Saturday, March 12, 2016

भारतीय संस्कृति और पाश्चात्य दृष्टिकोण


सौरभ मालवीय
अनादिकाल से ही भारत में वैचारिक स्वतंत्रता प्रत्येक मनुष्य को प्राप्त रही है। प्राचीनकाल से ऋषियों, मनीषियों द्वारा समग्र जीवन दांव पर लगाकर भी अप्रतिम जीवन रहस्य खोजे गये। आत्मा ओर परमात्मा के गूढ़तर समबन्ध के इस सत्य शोधकों ने कभी भी अन्तिम सत्य प्राप्त कर लेने का दावा नहीं किया। अपना अन्तिम अनुभव बताने के पश्चात् भी वे ऋषिगण 'नेति-नेति' कहकर अपने आगत पीढ़ियों को पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराते थे। ''नेति-(न+इति, यह अन्तिम नहीं है) नेति'' कहने वालों ने यह उद्धोष ही कर दिया था कि ''आत्मा दीपो भव'' (उपनिषद वाक्य) अर्थात् स्वयं का ज्ञानदीप प्रज्जवलित करो। इसी मौलिक विचार सूत्र से अनुप्राणित होकर महात्मा बुध्द ने भी कहा था कि ''किसी सत्य को इसलिए मत मान लो कि किसी बड़ी पुस्तक में लिखा है या इसलिए भी मत मान लो कि किसी अत्यन्त प्रभावशाली व्यक्ति ने कहा है अपितु उस विचार को अपनी प्रज्ञा की कसौटी पर देखा और यदि सत्य लगे तो ही स्वीकार करना। उपर्युक्त श्रुति सूत्र को ही उन्होंने पालि भाषा में ''अप्प दीपो भव'' कहा था। इस प्रकार प्रत्येक मनुष्य के आत्मविकास की अन्यतम सम्भावनाओं के खिलने का अवसर उपलब्ध कराना ही भारतीय संस्कृति की वैचारिक पध्दति रही है।

सनातनकाल से ही ऋषियों, द्रष्टाओं और योगियों द्वारा परीक्षित सत्य ''अद्वैत सिध्दांत'' ही रहा है। वेद, उपनिषद, पुराण, आगम, निगम, शास्त्र, श्रुति, स्मृति, ब्राह्मण, आरण्यक इत्यादि ग्रन्थ अद्वैत दर्शन को ही प्रतिपादित निरूपित करते रह हैं एवं तदनुरूप ही सामाजिक जीवन, संचालित भी होता रहा है। ज्ञाता, ज्ञेय में इतना लीन हो जाय कि केवल ज्ञान ही बच जाय यही अद्वैत का लक्षण था। वैसे ही द्रष्टा, दृश्य और दर्शन, कर्ता, कर्म और कृत्य तथा सेवक सेव्य और सेवा आदि अवस्थाओं में द्वैधी भाव का विलोपन ही अद्वैतवाद है।
चिरकाल से चली आ रही इस -

ब्रह्म सत्य जगन्मिथात्येयोरूपो विनिश्चयम्।
सोऽयं नित्यानित्यवस्तु विवेक: समुदाहत:॥
विवेक चूडामणि
(ब्रह्म ही अन्तिम सत्य है और यह जग मिथ्या या झूठ का भ्रम है इस प्रकार का अविनाशी और नश्वर का विवेक ही उत्तम (अद्वैत) है)

जीवन शैली में अनापश्यक कुछ कर्मकाण्डों के जुड़ जाने पर कुछ रूढियां उत्पन्न हो गयीं और जन-जीवन उन्हीं रूढियों में उलझकर मूल उद्देश्य से भटक गया था। इन्हीं रूढियों के विरोध में कुछ शरीरवादियों ने एक लोकलुभावन विचार दिया, जिसे अल्पांश में ही सही पर जन-समर्थन भी मिला। यह चार्वाक मत था।

भाषा विज्ञानियों के अनुसार चार्वाक शब्द का मूल ''चारू+वाक्'' है, जिसका अर्थ है सुन्दर वाणी। कहां भारतीय जीवन का उद्देश्य परमात्म तत्त्व की प्राप्ति था और कहां चार्वा की चिन्तन It drink and be marry तक ही सीमित था। चार्वाकियों की मूल विचारधारा ही यह थी कि

''यावज्जीवेत् सुखंजीवेत ऋणंकृत्वा घृतं पिवेत।
भस्मीभूतसय देहस्य पुनरागमनं कुत:॥
(जब तक जीना है सुख से जियो, यदि अर्थाभाव है तो कर्ज लेकर भी भोग विलास करो क्योंकि इस नाशवान शरीर का आवागमन अर्थात् पुनजर्न्य कहां है ?) विशुध्द देहवादी चिन्तन।

परन्तु विराट हिन्दू समाज ने कभी भी चार्वाकियों के विरूध्द कोई ''फतवान्न जारी नहीं किया अपितु दर्शन के विचार से चार्वाक मत को भी अध्ययन अध्यापन और शोध का विषय मान लिया गया।
चूंकि सत्य सनातन अद्वैत मत ही मूल था अतएवं सभी अद्वैत से छिटककर ही अपना वैचारिक अभियान चला रहे थे। इन्हीं अभियानों में आज के 2500 वर्षों पूर्व महात्मा बुध्द ने एक अत्यंत सबल विचार बहाया। फलस्वरूप अद्वैत मत की जड़ें हिल गयी और जन-जन शून्यवाद स्थापित हो गया। कर्मकांडों और रूढियों से त्रस्त समाज बौध्द मत की खुली हवा में श्वासोच्छ्वास लेने लगा था। परन्तु भारतीययों के अन्तर्प्रज्ञा में अनुस्यूत वैचारिक स्वातन्त्र्य, बौध्दमत को भी सामी सोच वाला (Semitic) नहीं बनने दिया। बुध्दवाद में भी धर्म, विनय, मात्तिका, अभिधम्म, निकाय (अट्ठारह प्रकार के), वैभाषिक, भैरवी चक्र, स्थविरवाद, स्वस्तिवाद, महायान (नागार्जुन का), हीनयान, सौतांत्रिक, योगाचार, माध्यमिक, वज्रयान, वज्रयानों में भी कमरीपा, पनहीपा, ओखरीपा इत्यादि अनेक भेद उत्पन्न हो गये। अपने जीवन काल के अस्सी वर्षों तक बोलते रहे। भारत के सांस्कृतिक केन्द्र काशी (वाराणसी) के लगभग 400 किमी लम्बे और 150 किमी चौड़े भू-भाग में उस समय चालीस हजार लोग बौध्द मत के परिव्राजक बन चुके थे। अनुमान है कि उस समय उस क्षेत्र (अंग, बंग लिच्छवी, वैशाली, पाटलिपुत्र, कुशीनारा, काशी, श्रावस्ती, कोशल आदि) की जनसंख्या लगभग दो लाख थी।

अनेकानेक राजे, महाराजों द्वारा पालित-पोषित बौध्द धर्म (जन धर्म) को समूल उखाड़ने के लिए प्रख्यात दार्शनिक आचार्य कुमारिल भट्ट ने बौध्दिक दिग्विजय का दिव्य अभियान चलाया। एक वार्ता के दौरान आचार्य कुमारिल भट्ट काशी नरेश की कन्या को वचन दिया था कि -

''मा रोदिर्वरारोहे भट्टाचार्योडिस्म भूतले''
(एक बार काशी नरेश की पुत्री वैदकि धर्म के उध्दार के लिए रोते हुए आचार्य श्री से अपना दु:ख कहा था इसी पर आचार्य श्री कुमारिल भट्ट ने कहा कि मत रोओ! अभी कुमारिल भट्ट इस भूतल पर है)

आचार्य श्री कुमारिल भट्ट अद्वैत स्थापना का जो अखण्डदीप प्रज्ज्वलित किया था उसी के प्रकाश में आचार्य शंकर ने बौध्द मत के जड़ में मट्ठा डाल दिया। सुदूर दक्षिण (केरल प्रान्त के कांलडी ग्राम) से चलकर उस साधनहीन विचारक ने यान्धाता क्षेत्र में पूज्य आचार्य श्री गौड़पाद से दीक्षित होकर सम्पूर्ण सांस्कृतिक भारत को मंथ डाला। आनन्दगिरि और माध्वाचार्य प्रणीत ''शंकर दिग्विजय'' के अनुसार शंकराचार्य ने अवन्तिका से  द्वार का, पुरूषपुर (पेशावर), साकला (स्यालकोट, मिनांडर की राजधानी, कपिश क्षेत्र (कुभापार हिन्दुकुश भाग) खैबर दर्रा तक, अमरनाथ, शंकराचार्य पर्वत, मार्तण्ड, बदरीनाथ, केदारनाथ, गोमुख, नन्दनवन, हरिद्वार, प्रयाग, काशी, काण्ठमण्डपम (काठमाडू), मिथिला,परशुराम कुंड, कामरूप, उत्कल, कलिंग, पुरी, कन्याकुमारी, श्री शैलभ होकर समग्र भारतमाता की प्रदक्षिणा पूर्ण की। अपने बत्तीस वर्ष की अल्पायु में भगवत्पाद शंकर ने ''शरीरक भाष्य'' (ब्रह्मसूत्र) समेत लगभग अठहत्तर पुस्तकें गद्य और पद्य में लिखी। उनके ब्रह्मसूत्र भाष्य पर आचार्य वाचस्पति मिश्र (मिथिला, बिहार) ने अद्वितीय ग्रन्थ ''भामति'' लिखा।

पूज्य शंकराचार्य ने भारत की सांस्कृतिक रक्षा हेतु देश के चारों कोनों पर चार मठ (द्वारका पश्चिममाम्नाय, बदरी उत्तरामनाथ, पुरी पूर्वान्नाय और शगेरी दक्षिणाम्राय स्थापित किये। बावन (52) मणियों की स्थापना की। दशनामी समप्रदाय बनाए। बारह छावनियों का सृजन किया। समाज में व्याप्त अनेकानेक कुरीतियों को दूर करते हुए अपने प्रचंड बौध्दिक तेज से पुन: अद्वैत मत को प्रतिष्ठित किया। उनके ही जीवन काल में भारत से बौध्दमत उखड़ गया। लुम्बिनी, गया राजगृह वैशाली, काशी (सारनाथ) और कुशीनगर में एक भी व्यक्ति (स्थानीय) बौध्द नहीं बच गया। इन सबके बावजूद शंकराचार्य ने सवयं ही महात्मा बुध्द को भगवान् विष्णु के दशावतारों में एक ''सकृपावतंश'' (नौवां अवतार) घोषित किया और कहा

''वनजौ वनजौ खर्व: त्रिरामी सकृपोडकृप:।
अवतारा: दशैवैते कृष्णस्तु भगवान्स्वयम्॥

(जल के दो अवतार मत्स्य और कूर्म (कच्छप), वन के दो अवतार नृसिंह और वाराह) शूकर वामानावतार, तीन राम, परशुराम, श्रीराम, बलराम, सकृपावतार (बुध्द) और कल्कि अवतार ये ही दशावतार है। श्रीकृष्ण भगवान तो साक्षात् श्री मन्नारायण परमात्मा है।

परन्तु किसी भी बौध्द राजा या व्यक्ति ने उनके विपरीत कोई भी अशोभनीय टिप्पणी नहीं की, अपितु जनगण के द्वारा उन्हें जगदगुरू की उपाधि से सम्मानित किया गया। बत्तीस वर्षों में ही वे भारत के पांच हजार वर्षों का सांस्कृतिक जीवन जीये। एक-एक व्यक्ति के वे पूजनीय अर्चनीय महनीय बन गये।
जगद्गुरू शंकर का भी यह अद्वितीय अभियान कोई अन्तिम बिन्दु तो था नहीं। लगभग तीन शताब्दियों पश्चात् एक अन्य दार्शनिक श्री मध्वाचार्य ने उस परम प्रतिष्ठित शंकरमत (अद्वैतवाद) का खंडन कर दिया और एक नवीन विचार द्वैतवाद की स्थापना की। आचार्य श्री मध्व के इस गहन वैचारिक तत्व द्वैतवाद का भी खंडन काशी की एक श्रेष्ठतम विभूति आचार्य श्री मधुसूदन सरस्वती ने अपनी पुस्तक ''सिध्दांत बिन्दु'' में कर दिया और पुन: अद्वैतवाद को स्थापित किया। भक्ति तत्व के प्रेमी श्री मधुसूदन सरस्वती ने ही लिखा कि -

वंशी विभूषित करान्नवनीरदाभात्
पीताम्बरादरूण बिम्बाफलाधरोष्ठात्।
पूर्णेन्दु सुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात्
कृष्णात्परम किमपि तत्वमहं न जाने॥

हिन्दू संस्कृति के एक अन्यतम उध्दारक पूज्यवर्य श्रीमद गोस्वामी श्री तुलसीदास जी के सम्मान में उनहोंने लिखा कि -

''आनन्द कानने ह्यस्मिन जगमस्तुलसी तरू:।
कविता मंजरी भांति राम भ्रमर भूषिता:॥''

ऐसे सर्वसम्मानित सिध्दांत बिन्दु के तर्कों का भी खंडन एक दार्शनिक ने अपने दिव्य ग्रंथ ''न्यायामृत'' में कर दिया और पुन: द्वैतवाद का श्रेष्ठत्व सिध्द कर दिया। खंडन, मंडन और प्रतिस्थापन की यह अद्भुत शृंखला अनवरत चलती रही एवं भारतीय जन-मानस उन सबको पूजनीय भाव प्रदान करता रहा।

लगभग पांच दशकों में ही द्वैतवाद के न्यायामृत का खंडन ''अद्वैत सिध्दि'' नामक एक अन्य पुस्तिक में कर दिया गया और अद्वैत मत स्थापित हो गया। भगवान की रचना में एक से बढ़कर एक सिध्द महारथी पड़े हुए हैं और अद्वैतसिध्दि के तर्कों का खंडन ''न्यायामृत तरगिंणी'' नामक ग्रन्थ में कर दिया गया। कुछ ही वर्षों बाद द्वेतमत के इस समीचीन तर्कों का भी खंडन ''गौड़ ब्रह्मनंदी'' ग्रन्थ में करके अद्वैत मत का विजयध्वज लहराया गया। परन्तु इस अश्वमेद्य यज्ञ का घोड़ा भी ''न्याय भास्कर'' द्वारा रोक लिया गया और द्वैतमत के इन अद्यतन तर्कों ने बौध्दिक वर्ग को चमत्कृत कर दिया। अन्तत: विचारकों की अनंत शृंखला के एक महारथी ने ''न्यायेन्दु शेखर'' में न्यायभास्कर की अजेयता भी खंडित कर दी और अद्वैतवाद को शीर्षस्थ बना दिया। इस प्रकार द्वैत और अद्वैत के इस वैचारिक अभियान में हिन्दू समाज बौध्दिक उत्कर्ष और बहुआयामी सम्भावनाओं को आत्मसात करते हुए आनंदित होता रहा।

अद्वैत की मुख्यधारा के इतर भी अनेक विचार आये। द्वैताद्वैतवाद, त्रेतावाद, विशिष्टाद्वैतवाद, एकेश्वरवाद बहुदेववाद, ज्ञानाश्रयी, कर्माश्रयी, प्रेमाश्रयी, शक्तवाद, सौर्यवाद, शैववाद, वैष्णववाद, रामाश्रयी, कृष्णाश्रयी, सखीवाद, श्री वैष्णवी, वल्लभी इत्यादी अनेक विचार स्रो प्रस्फुटित हुए और सबके सब हिन्दुत्व की महागाथा में मिलकर भारतीय समाज को पवित्र करते रहे। किसी भी मतावलम्बी ने कभी भी अपने विपरीतवादियों को वैयक्तिक स्तर पर कुछ भी क्षुद्र टिप्पणी नहीं की। यही भारत का सर्वसमावेशक चित्त रहा है।
इसके विपरीत ईसाई मत में जिसने भी स्वतंत्र बौध्दिक प्रयास किया तो उसे मृत्योन्मुखी ही कर दिया गया। स्वयं जीसस क्राइस्ट को भी क्रास में बड़ी-बड़ी कीलें ठोककर फांसी इसीलिए दी गयी कि वे योरूसलम में तत्कालीन पुजारियों और पुरोहितों तथा रूढियों का विरोध कर रहे थे। उन्हीं पुरोहितों ने राजा पाइलेट पाण्टियस से मिलकर जीसस क्राइस्ट को क्रूरतम मृत्यु दण्ड दिलवाया। उसी परम्परा में कुछ ही शताब्दि बाद ''टालोमी'' नामक अत्यंत मेधावान खगोलविद को विषपान करने का आदेश दिया गया। टालोमी की केवल यही गलती थी कि उसने कह दिया था कि सूर्य स्थिर है और पृथ्वी उसकी प्रदक्षिणा करती है, जबकि बाइबिल में लिखा है कि धरती स्थिर है और सूर्य धरती का चक्कर लगाता है। केवल टालोमी ही नहीं अपितु ईसा के लगभग डेढ़ हजार वर्षों में गैलिली गैलिलियों तक शताधिक वैज्ञानिकों और विचारकों की ऐसी जघन्यतम हत्याएं की गयी कि समग्र समाज ही जड़वत हो गया। वैचारिक प्रतिबन्धों के कारण आत्म चिंतन का कोई द्वार हीं नहीं खुल सका। ईसाई मत के मानने वाले स्वयंघोषित ये सभ्य सोलहवी शताब्दी एक तो स्त्रियों को मानव मानते ही नहीं थे। क्योंकि बाइबिल में लिखा है कि स्त्रियों की उत्पत्ति पुरूष की पसली (वक्ष की अस्थि) से हुई है वह तो केवल पुरुषों के उपभोग की वस्तु है। और तो और महिलाओं में भी विचार क्षमता है यह बात उन आत्ममुग्ध ईसाईयों ने उन्नीसवीं शताब्दी में स्वीकार की और 1911 में उन्हें मताधिकार दिया गया। लगभग दो सौ वर्षों तक (1094 से 1292 तक) उनका धर्मयुध्द (क्रूसेड) चलता रहा, जिसमें लाखों अबोध बालकों की भी क्रूरतम हत्याएं की गयी।

रही बात इस्लाम की तो उसके सपने में भी वैचारिक स्वतंत्रता का सवाल ही नहीं उठता। लगभग 1400 वर्षों पुरानी मान्यता में भी युगानुकूल सोच के लिए कोई स्थान नहीं है। मिश्र के एक उपन्यासकार और नोबेल पुरस्कार विजेता ''नकीब महफूज'' को तेइस बार सजा-ए-मौत का फतवा जारी किया गया है। इस भय से उसकी जिन्दगी मौत से भी बदतर हो गई है वे अब एक जिन्दा लाख बन गए हैं। ईरान के एक विख्यात लेखक ''रहमान हतीफी'' के हाथ की नसों को परवर दीगार अल्लाह के सिपाहे-सयाबों ने चीर दिया और पैर बांधकर सड़क पर फेंक दिया। असहय पीड़ा झेलते हुए तड़प-तड़पकर अल्लाह के प्यारे हो गए। ''मेंहदी शेकरी'' को एक कविता लिखने के कारण जारी कत्ल के फतवे में उनकी दोनों आंखों में इस्लामी रहनुमाओं ने गोली मार दी और अपने को जन्नत-ए-हूर के काबिल घोषित किया। पिछले दस वर्षों में ही केवल इरान में 60 कवियों और लेखकों के क्रूरतम ढंग से दोजख रसीद कर दिया गया। ब्रिटिश मूल के मुस्लिम लेखक ''अनवर शेख'' एक महत्वपूर्ण शोधग्रन्थ लिखने के कारण अपमान और दहशतगर्दी के साये में जिन्दगी जी रहे हैं। उनकी रचना ''इटरनिटी'' पर जारी फतवे को कब कोई इस्लाम पर दीन-ओ-इमान रखने वाला जेहादी अमल में ला दे कहा नहीं जा सकता सैटनिक वर्सेज के लेखक सलमान रूशदी की कहानी तो प्रसिध्द ही है। रूशदी के माफीनामे के बावजूद भी फरमान-ए-मौत के फतवे अभी वापस नहीं हुए हैं और कोई भी अल्लाह का बन्दा उसे तामील कर सकता है। बंग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन की लज्जा से इस्लाम इतना लज्जित हुआ कि नसरीन की आजादी ही बन्धक बन गयी है। अपनी पुस्तक ''द्विखण्डित'' में उन्होंने इस्लामी इस्लामी अलिमो, फाजिलो, हाजियो, गाजियो की करतूत का जो वर्णन किया है उसे पढ़ने पर पाठकों को ही लज्जा आती है। पाकिस्तानी लेखिका ''तहमीना दुर्रानी'' ने अपनी पुस्तक ''ब्लासफेमी'' में पाकिस्तानी जमींदारों नजूलियो और मुल्लाओं के कुकृत्य का इतना लोमहर्षक वर्णन किया है कि इस सत्य को वे पचा नहीं पाए और तहमीना सजा-ए-मौत के खौफ में निर्वासित पड़ी हुई है। एक उदारवादी कानून मंत्री ''इकबाल हैदर'' ने एक विवादास्पद कानून ''शतिम-ए-रसूल'' में आंशिक तब्दीली की राय जाहिर की परन्तु सदन ने इंकार कर दिया। लेकिन पाकी परवर दीगार के पाक बन्दों ने खुदा के रसूल में अखलाक रखते हुए फरमाने मौत सुना दिया और एक दीनी इल्हाम वाले बन्दे ने उन्हें इनाम-ए-कत्ल से उनका जनाजा सजा दिया। एक अन्य पाकिस्तानी नागरिक जो तहे दिल से इस्लाम में यकीन रखता था लेकिन उसकी तहेदिली मुल्लाओं को नागवार लगी और उसके विरूध्द फतवा निकल गया। इखवान-उल-मुसलामीन वालों ने उनके हाथ और पैर की हव्यिों के सभी जोड़ तोड़ दिये उसके बाद सरेआम पत्थरों से मारकर बेहाल कर दिया। इतने पर भी उन्हें सब्र नहीं हुआ और उन्हें मोटर साइकिल में बांधकर दो घंटे तक गुजरावाला की गलियों में घसीटा गया। कुरान और इस्लाम पर एहतराम रखने वाले हजारों लोग इस वाकये के चश्मदीद थे पर यह घटना किसी को भी नागवार नहीं लगी। अन्त में ''हहफीज सज्जाद तारीक'' की लाख को जानवरों की दावत के लिए अधजला ही खुले मैदान कर दिया गया। अभी कुछ ही दिनों पूर्व की बात है विश्वविख्यात चित्रकार वान गाग के पुत्र ''थिपो'' को धर्मान्ध जाहिलों ने गोली मार दी। वे पश्चिमी सिने जगत के सम्मानित हस्ताखर थे। इन जाहिल जालिमों की नजर में वे अपनी फिल्मों से शातिम-ए-रसूल कर रहे थे।

लगभग आधे से अधिक विश्व पर ओर पौन शताब्दी से अधिक काल तक शासन करने वाली साम्यवादी पध्दति में भी वैचारिक स्वतंत्रता का कोई अस्तित्व ही नहीं है। संसार के सबसे बड़े भवनों वाले विश्वविद्यालय मास्कों विद्यापीठ (तैंतीस तल वाले) में भी अध्ययन अध्यापन की परिसीमा साम्यवादी ही है। कोई भी विषय साम्यवादी ढांचे में ही सोचना या बोलना होता है। राजनीतिक स्तर पर भ्ज्ञी केवल एक ही विचारधारा वाला संगठन रहेगा उसके इतर सोचने वाले जार निकोलाई की गति प्राप्त करेंगे। साम्याद से अलग सोच वाले के साथ इतना क्रूरतम दर्ुव्यवहार किया गया कि सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उन्हें संसार के सर्वाधिक ठंडे साइबेरिया के बर्फानी क्षेत्र में ले जाकर उन्हीं बन्दियों से उनकी कब्रें खुदवाकर और उनको निर्वस्त्र करके गोली मारी जाती थी। उन अभागे कैदियों के वस्त्र दूसरे अभागों के काम आते थे। उनकी कब्रों को भी अगले दल के कैदी ही भरते थे। इस प्रकार यह हत्याओं का चक्रीय क्रम चलता रहा। विश्व प्रसिध्द नोबेल पुरस्कार अस्वीकार करने वालों में सर्वाधिक रूसी नागरिक रहे हें क्योंकि साम्यवादी सोच उन्हें राजकीय स्तर पर ऐसा करने को बाध्य करती थी। ट्राट्सकी और बोरिस एल। पास्टरनाक जिस शरीरिक और मानसिक त्रासदी से गुजरे वह अत्यंत शर्मसार करता है। डा. जिवागो के लेखक के साथ अन्यतम दर्ुव्यवहार हुआ एक संगठन के तानाशाही आचरण ने समग्र समाज को कुंठित कर दिया। प्रत्येक व्यक्ति दूसरे को के.जी.बी. का एजेंट लगता था। आज की बौध्दिक यप से सुधारवादी कहना साम्यवाद और एजिल का अपमान उतनी बड़ी गाली नहीं जिना सुधारवादी होना। इतना ही नहीं ग्लासनोश्त और पेरेस्त्रोइका के जनक और रूसी राजनीति के शीर्षपुरूष डॉ. मिखइल गोर्वाचोव अपनी पत्नी डॉ. रईसा समेत न्यूयार्क के विश्वविद्यालय में अध्यापन करते है। उन्हें साम्यवादी शिक्षा संस्थानों में घुटन अनुभव हो रही थी। लगभग तीन करोड़ पुस्तकों वाले संसार के सबसे बड़े ग्रन्थागार में भी प्रतिगामी लेखकों के लिए स्थान नहीं है।

ये साम्यवादी विचारों वाले बुर्जुआ भी ''बाबा वाक्य प्रमाणम्'' के अनुसार मान लिये है कि घोर दरिद्रय और अहंकारी जिद्दी चित्त वाले कार्ल मार्क्स ने जो कुछ भी कहा है वह अन्तिम सत्य है। उसमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन परिवर्ध्दन अक्षम्य अपराध है।

जर्मनी में तत्कालीन राजनीतिक और सामाजिक वातावरण के कारण कार्ल मर्ाक्स को किसी विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य नहीं मिला क्योंकि उनके पिता एक यहूदी पुजारी थे और उन दिनों जर्मनी में यहूदियों के विरोध में सारा देश उग्र हो गया था। कार्ल मार्क्स ने इसे धार्मिक मामला माना और घोषित कर दिया कि धर्म अफीम से भी ज्यादा खतरनाक बात है। बस मार्क्स के इसी धार्मिक समझ पर साम्यवाद टिका है।

अनवर शेख, सलमान रूशदी और तहमीना दुर्रानी समेत अनेक लेखकों ने तो खुली चर्चा की मांग भी की थी परन्तु इस्लाम में इस प्रकार की कोई व्यवस्था नहीं है। चौदह सदी पूर्व अत्यन्त तपिश और रेतीले वातावरण में जो बात लिख दी गयी उसके औचित्यानौचित्य पर चर्चा की इस्लाम और अल्लाह की तौहीन माना जाता है। जो बातें कुरान या बाइबिल में भौगोलिक, स्थानीय जीवन व्यवहार और तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था के बारे में भी लिखी गयी उनमें देशकाल में परिवर्तन पर भी तदनुरूप बदलाव अधार्मिक माना जाता है। उच्चतापमान वनस्पति विहीन वातावरण औश्र अल्प जलीय क्षेत्र में जो नियम मुसिलम समाज के लिये बने थे वे ही नियम इस्लामवादियों को हजारों नदियों वाले एवं सदाबहारी वनाच्छादित भारत में या अतीव शीतकारी दक्षिणी रूस में भी मानने होंगे अन्यथा यह कुफ्र होगा और वे बन्दे अल्लाह की नियमत के हकदार नहीं होंगे।

आखिर सामी सोच वाले लोग विचार-विमर्श या शास्त्रार्थ से घबराते क्यों है ? इसका मूलकारण यही है कि इन्हें अपने विचारों की सत्यता पर जरा भी ेयकीन हीं है। वे जानते है। कि शास्त्रार्थ में उन पाखंडी विचारों की चूलें हिल जाएंगी और व ताश के महल जैसे भरभरा कर बिखर जाएंगे। यदि उन्हें लगता है कि वे ठीक हैं तो उनके अध्येता अराजकता और आतंकवादी फतवों को कूड़ेदान में फेंककर लज्जा, इटरनिटी, ब्लासफेमी, सैटनिक वर्सेज, द्विखण्डित, थियो वानगाग समेत सभी विषयों पर व्यापक प्रत्युत्तर लिखे, विभिन्न संचार माध्यमों पर खुला शास्त्रार्थ करें क्योंकि आज के इस वैज्ञानिक युग में -
''अब हवाएं ही करेंगी रोशनी का फसला।
जिस दिये में जान होगी वह दिया रह जाएगा।''

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