैकॉले-प्रेरित शैक्षिक दृष्टि से हमें आने वाले दस वर्षों में बाहर निकलने के लिए हमें एक प्रमाण-आधारित, तर्कसंगत और शोध-समर्थित दृष्टि का निर्माण करना होगा। उन्होंने बताया कि किस प्रकार वामपंथी शिक्षण–समूहों ने वर्षों तक “भारत” शब्द को NCERT की पुस्तकों में ‘भारत’ शब्द को स्वीकार करने से भी हठपूर्वक विमुख बने रहे, और यही समूह शिक्षा-नीतियों को दशकों तक दिशा देते रहे। आज भी अनेक नीति-निर्धारण संस्थाओं—UGC, NCTE, AICTE इत्यादि में इसी सोच का प्रभाव दिखाई देता है। ऐसे में “मानस परिवर्तन” की आवश्यकता कहीं अधिक गहरी हो जाती है, विशेषकर तब जब हम विकसित और आत्मनिर्भर भारत की दिशा में बढ़ रहे हैं। उन्होंने कहा कि सरकार बदल चुकी है, परंतु शिक्षा और शोध में वास्तविक परिवर्तन तभी होगा जब हम स्वयं बदलने का संकल्प लें—और भारतीय ज्ञान-परंपरा आधारित शिक्षा को प्रमाणिक, प्रभावी और विश्व-स्तर पर प्रस्तुत कर सकें। शोध के माध्यम से हमें एक ऐसा “Evidence-based Bhartiya Education Model” स्थापित करना होगा जिसे विद्या भारती विश्व के समक्ष उदाहरण के रूप में रख सके।

इसी क्रम में आदरणीय संगठन मंत्री ने विद्या भारती के ‘ओडिशा मॉडल’ का विशेष उल्लेख किया—जहाँ विभिन्न विश्वविद्यालयों के सहयोग से अब तक 16 शोध-पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और अनेक वर्षों से शोध-संगोष्ठियों तथा सेमिनारों का क्रम निरंतर जारी है। यह निरंतरता और परिपक्वता, शोध के प्रति संगठन की गंभीरता का अत्यंत प्रेरक उदाहरण है। उन्होंने कहा कि इसी भावना को देशभर में व्यवस्थित रूप से स्थापित करने की आवश्यकता है, ताकि प्रत्येक प्रांत में शोध-विद्वानों को एक समन्वित, समर्थ और सशक्त मंच उपलब्ध हो सके।

उन्होंने यह भी रेखांकित किया कि विभिन्न क्षेत्रों में ‘Pro-India Narratives’ तैयार किए जाएँ, जो ‘Anti-India Narratives’—विशेषकर वे जो वैचारिक भ्रम फैलाते हैं—को शोध-आधारित तर्कों और सत्य-सिद्ध प्रमाणों के साथ चुनौती दे सकें। उदाहरण स्वरूप उन्होंने बताया कि किस प्रकार कुछ शैक्षणिक संस्थानों के माध्यम से नक्सल समर्थक विचार युवाओं में भ्रम और दिशा–भ्रष्टता पैदा करते हैं; ऐसे प्रवृत्तियों का वैज्ञानिक प्रतिवाद केवल शोध के माध्यम से ही संभव है।

इसके साथ ही उन्होंने विद्या भारती की ‘शिशुवाटिका’ —जो भारतीय मनोविज्ञान और दर्शन पर आधारित पंचपदी शिक्षण-पद्धति से संचालित होती है—का उल्लेख करते हुए कहा कि इस भारतीय शिक्षण मॉडल को वैश्विक स्तर पर प्रमाणित और प्रतिष्ठित करना आज का समय-सापेक्ष दायित्व है। उन्होंने कहा कि समाज ने व्यापक रूप से स्वीकार कर लिया है कि भारतीय शिक्षा की आत्मा भारतीय ज्ञान-परंपरा में ही निहित है; अब आवश्यक यह है कि शोध की शक्ति से इसे सुदृढ़, संगठित और विधिवत स्थापित किया जाए।
सत्र के अंत में अखिल भारतीय संगठन मंत्री ने पुनः यह स्पष्ट किया कि—‘सही और गुणवत्ता-पूर्ण शिक्षा आज विश्व की आवश्यकता है, परंतु उसके बारे में विचार करेगा भारत ही।’ यही कारण है कि शोध के माध्यम से एक ऐसी सशक्त, प्रमाण-आधारित और गुणवत्ता-संपन्न शैक्षिक व्यवस्था विकसित करनी होगी, जो न केवल विद्या भारती के विद्यालयों में, बल्कि भारत के समस्त शैक्षणिक संस्थानों में और आगे चलकर विश्व के समक्ष भी एक आदर्श रूप में प्रस्तुत हो सके।

अखिल भारतीय शोध प्रमुख, विद्या भारती आदरणीया नंदिनी दीदी का संबोधन 
आदरणीया नंदिनी दीदी ने अपने वक्तव्य में शोध की वास्तविक भूमिका, उसके स्वरूप और आवश्यकता पर अत्यंत मार्गदर्शक विचार प्रस्तुत किए। उन्होंने कहा कि शोध का वास्तविक स्वरूप “बैठक” से अधिक “कार्यशाला” में जीवंत होता है, क्योंकि शोध bottom-up feedback और two-way communication से ही आगे बढ़ता है। उन्होंने स्पष्ट किया कि शोध-विषय का चयन पहले कोर कमेटी करती है, तत्पश्चात उसका आयोजन और संचालित प्रक्रिया आगे बढ़ाई जाती है।

उन्होंने शिक्षण प्रक्रिया के तीन प्रमुख आयाम बताए—शैक्षणिक वातावरण, स्मार्ट विद्यार्थी और सशक्त शिक्षक (empowered teachers)। उनके मतानुसार, केवल ज्ञान प्रदान करना पर्याप्त नहीं; सर्वप्रथम शिक्षक का सशक्त होना अनिवार्य है, क्योंकि भारतीय गुरु-शिष्य परंपरा इसी सिद्धांत पर आधारित है। इसी क्रम में यह स्पष्ट किया गया कि transactional teachers को transformational teachers में रूपांतरित करना समय की आवश्यकता है। महर्षि व्यास जैसे गुरु-स्वरूप व्यक्तित्व ही भारतीय शिक्षा की वास्तविक प्रेरणा हैं। एक empowered शिक्षक ही “anti-India narratives” को तार्किक तथा प्रमाणिक शोध के माध्यम से प्रभावी ढंग से चुनौती देकर समाप्त कर सकता है—चाहे वे जाति-आधारित विमर्श हों या उत्तर–दक्षिण विभाजन के कृत्रिम नैरेटिव। उन्होंने यह भी रेखांकित किया कि किसी गलत नैरेटिव को सीधे स्वीकार या अस्वीकार करने के बजाय, उसके स्थान पर एक तार्किक, प्रमाणित और भारतीय दृष्टि वाला नया नैरेटिव स्थापित करना अधिक उपयोगी है। उन्होंने ‘kill the narrative’ के सिद्धांत की व्याख्या की और कहा कि हमें नकारात्मक एवं विभाजनकारी विचारों को प्रोत्साहन नहीं देना चाहिए; बल्कि “Pro-Bharat Narrative” को ही आगे बढ़ाना चाहिए। साथ ही उन्होंने शोध-प्रकाशन की आवश्यकता, ओडिशा मॉडल की निरंतरता, शोधनिष्ठ प्रयोगशीलता और शैक्षणिक ईमानदारी पर आधारित पद्धतियों को विस्तार से रेखांकित किया।

प्रो. सौरभ मालवीय का शिक्षकों के कल्याण पर संबोधन 
प्रथम सत्र का समापन पूर्वी उत्तर प्रदेश के क्षेत्रीय मंत्री प्रो. सौरभ मालवीय के गहन और प्रेरक उद्बोधन से हुआ। उनके संबोधन ने शोध के संदर्भ में, भारतीय ज्ञान-परंपरा के आलोक में, Teachers’ Well-being के विषय को स्पष्ट, आत्मीय और चिंतनशील रूप में उभारा। उन्होंने कहा कि शिक्षक के व्यक्तित्व-विकास की अवधारणा भारतीय समाज के लिए कोई नयी खोज नहीं है; यह हमारे सांस्कृतिक जीवन और गुरु-शिष्य परंपरा का स्वाभाविक, जीवित और सतत प्रवाहित होने वाला अवयव है। भारत की ज्ञान-परंपरा में सदैव यह मान्यता रही है कि शिक्षक यदि सर्वांगीण रूप से विकसित हो, तो उसका प्रभाव केवल पाठ्य-पुस्तकों तक सीमित नहीं रहता, बल्कि विद्यार्थियों के चरित्र, दृष्टि और जीवन-मूल्यों को भी एक नई दिशा देता है।

प्रो. मालवीय ने विस्तार से समझाया कि शिक्षक का विकास केवल शैक्षणिक प्रगति तक सीमित नहीं होना चाहिए, बल्कि सांस्कृतिक, सामाजिक, तकनीकी और मानसिक—इन सभी आयामों में संतुलित रूप से आगे बढ़ना चाहिए। इसी क्रम में उन्होंने आत्मचिंतन और आत्ममूल्यांकन की आवश्यकता को शिक्षक-जीवन की मूल कसौटी बताया। उनके अनुसार, एक शिक्षक को प्रतिदिन यह देखना चाहिए कि उसकी दिनचर्या, उसकी भाषा और उसका व्यवहार विद्यार्थियों के मन पर कैसा प्रभाव छोड़ रहे हैं, क्योंकि शिक्षक का आचरण ही विद्यार्थियों के लिए प्रथम पाठशाला बन जाता है।

संवाद-कौशल पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि संवाद केवल शब्दों का विनिमय नहीं, बल्कि वह सेतु है जो ज्ञान को हृदय तक पहुँचाता है। इसलिए विद्या भारती जैसे संस्कार-निष्ठ संगठन में संवाद का शुद्ध, विनम्र, प्रेरक और संस्कारित होना अत्यंत आवश्यक है। इसके साथ ही शिक्षक के समग्र स्वास्थ्य (holistic well-being) को भी उन्होंने अत्यंत महत्त्वपूर्ण बताया। उनके अनुसार, शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक संतुलन ही शिक्षक की प्रभावशीलता का आधार है। एक संतुलित, स्वस्थ और प्रसन्नचित्त शिक्षक ही विद्यार्थियों के भीतर ऊर्जा, आत्मविश्वास और सकारात्मकता का संचार कर सकता है। सतत् व्यावसायिक विकास (Continuous Professional Development) के संदर्भ में प्रो. मालवीय ने कहा कि बदलती शिक्षण-पद्धतियों, नई तकनीकों और समाज की बदलती अपेक्षाओं के अनुरूप स्वयं को अद्यतन रखना एक शिक्षक का नैसर्गिक कर्तव्य है। तकनीक और आधुनिक साधन शिक्षक के सहयोगी हैं; परंतु इन सबके केंद्र में भारतीय चिंतन, भारतीय मूल्य और भारतीय ethos रहने चाहिएँ।

मूल्य-विकास और चरित्र-निर्माण की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि विद्यार्थी वही सीखते हैं जो वे अपने शिक्षक में देखते हैं। इसलिए शिक्षक में नैतिकता, सांस्कृतिक चेतना, अनुशासन और नेतृत्व-कौशल का होना अनिवार्य है। प्रो. मालवीय ने बताया कि विद्यालय की विविध गतिविधियों के माध्यम से शिक्षक विद्यार्थियों में नेतृत्व, जिम्मेदारी और सामाजिक संवेदनशीलता—इन तीनों गुणों का विकास कर सकता है। रचनात्मकता और नवाचार पर बल देते हुए उनका कहना था कि शिक्षण में नयापन ही विद्यार्थियों की जिज्ञासा को जीवित रखता है और अध्ययन को अर्थपूर्ण बनाता है।
अंत में प्रो. मालवीय ने कहा कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की भावना, भारतीयता के मूल तत्त्वों की प्रतिष्ठा और चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया तभी सफल होती है, जब शिक्षक का आचरण संतुलित, समर्पित और विवेकपूर्ण हो। शिक्षक जितना बहुआयामी, नैतिक और प्रेरक होगा, उतनी ही उज्ज्वल दिशा वह विद्यार्थियों, विद्यालय और समूचे समाज को दे सकेगा।

द्वितीय सत्र
द्वितीय सत्र का संचालन आदरणीय शेषधर जी ने किया, जबकि सत्र की अध्यक्षता भारतीय शोध संस्थान, लखनऊ के निदेशक डॉ. सुबोध जी ने संभाली। डॉ. सुबोध जी ने अपने वक्तव्य में विस्तारपूर्वक बताया कि शोध संस्थान किस प्रकार विद्या भारती को शैक्षणिक एवं शोध-संबंधी क्षेत्रों में सहयोग प्रदान कर सकता है। उन्होंने संस्थान में चल रहे विविध शोध-उद्यमों—जैसे शोध-प्रकल्प, सम्मेलन एवं संगोष्ठियाँ, प्रकाशन-कार्य, समृद्ध शोध-ग्रंथालय, मनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला तथा कंप्यूटर लैब—का विस्तृत परिचय कराया और इनके उपयोग की संभावनाओं पर प्रकाश डाला।

सत्र के अगले चरण में विभिन्न प्रांतों और क्षेत्रों से आए प्रतिभागियों ने अपने-अपने प्रांत/क्षेत्र में संचालित शोध-संबंधी गतिविधियों, संगठनात्मक संरचना, चल रहे कार्यों की प्रगति तथा प्रशिक्षण-कार्यों के बारे में संक्षिप्त परंतु प्रभावी प्रस्तुतियाँ दीं। इन प्रस्तुतियों से देशभर में विद्या भारती द्वारा किए जा रहे शोध-कार्य की वर्तमान स्थिति, उसकी दिशा, उपलब्धियाँ और संभावनाएँ स्पष्ट रूप से सामने आईं।

समूह गतिविधियाँ (Group Activities) 
चाय-विराम के पश्चात आदरणीय संगठन मंत्री श्री गोविंदजी महंत तथा अखिल भारतीय शोध प्रमुख नंदिनी दीदी के मार्गदर्शन में समूह गतिविधियाँ सम्पन्न हुईं। 42 प्रतिभागियों को पाँच समूहों में विभाजित किया गया। प्रत्येक समूह को चार शोध-विषय दिए गए—School Management, Action Research Areas in Schools, Student Well-being और Teacher Well-being। प्रत्येक समूह ने इन चारों विषयों के दो-दो उद्देश्य तैयार किए और प्रस्तुत किए।
उत्साहपूर्ण सहभागिता के साथ यह गतिविधि अत्यंत सफल रही। अगले दिन प्रत्येक समूह को इन्हीं उद्देश्यों पर आधारित एक questionnaire और एक research schedule तैयार करने का कार्य सौंपा गया।

द्वितीय दिन 
दूसरे दिन का आरंभ वंदना सत्र से हुआ। इसके बाद प्रो. सौरभ मालवीय जी ने उद्घाटन उद्बोधन में प्रथम दिन की गतिविधियों का संक्षिप्त उल्लेख किया। तत्पश्चात डॉ. शिवानी कटारा ने इस दो दिवसीय कार्यशाला की संक्षिप्त सार-रूप रिपोर्ट प्रस्तुत की। मंच संचालन राजीव रंजन जी ने किया, जबकि सत्र की अध्यक्षता भारतीय शोध संस्थान के अध्यक्ष डॉ. सुरेन्द्र द्विवेदी जी ने की।
प्रथम दिन निर्धारित पाँचों समूहों ने अपने शोध schedules और questionnaires PowerPoint प्रस्तुतियों के माध्यम से प्रदर्शित किए। प्रस्तुतियाँ सुव्यवस्थित, तार्किक और उत्कृष्ट रहीं।

आदरणीय नंदिनी दीदी का मार्गदर्शन
इसके बाद नंदिनी दीदी ने प्रतिभागियों का मार्गदर्शन किया। उन्होंने प्रश्न निर्माण, शोध-शीर्षक चयन और शोध-पद्धति के विविध पक्षों पर अत्यंत महत्वपूर्ण सुझाव दिए, जिन्हें प्रतिभागियों ने गंभीरता से नोट किया।

प्रो. सुरेन्द्र द्विवेदी जी का प्रेरक संबोधन
सत्र के समापन पर प्रो. सुरेन्द्र द्विवेदी जी ने शिक्षा, शिक्षक तथा चरित्र-निर्माण की भारतीय दृष्टि पर विचार प्रस्तुत किए। उन्होंने कहा कि शिक्षक केवल ज्ञान का संरक्षक नहीं, बल्कि निरंतर सीखने वाला जीवन-यात्री होता है। उनका आचरण, उनकी विनम्रता, उनका अनुशासन और उनका जीवन-व्यवहार ही विद्यार्थियों के लिए वास्तविक शिक्षा बन जाता है। भारतीय परंपरा में शिक्षा का उद्देश्य केवल जानकारी देना नहीं, बल्कि चरित्र, विवेक और दृष्टि का विकास करना है—जो मनुष्य को ‘कर्मशील’, ‘संवेदनशील’ और ‘दूरदर्शी’ बनाती है।
उन्होंने शिक्षक की भूमिका को समझाते हुए बताया कि एक सच्चा शिक्षक अपने व्यक्तित्व में ethos (चरित्र व नैतिकता), pathos (संवेदना व करुणा) और logos (तर्क व प्रामाणिकता) — इन तीनों का संतुलन धारण करता है; यही संतुलन उसे विद्यार्थियों के लिए आदर्श रूप बनाता है। और अंत में उन्होंने कहा—“डिग्री प्राप्त कर लेना शिक्षा नहीं है; धर्मपूर्ण आचरण ही एक सचमुच शिक्षित व्यक्ति की पहचान है।”

शोध-प्रकाशन एवं सम्मेलन-आयोजन पर केंद्रित विशेष सत्र
चाय-विराम के पश्चात 11:30 बजे पुनः सत्र प्रारंभ हुआ, जिसमें नंदिनी दीदी ने प्रतिभागियों से कहा कि शोध को शोध-पत्रों के रूप में प्रकाशित करना अनिवार्य है। उन्होंने seminar और conference के बीच का अंतर बताया और सरल तथा व्यावहारिक तरीके से सम्मेलन/सेमिनार आयोजित करने के मुख्य चरण समझाए।
इसके बाद प्रतिभागियों ने अपने अनुभव साझा किए और कार्यशाला के प्रति अत्यंत सकारात्मक प्रतिक्रियाएँ दीं।

समापन सत्र
समापन उद्बोधन में अखिल भारतीय संगठन मंत्री आदरणीय गोविंदजी महंत ने कहा कि अब  आवश्यकता है कि प्रत्येक क्षेत्र और प्रांत में गुणवत्तापूर्ण शोध को स्थापित किया जाए। उन्होंने कहा कि शोध का उद्देश्य सदैव स्पष्ट और समाजोपयोगी होना चाहिए—ऐसा शोध जो न केवल जन-जीवन के लिए हितकारी हो, बल्कि भारतीय ज्ञान-परंपरा के पुनर्स्थापन और सुदृढ़ीकरण में भी सार्थक भूमिका निभाए। माननीय सह सरकार्यवाह कृष्णगोपाल जी के शब्दों का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा—“जो विषय कोई नहीं करता, वही विषय हमें करना चाहिए।” इस वाक्य में भारतीय शोध-दृष्टि की मौलिकता और साहस, दोनों निहित हैं।
उनका मत था कि आज भारत को मूलभूत तथा मौलिक शोध की अत्यंत आवश्यकता है, ताकि भारतीय ज्ञान-परंपरा को हमारे पाठ्यक्रमों, शिक्षण-पद्धतियों और शैक्षणिक विमर्श में यथोचित स्थान मिल सके। शोध-विषयों का निर्धारण और निधिकरण निश्चित प्रक्रियाओं के अनुसार होगा, किंतु शोध की दिशा—भारतीय दृष्टि, भारतीय चिंतन और भारतीय जीवन-मूल्यों पर आधारित—होनी चाहिए।
उन्होंने स्पष्ट किया कि “सही शिक्षा पर विचार विश्व अवश्य करेगा, परंतु दिशा भारत ही देगा।” इसीलिए शोध का महत्व और भी बढ़ जाता है—क्योंकि वही शोध भारत को विश्व के समक्ष एक वैचारिक पथ-प्रदर्शक के रूप में स्थापित कर सकता है।

अंतिम समापन संबोधन; आदरणीय श्री रविन्द्र कनहरे जी 
अंतिम संबोधन में विद्या भारती के अखिल भारतीय अध्यक्ष आदरणीय श्री रविन्द्र कनहरे जी ने कहा कि शोध केवल शैक्षणिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि समाज-परिवर्तन का प्रभावी माध्यम है। उन्होंने कहा कि शोध में पूर्व-नियत निष्कर्ष या पक्षपात नहीं होने चाहिए। आज के समय में ‘Manipulative Research’ को चुनौती देने के लिए ‘मौलिक शोध’ आवश्यक है। विद्या भारती के विद्यार्थियों के लिए stress management और critical analysis जैसे विषय आज की शैक्षणिक आवश्यकताओं में अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, और इसलिए इन पर प्रत्येक स्तर पर शोध होना चाहिए। रेखांकित किया कि भारत में होने वाला शोध केवल तकनीकी या पाश्चात्य ढाँचों पर आधारित न हो, बल्कि उसकी दिशा भारतीयता की दृष्टि से निर्धारित हो—ऐसी दृष्टि जो हमारे अनुभव, हमारे सत्य और हमारी सांस्कृतिक समझ से निर्मित होती है।

श्री रविन्द्र कनहरे जी ने खेद व्यक्त किया कि मैकॉले-प्रेरित शिक्षण-पद्धति ने वर्षों तक विद्यार्थियों के मन से “Power of Innovation” और “Power of Thinking ” को लगभग निष्क्रिय कर दिया, जिसके कारण जिज्ञासा, अन्वेषण और मौलिकता—ये तीनों गुण क्षीण होते गए। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने प्रयासों से बच्चों और युवाओं में शोध-प्रवृत्ति को पुनः जाग्रत करें, ताकि वे केवल उपभोक्ता न बनें, बल्कि सृजनकर्ता, विचारक और मार्गदर्शक बन सकें।

उन्होंने बताया कि विश्वविद्यालयों में शोध-विषयों का चयन किस प्रकार वास्तविक ‘गेम चेंजर’ सिद्ध हो सकता है। उदाहरण देते हुए कहा कि यदि शोध का विषय यह हो कि संस्कार केन्द्रों ने विद्यार्थियों के व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक जीवन में किस प्रकार परिवर्तन लाया है, तो ऐसे शोध से भारतीय समाज और भारतीय शिक्षा—दोनों की गहरी समझ विकसित होगी। उनका मत था कि शोध केवल Ph.D. तक सीमित नहीं है; 11वीं और 12वीं कक्षा के विद्यार्थी भी सार्थक शोध कर सकते हैं। विद्यालय स्तर पर उनसे जुड़े विषयों—जैसे आत्मनिर्भर बनने के लिए आवश्यक कौशल, पंचपदी शिक्षण-पद्धति का प्रभाव, या वैदिक गणित का गणनात्मक क्षमता (computational skills) पर असर—पर छोटी शोध परियोजनाएँ कराई जा सकती हैं।
उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि विद्यार्थी डेटा-विश्लेषण (data analysis) स्वयं भले न कर पाएँ, परंतु raw data एकत्र करना उनके लिए सहज है। शिक्षक इन आँकड़ों का विश्लेषण करके उन्हें मानक शोध-रूप (standardised format) में संकलित कर सकते हैं जिन्हें आगे चलकर प्रकाशित भी किया जा सकता है। इससे विद्यार्थियों से जुड़े विषयों पर किए गए शोध न केवल प्रमाणिक बनेंगे, बल्कि भविष्य में शिक्षा-नीति, पाठ्यचर्या और विद्यालयी प्रक्रियाओं के लिए मार्गदर्शक सामग्री के रूप में भी उपयोगी सिद्ध होंगे।

अपने विचारों को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा कि भारत के लिए शोध कोई नया विषय नहीं; भारतीय सभ्यता में शोध का मूल “जिज्ञासा” है—उपनिषदों का प्रारंभ ही प्रश्नों, जिज्ञासा और सत्य-अन्वेषण से हुआ है। इसी भावना को पुनर्जीवित करने के लिए सामूहिक प्रयास आवश्यक हैं। उनकी अभिमत में वर्तमान शोध-प्रयास तीन महत्वपूर्ण परिणाम देंगे—पहला, विद्या भारती का शैक्षिक मॉडल प्रमाण सहित संपूर्ण समाज के सामने रखा जा सकेगा; दूसरा, विद्या भारती की त्रुटियाँ और सुधार की संभावनाएँ शोध के माध्यम से स्पष्ट होंगी; और तीसरा, भविष्य के लिए नए शोध-विषय और दिशाएँ निर्धारित की जा सकेंगी।

अंत में श्री रविन्द्र कनहरे जी ने इस तथ्य पर विशेष बल दिया कि भारतीय ज्ञान-परंपरा को देश के पाठ्यक्रमों, शिक्षण-विधियों और अकादमिक विमर्श में प्रतिष्ठित करने के लिए शोध का प्रकाशित होना अनिवार्य है। यदि किसी शोध का स्वरूप उत्कृष्ट भी हो, परंतु वह प्रतिष्ठित राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय शोध–पत्रिकाओं में प्रकाशित न हो सके, तो उसकी प्रभावशीलता सीमित रह जाती है और वह व्यापक शैक्षणिक परिदृश्य को प्रभावित नहीं कर पाता। उनके मतानुसार प्रकाशन न केवल शोध की मान्यता है, बल्कि वही माध्यम है जिसके द्वारा कोई विचार समाज तक पहुँचता है, पाठ्यपुस्तकों में स्थान प्राप्त करता है, और आने वाली पीढ़ियों के बौद्धिक विकास का आधार बनता है। इसीलिए उन्होंने अत्यंत स्पष्ट और दृढ़ शब्दों में “Publish and highlight” का संदेश दिया—क्योंकि प्रकाशन ही वह सेतु है जो ज्ञान को निजी प्रयास से निकालकर जन-ज्ञान में रूपांतरित करता है, और शोध को एक जीवंत, क्रियाशील और परिवर्तनकारी शक्ति में परिवर्तित करता है।
श्री रविन्द्र कनहरे जी का यह उद्बोधन इस बात को रेखांकित करता है कि प्रकाशन मात्र औपचारिकता नहीं, बल्कि भारतीय ज्ञान-परंपरा को पुनर्स्थापित करने, उसे प्रमाणित करने और उसे राष्ट्रीय एवं वैश्विक मंचों पर सम्मानित स्वरूप में प्रस्तुत करने का सबसे प्रभावी माध्यम है।
अंत में प्रो. सौरभ मलवीय जी ने सभी अधिकारियों, प्रतिभागियों और व्यवस्था में लगे सभी बंधुओं का धन्यवाद ज्ञापित किया और शांति मंत्र के साथ इस दो दिवसीय अखिल भारतीय शोध कार्यशाला का सफल समापन घोषित किया।

निष्कर्ष 
यह दो दिवसीय 'अखिल भारतीय शोध बैठक/कार्यशाला' विद्या भारती में शोध के संरचनात्मक, वैचारिक और व्यवहारिक आयामों को सुदृढ़ रूप से स्थापित करने वाली सिद्ध हुई। कार्यशाला में भारतीय ज्ञान-परंपरा आधारित शोध-दृष्टि, एक्शन रिसर्च, शिक्षक-कल्याण, संगठनात्मक संरचना, प्रकाशन-प्रक्रिया, सम्मेलन-आयोजन, प्रश्नावली.

Saturday, November 29, 2025

टीवी पर लाइव



“वन्दे मातरम् भारत की आत्मा है”  भारत के भाव को वन्दे मातरम् भावात्मक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय महत्व को सुंदर रूप में व्यक्त करता है।
वन्दे मातरम् को भारत के स्वाधीनता संग्राम में एक प्रेरणा-स्रोत माना गया। यह केवल एक गीत नहीं, बल्कि देशभक्ति की वह शक्ति थी जिसने लाखों लोगों में स्वतंत्रता का साहस जगाया।

शोध विषय की अखिल भारतीय बैठक









शोध विषय की अखिल भारतीय बैठक - लखनऊ 
अखिल भारतीय विद्या भारती शिक्षा संस्थान 
मा. गोविन्द जी महंत, राष्ट्रीय संगठन मंत्री 
डॉ. नंदिनी जी, राष्ट्रीय शोध प्रमुख 
श्री हेमचंद्र जी, क्षेत्रीय संगठन मंत्री 
“भारतीय ज्ञान परंपरा, आधुनिक शोध और राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के समन्वय से एक ऐसा शिक्षा मॉडल प्रस्तुत करना जो न केवल ज्ञान का संवाहक हो, बल्कि चरित्र, संस्कृति और राष्ट्र निर्माण का आधार भी बने।”
यह दृष्टि संस्थान को केवल एक शैक्षणिक केंद्र नहीं बल्कि राष्ट्रीय चेतना, सांस्कृतिक पुनर्जागरण और वैश्विक स्तर पर भारतीयता के प्रचार का माध्यम बनाती है।
2. मिशन (Mission)
• भारतीय ज्ञान प्रणालियों (Indian Knowledge Systems – IKS) का संरक्षण, शोध, और समकालीन शिक्षा में एकीकरण।
• विद्यालयी और उच्च शिक्षा में मूल्य-आधारित, योग्यता-आधारित और प्रौद्योगिकी-सक्षम शोध मॉडल विकसित करना।
• शोध को नीति निर्माण, सामाजिक विकास, और शिक्षा सुधार से सीधे जोड़ना।
• विद्या भारती के शिक्षकों, शोधार्थियों और छात्रों को आधुनिक एवं पारंपरिक शोध पद्धतियों में प्रशिक्षित करना।
• भारत की सांस्कृतिक, शैक्षिक और सामाजिक विरासत को वैश्विक स्तर पर प्रतिष्ठित करना।
3. प्रमुख उद्देश्य (Core Objectives)
1. भारतीय दर्शन, वेद, उपनिषद, आयुर्वेद, गणित, खगोल विज्ञान और लोककला जैसे विषयों पर प्रमाण-आधारित शोध।
2. राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के विभिन्न प्रावधानों के मैदान-स्तरीय प्रयोग और प्रभाव अध्ययन।
3. स्थानीय आवश्यकता एवं मूल्यों के अनुरूप पाठ्यचर्या, शिक्षण सामग्री और मूल्यांकन प्रणाली का विकास।
4. एआई, डिजिटल आर्काइविंग, और ई-लर्निंग जैसी आधुनिक शोध एवं शिक्षण तकनीकों का अपनाना।
5. शोध के निष्कर्षों को सरकारी नीतियों, सामाजिक सुधार कार्यक्रमों और विद्यालयी शिक्षा में लागू करना।
4. रिसर्च सेंटर के बुनियादी घटक
(a) दृष्टि, मिशन और उद्देश्य (Research Vision & Mission)
• दृष्टि: सेंटर का दीर्घकालिक सपना या लक्ष्य (जैसे—“टिकाऊ ऊर्जा पर अत्याधुनिक शोध करना”).
• मिशन: निकट भविष्य में कैसे काम करेगा, इसकी रूपरेखा.
• उद्देश्य: स्पष्ट और मापने योग्य लक्ष्य.
(b) संचालन एवं संगठनात्मक ढांचा
• सलाहकार परिषद: राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञ, नीति निर्माता, शिक्षाविद, उद्योग प्रतिनिधि।
• निदेशक/प्रमुख: संस्थान के प्रशासनिक और शैक्षणिक संचालन का नेतृत्व।
• शोध विभाग:
o भारतीय दर्शन एवं शिक्षा परंपरा
o आधुनिक शिक्षा एवं नीति अध्ययन
o तकनीकी एवं डिजिटल शिक्षा
o सामाजिक-सांस्कृतिक अध्ययन
• प्रशासनिक इकाई: वित्त, मानव संसाधन, कानूनी, जनसंपर्क।
• सहयोगी प्रकोष्ठ: विश्वविद्यालय, उद्योग, सरकारी और अंतरराष्ट्रीय संगठन।
(c) अवसंरचना एवं सुविधाएं
• भौतिक: शोध भवन, प्रयोगशालाएं, कॉन्फ्रेंस हॉल, डिजिटलीकरण केंद्र।
• तकनीकी: हाई-परफॉर्मेंस कंप्यूटिंग, सर्वर, क्लाउड स्टोरेज, डिजिटल लाइब्रेरी।
• सुरक्षा: लैब सेफ्टी प्रोटोकॉल, फायर सेफ्टी, डेटा सुरक्षा प्रणाली।
(d) वित्त पोषण एवं प्रबंधन
• प्रारंभिक अनुदान – सरकारी योजनाएं, CSR, संस्थागत सहयोग।
• सतत वित्त स्रोत – प्रशिक्षण कार्यक्रम, परामर्श सेवाएं, प्रकाशन, उद्योग साझेदारी।
• पारदर्शी वित्त प्रबंधन – वार्षिक बजट, ऑडिट, फंड उपयोग रिपोर्ट।
(e) शोध के क्षेत्र
• स्पष्ट थीम और डोमेन।
• अल्पकालिक व दीर्घकालिक शोध रोडमैप।
• अंतर्विषयक दृष्टिकोण।
(f) मानव संसाधन
• मुख्य शोधकर्ता: विषय विशेषज्ञ, जिनका शोध में अच्छा रिकॉर्ड हो.
• शोध सहयोगी / फेलो: पोस्ट-डॉक, पीएचडी छात्र.
• तकनीकी स्टाफ: लैब टेक्नीशियन, डेटा एनालिस्ट.
• सहायक स्टाफ: प्रशासन, संचार, आईटी सपोर्ट.
(g) ज्ञान संसाधन
• लाइब्रेरी एवं डेटाबेस: Scopus, Web of Science, JSTOR जैसी पहुंच.
• डेटा भंडार: ओपन एक्सेस और आंतरिक डेटा.
• पेटेंट/IP प्रबंधन: बौद्धिक संपदा का पंजीकरण और संरक्षण.
(h) सहयोग एवं नेटवर्किंग
• विश्वविद्यालयों के साथ MoU: शोध आदान-प्रदान.
• उद्योग साझेदारी: संयुक्त R&D, तकनीकी हस्तांतरण.
• सरकारी एजेंसियां: नीति-स्तर पर शोध और अनुदान.
(i) शोध परिणाम एवं प्रसार
• प्रकाशन: जर्नल, कॉन्फ्रेंस पेपर, पुस्तकें.
• पेटेंट और प्रोटोटाइप.
• कार्यशालाएं और सम्मेलन: ज्ञान साझा करना.
• नीति संक्षेप (Policy Briefs): सरकार को सुझाव.
(j) निगरानी, मूल्यांकन एवं प्रभाव आकलन
• वार्षिक प्रदर्शन समीक्षा.
• शोध का प्रभाव मापना (साइटेशन, पेटेंट, सामाजिक बदलाव).
• हितधारकों से फीडबैक.
(k) स्थायित्व एवं भविष्य तैयारी
• स्टाफ का नियमित कौशल उन्नयन.
• उभरती प्रौद्योगिकियों को अपनाना.
• वित्त पोषण के स्रोतों का विविधीकरण.
5. विद्या भारती के विशेष शोध क्षेत्र
भारतीय ज्ञान प्रणाली (Indian Knowledge Systems – IKS) का समावेश
• भारतीय दर्शन एवं शिक्षा परंपरा पर शोध: प्राचीन भारतीय शिक्षण पद्धतियों का दस्तावेजीकरण, संरक्षण और आधुनिक संदर्भ में उपयोग।
• पारंपरिक ज्ञान डिजिटल संग्रहालय: पांडुलिपियों, लोकज्ञान, और स्थानीय नवाचारों का डिजिटल आर्काइव।
• आधुनिक शिक्षा में प्रयोग: गुरुकुल पद्धति और आधुनिक शिक्षण विज्ञान का संयोजन।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP 2020) के साथ तालमेल
• ग्रामीण, अर्ध-शहरी और शहरी विद्यालयों में NEP के क्रियान्वयन पर मॉडल शोध।
• मूल्य-आधारित और योग्यता-आधारित मूल्यांकन के स्वदेशी फ्रेमवर्क का विकास।
• बहुभाषी शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षण के प्रभाव का आकलन।
प्रौद्योगिकी-समर्थित भारतीय संदर्भ शोध
• एआई-संचालित पांडुलिपि विश्लेषण: संस्कृत एवं प्रादेशिक ग्रंथों का डिजिटलीकरण और अनुवाद।
• एडुटेक प्रयोगशालाएं: भारतीय सांस्कृतिक संदर्भ में डिजिटल शिक्षा और गेम-आधारित लर्निंग का परीक्षण।
• वर्चुअल म्यूज़ियम एवं AR/VR: इतिहास, संस्कृति और पर्यावरण को immersive अनुभव में प्रस्तुत करना।
सामाजिक-सांस्कृतिक शोध प्रकोष्ठ
• मूल्य शिक्षा पर अध्ययन: नैतिक शिक्षा का विद्यार्थियों के व्यवहार पर प्रभाव।
• समुदाय आधारित ज्ञान प्रणालियां: कृषि, हस्तकला, और स्वास्थ्य में स्थानीय ज्ञान का अध्ययन।
• सांस्कृतिक स्थिरता: लोककला, बोलियों और विरासत को विद्यालय गतिविधियों के माध्यम से संरक्षित करना।
 प्रमाण-आधारित नीति एवं पाठ्यचर्या विकास
• पाठ्यचर्या प्रयोगशालाएं: भारतीय ethos से युक्त पाठ्यपुस्तक, शिक्षण सामग्री और कहानियों का नवाचार।
• नीति थिंक टैंक: सरकार और शैक्षिक निकायों को सुझाव देना।
• प्रभाव अध्ययन: विद्या भारती के पूर्व विद्यार्थियों के सामाजिक योगदान का दीर्घकालिक विश्लेषण।
राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय सहयोग
• AICTE, NCERT, IGNCA एवं अन्य शोध निकायों से साझेदारी।
• यूनेस्को के साथ अमूर्त सांस्कृतिक विरासत पर संयुक्त शोध।
• उद्योगों से कौशल-आधारित शिक्षा और पारंपरिक ज्ञान के व्यावसायीकरण में सहयोग।
7. क्षमता निर्माण एवं शोध प्रशिक्षण
• द्विभाषी शोध पद्धति कार्यशालाएं (अंग्रेज़ी + हिंदी/संस्कृत शब्दावली)।
• एथ्नोग्राफिक रिसर्च (लोक परंपराओं का फील्ड डॉक्यूमेंटेशन) में प्रशिक्षण।
• एआई-आधारित लेखन और डेटा विश्लेषण में शिक्षकों और शोधार्थियों को दक्ष बनाना।
8. जनसंपर्क एवं प्रसार-
• वार्षिक भारतीय शोध सम्मेलन: शोध निष्कर्ष, छात्र प्रोजेक्ट, और सामुदायिक नवाचार प्रस्तुत करना।
• ओपन नॉलेज पोर्टल: शोध कार्यों को ओपन एक्सेस में उपलब्ध कराना।
• पॉडकास्ट, डॉक्यूमेंट्री और यूट्यूब व्याख्यान हिंदी एवं स्थानीय भाषाओं में।
6. संचालन तंत्र (Operational Framework)
• वार्षिक शोध योजना – प्राथमिकता वाले विषयों और परियोजनाओं का निर्धारण।
• थीम आधारित प्रोजेक्ट – भारतीय ज्ञान प्रणाली, शिक्षा सुधार, तकनीकी नवाचार।
• क्षमता निर्माण कार्यक्रम – शोध पद्धति, डेटा विश्लेषण, अकादमिक लेखन।
• साझेदारी – AICTE, NCERT, IGNCA, UNESCO, उद्योग संगठनों के साथ संयुक्त पहल।
• वित्त पोषण – अनुदान, CSR, उद्योग सहयोग, प्रशिक्षण/प्रकाशन से आय।
7. शोध परिणामों का प्रसार-
• उच्च गुणवत्ता वाले शोध-पत्र, पुस्तकें, नीति दस्तावेज।
• भारतीय शोध सम्मेलन और संगोष्ठियां।
• ओपन एक्सेस नॉलेज पोर्टल, मल्टीमीडिया सामग्री, पॉडकास्ट, डॉक्यूमेंट्री।
8. मूल्यांकन एवं प्रभाव आकलन-
• वार्षिक प्रदर्शन मूल्यांकन और लक्ष्य समीक्षा।
• शोध के सामाजिक, शैक्षिक और नीति-स्तर के प्रभाव का मापन।
• फीडबैक आधारित सुधारात्मक योजनाएं।
9. भविष्य दृष्टि-
• जलवायु परिवर्तन, सतत विकास, और AI नैतिकता जैसे नए विषयों पर शोध।
• वैश्विक स्तर पर भारतीय ज्ञान प्रणाली के प्रमाणीकरण और प्रसार के लिए डिजिटल नेटवर्क।
• संस्थान को भारतीयता में निहित, विश्व-स्तरीय शोध और नीति केंद्र के रूप में स्थापित करना।

Thursday, November 27, 2025

भगवान पार्श्वनाथ जन्मकल्याणम् और गुफा मंदिर का लोकार्पण


उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि भारत की परम्परा ऋषियों, सन्तों, मुनियों और महापुरुषों के त्याग और बलिदान की एक महागाथा से परिपूर्ण है। युगों-युगों से विश्व मानवता इस महागाथा से प्रेरणा प्राप्त कर अपने भविष्य को तय करती रही है। हमारे ऋषि-मुनि श्रद्धा भाव से युक्त होकर विविध पवित्र उपासना पद्धतियों के माध्यम से इस व्यवस्था को आज भी आगे बढ़ा रहे हैं।

मुख्यमंत्री 27 नवम्बर 2025 को जनपद गाजियाबाद में पंचकल्याणक महामहोत्सव में भगवान पार्श्वनाथ जन्मकल्याणम् तथा गुफा मन्दिर का लोकार्पण करने के पश्चात अपने विचार व्यक्त कर रहे थे। इस अवसर पर मुख्यमंत्री जी ने जैन धर्म पर आधारित पुस्तकों का विमोचन किया। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि तीन दिन पूर्व अयोध्या में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी के कर कमलों द्वारा प्रभु श्रीराम के भव्य मंदिर के  शिखर पर धर्मध्वजा का पुनर्स्थापन कार्यक्रम सम्पन्न हुआ है। देश व दुनिया ने भारत की सनातन परम्परा के वैभव को देखा व अनुभव किया है। प्रत्येक व्यक्ति इक्ष्वाकु कुल के प्रथम राजा तथा प्रथम जैन तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का स्मरण श्रद्धा भाव के साथ करता है। यह उत्तर प्रदेश का सौभाग्य है कि यहां प्रथम जैन तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव और चार पवित्र जैन तीर्थंकर अयोध्या की धरती पर पैदा हुए। 

उन्होंने कहा कि दुनिया की आध्यात्मिक नगरी काशी में चार जैन तीर्थंकरों का अवतरण हुआ। जैन तीर्थंकर भगवान सम्भवनाथ जी का जन्म श्रावस्ती की धरती पर हुआ था। यद्यपि भगवान महावीर का जन्म वैशाली में हुआ, लेकिन उनका महापरिनिर्वाण उत्तर प्रदेश के कुशीनगर के पावागढ़ में हुआ था। प्रदेश सरकार द्वारा भगवान महावीर स्वामी के महापरिनिर्वाण स्थल फाजिल नगर का नामकरण पावानगरी के रूप में करने हेतु कार्यवाही आगे बढ़ाई जा रही है।

उन्होंने कहा कि जैन धर्म के 24 तीर्थंकरों ने समाज को नई दिशा प्रदान की। उन्होंने करुणा, मैत्री, अहिंसा तथा जियो और जीने दो की प्रेरणा विश्व मानवता को दी। केवल मनुष्य ही नहीं, बल्कि प्रत्येक जीव जन्तु को नई दिशा प्रदान की। उसकी प्रासंगिकता आज भी उसी रूप में बनी हुई है। यदि मानव सभ्यता को विकास की नित नई ऊंचाइयों तक पहुंचाना है, तो हमें अध्यात्म की शरण में जाना पड़ेगा। अध्यात्म के साथ भौतिक विकास व सांस्कृतिक उन्नयन के लिए एक सुरक्षित, सुसभ्य तथा साफ-सुथरा वातावरण आवश्यक है। भारत ने पहले से ही दुनिया को ऐसा वातावरण दिया है। भारत की ऋषि परम्परा द्वारा दिए गये विश्व मानवता के संदेश को आत्मसात कर उसका अनुसरण करने से विश्व मानवता के कल्याण का मार्ग प्रशस्त होगा।

उन्होंने ‘णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लाए सव्वसाहूणं, एसो पंच नमुक्कारो, सव्वपावप्पणासणो, मंगलाणं चसव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं’ नवकार महामंत्र का उच्चारण करते हुए कहा कि इस वर्ष अप्रैल माह में प्रधानमंत्री जी ने दिल्ली में विश्व नवकार महामंत्र दिवस पर ‘वन वर्ल्ड-वन चैन्ट’ कार्यक्रम का उद्घाटन किया था। तब उन्होंने हमें 09 संकल्प प्रदान किए थे, जिनमें पानी की बचत, एक पेड़ मां के नाम, स्वच्छता मिशन, वोकल फॉर लोकल, देश-दर्शन, नेचुरल फार्मिंग, हेल्दी लाइफस्टाइल अर्थात् योग और खेल को जीवन में सम्मिलित करना और गरीबों के कल्याण के लिए सदैव समर्पण के भाव के साथ कार्य करना शामिल हैं।

उन्होंने कहा कि जैन मुनियों की परम्परा साधन की पवित्रता को आगे बढ़ाने का कार्य कर रही है। आज यहां हमें आचार्य श्री प्रसन्न सागर जी महाराज तथा उपाध्याय मुनि श्री पीयूष सागर जी महाराज की 557 दिनों की कठोर साधना तथा 496 दिनों का निर्जल उपवास, तप, अनुशासन और आत्म संयम के अद्भुत उदाहरण से परिचित होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। यह चीजें दिखाती हैं कि यदि हम संकल्पित हों, तो ‘पिंड माही ब्रह्मांड समाया’ अर्थात् जो कुछ हमें बाहर दिखाई दे रहा है, उसका अनुभव हम अपने शरीर में कर सकेंगे।
आचार्य श्री प्रसन्न सागर जी महाराज तथा उपाध्याय मुनि श्री पीयूष सागर जी महाराज ने भी कार्यक्रम को सम्बोधित किया।

इस अवसर पर प्रवर्तक मुनि श्री महत सागर जी महाराज, निर्यापक मुनि श्री नव पद्म सागर जी महाराज, मुनि श्री अप्रत्य सागर जी महाराज, मुनि श्री परिमल सागर जी महाराज, इलेक्ट्रॉनिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री सुनील कुमार शर्मा, पिछड़ा वर्ग कल्याण एवं दिव्यांगजन सशक्तिकरण राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) नरेन्द्र कुमार कश्यप सहित अन्य गणमान्य व्यक्ति उपस्थित थे।

आम्बेडकर, समरसता और संघ

डॉ. सौरभ मालवीय   देश में सामाजिक समता एवं सामाजिक न्याय के लिए प्रमुखता से स्वर मुखर करने वालों में डॉक्टर भीमराव आम्बेडकर का नाम अग्रणीय ह...