Friday, May 26, 2017

सावरकर जयंती

स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर की जयंती है।
भारत माता के लिए असंख्य कष्ट भोगने वाले सावरकर को कोटि-कोटि प्रणाम...

Thursday, May 25, 2017

प्रसिद्ध इतिहासकार प्रो.मक्खन सिंह

सानिध्य
प्रसिद्ध इतिहासकार प्रो.मक्खन सिंह
विचार दर्शन भारतीय दृष्टि
विश्व सभ्यता और विचार-चिन्तन का इतिहास काफी पुराना है। लेकिन इस समूची पृथ्वी पर पहली बार भारत में ही मनुष्य की संवेदनाओं चिंतन प्रारंभ किया भारतीय चिंतन का आधार हमारी युगों पुरानी संस्कृति है। भारत एक देश है और सभी भारतीय जन एक है, परन्तु हमारा यह विश्वास है कि भारत के एकत्व का आधार उसकी युगों पुरानी अपनी संस्कृति में निहित है- इस बात को न्यायालयों ने उनके निर्णयों में स्वीकार किया है। सांस्कृतिक चिंतन एक आध्यात्मिक अवधारणा है और यही है भारतीय का वैशिष्ट्य। राष्ट्र का आधार हमारी संस्कृति और विरासत है। हमारे लिए ऐसे राष्ट्रवाद का कोई अर्थ नहीं जो हमे वेदों, पुराणों, रामायण, महाभारत, गौतमबुद्ध, भगवान महावीर स्वामी, शंकराचार्य, गुरूनानक, महाराणा प्रताप, शिवाजी महाराज, स्वामी दयानन्द, लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, पण्डित दीनदयाल उपाध्याय और असंख्य अन्य राष्ट्रीय अधिनायकों से अलग करता हो। यह राष्ट्रवाद ही हमारा धर्म है।

Wednesday, May 24, 2017

लड़की तो नहीं मिली, जिन्दगी का मिशन मिल गया


17 अगस्त 2006 को रोड एक्सीडेंट में सर फट गया. 60 प्रतिशत हिस्सा बाहर निकल गया. डॉक्टरों ने मृत बता दिया. शरीर को अग्नि में सुपुर्द करने की तैयारी शुरू हो गई, लेकिन नियति को कुछ और ही कराना था इसलिए आजाद पाण्डेय की सांसे किसी कोने में छुपी थी. आजाद जिन्दा थे, शरीर में कुछ हल-चल हुई. गोरखपुर सावित्री नर्सिंग होम में भगवन बनकर एक डॉक्टर आजाद को नई जिन्दगी देने में सहायक बने, परन्तु आजाद स्मरण शक्ति खो दिए थे. शरीर और दिमाग दोनों का इलाज दिल्ली और गोरखपुर में चलता रहा. धीरे-धीरे सुधार होता गया. इसी बिच एक घटना होती है दिल्ली इलाज के लिए आजाद अपने पापा के साथ आते है. ट्रेन के जनरल डिब्बे में दोनों बैठे है. खिड़की से बहार आजाद की नज़र पड़ती है. एक छोटी सी बच्ची 7-8 साल की जो ट्रेन से फेकी हुई गंदगी को खा रही थी. यह देखकर आजाद चिल्लाये,शोर मचाये और पापा से बोले इसे अपना खाना दीजिये. पापा ने डांटा, लोगो ने समझाया. मगर आजाद के जिद्द के सामने किसी की नही चली और पापा ने पूरा खाना दे दिया. बच्ची खाने लगी. ट्रेन चल पड़ी. आजाद बोलने लगे पापा को ख़ुशी हुई. मेरा बेटा ठीक हो गया.
कुछ वर्षो तक आजाद पाण्डेय अक्सर स्टेशन परिवार के किसी न किसी के साथ आते रहते थे. लड़की को तलाशते रहे, मगर वो बच्ची नही मिली. धीरे धीरे आजाद अपनी याद्दाश्त के साथ स्वस्थ हो रहे थे. उस बच्ची जैसे अनेक बच्चे स्टेशन पर रोज ही मिल जाते. आजाद उनके साथ घंटो बैठते. एक दिन भूख से रोते एक बच्चे को देखा, उनके पास भी खिलाने को कुछ नही था. तभी आजाद ने संकल्प लिया लि मेरी जिन्दगी इनके नाम और बनाया “स्माइल रोटी बैंक”
बाल भिक्षावृति के साथ-साथ अक्षम जिंदगियों की तस्वीर बदलने में, समाज की अनेक समस्याओं व समाधान,जीवन में लक्ष्यों का महत्व,नारी सशक्तिकरण,जैसे अनेक मुद्दो पर उनके बिच काम कर रहे है . आप को बहुत बहुत शुभकामनाएं

Tuesday, May 23, 2017

लोकार्पण


वर्तमान परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रीय पत्रकारिता, पुस्तिका का लोकार्पण

Sunday, May 21, 2017

आखिर राष्ट्रवाद से भय क्यों




पत्रकारिता के राष्ट्रवादी स्वरूप के इतने महत्वपूर्ण योगदान के बाद भी, दुर्भाग्यवश स्वाधीनता प्राप्ति के बाद पत्रकारिता जगत में राष्ट्रवाद की उपेक्षा होने लगी | आज स्थिति यह है कि पत्रकारिता के आधुनिक स्वरूप में राष्ट्रवाद को संकुचित विचार माना जाता है | इसलिए राष्ट्रवादी विचारों और मुद्दों पर की जाने वाली पत्रकारिता को मुख्यधरा की पत्रकारिता में शामिल नही किया जाता ,परन्तु यदि हम राष्ट्रवाद की परिभाषा और व्यख्या पर नजर डालें तो यह स्थापित सत्य दीखता है कि पत्रकारिता का राष्ट्रवाद से सीधा सम्बन्ध है सामाजिक मान्यता है कि मीडिया संस्कृति का वाहक भी है, दर्पण भी है और निर्माता भी अतएव पत्रकारिता का मौलिक कार्य समाज की विकास के प्रक्रियाओं को मजबूत करना है जिसके लिए उसे निर्भीक ,सत्यवादी और सुचितापूर्ण अनुशासन की भूमिका मे अपने को रखना है |

देश के सांस्कृतिक और ऐतिहासिक अस्मिता को जगाने के व्यापक एवं उच्चादर्श से जुड़ा है भारतीय पत्रकारिता।इसे समझने के लिए भारतीय मन का बोध होना जरुरी है, रहते भारत में है और सोचते पश्चिम की दृष्टि से ना ना अब वक्त के हिसाब से अपनी सोच बदलिए (लाल चश्मा) और भारत माता की जय घोष कीजिये। वन्दे मातरम

भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली में वर्तमान परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रीय पत्रकारिता पर मीडिया स्कैन द्वारा आयोजित सेमिनार में।

Saturday, May 20, 2017

प्रातः संविमर्श



आइआइएमसी में यज्ञ ,पूजन और ॐ शंखनाद के साथ प्रारम्भ हुआ आज प्रातः संविमर्श

Thursday, May 18, 2017

राष्ट्रीय परिसंवाद राष्ट्रवाद और मीडिया

डॉ सौरभ मालवीय
भारत में पलने-बढ़ने वाले विदेशी मानसिकता के ये लोग यज्ञ से डरते हैं. यह कटु सत्य है कि बामपंथी विचारकों का भारत की बुद्धिवाद पर और कॉंग्रेंस का देश की सत्ता पर दीघ्रकाल तक आधिपत्य या गाहे बगाहे कब्जा रहा है । इनके लिये राष्ट्र जमीन का एक टुकड़ा और उपभोग के केन्द्र के सिवाय कुछ नहीं है । यह वह वर्ग है जो रहता भारत में है खाता और जीता भी भारत में ही है देश के संसाधनों और अधिकांश प्रतिष्ठानों पर भी लम्बे समय तक यही वर्ग काबिज रहा है बावजूद इसके इनके लिये देश सत्ता उपभोग का केन्द्र या हेतु मात्र है। ये नहीं चाहते कि भारत दुनियां के सामने सिरमौर राष्ट्र के रूप में स्थापित हो ये यह भी नहीं चाहते कि भारत एक बार फिर से विश्व गुरू के रूप में अपना पुराना स्थान हासिल करें। इनके लिये दुनिया के सामने दीन-हीन हिन्दुस्तान शोषित अपमानित और निम्नतर भारत की तस्वीर प्रस्तुत करना गर्व का विषय रहा है। इन्हें सिर्फ यहां की बुराई के सिवाय कुछ भी नहीं दिखाई देता। इस खास वर्ग को गौरवहीन भारत और अपमानति हिन्दू अच्छा लगता है। राष्ट्र हिन्दुत्व व राष्ट्रवादी प्रतिष्ठानों का शक्तिशाली या प्रतिष्ठित दिखना इन्हें अच्छा नहीं लगता। परम वैभव की ओर जाता राष्ट्र इस वर्ग को पसंद नही आता है । गाय-गंगा और हिन्दू पूजा प्रतीकों के अपमान में ही इस वर्ग को सहिष्णुता और उदारवादी भारत की प्रगति दिखाई देती है। 
इन कथित बुद्धिजीवियों द्वारा मायाजाल फैलाकर यह स्थापित किये जाने की कोशिश की जा रही है आजादी के बाद पहली बार देश अघोषित व अकल्पित संकट की ओर अग्रसर है। इन्हें जम्मू कश्मीर में सेना-प्रतिकामी हिंसा भयावह हिंसा नजर आती है जबकि अलगाववादियों की हिंसा और देशद्रोही गतिविधियों में इन्हें सहानुभूति नजर आती है । जब अलगावादियों के मंसूबें से सेना थोड़ी सख्ती से निपटने का प्रयास करती है तो इन्हें अल्पसंख्यकवाद की कोरी चिंता सताने लगती है। देश पर हो रहे सांस्कृतिक हमलें में इन्हें विकास की गंध आती है। इन बुद्धिजीवियों को वैयक्तिक अधिकार की चिंता अधिक होती है, सापेक्षित तौर पर इन्हें सांस्कृतिक अवनति की कोई परवाह नहीं है । यह कभी नहीं चाहते कि भारत की आर्थिक सांस्कृति व शैक्षणिक प्रगति, भारतीय परिवेश व मनोवृत्ति के अनुकूल हो। जब कही से इसके लिये प्रयास होता है तो इन्हें देश असहिष्णु नजर आने लगता है और ये पुरस्कार वापसी सरीखी घिनौनी हरकत करने लगते है। वहीं जब राष्ट्रविरोधी शक्तियां हावी होती हैं या सिर उठाने का प्रयास करती हैं। देश में महिलाओं व राष्ट्र पर सांस्कृतिक हमलें होते हैं तो इन लोगों का पता नहीं चलता। देश में जब कोई खास आंतकवादी मारा जाता है तो उसके मातम पर इनके द्वारा मातम मनाया जाता है। जबकि हाल फिलहाल में पाकिस्तानी सेना द्वारा एक पूर्व भारतीय सैनिक को ईरान की सीमा से गिरफ्तार कर उसे जबरन भारतीय खुफियां ऐजेन्सी का एजेन्ट साबित कर प्राकृतिक न्याय की कसौटियों की धज्जियां उड़ाकर वहां की सैन्य अदालत द्वारा फांसी की सजा सुनाई गई तब न इनकी सहिष्णुता प्रभावित होती है और न ही इनके द्वारा पुरस्कार वापसी की महानता ही दिखाई जाती है।
दरअसल मामला यह है कि भारत में पलने-बढ़ने वाले ये विदेशी मानसिकता के लोग हैं जिनका राष्ट्रवाद अराजकतावाद और विदेशी घुसपेठियों के दमन पर ही जागृत होता है। वहीं जब राष्ट्र के हित में आवाज उठाने की बात आती है तो इनका पता नहीं लगता। सच्चाई तो यह है कि ये भले ही हिन्दुस्तान में रहते और जीते हैं, लेकिन इनके मन में राष्ट्र-प्रतिष्ठा के प्रति निष्ठा का घनघोर आभाव है। दुनियां के सामने यह देश ही अल्पसंख्यक विरोधी छवि स्थापित करना चाहते हैं। वहीं उत्तर भारतीयों विशेषकर उत्तरप्रदेश और बिहार के निवासियों के साथ अपने ही देश में कुछ खास राज्यों में दोहरा व्यवहार किया जाता है तो इनका राष्ट्रवाद क्षेत्रवाद का चादर लपेटकर कई कोनें में दुबक जाता है। इनके लिये अल्पसंख्यक का अर्थ मुस्लमान और ईसाई हैं। वहीं जैन, बौद्ध और देश के कुछ खास हिस्सों में जहां हिन्दू अल्पसंख्यक है उन पर होने वाला अत्याचार यह दिखाई नहीं है। इनके खिलाफ देश-विदेश कहीं भी अत्याचार हो इनके कान पर जूं तक नहीं रेंगता। इन्हें ईसाईयत व ईस्लामपोसित राष्ट्रों में होने वाला या किया जाना वाला अत्याचार बिलकुल भी दिखाई नहीं देता। यह इन पर चर्चा करना भी बेईमानी और समय की बर्बादी मानते है। इन्हें तो बस कथित हिन्दू अत्याचार व आतंकवाद ही दिखाई देता है।
देश और राष्ट्र के संबंध में सबकी अपनी अपनी धारणा और विचारधारा हो सकती है। राष्ट्रवादियों के लिये राष्ट्र जमीन का एक टुकड़ा नहीं है जहां कुछ लाख व करोड़ नागरिक निवास करते है और न ही राष्ट्रवादियों के लिये राष्ट्र व देश की परिभाषा आधुनिक और संवैधानिक राष्ट्र-राज्य तक ही सीमित है - जिसके अनुसार एक राष्ट्र या देश वह भौगोलिक ईकाई है जहां निश्चित संख्या या एक या कुछ खास विचारधारा के लोग निवास करते हैं और उनका अपना संविधान तथा सम्प्रभु सरकार होती है। राष्ट्रवादियों के लिये राष्ट्र का अभिप्राय उसके भौतिक या संवैधानिक उपस्थिति मात्र से नहीं है, वरन राष्ट्र इनके लिये जीवन्त ईकाई है जिसे वे माता और स्वयं को पुत्र मानते हैं। इनकी धारणा है कि राष्ट्र भले ही निर्जीव इकाई हो लेकिन उसकी एक जीवन्त अनुभूति होती है जो राष्ट्र और उसके नागरिकों के बीच गहरा तथा अनन्योन्याश्रित संबंध स्थापित करता है। राष्ट्रवादियों के लिये राष्ट्र जननी के सामान है जिसके बारें में कहा गया है कि जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं। इनके लिये राष्ट्र सांस्कृतिक चिंतन और जुड़ाव है जो अत्यांतिक और अपरिवर्तिनीय है। इनके लिये राष्ट्र और नागरिक का संबंध जन्म जन्मान्तर तक का है । तभी तो आजादी के संघर्ष के दौरान हमारे राष्ट्र नायक स्वाधनीता संघर्ष के दौरान शहादत के बाद फिर से ही जन्म लेने की बात कहकर शहीद हो गये और आजादी मिलने तक बारम्बार जन्म लेने की कामना के साथ शहीद हुए ।
राष्ट्रवादी पत्रकारिता को इसके निमित्त उचित माहौल बनाकर अपनी प्रासंगिता साबित करना होगा। सुखद पक्ष है कि राष्ट्रवादी पत्रकारिता और इसके पुरोधा पूरे प्रण- प्राण से इस कार्य में अपनी महान आहुतियां दे रहे हैं।

मिलते है
20 मई 2017 को राष्ट्रीय परिसंवाद राष्ट्रवाद और मीडिया
भारतीय जनसंचार संस्थान. नई दिल्ली


Wednesday, May 17, 2017

स्मृतियों के संसार से

बात 1996-97 की है मैं गोरखपुर में विद्यार्थी था संघ कार्यालय में रहता था. एक नगर सायं शाखा की जिम्मेदारी थी. वर्तमान का मुहद्दीपुर जिसे (विश्वविद्यालय नगर) संघ की योजना में कहते थे. नगर में शिशु विद्यार्थी से लेकर तरुण विद्यार्थी तक संपर्क करना शाखा एवं अनेक प्रकार के कार्यक्रमों से जोड़ने का प्रयास वास्तव में यह रोमांचपूर्ण कार्य बहुत ही आनंद आता था, उसी क्रम में क्लास ६ से १० तक के छात्रों के साथ एक दिन का वनविहार (कुसमी जंगल) करना तय हुआ. मेरे नगर प्रचारक युगल जी थे. उनके सहयोग से आयोजन सम्पन्न हुआ. उस शिविर में शिशु विद्यार्थी रणवीर सिंह भी थे. वक्त का पहिया अपने गति से चलता रहता है. लम्बे अन्तराल के बाद रणवीर से मिलकर अच्छा लगा. आप के उज्जवल भविष्य की शुभकामनाएं.
(टीवी पत्रकार है Ranveer Singh )

Tuesday, May 16, 2017

जनेऊ संस्कार



मेरा गांव पूर्वी उत्तर-प्रदेश का अंतिम गांव है निकट का क़स्बा ’लार बाजार’ की दूरी भी 5 किलोमीटर है सुदूर नदी के तट बसा गांव “पटनेजी” है. साधन सम्पन्न बहुत नहीं है, परन्तु बौद्धिक रूप से सम्पन्न है. गत 7,8 मई को एक छोटे से पारिवारिक आयोजन का अवसर था. मेरे भतीजे का जनेऊ संस्कार और श्रीन्द्र मालवीय का मुंडन. संस्कार इसी क्रम में ग्रामीण परिवेश की खूबशुरती यानि फैले हुए खेत-खलिहान में बौद्धिक मंच सजा अनेक क्षेत्रों से क्षेत्रीय स्वजनों के उपस्थिति के साथ लखनऊ से चलकर “पटनेजी” गांव पहुंचे बीजेपी के प्रवक्ता श्री Shalabh Mani Tripathi और सार्थक संवाद सम्पन्न हुआ. इस प्रकार का प्रयोग हमारे यहां आयोजनों में होता है, अब आप के आगमन की प्रतीक्षा रहेगी.
आप सभी के लिए प्रस्तुत विचार
संस्कार और संस्कृति का उद्देश्य मानव जीवन को सुन्दर बनाना है. किसी भी समाज को प्रगत और उन्नत बनाने के लिए कोई न कोई व्यवस्था देनी ही पड़ती है और संसार के किसी भी मानवीय समाज में इस विषय पर भारत से ज्यादा चिंतन नहीं हुआ है। कोई भी समाज तभी महान बनता है जब उसके अवयव श्रेष्ठ हों। उन घटकों को श्रेष्ठ बनाने के लिए यह अत्यावश्यक है कि उनमें दया, करुणा, आर्जव, मार्दव, सरलता, शील, प्रतिभा,न्याय, ज्ञान, परोपकार, सहिष्णुता, प्रीति, रचनाधर्मिता, सहकार, प्रकृति प्रेम, राष्ट्रप्रेम एवं अपने महापुरुषों आदि तत्वों के प्रति अगाध श्रद्धा हो। मनुष्य में इन्हीं सारे सद्गुणों के आधार पर जो समाज बनता है वह चिरस्थायी होता है। यह एक महत्वपूर्ण चिन्तनीय विषय हजारों साल पहले से मानव के सम्मुख था कि आखिर किस विधि से सारे उत्तम गुणों का आह्वान एक-एक व्यक्ति में किया जाए कि यह समाज राष्ट्र और विश्व महान बन सके। भारतीय ऋषियों ने इस पर गहन चिन्तन मनन किया। आयुर्वेद के वन्दनीय पुरुष आचार्य चरक कहते हैं कि-
संस्कारोहि गुणान्तरा धानमुच्चते
अर्थात् यह असर अलग है। मनुष्य के दुर्गुणों को निकाल कर उसमें सद्गुण आरोपित करने की प्रक्रिया का नाम संस्कार है। वास्तव में संस्कार मानव जीवन को परिष्कृत करने वाली एक आध्यात्मिक विधा है। संस्कारों से सम्पन्न होने वाला मानव सुसंस्कृत, चरित्रवान, सदाचारी और प्रभुपरायण हो सकता है अन्यथा कुसंस्कार जन्य चारित्रिक पतन ही मनुष्य और समाज को विनाश की ओर ले जाता है। भारतीय संस्कृति में संस्कारों का बहुत महत्व है, इसी कारण गर्भाधान से मृत्यु पर्यन्त मनुष्य पर सांस्कारिक प्रयोग चलते ही रहते हैं। इसलिए भारतीय संस्कृति सदाचार से अनुप्रमाणित रही है। प्राकृतिक पदार्थ भी जब बिना सुसंस्कृत किए प्रयोग के योग्य नहीं बन पाते हैं तो मानव के लिए संस्कार कितना आवश्यक है यह समझ लेना चाहिए। जब तक मानव बीज रूप में है तभी से उसके दोषों का अहरण नहीं कर लिया जाता तब तक वह व्यक्ति आर्षेय नहीं बन पाता है और वह मानव जीवन से राष्ट्रीय जीवन में कहीं भी हव्य कव्य देने का अधिकारी भी नहीं बन पाता। मानव जीवन को पवित्र चमत्कारपूर्ण एवं उत्कृष्ट बनाने के लिए संस्कार अत्यावश्यक है। गहरे अर्थों में संस्कार धर्म और नीति समवेत हो जाती है। इसीलिए संस्कार की ठीक-ठाक परिभाषा कर पाना सम्भव ही नहीं है। संस्कार शब्दातीत हो जाते हैं क्योंकि वहां व्यक्ति क्रिया और परिणाम में केवल परिणाम ही बच जाता है। व्यक्ति के अहंकारों का क्रिया में लोप हो जाता है। एक तरह से व्यक्ति मिट ही जाता है तो जब व्यक्ति मिट ही जाता है तो परिभाषा कौन करेगा अब वह व्यक्ति समष्टि बन जाता है। वह निज के सुख-दुख हानि लाभ जीवन मरण यश अपयश के बारे में काम चलाऊ से ज्यादा विचार ही नहीं करता। उसका तो आनन्द परहित परोपकार और समाज एवं सृष्टि को संवारने में ही निहित हो जाता है और संस्कारों की उपर्युक्त क्रिया ही चरित्र, सदाचार, शील, संयम, नियम ईश्वर प्रणिधान स्वाध्याय, तप, तितिक्षा, उपरति इत्यादि के रूप में फलित होते हैं।

अल्पसंख्यकवाद से मुक्ति पर विचार हो

  - डॉ. सौरभ मालवीय      भारत एक विशाल देश है। यहां विभिन्न समुदाय के लोग निवास करते हैं। उनकी भिन्न-भिन्न संस्कृतियां हैं , परन्तु सबकी...